अद्वैतवाद: Difference between revisions
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<span class="GRef">गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 881/1065</span> <p class="PrakritText">एक्को चेव महप्पा पुरिसो देवो य सव्ववावी य। सव्वंगणिगूढोवि य सचेयणो णिग्गुणो परमो ॥881॥ </p> | <span class="GRef">गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 881/1065</span> <p class="PrakritText">एक्को चेव महप्पा पुरिसो देवो य सव्ववावी य। सव्वंगणिगूढोवि य सचेयणो णिग्गुणो परमो ॥881॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= एक ही महात्मा है। सोई पुरुष है। देव है। सर्व विषै व्यापक है। सर्वांगपनै निगूढ कहिए अगम्य है। चेतनासहित है। निर्गुण है। परम उत्कृष्ट है। ऐसे एक आत्मा ही करि सबकौं मानना सो आत्मवादका अर्थ है। </p> | <p class="HindiText">= एक ही महात्मा है। सोई पुरुष है। देव है। सर्व विषै व्यापक है। सर्वांगपनै निगूढ कहिए अगम्य है। चेतनासहित है। निर्गुण है। परम उत्कृष्ट है। ऐसे एक आत्मा ही करि सबकौं मानना सो आत्मवादका अर्थ है। </p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"><span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि अध्याय /8/1/5 की टिप्पणी जगरूपसहाय कृत)</span> (और भी देखें [[ वेदांत#2 | वेदांत - 2]])।</p><br> | ||
<span class="GRef">स्याद्वादमंजरी श्लोक 13/154/8</span> <p class="SanskritText">"सर्व वै खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन। आरामं तस्य पश्यंति न तत्पश्यति कश्चन"। इति समयात्। "अयं तु प्रपंचो मिथ्यारूपः, प्रतीयमानत्वात्।" </p> | <span class="GRef">स्याद्वादमंजरी श्लोक 13/154/8</span> <p class="SanskritText">"सर्व वै खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन। आरामं तस्य पश्यंति न तत्पश्यति कश्चन"। इति समयात्। "अयं तु प्रपंचो मिथ्यारूपः, प्रतीयमानत्वात्।" </p> | ||
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<span class="GRef">न्यायकुमुदचंद्र पृष्ठ 119</span> <p class="SanskritText">प्रतिभासमानस्याशेषस्य वस्तुनो ज्ञानस्वरूपांतः प्रविष्टत्वप्रसिद्धेः संवेदनमेव पारमार्थिकं तत्त्वम्। तथाहि यदवभासते तज्ज्ञानमेव यथा सुखादि, अवभासंते च भावा इति।.....तथा यद्वेद्यते तद्धि ज्ञानादभिन्नम् यथा विज्ञानस्वरूपम्, वेद्यंते च नीलादय इत्यतोऽपि विज्ञानाद्वैतसिद्धिरिति। </p> | <span class="GRef">न्यायकुमुदचंद्र पृष्ठ 119</span> <p class="SanskritText">प्रतिभासमानस्याशेषस्य वस्तुनो ज्ञानस्वरूपांतः प्रविष्टत्वप्रसिद्धेः संवेदनमेव पारमार्थिकं तत्त्वम्। तथाहि यदवभासते तज्ज्ञानमेव यथा सुखादि, अवभासंते च भावा इति।.....तथा यद्वेद्यते तद्धि ज्ञानादभिन्नम् यथा विज्ञानस्वरूपम्, वेद्यंते च नीलादय इत्यतोऽपि विज्ञानाद्वैतसिद्धिरिति। </p> | ||
