अनंत: Difference between revisions
From जैनकोष
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== सिद्धांतकोष से == | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p>< | <p><span class="HindiText">द्रव्यों, पदार्थों व भावों तक की संख्याओं का विचित्र प्रकार से निरूपण करने का ढंग सर्वज्ञ मत से अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता। ये संख्याएँ गणना को अतिक्रांत करके वर्तने के कारण असंख्यात व अनंत द्वारा प्ररूपित की जाती हैं। यद्यपि अनंत संख्या को जानना अल्पज्ञ के लिए संभव नहीं है, फिर भी उसमें एक-दूसरे की अपेक्षा तरतमता दर्शा कर बड़ी योग्यता के साथ उसका अनुमान कराया जाता है।</span></p> | ||
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<li class="HindiText"><strong>अनंत के भेद व लक्षण</strong></li> | <li class="HindiText"><strong>[[ #1 | अनंत के भेद व लक्षण]]</strong></li> | ||
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<li class="HindiText">[[ #1.1 | अनंत सामान्य का लक्षण]]</li> | <li class="HindiText">[[ #1.1 | अनंत सामान्य का लक्षण]]</li> | ||
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<li class="HindiText">[[ #1.7 | जघन्यादि अनंतानंत के लक्षण]]</li> | <li class="HindiText">[[ #1.7 | जघन्यादि अनंतानंत के लक्षण]]</li> | ||
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<li class="HindiText"><strong>अनंत निर्देश</strong></li> | <li class="HindiText"><strong>[[ #2 | अनंत निर्देश]]</strong></li> | ||
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<li class="HindiText">[[ #2.1 | अनंत वह है जिसका कभी अंत न हो]]</li> | <li class="HindiText">[[ #2.1 | अनंत वह है जिसका कभी अंत न हो]]</li> | ||
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<p class="HindiText"><b>1. अनंत के भेद व लक्षण</b></p> | |||
<p class="HindiText" id="1.1"><p class="HindiText"><b>1. अनंत सामान्य का लक्षण</b></p> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /5/9/275</span> <p class="SanskritText">अविद्यमानोऽंतो येषां ते अनंताः। </p> | |||
<p class="HindiText">= जिनका अंत नहीं है, वे अनंत कहलाते हैं।</p> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /8/9/386</span> <p class="SanskritText">अनंतसंसारकारणत्वांमिथ्यादर्शनमनंतम्। </p> | |||
<p class="HindiText">= अनंत संसार का कारण होने से मिथ्यादर्शन अनंत कहलाता है।</p> | |||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 1/1,1,140/392/6</span> <p class="SanskritText">न हि सांतस्यानंत्यं विरोधात्। सव्ययस्य निरायस्य राशेः कथमानंत्यमिति चेन्न, अंयथैकस्याप्यानंत्यप्रसंगः। शव्ययस्यानंतस्य न क्षयोऽस्तीत्येकांतोऽस्ति। </p> | |||
<p class="HindiText">= सांत को अनंत मानने में विरोध आता है। <br> <b>प्रश्न</b> - जिस राशि का निरंतर व्यय चालू है, परंतु उसमें आय नहीं है, तो उसको अनंतपन कैसे बन सकता है? <br><b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि यदि सव्यय और निराय राशि को भी अनंत न माना जावे तो एक को भी अनंतपने का प्रसंग आ जायेगा। व्यय होते हुए भी अनंत का क्षय नहीं होता है यह एकांत नियम है।</p> | |||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 3/1, 2, 53/267/5</span> <p class="PrakritText">जो रासी एगेगरूवे अवणिज्जमाणे णिट्ठादि सो असंखेज्जो। जो पुण ण समप्पइ सो रासी अणंतो। </p> | |||
<p class="HindiText">= एक-एक संख्या के घटाते जाने पर जो राशि समाप्त हो जाती है वह असंख्यात है और जो राशि समाप्त नहीं होती है वह अनंत है। </p> | |||
<p><span class="GRef">( धवला पुस्तक 3/1, 2, 2/15/8)</span> <span class="GRef">(धवला पुस्तक 14/5, 6, 128/235/6)</span>।</p><br> | |||
<p class="HindiText" id="1.2"><p class="HindiText"><b>2. अनंत के भेद-प्रभेद</b></p> | |||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 3/1, 2, 2/गाथा 8/11/7</span> <p class="PrakritText">णामं ट्ठवणादवियां सस्सद गणणापदेसियमणंतं। एगो उभयादेसो वित्थारो सव्वभावो य। </p> | |||
