अधोलोक: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
(Imported from text file) |
||
(4 intermediate revisions by 2 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
== सिद्धांतकोष से == | | ||
< | == सिद्धांतकोष से == | ||
2. व्याख्या - देखें [[ नरक#5 | नरक - 5]]।</ | <span class="HindiText">1. चित्र – देखें [[ लोक#2.8 | लोक - 2.8]]। <br> | ||
<span class="HindiText">2. व्याख्या - देखें [[ नरक#5 | नरक - 5]]।</span> | |||
Line 14: | Line 15: | ||
== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p class="HindiText">लोक के तीन भेदों में तीसरा भेद । यह वेत्रासन आकार में सात रज्जु प्रमाण है । चित्रा पृथिवी के अधिभाग से दूसरी पृथिवी की समाप्ति पर्यंत इस लोक का विस्तार एक रज्जु और दूसरी रज्जु के सात भागों में छ: भाग हैं । तीसरी पृथिवी का विस्तार दो रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में पांच भाग प्रमाण, चौथी पृथ्वी तीन रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में चार भाग प्रमाण, पाँचवी पृथिवी चार रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में तीन भाग प्रमाण, छठी पृथिवी पाँच रज्जु | <p class="HindiText">लोक के तीन भेदों में तीसरा भेद । यह वेत्रासन आकार में सात रज्जु प्रमाण है । <br>1.चित्रा पृथिवी के अधिभाग से दूसरी पृथिवी की समाप्ति पर्यंत इस लोक का विस्तार एक रज्जु और दूसरी रज्जु के सात भागों में छ: भाग हैं । <br>2.तीसरी पृथिवी का विस्तार दो रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में पांच भाग प्रमाण, चौथी पृथ्वी तीन रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में चार भाग प्रमाण, <br>3.पाँचवी पृथिवी चार रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में तीन भाग प्रमाण, छठी पृथिवी पाँच रज्जु है। <br>4. एक रज्जु के सात भागों में दो भाग प्रमाण तथा सातवीं पृथिवी छ: रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में एक भाग प्रमाण है । इस प्रकार अधोलोक सात रज्जु प्रमाण है।<br> | ||
मपू0 4.40-41, <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 4.7-20, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.126 </span><br> | मपू0 4.40-41, <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_4#7|हरिवंशपुराण - 4.7-20]], </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.126 </span><br> | ||
ये पृथिवियां क्रमश: रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम प्रभा और महातम प्रभा नाम से प्रसिद्ध है । धर्मा, वंसा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माधवी ये इन पृथिवियों के क्रमश: अपरनाम हैं ये पृथिवियां क्रमश: एक के नीचे एक स्थित है । प्रथम पृथिवी के तीन भाग है― खर, पंक और अब्बहुल । इन्हें खरभाग सोलह हजार, पंकभाग चौरासी हजार और अब्बहुल भाग अस्सी हजार योजन मोटा है । दूसरी पृथिवी की मोटाई बत्तीस, तीसरी पृथिवी की अट्ठाईस चौथी पृथ्वी की चौबीस, पांचवीं पृथिवी की बीस, छठी पृथिवी की सोलह और सातवीं पृथ्वी की आठ हजार योजन है । | ये पृथिवियां क्रमश: रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम प्रभा और महातम प्रभा नाम से प्रसिद्ध है । धर्मा, वंसा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माधवी ये इन पृथिवियों के क्रमश: अपरनाम हैं ये पृथिवियां क्रमश: एक के नीचे एक स्थित है । प्रथम पृथिवी के तीन भाग है― खर, पंक और अब्बहुल । इन्हें खरभाग सोलह हजार, पंकभाग चौरासी हजार और अब्बहुल भाग अस्सी हजार योजन मोटा है । दूसरी पृथिवी की मोटाई बत्तीस, तीसरी पृथिवी की अट्ठाईस चौथी पृथ्वी की चौबीस, पांचवीं पृथिवी की बीस, छठी पृथिवी की सोलह और सातवीं पृथ्वी की आठ हजार योजन है । | ||
<span class="GRef"> हरिवंशपुराण 4.43-49, 57-58 </span><br>इन भूमियों में उनचास पटल और उनमें चौरासी लाख बिल है । इन बिलों में वे जीव रहते हैं, जिन्होंने पूर्वभव में महापाप किये होते हैं और जो सप्त व्यसन-सेवी, महामिध्यात्वी, कुमतों में आसक्त रहे हैं । यहाँ जीवों को परस्पर लड़ाया जाता है, छेदा-भेदा जाता है, शूली पर चढ़ाया जाता है और भूख-पास तथा शीत और उष्णता जनित विविध दुःख दिये जाते हैं । | <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_4#43|हरिवंशपुराण - 4.43-49]],[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_4#57|हरिवंशपुराण - 4.57-58]] </span><br>इन भूमियों में उनचास पटल और उनमें चौरासी लाख बिल है । इन बिलों में वे जीव रहते हैं, जिन्होंने पूर्वभव में महापाप किये होते हैं और जो सप्त व्यसन-सेवी, महामिध्यात्वी, कुमतों में आसक्त रहे हैं । यहाँ जीवों को परस्पर लड़ाया जाता है, छेदा-भेदा जाता है, शूली पर चढ़ाया जाता है और भूख-पास तथा शीत और उष्णता जनित विविध दुःख दिये जाते हैं । | ||