<p class="HindiText">= प्रतिभासमान अशेष ही वस्तुओं का ज्ञानस्वरूप से अंतःप्रविष्टपन प्रसिद्ध होने के कारण संवेदन ही पारमार्थिक तत्त्व है। वह इस प्रकार कि जो-जो भी अवभासित होता है वह ज्ञान ही है, जैसे सुखादि भाव ही अवभासित होते हैं।....इसी प्रकार जो-जो भी वेदन करने में आता है वह ज्ञान से अभिन्न है, जैसे विज्ञानस्वरूप नीलादिक पदार्थ वेदन किये जाते हैं। इसीलिए यहाँ भी विज्ञानाद्वैतवाद की सिद्धि होती है। </p> | <p class="HindiText">= प्रतिभासमान अशेष ही वस्तुओं का ज्ञानस्वरूप से अंतःप्रविष्टपन प्रसिद्ध होने के कारण संवेदन ही पारमार्थिक तत्त्व है। वह इस प्रकार कि जो-जो भी अवभासित होता है वह ज्ञान ही है, जैसे सुखादि भाव ही अवभासित होते हैं।....इसी प्रकार जो-जो भी वेदन करने में आता है वह ज्ञान से अभिन्न है, जैसे विज्ञानस्वरूप नीलादिक पदार्थ वेदन किये जाते हैं। इसीलिए यहाँ भी विज्ञानाद्वैतवाद की सिद्धि होती है। </p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"><span class="GRef">( युक्त्यनुशासन श्लोक 19/24)</span>।</p><br> | ||
<span class="GRef">अभिधान राजेंद्र कोश</span> <p class="SanskritText">"बाह्यार्थनिरपेक्षं ज्ञानाद्वैतमेव ये बौद्धविशेषा मन्वते ते विज्ञानवादिनः। तेषां राद्धांतो विज्ञानवादः। </p> | <span class="GRef">अभिधान राजेंद्र कोश</span> <p class="SanskritText">"बाह्यार्थनिरपेक्षं ज्ञानाद्वैतमेव ये बौद्धविशेषा मन्वते ते विज्ञानवादिनः। तेषां राद्धांतो विज्ञानवादः। </p> | ||
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Latest revision as of 14:39, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
1. पुरुषाद्वैतवाद
गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 881/1065
एक्को चेव महप्पा पुरिसो देवो य सव्ववावी य। सव्वंगणिगूढोवि य सचेयणो णिग्गुणो परमो ॥881॥
= एक ही महात्मा है। सोई पुरुष है। देव है। सर्व विषै व्यापक है। सर्वांगपनै निगूढ कहिए अगम्य है। चेतनासहित है। निर्गुण है। परम उत्कृष्ट है। ऐसे एक आत्मा ही करि सबकौं मानना सो आत्मवादका अर्थ है।
( सर्वार्थसिद्धि अध्याय /8/1/5 की टिप्पणी जगरूपसहाय कृत) (और भी देखें वेदांत - 2)।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 13/154/8
"सर्व वै खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन। आरामं तस्य पश्यंति न तत्पश्यति कश्चन"। इति समयात्। "अयं तु प्रपंचो मिथ्यारूपः, प्रतीयमानत्वात्।"
= हमारे मत में एक ब्रह्म ही सत् है। कहा भी है `यह सब ब्रह्म का ही स्वरूप है, इसमें नानारूप नहीं है, ब्रह्म के प्रपंचको सब लोग देखते हैं, परंतु ब्रह्म को कोई नहीं देखता' तथा `यह प्रपंच मिथ्या है, क्योंकि मिथ्या प्रतीत होता है।' (और भी देखें वेदांत )
अभिधान राजेंद्र कोश -
पुरुष एवैकः सकललोकस्थितिसर्गप्रलयहेतुः प्रलयोऽप्यलुप्तज्ञानातिशयशक्तिरिति। तथा चोक्तम्। ऊर्णनाभ इवांशूनां चंद्रकांत इवांभसां। प्ररोहाणामिव प्लक्षः स हेतुः सर्वजन्मिनाम् इति। तथा `पुरुषं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम्। 'ऋ. वे. 10/90। इत्यादि मन्वानां वादः पुरुषवादः।