<p class="HindiText">= नामानंत, स्थापनानंत, द्रव्यानंत, शाश्वतानंत, गणनानंत, अप्रदेशिकानंत, एकानंतउभयानंत, विस्तारानंत, सर्वानंत और भावानंत - इस प्रकार अनंत के ग्यारह भेद हैं।</p> | |||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 3/1,2,2/पृष्ठ/पंक्ति</span> <p class="PrakritText">तं दव्वाणं तं तं दुविहं आगमदो णोआगमदो य (12/3)। तं णोआगमदो दव्वाणं तं तं तिविहं, जाणुगसरीरदव्वाणं तं भवियदव्वाणं तं तव्वदिरिक्तदव्वाणं तं चेदि (13/3)। तं दव्वादिरिक्तदव्वाणंतं तं दुविहं, कम्माणं तं णोकम्माणंतमिदि (15/1)| तं भावाणं तं तं दुविहं आगमदो णोआगमदो य (16/9)। तं गणणाणंतं तं पि तिविहं, परिक्ताणंतं जुत्ताणंतं अणंताणंतमिदि (18/3)| तं अणंताणंतं तं पि तिविहं, जहण्णमुक्कसं मज्झिममिदि (19/2)। </p> | |||
<p class="HindiText">= '''द्रव्यानंत''' | |||
<ol class="HindiText"> | |||
<li>आगम व </li> | |||
<li> नोआगम के भेद से दो प्रकार का है। नोआगम द्रव्यानंत तीन प्रकार का है - | |||
<ol class="HindiText"> | |||
<li> ज्ञायक शरीर नोआगम द्रव्यानंत </li> | |||
<li> भव्य नोआगम द्रव्यानंत</li> | |||
<li> तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यानंत| तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यानंत दो प्रकार का है | |||
<ol class="HindiText"> | |||
<li> कर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यानंत और </li> | |||
<li> नोकर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यानंत। </li></ol></li></ol></li></ol> | |||
<br> | |||
< | <ol class="HindiText"> | ||
< | <li> आगम और </li> | ||
< | <li> नोआगम की अपेक्षा '''भावानंत''' दो प्रकार का है। </li></ol> | ||
<p class="HindiText"> | <br> | ||
< | <p class="HindiText">'''गणनानंत''' तीन प्रकार का है - | ||
< | <ol class="HindiText"> | ||
< | <li> परीतानंत</li> | ||
<p class="HindiText"> | <li> युक्तानंत, और </li> | ||
< | <li> अनंतानंत </li> | ||
< | </ol> | ||
< | <p class="HindiText"> और उपलक्षण से परीतानंत व युक्तानंत भी तीन प्रकार का है - | ||
<ol class="HindiText"> | |||
<li>जघन्य,</li> | |||
<p | <li> | ||
उत्कृष्ट और</li> | |||
< | <li> | ||
मध्यम । </li></ol> </p> | |||
<p><span class="GRef">(तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/311)</span> <span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 3/38/5/15/206-207)</span>।</p> | |||
<p>(Chitra-6)</p> | <p>(Chitra-6)</p> | ||
<p>अनंत</p> | <p>अनंत</p> | ||
Line 64: | Line 94: | ||
<p>आगम नोआगम</p> | <p>आगम नोआगम</p> | ||
<p>ज्ञायक शरीर भव्य तद्व्यतिरिक्त</p> | <p>ज्ञायक शरीर भव्य तद्व्यतिरिक्त</p> | ||
<p>कर्म नोकर्म</p> | <p>कर्म नोकर्म</p><br> | ||
<p id="1.3">3. गामादि 11 भेदों के लक्षण</p> | |||
< | <p class="HindiText" id="1.3"><p class="HindiText"><b>3. गामादि 11 भेदों के लक्षण</b></p> | ||
< | <span class="GRef">धवला पुस्तक 3/1,2,2/11-16/9</span> <p class="PrakritText">णामाणंतं जीवाजीवमिस्सदव्वस्स कारणणिरवेक्खा सण्णा अणंता इदि। जं तं ट्ठवणाणंतं णामं तं कट्ठकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्पकम्मेसु वा लेणकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा भेंडकम्मेसु वा द तकम्मेसु वा अक्खो वा वराडयो वा जे च अण्णे ट्ठवणाए ट्ठविदा अणंतमिदि तं सव्वं ट्ठवणाणं तं णाम। ...आगमो गंथो सुदणाणं सिद्धं तो पवयणमिदि एगट्ठो...तत्थ आगमदो दव्वाणं तं अणंतपाहुड जाणओ अणुवजुत्तो। आगमादण्णो णोआगमो। तत्थ जाणुगसरीरदव्वाणं तं अणंतपाहुडजाणुगसरीरं तिकालजादं। ....भवियाणं तं अणंतप्पाहुडजाणुगभावी जोवो...जं तं कम्माणं तं तं कम्मस्स पदेसा। जं तं णोकम्माणं तं तं कंडय-रूजगदीव समुद्दादि एयपदेसादि पोग्गलदव्वं वा। ...। जं तं सस्सदाणं तं तं धम्मादिदव्वगयं। कुदो। सासयत्तेण दव्वाणं विणासाभावादो। जं तं गणणाणं तं तं बहुवण्णणीयं सुगमं च। जं तं अपदेसियाणं तं तं परमाणू। .....एकप्रदेशे परमाणौ तद्व्यतिरिक्तापरो द्वितीयः प्रदेशोऽंतव्यपदेशभाक नास्तीति परमाणुरप्रदेशानंतः। ...जं तं एयाणं तं तं लोगमज्झादो एगसेढिं पेक्खमाणे अंताभावादो एयाणं तं। ...जहा अपारो सागरो, अथाहं जलमिदि। जं तं उभयाणंतं तं तधा चेव उभयदिसाए पेक्खमाणे अंताभावादो उभयादेसणं तं। जं तं वित्थाराणं तं तं पदरागारेण आगासं पेक्खमाणे अंताभावादो भवदि। जं तं सव्वाणं तं तं घणागारेण आगासं पेक्खमाणे अंताभावादो सव्वाणं तं भवदि। ...आगमदो भावाणं तं अणंतपाहुडजाणगो उवजुत्तो। जं तं णोआगमदो भावाणं तं तं तिकालजादं अणंतपज्जयपरिणदजीवादिदव्वं। </p><br> | ||