<span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 11.88-93 </span><br>खंड-खंड किये जाने पर भी यहाँ के जीवों के शरीर पारे के समान पुन: मिल जाते हैं, उनका मरण नहीं होता । वे सदैव शारीरिक एवं मानसिक दु:ख सहते हैं, खारा-गर्म-तीक्ष्ण वैतरणी का जल पाते हैं । दुर्गंधित मिट्टी का आहार करते हैं । उन्हें निमिष मात्र भी सुख नहीं मिलता । यहाँ के जीव अशुभ परिणामी होते हैं । उनके नपुंसक लिंग और हुंडकसंस्थान होता है । | <span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 11.88-93 </span><br>खंड-खंड किये जाने पर भी यहाँ के जीवों के शरीर पारे के समान पुन: मिल जाते हैं, उनका मरण नहीं होता । वे सदैव शारीरिक एवं मानसिक दु:ख सहते हैं, खारा-गर्म-तीक्ष्ण वैतरणी का जल पाते हैं । दुर्गंधित मिट्टी का आहार करते हैं । उन्हें निमिष मात्र भी सुख नहीं मिलता । यहाँ के जीव अशुभ परिणामी होते हैं । उनके नपुंसक लिंग और हुंडकसंस्थान होता है । | ||
<span class="GRef"> हरिवंशपुराण 4.363-368 </span></p> | <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_4#363|हरिवंशपुराण - 4.363-368]] </span></p> | ||
Latest revision as of 14:39, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
1. चित्र – देखें लोक - 2.8।
2. व्याख्या - देखें नरक - 5।
पुराणकोष से
लोक के तीन भेदों में तीसरा भेद । यह वेत्रासन आकार में सात रज्जु प्रमाण है ।
1.चित्रा पृथिवी के अधिभाग से दूसरी पृथिवी की समाप्ति पर्यंत इस लोक का विस्तार एक रज्जु और दूसरी रज्जु के सात भागों में छ: भाग हैं ।
2.तीसरी पृथिवी का विस्तार दो रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में पांच भाग प्रमाण, चौथी पृथ्वी तीन रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में चार भाग प्रमाण,
3.पाँचवी पृथिवी चार रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में तीन भाग प्रमाण, छठी पृथिवी पाँच रज्जु है।
4. एक रज्जु के सात भागों में दो भाग प्रमाण तथा सातवीं पृथिवी छ: रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में एक भाग प्रमाण है । इस प्रकार अधोलोक सात रज्जु प्रमाण है।
मपू0 4.40-41, हरिवंशपुराण - 4.7-20, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.126
ये पृथिवियां क्रमश: रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम प्रभा और महातम प्रभा नाम से प्रसिद्ध है । धर्मा, वंसा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माधवी ये इन पृथिवियों के क्रमश: अपरनाम हैं ये पृथिवियां क्रमश: एक के नीचे एक स्थित है । प्रथम पृथिवी के तीन भाग है― खर, पंक और अब्बहुल । इन्हें खरभाग सोलह हजार, पंकभाग चौरासी हजार और अब्बहुल भाग अस्सी हजार योजन मोटा है । दूसरी पृथिवी की मोटाई बत्तीस, तीसरी पृथिवी की अट्ठाईस चौथी पृथ्वी की चौबीस, पांचवीं पृथिवी की बीस, छठी पृथिवी की सोलह और सातवीं पृथ्वी की आठ हजार योजन है ।
हरिवंशपुराण - 4.43-49,हरिवंशपुराण - 4.57-58
इन भूमियों में उनचास पटल और उनमें चौरासी लाख बिल है । इन बिलों में वे जीव रहते हैं, जिन्होंने पूर्वभव में महापाप किये होते हैं और जो सप्त व्यसन-सेवी, महामिध्यात्वी, कुमतों में आसक्त रहे हैं । यहाँ जीवों को परस्पर लड़ाया जाता है, छेदा-भेदा जाता है, शूली पर चढ़ाया जाता है और भूख-पास तथा शीत और उष्णता जनित विविध दुःख दिये जाते हैं ।
वीरवर्द्धमान चरित्र 11.88-93
खंड-खंड किये जाने पर भी यहाँ के जीवों के शरीर पारे के समान पुन: मिल जाते हैं, उनका मरण नहीं होता । वे सदैव शारीरिक एवं मानसिक दु:ख सहते हैं, खारा-गर्म-तीक्ष्ण वैतरणी का जल पाते हैं । दुर्गंधित मिट्टी का आहार करते हैं । उन्हें निमिष मात्र भी सुख नहीं मिलता । यहाँ के जीव अशुभ परिणामी होते हैं । उनके नपुंसक लिंग और हुंडकसंस्थान होता है ।
हरिवंशपुराण - 4.363-368