= एक पुरुष ही संपूर्ण लोक की स्थिति, सर्ग और प्रलय का कारण है। प्रलयमें भी उसकी अतिशय ज्ञानशक्ति अलुप्त रहती है। कहा भी है-जिस प्रकार ऊर्णनाभ रश्मियों का चंद्रकांत जलका और वटबीज प्ररोह का कारण है उसी प्रकार वह पुरुष संपूर्ण प्राणियों का कारण है। जो हो चुका तथा जो होगा, उस सब का पुरुष ही हेतु है। इस प्रकार की मान्यता पुरुषवाद है।
2. विज्ञानाद्वैतवाद
न्यायकुमुदचंद्र पृष्ठ 119
प्रतिभासमानस्याशेषस्य वस्तुनो ज्ञानस्वरूपांतः प्रविष्टत्वप्रसिद्धेः संवेदनमेव पारमार्थिकं तत्त्वम्। तथाहि यदवभासते तज्ज्ञानमेव यथा सुखादि, अवभासंते च भावा इति।.....तथा यद्वेद्यते तद्धि ज्ञानादभिन्नम् यथा विज्ञानस्वरूपम्, वेद्यंते च नीलादय इत्यतोऽपि विज्ञानाद्वैतसिद्धिरिति।
= प्रतिभासमान अशेष ही वस्तुओं का ज्ञानस्वरूप से अंतःप्रविष्टपन प्रसिद्ध होने के कारण संवेदन ही पारमार्थिक तत्त्व है। वह इस प्रकार कि जो-जो भी अवभासित होता है वह ज्ञान ही है, जैसे सुखादि भाव ही अवभासित होते हैं।....इसी प्रकार जो-जो भी वेदन करने में आता है वह ज्ञान से अभिन्न है, जैसे विज्ञानस्वरूप नीलादिक पदार्थ वेदन किये जाते हैं। इसीलिए यहाँ भी विज्ञानाद्वैतवाद की सिद्धि होती है।
( युक्त्यनुशासन श्लोक 19/24)।
अभिधान राजेंद्र कोश
"बाह्यार्थनिरपेक्षं ज्ञानाद्वैतमेव ये बौद्धविशेषा मन्वते ते विज्ञानवादिनः। तेषां राद्धांतो विज्ञानवादः।
= बाहर के ज्ञेय पदार्थों से निरपेक्ष ज्ञानाद्वैत को ही जो कोई बौद्ध विशेष मानते हैं वे विज्ञानवादी हैं, उनका सिद्धांत विज्ञानवाद है।
3. शब्दाद्वैतवाद
न्यायकुमुदचंद्र पृष्ठ 139-140
यींगजमयोगजं वा प्रत्यक्षं शब्दब्रह्मोल्लेख्येवावभासते बाह्याध्यात्मिकार्थेषूत्पद्यमानस्यास्य शब्दानुविद्धत्वेनैवोत्पत्तेः, तत्संस्पर्शवैकल्ये प्रत्ययानां प्रकाशमानतया दुर्घटत्वात्। वाश्रूपतां हि शाश्वतो प्रत्यवमर्शिनी च, तदभावे तेषां नापरं रूपमव शिष्यते।
= समस्त योगज अथवा अयोगज प्रत्यक्ष शब्दब्रह्म का उल्लेख करनेवाले ही अवभासित होते हैं। क्योंकि बाह्य या आध्यात्मिक अर्थों में उत्पन्न होनेवाला यह प्रत्यक्ष शब्द से अनुविद्ध ही उत्पन्न होता है। शब्द के संस्पर्श के अभाव में ज्ञानों की प्रकाशमानता दुर्घट है, बन नहीं सकती। वाग्रूपता नित्य और प्रत्यवमर्शिनी है, उसके अभाव में ज्ञानों का कोई रूप शेष नहीं रहता।
• सभी अद्वैत दर्शन संग्रह नयाभासी हैं – देखें अनेकांत - 2.9।
4. सम्यगेकांत की अपेक्षा
न्यायदीपिका अधिकार 3/$84/128/3
एवमेव परमद्रव्यार्थिकनयाभिप्रायविषयः परमद्रव्यं सत्ता, तदपेक्षया `एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन` सद्रूपेण चेतनानामचेतनानां च भेदाभावात्। भेदे तु सद्विलक्षणत्वेन तेषामसत्वप्रसंगात्।
= इसी प्रकार परम द्रव्यार्थिक नय के अभिप्राय का विषय परम सत्ता, महा सामान्य है। उसकी अपेक्षा से `एक ही अद्वितीय ब्रह्म है यहाँ नाना अनेक कुछ भी नहीं है' इस प्रकार का प्रतिपादन किया जाता है। क्योंकि सद्रूपसे चेतन और अचेतन पदार्थों में भेद नहीं है। यदि भेद माना जाये तो सत्से भिन्न होने के कारण वे सब असत् हो जायेंगे ।
द्वैत व अद्वैत का विधि निषेध – देखें द्रव्य - 4।
•परम अद्वैत के अपर नाम - देखें मोक्षमार्ग - 2.5।
पुराणकोष से
केवल ब्रह्म को सत्य मानने वाला एकांतवादी दर्शन । महापुराण 21.253