<p id="1.4">4. जघन्यादि परीतानंत के लक्षण</p> | <ol class="HindiText"><li>= '''नामानंत''' - कारण के बिना ही जीव अजीव और मिश्र द्रव्य की `अनंत' ऐसी संज्ञा करना नाम अनंत है (11/9)। </li> | ||
< | <li> '''स्थापनानंत''' - काष्ठ कर्म, चित्रकर्म, पुस्त (वस्त्र) कर्म, लेप्यकर्म, लेनकर्म, शैलकर्म, भित्तिकर्म, गृहकर्म, भेंडकर्म अथवा दंतकर्म में अथवा अक्ष (पासा) हो या कौड़ी हो, अथवा कोई दूसरी वस्तु हो उसमें `यह अनंत है' इस प्रकार की स्थापना करना स्थापनानंत है (11/9)। </li> | ||
<p class="HindiText">= जघन्य संख्येयासंख्येय ( | <li> '''द्रव्यानंत''' - द्रव्यानंत आगम नोआगम के भेद से दो प्रकार का है। आगम, ग्रंथ, श्रुतज्ञान, सिद्धांत और प्रवचन ये एकार्थवाची शब्द हैं (12/3)। | ||
<p>( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/310/181) ( त्रिलोकसार गाथा 45-46)।</p> | <ol class="HindiText"> | ||
<p id="1.5">5. वर्गित संवर्गित करने की प्रतिक्रिया</p> | <li> '''आगम द्रव्यानंत''' - अनंत विषयक शास्त्र को जानने वाले परंतु वर्तमान में उसके उपयोग से रहित जीव को आगम द्रव्यानंत कहते हैं। (12/11)।</li> | ||
<p> धवला पुस्तक 5/ | <li> '''नोआगम द्रव्यानंत''' - [वह नोआगम द्रव्यानंत तीन प्रकार का है - ज्ञायक शरीर, भव्य और तद्व्यतिरिक्त] उनमें से अनंत विषयक शास्त्र को जानने वाले (जीव) के तीनों कालों में होने वाले शरीर को '''ज्ञायक शरीर नोआगम द्रव्यानंत''' कहते हैं (13/3)। जो जीव भविष्यकाल में अनंत विषयक शास्त्र को जानेगा उसे '''भावि नोआगम द्रव्यानंत''' कहते हैं। '''तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यानंत''' दो प्रकार का है - कर्म तद्व्यतिरिक्त और नोकर्म तद्व्यतिरिक्त। ज्ञानावरणादिक आठ कर्मों के प्रदेशों को '''कर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यानंत''' कहते हैं। कटक (कंकण) रुचक (तावीज़) द्वीप और समुद्रादिक अथवा एकप्रदेशादिक पुद्गल द्रव्य ये सब '''नोकर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यानंत''' हैं (15/1)।</li></ol></li> | ||
<li> '''शाश्वतानंत''' - शाश्वतानंत धर्मादि द्रव्यों में रहता है, क्योंकि धर्मादि द्रव्य शाश्वतिक होने से उनका कभी भी विनाश नहीं होता। ....अंत विनाश को कहते हैं। जिसका अंत अर्थात् विनाश नहीं होता उसको अनंत कहते हैं (15/4)। </li> | |||
<li> '''गणनानंत''' - गणनानंत बहुवर्णनीय है तथा सुगम है (देखें [[ #1.4 | आगे पृथक् लक्षण ]]) ।</li> | |||
<li> '''अप्रदेशानंत''' - एक परमाणु को अप्रदेशानंत कहते हैं। ...क्योंकि, एकप्रदेशी परमाणु में उस एक प्रदेश को छोड़कर `अंत' इस संज्ञा को प्राप्त होने वाला दूसरा प्रदेश नहीं पाया जाता है, इसलिए परमाणु अप्रदेशानंत है (15/9)।</li> | |||
<li> '''एकानंत''' - लोक के मध्य से आकाश के प्रदेशों की एक श्रेणी को (एक दिशा में) देखने पर उसका अंत नहीं पाया जाता, इसलिए उसको एकानंत कहते हैं - जैसे अथाह समुद्र, अथाह जलादि। Unidirectional infinite <span class="GRef">(जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो / प्रस्तावना 105)</span> । </li> | |||
<li> '''उभयानंत''' - लोक के मध्य से आकाश प्रदेश पंक्ति को दो दिशाओं में देखने पर उनका अंत नहीं पाया जाता है, इसलिए उसे उभयानंत कहते हैं। </li> | |||
<li> '''विस्तारानंत''' - आकाश को प्रतर रूप से देखने पर उसका अंत नहीं पाया जाता इसलिए उसे विस्तारानंत कहते हैं (16/7)। </li> | |||
<li> '''सर्वानंत''' - आकाश को घन रूप से देखने पर उसका अंत नहीं पाया जाता इसलिए उसे सर्वानंत कहते हैं (16/8)। </li> | |||
<li> '''भावानंत''' - आगम और नोआगमकी अपेक्षा भावानंत दो प्रकार का है। <br> | |||
<ol class="HindiText"> | |||
<li> '''आगम भावानंत''' - अनंत विषयक शास्त्र को जानने वाले और वर्तमान में उसके उपयोग से उपयुक्त जीव को आगम भावानंत कहते हैं।</li> | |||
<li> '''नोआगम भावानंत''' - त्रिकाल जात अनंत पर्यायों से परिणत जीवादि द्रव्य को नोआगम भावानंत कहते हैं।</li></ol></li></ol> | |||
<br> | |||
<p class="HindiText" id="1.4"><p class="HindiText"><b>4. जघन्यादि परीतानंत के लक्षण</b></p> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 3/38/5/207/7</span> <p class="SanskritText">यज्जघन्या संख्येयासंख्येयं तद्विरलीकृत्य पूर्वविधिना त्रोन्वारान् वर्गितसंवर्गित उत्कृष्टासंख्येयासंख्येयं प्राप्नोति। ततो धर्माधर्मैकजीवलोकाकाशप्रदेशप्रत्येकशरीरजीवबादरनिगोतशरीराणि षडप्येतान्यसंख्येयानि स्थितिबंधाध्यवसायस्थानांयनुभागबंधाध्यवसायस्थानानि योगविभागपरिच्छेदरूपाणि चासंख्येयलोकप्रदेशपरिमाणान्युत्सपिण्यवसर्पिणीसमयांश्च प्रक्षिप्य पूर्वोक्तराशौ त्रोन्वारान् वर्गितसंवर्गित कृत्वा उत्कृष्टासंख्येयासंख्येयमतीत्य जघंयपरीतानंतं गत्वा पतितम्। ...यज्जघंयपरीतानंतं तत्वपूर्ववद्वगितसंवर्गितमुत्कृष्टपरीतानंतमतीत्य जघंययुक्तानंतं गत्वा पतितम्। तत् एकरूपेऽपनीतेउत्कृष्टपरीतानंतं तद्भवति। मध्यममजघंयोत्कृष्टपरीतानंतम्। </p> | |||
<p class="HindiText">= जघन्य संख्येयासंख्येय (देखे [[ असंख्यात ]]) को विरलन कर पूर्वोक्त विधि से (देखें [[#1.5 | नीचे ]]) तीन बार वर्गित संवर्गित करने पर भी उत्कृष्ट संख्येयासंख्येय नहीं होता । इसमें धर्म, अधर्म, एक जीव व लोकाकाश के प्रदेश, प्रत्येक शरीर, बादर निगोद शरीर ये छहों असंख्येय, स्थिति बंधाध्यवसाय स्थान, अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान, योग के अविभाग प्रतिच्छेद, उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल के समयों को जोड़कर तीन बार वर्गित संवगित करने पर उत्कृष्टासंख्येयासंख्येय को उल्लंघ कर जघन्य परीतानंत में जाकर स्थित होता है। ...यह जो जघन्य परीतानंत उसको पूर्ववत् वर्गितसंवर्गित करने पर उत्कृष्ट परीतानंत को उल्लंघ कर जघन्य युक्तानंत में जाकर गिरता है। उसमें-से एक कम करने पर उत्कृष्ट परीतानंत हो जाता है। मध्यम परीतानंत इन दोनों सीमाओं के बीच में अजघन्य व अनुत्कृष्ट रूप वाला है। </p> | |||
<p><span class="GRef">( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/310/181)</span> <span class="GRef">( त्रिलोकसार गाथा 45-46)</span>।</p><br> | |||
<p class="HindiText" id="1.5"><p class="HindiText"><b>5. वर्गित संवर्गित करने की प्रतिक्रिया</b></p> | |||
<p> <span class="GRef">धवला पुस्तक 5/प्रस्तावना 23</span> <span class="GRef">(धवला पुस्तक 3/1,2,2/20)</span></p> | |||
<p>(Chitra-7)</p> | <p>(Chitra-7)</p> | ||
<p>अ अ ज = जघन्य असंख्यातासंख्यात</p> | <p>अ अ ज = जघन्य असंख्यातासंख्यात</p> | ||
Line 101: | Line 151: | ||
<p>(ग)</p> | <p>(ग)</p> | ||
<p>मध्यम परीतानंत = न. प. म. = > न. प. ज. किंतु < न.प.उ. अर्थात् न. प. ज. से बड़ा और न. प. उ. से छोटा।</p> | <p>मध्यम परीतानंत = न. प. म. = > न. प. ज. किंतु < न.प.उ. अर्थात् न. प. ज. से बड़ा और न. प. उ. से छोटा।</p> | ||
<p>उत्कृष्ट परीतानंत = न. प. उ. - न. प. ज. - 1</p> | <p>उत्कृष्ट परीतानंत = न. प. उ. - न. प. ज. - 1</p><br> | ||
<p id="1.6">6. जघन्यादि युक्तानंत के लक्षण</p> | |||
< | <p class="HindiText" id="1.6"><p class="HindiText"><b>6. जघन्यादि युक्तानंत के लक्षण</b></p> | ||
<p class="HindiText">= जघन्य परीतानंत पूर्ववत् वर्गित, संवर्गित उत्कृष्ट परीतानंत को उल्लंघ कर जघन्य युक्तानंत में जाकर स्थित होता है। ... इस जघन्य युक्तानंत को विरलन कर | <span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 3/38,5/207/14</span> <p class="SanskritText">यज्जघंयपरीतानंतं तत्पूर्ववद्वर्गितसंवर्गितमुत्कृष्टपरीतानंतमतीत्य जघंययुक्तानंतं गत्वा पतितम्। ...यज्जघंययुक्तानंतं तद्विरलीकृत्यात्रैकैकरूपे जघंययुक्तानंतं दत्वा सकृद्वर्गितमुत्कृष्टयुक्तानंतमतीत्य जघंयमनंतानंतं गत्वा पतितम्। तत् एकरूपेऽपनीते उत्कृष्टयुक्तानंतं भवति। मध्यममजघंयोत्कृष्टयुक्तानंतम्। </p> | ||
<p>( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/311) ( त्रिलोकसार गाथा 46-47)।</p> | <p class="HindiText">= जघन्य परीतानंत पूर्ववत् वर्गित, संवर्गित उत्कृष्ट परीतानंत को उल्लंघ कर जघन्य युक्तानंत में जाकर स्थित होता है। ... इस जघन्य युक्तानंत को विरलन कर प्रत्येक पर जघन्य युक्तानंत को रख उन्हें परस्पर वर्ग करने पर उत्कृष्ट युक्तानंत को उल्लंघकर जघन्य परीतानंत (जघन्य युक्तानंत) को प्राप्त होता है अर्थात् (जघन्य युक्तानंत) यह राशि जघन्य अनंतानंत के बराबर है। इसमें से एक कम करने पर उत्कृष्ट युक्तानंत होता है। मध्यम युक्तानंत इन दोनों की सीमाओं के बीच में अजघन्य व अनुत्कृष्ट रूप है। </p> | ||
<p id="1.7">7. जघन्यादि अनंतानंत के लक्षण</p> | <p><span class="GRef">( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/311)</span> <span class="GRef">( त्रिलोकसार गाथा 46-47)</span>।</p><br> | ||
< | |||
<p class="HindiText">= जघन्य | <p class="HindiText" id="1.7"><p class="HindiText"><b>7. जघन्यादि अनंतानंत के लक्षण</b></p> | ||
<p>( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/311) ( धवला पुस्तक 3/1,2,2/18/5) ( त्रिलोकसार गाथा 47-51) ( धवला पुस्तक 5/ | <span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 3/38,5/207/16</span> <p class="SanskritText">यज्जघंययुक्तानंतं तद्विरलीकृत्यात्रैकैकरूपे जघंययुक्तानंतं दत्वा सकृद्वर्गितमुत्कृष्टयुक्तानंतमतीत्य जघंयानंतानंतं गत्वा पतितम्। ...यज्जघंयानंतानंतं तद्विरलीकृत्य पूर्ववत्त्रीन्वारान् वर्गितसंवर्गितमुत्कृष्टानंतानंतं न प्राप्नोति, ततः सिद्धनिगोतजीववनस्पतिकायातीतानागतकालसमय सर्वपुद्गलसर्वाकाशप्रदेशधर्माधर्मास्तिकायागुरुलघुगुणानंतां प्रक्षिप्य प्रक्षिप्य त्रीन् वारान् वर्गितसंवर्गिते कृते उत्कृष्टानंतानंतं न प्राप्नोति ततोऽनंते केवलज्ञाने दर्शने च प्रक्षिप्ते उत्कृष्टानंतानंतं भवति। तत् एकरूपेऽपनोतेऽजघंयोत्कृष्टानंतानंतं भवति। </p> | ||
<p class="HindiText">= जघन्य युक्तानंत को विरलन कर प्रत्येक पर जघन्य युक्तानंत को रख उन्हें परस्पर वर्ग (जघन्य युक्तानंत) करने पर अर्थात् (जघन्य युक्तानंत) उत्कृष्ट युक्तानंत से आगे जघन्य अनंतानंत में जाकर प्राप्त होता है.... इस जघन्य अनंतानंत को पूर्ववत् विरलीकृत कर तीन बार वर्गित संवर्गित करने पर उत्कृष्ट अनंतानंत प्राप्त नहीं होता है। उसमें सिद्ध जीव, निगोद जीव, वनस्पति काय वाले जीव, अतीत व अनागत कालके समय, सर्व पुद्गल, सर्व आकाश प्रदेश, धर्म व अधर्मास्तिकाय द्रव्यों के अगुरुलघु गुणों के अनंत अविभाग प्रतिच्छेद जोड़े। फिर तीन बार वर्गित संवर्गित करें। तब भी उत्कृष्ट अनंतानंत नहीं होता है। अतः उसमें केवलज्ञान व केवलदर्शन को (अर्थात् इनके सर्व अविभागी प्रतिच्छेदों को) जोड़ें, तब उत्कृष्ट अनंतानंत होता है। उसमें से एक कम करने पर अजघन्योत्कृष्ट या मध्यम अनंतानंत होता है। </p> | |||
<p><span class="GRef">( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/311)</span> <span class="GRef">( धवला पुस्तक 3/1,2,2/18/5)</span> <span class="GRef">( त्रिलोकसार गाथा 47-51)</span> <span class="GRef">(धवला पुस्तक 5/प्रस्तावना 24)</span> जघन्य अनंतानंत = न. न. ज.।</p> | |||
<p>(Chitra-8)</p> | <p>(Chitra-8)</p> | ||
<p>+ 6 राशि</p> | <p>+ 6 राशि</p> | ||
Line 138: | Line 190: | ||
<p>तब केवल ज्ञान राशि > `ज्ञ'</p> | <p>तब केवल ज्ञान राशि > `ज्ञ'</p> | ||
<p>उत्कृष्ट अनंतानंत = न. न. उ. = ज्ञ+केवलज्ञान व केवलदर्शन के अविभाग प्रतिच्छेद</p> | <p>उत्कृष्ट अनंतानंत = न. न. उ. = ज्ञ+केवलज्ञान व केवलदर्शन के अविभाग प्रतिच्छेद</p> | ||
<p>2. अनंत निर्देश</p> | <p class="HindiText"><b>2. अनंत निर्देश</b></p> | ||
<p id="2.1">1. अनंत वह है जिसका कभी अंत न हो।</p> | <p class="HindiText" id="2.1"><p class="HindiText"><b>1. अनंत वह है जिसका कभी अंत न हो।</b></p> | ||
< | <span class="GRef">धवला पुस्तक 1/1,1,141/392/6</span> <p class="SanskritText"> न हि सांतस्यानंत्यं विरोधात्। सव्ययनिरायस्य राशेः कथमानंत्यमिति चेन्न, अंयथैकस्याप्यानंत्यप्रसंगः। सव्ययस्यानंतस्य न क्षयोऽस्तीत्येकांतोऽस्ति स्वसंख्येयासंख्येय भागव्ययस्य राशेरनंतस्यापेक्षया तद्द्विव्यादिसंख्येयराशिव्ययतो न क्षयोऽपीत्यभ्युपगमात्। अर्ध पुद्गलपरिवर्तनकालस्यानंतस्यापि क्षय दर्शनादनैकांतिक आनंत्यहेतुरिति चेन्न, उभयोर्भिंननिबंधतः प्राप्तानंतयोः साम्याभावतोऽर्द्धपुद्गलपरिवर्तनस्य वास्तवानंत्याभावात्। तद्यथा अर्द्ध पुद्गलपरिवर्तनकालः सक्षयोऽप्यनंतः छद्मस्थैरनुपलब्धपर्यंतत्वात्। केवलमनंतस्तद्विषयत्वाद्वा। जीवराशिस्तु पुनः संख्येयराशिक्षयोऽपि निर्मूलप्रलयाभावादनंत इति। किं च सव्ययस्य निरवशेषक्षयेऽभ्युपगम्यमाने कालस्यापि निरवशेषक्षयो जायेत सव्ययत्वं प्रत्यविशेषात्। अस्तु चेन्न, सकलपर्यायप्रक्षयतोऽशेषस्य वस्तुनः प्रक्षीणस्वलक्षणस्याभावापत्तेः। </p> | ||
<p class="HindiText">= जो राशि सांत होती है उसमें अनंतपन नहीं बन सकता है, क्योंकि सांत को अनंत मानने में विरोध आता है। <b>प्रश्न</b> - जिस | <p class="HindiText">= जो राशि सांत होती है उसमें अनंतपन नहीं बन सकता है, क्योंकि सांत को अनंत मानने में विरोध आता है। <b>प्रश्न</b> - जिस राशि का निरंतर व्यय चालू है, परंतु इसमें आय नहीं होती है तो उसको अनंतपन कैसे बन सकता है? <br> <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि यदि सव्यय और निराय राशि को भी अनंत न माना जावे तो एक को भी अनंत मानने का प्रसंग आ जायेगा। व्यय होते हुए भी अनंत का क्षय नहीं होता, यह एकांत नियम है, इसलिए जिसके संख्यातवें और असंख्यातवें भाग का व्यय हो रहा है ऐसी राशि का, अनंत की अपेक्षा उसकी दो तीन आदि संख्यात राशि के व्यय होने से भी क्षय नहीं होता है, ऐसा स्वीकार किया है। <br> <b>प्रश्न</b> - अर्ध पुद्गल परिवर्तन रूप काल अनंत होते हुए भी उसका क्षय देखा जाता है। इसलिए भव्य राशि के क्षय न होने में जो अनंत रूप हेतु दिया है वह व्यभिचरित हो जाता है? <br> <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि भिन्न-भिन्न कारणों से अनंतपन को प्राप्त भव्य राशि और अर्धपुद्गल परिवर्तन काल वास्तव में अनंत रूप नहीं है। आगे इसी का स्पष्टीकरण करते हैं। - अर्ध पुद्गल परिवर्तनकाल क्षय सहित होते हुए भी इसलिए अनंत है कि छद्मस्थ जीवों के द्वारा उसका अंत नहीं पाया जाता है। किंतु केवलज्ञान वास्तव में अनंत है। अथवा अनंत को विषय करने वाला होने से वह अनंत है। जीव राशि तो, उसका संख्यातवें भाग रूप राशि के क्षय हो जाने पर भी निर्मूल नाश नहीं होने से, अनंत है। अथवा ऊपर जो भव्य राशि के क्षय होने में अनंत रूप हेतु दे आये हैं, उसमें छद्मस्थ जीवों के द्वारा अनंत की उपलब्धि नहीं होती है, इस अपेक्षा के बिना ही, यह विशेषण लगा देने से अनैकांतिक दोष नहीं आता है। दूसरे व्यय सहित अनंत के सर्वथा क्षय मान लेने पर कालका भी सर्वथा क्षय हो जायेगा, क्योंकि व्यय सहित होने के प्रति दोनों समान हैं। <br><b>प्रश्न</b> - यदि ऐसा ही मान लिया जाये तो क्या हानि है?<br> <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर काल की समस्त पर्यायों के क्षय हो जाने से दूसरे द्रव्यों की स्वलक्षण रूप पर्यायों का भी अभाव हो जायेगा। और इसलिए समस्त वस्तुओं के अभाव की आपत्ति आ जायेगी। </p> | ||
<p>( धवला पुस्तक 4/1,5,4/338/4)।</p> | <p class="HindiText"><span class="GRef">(धवला पुस्तक 4/1,5,4/338/4)</span>।</p> | ||
< | <span class="GRef">स्याद्वादमंजरी श्लोक 29/श्लोक 2 में उद्धृत 332/5 </span><p class="SanskritText">अत्यन्यूनातिरिक्तत्वैर्युज्यते परिमाणवत्। वस्तुन्यपरिमेये तु नूनं तेषामसंभवः ॥2॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= अपरिमित वस्तु का न कभी अंत होता है, न कभी घटती है और न समाप्त होती है।</p> | <p class="HindiText">= अपरिमित वस्तु का न कभी अंत होता है, न कभी घटती है और न समाप्त होती है।</p> | ||
< | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 37/157</span> <p class="SanskritText">यथा भावितकाले समयानां क्रमेण गच्छतां यद्यपि भाविकालसमयराशेः स्तोकत्वं भवति तथाप्यवसानं नास्ति। तथा मुक्तिं गच्छतां जीवानां यद्यपि जीवराशेः स्तोक्त्वं भवति तथाप्यवसानं नास्ति। </p> | ||
<p class="HindiText">= | <p class="HindiText">= क्रम से जाते हुए जो भविष्यत्काल के समय, उनसे यद्यपि भविष्यत्काल के समयों की राशि में कमी होती है, फिर भी उस समय-राशि का कभी अंत न होगा, इसी प्रकार मुक्ति में जाते हुए जीवों से यद्यपि जगत् में जीव राशि की न्यूनता होती है तो भी उस राशि का अंत नहीं होता।</p><br> | ||
<p id="2.2">2. अनंत की सिद्धि</p> | |||
< | <p class="HindiText" id="2.2"><b>2. अनंत की सिद्धि</b></p> | ||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - अनंत को केवलज्ञान के द्वारा जान लेने से अनंतता नहीं रहेगी? <b>उत्तर</b> - 1. उसके द्वारा अनंत का अनंत के | <span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 5/9,3-5/452/34</span> <p class="SanskritText">न च तेन परिच्छिन्नमित्यतः सांतम्। अनंतेनानंतमिति ज्ञातत्वात्। ...नात्र सर्वे प्रवादिनो विप्रतिपद्यंते केचित्तावदाहुः-`अनंता लोकधातवः' इति। अपरे मंयंते-दिक्कालात्माकाशानां सर्वगतत्वाद् अनंतत्वमिति। इतरे ब्रुवते-प्रकृतिपुरुषयोरनंतत्वं सर्वगतत्वादिति। न चैतेषामनंतत्वादपरिज्ञानम्, नापि परिज्ञानत्वमात्रादेव तेषामंतवत्त्वम्। ...यस्य अर्थानामानंत्यमपरिज्ञातकारणं तस्य सर्वज्ञाभावः प्रसजति। ....अथांतवत्त्वं स्यात् संसारो मोक्षश्च नोपपद्यते। कथमिति चेत्, उच्यते जीवाश्चेत्सांताः, सर्वेषां हि मोक्षप्राप्तौ संसारोच्छेदः प्राप्नोति। तद्भयात् मुक्तानां पुनरावृत्त्यभ्युपगमे स मोक्ष एव न स्यात् अनात्यंतिकत्वात्। एकैकस्मिन्नपि जीवे कर्मादिभावेन व्यवस्थिताः पुद्गलाः अनंताः, तेषामंतवत्त्वे सति कर्मनोकर्मविषयविकल्पाभावात् संसाराभावः तदभावान्मोक्षश्च न स्यात्। तथा अतीतानागतकालयोरंतवत्त्वे प्राक् पश्चाच्च कालव्यवहाराभावः स्यात्। न चासौ युक्तः असतः प्रादुर्भावाभावात् सतश्चात्यंतविनाशानुपपत्तेरिति। तथा आकाशस्यांतक्त्त्वाभ्युगगमे ततो बहिर्घनत्वप्रसंगः। नास्ति चेदघनत्वम् आकाशेनापि भवितव्यमित्यंतवत्त्वाभावः। </p> | ||
<p id="2.3">3. अर्द्धपुद्गल परिवर्तन को अनंत कैसे कहते हैं</p> | <p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - अनंत को केवलज्ञान के द्वारा जान लेने से अनंतता नहीं रहेगी? <br> | ||
< | <b>उत्तर</b> - 1. उसके द्वारा अनंत का अनंत के रूप में ही ज्ञान हो जाता है। अतः मात्र सर्वज्ञ के द्वारा ज्ञान से उसमें सांतत्व नहीं आता। <br> | ||
<p class="HindiText">= अर्द्ध | 2. प्रायः सभी वादी अनंत भी मानते हैं और सर्वज्ञ भी। बौद्ध लोग धातुओं को अनंत कहते हैं। वैशेषिक दिशा, काल, आकाश और आत्मा को सर्वगत होने से अनंत कहते हैं। सांख्य पुरुष और प्रकृति को सर्वगत होने से अनंत कहते हैं। इन सबका परिज्ञान होने मात्र से सांतता हो नहीं सकती। अतः अनंत होने से अपरिज्ञान का दूषण ठीक नहीं है। <br> | ||
< | 3. यदि अनंत होने से पदार्थ को अज्ञेय कहा जायेगा तो सर्वज्ञ का अभाव हो जायेगा। <br> | ||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - अर्द्धपुद्गल परिवर्तनकाल को अनंत संज्ञा कैसे दी गयी है? <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल को जो अनंत संज्ञा दी गयी है, वह उपचार-निमित्तक है। आगे | 4. यदि पदार्थों को सांत माना जायेगा तो संसार और मोक्ष दोनों का लोप हो जायेगा। सो कैसे? वह बताते हैं - <br> | ||
<p>( धवला पुस्तक 3/1,2,2/25-26/9), ( धवला पुस्तक 4/1,2,23/266) | (1) यदि जीवों को सांत माना जाता है तो सब जीव मोक्ष चले जायेंगे तब संसार का उच्छेद हो जायेगा। यदि संसारोच्छेद के भय से मुक्त जीवों का संसार में पुनः आगमन माना जाये तो अनात्यंंतिक होने से मोक्ष का भी उच्छेद हो जायेगा। (2) एक जीव में कर्म और नोकर्म पुद्गल अनंत हैं। यदि उन्हें सांत माना जाये तो भी संसार का अभाव हो जायेगा और उसके अभाव से मोक्ष का भी अभाव हो जायेगा। (3) इसी तरह अतीत और अनागत काल को सांत माना जाये तो पहले और बाद में काल व्यवहार का अभाव ही हो जायेगा, पर यह युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि उसकी उत्पत्ति और सत् का सर्वथा नाश दोनों ही अयुक्तिक हैं। (4) इसी तरह आकाश को सांत मानने पर उससे आगे कोई ठोस पदार्थ मानना होगा। यदि नहीं तो आकाश ही आकाश मानने पर सांतता नहीं रहेगी। <br><span class="GRef"> रा. प./प्र. 1, 2/(प्रो. लक्ष्मीचंद्र)</span> पायथागोरियन युग में `जीनों'के तर्कों ने इसकी सिद्धि की थी। ....केंटरके कन्टीनम् (continuum) 1, 2, 3.... के अल्पबहुत्व से अनंत के अल्पबहुत्व की सिद्धि होती है। ...जार्ज केन्टर ने `Abstract set Theory' की रचना करके अनंत को स्वीकार किया है।</p><br> | ||
<p id="2.4">4. अनंत, संख्यात व असंख्यात में अंतर</p> | |||
< | <p class="HindiText" id="2.3"><b>3. अर्द्धपुद्गल परिवर्तन को अनंत कैसे कहते हैं</b></p> | ||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - असंख्यात किसे कहते हैं, अर्थात् अनंत से असंख्यात में क्या भेद हैं? <b>उत्तर</b> - एक-एक संख्या के घटाते | <span class="GRef">धवला पुस्तक 1/1,1,141/393/2</span> <p class="SanskritText">अर्धपुद्गलपरिवर्तनकालः सक्षयोऽप्यनंतः छद्मस्थैरनुपलब्धपर्यंतत्वात्। केवलमनंतस्तद्विषयत्वाद्वा। </p> | ||
<p> त्रिलोकसार गाथा 52 जावदियं पच्चक्खं जुगवं सुदओहिकेवलाण हवे। तावदियं संखेज्जमसंखमणंतं कमा जाणे ॥52॥ - यावन्मात्र विषय युगपत् प्रत्यक्ष श्रुत, अवधि, केवलज्ञान के होंहि तावन्मात्र संख्यात असंख्यात अनंत क्रमतैं जानऊ।</p> | <p class="HindiText">= अर्द्ध पुद्गल परिवर्तन काल क्षय सहित होते हुए भी इसीलिए अनंत है कि छद्मस्थ जीवों के द्वारा उसका अंत नहीं पाया जाता है। वास्तव में केवलज्ञान अनंत है अथवा अनंत को विषय करनेवाला होने से वह अनंत है।</p> | ||
<p id="2.5"> | <span class="GRef">धवला पुस्तक 3/1,2,53/267/7</span> <p class="PrakritText">कधं पुणो तस्स अद्धपोग्गलपरिमट्टस्स अणंतववएसो। इदि चे ण, तस्स उवयारणिबंधणत्तादो। तं जहा अणंतस्स केवलणाणस्स अद्धपोग्गलपरियट्टकालो वि अणंतो होदि। </p> | ||
< | <p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - अर्द्धपुद्गल परिवर्तनकाल को अनंत संज्ञा कैसे दी गयी है? <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल को जो अनंत संज्ञा दी गयी है, वह उपचार-निमित्तक है। आगे उसी का स्पष्टीकरण करते हैं - अनंत रूप केवलज्ञान का विषय होने से अर्द्धपुद्गल परिवर्तन काल भी अनंत है, ऐसा कहा जाता है। </p> | ||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - अनंत | <p><span class="GRef">(धवला पुस्तक 3/1,2,2/25-26/9)</span>, <span class="GRef">(धवला पुस्तक 4/1,2,23/266)</span> <span class="GRef">(धवला पुस्तक 14/5, 6, 128/235/8)</span>।</p><br> | ||
<p>(वि. देखें [[ अनंत#2.2 | अनंत - 2.2]])।</p> | |||
< | <p class="HindiText" id="2.4"><b>4. अनंत, संख्यात व असंख्यात में अंतर</b></p> | ||
<p class="HindiText">= अनादित्व का ज्ञान हो जाता है, इसलिए उसे सादित्व की प्राप्ति हो जायेगी, सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है।</p> | <span class="GRef">धवला पुस्तक 3/1,2,53/267/5</span> <p class="PrakritText">किमसंखेज्जं णाम। जो रासी एगेगरूवे अवणिज्जमाणे णिट्टादि सो असंखेज्जो। जो पुण ण समप्पइ सो रासी अणंतो। जदि एवं तो वयसहिदसक्खयअद्धपोग्गलपरियट्टकालो वि असंखेज्जो जायदे। होदु णाम। कधं पुणो तस्स अद्धपोग्गलपरियट्टस्स अणंतववएसो। इदि चे ण, तस्स उवयारनिबंधणादो। तं जहा-अणंतस्स केवलणाणस्स विसयत्तादो अद्धपोग्गलपरियट्टकालो वि अणंतो होदि। केवलणाणविसयत्तं पडि विसेसाभावा सव्वसंखाणमण्णंतत्तणं जायदे। चे ण, ओहिणाणविसयवदिरित्तसंखाणे अणण्णविसयत्तेण तदुवयारपवुत्तादो। अहवा जं संखाणं पंचिंदियविसओ तं संखेज्जं णाम। तदो उवरि जमोहिणाणविसओ तमसंखेज्जं णाम। </p> | ||
<p id="2.6">6. निर्व्यय भी | <p class="HindiText">= <br> | ||
< | <b>प्रश्न</b> - असंख्यात किसे कहते हैं, अर्थात् अनंत से असंख्यात में क्या भेद हैं? <br> | ||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - व्यय के न होनेसे व्युच्छित्ति को प्राप्त न होनेवाली अभव्य | <b>उत्तर</b> - एक-एक संख्या के घटाते जाने पर जो राशि समाप्त हो जाती है वह असंख्यात है और जो राशि समाप्त नहीं होती है वह अनंत है। <br> | ||
<p id="2.7"> | <b>प्रश्न</b> - यदि ऐसा है तो व्यय सहित होने से नाश को प्राप्त होने वाला अर्धपुद्गल परिवर्तन काल भी असंख्यात, रूप हो जायेगा? <br> | ||
< | <b>उत्तर</b> - हो जाये। <br> | ||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - (घातिया कर्मनि के चतुष्टय का नाश होतैं अनंतचतुष्टय की उत्पत्ति ही है। अनंतपन कैसे संभव है?) = <b>उत्तर</b> - सादि कहिये उपजने काल विषै आदि सहित है तथापि अपर्यवसिता कहिए अवसान या अंत ताकरि रहित है तातै अनंत कहिये। अथवा अविभाग | <b>प्रश्न</b> - तो फिर उस अर्धपुद्गल परिवर्तन काल को अनंत संज्ञा कैसे दी गयी है? <br> | ||
<p id="2.8">8. अनंत भी कथंचित् सीमित है</p> | <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि अर्धपुद्गल परिवर्तन काल को जो अनंत संज्ञा दी गयी है वह उपचार निमित्तक है। आगे उसी का स्पष्टीकरण करते हैं - अनंतरूप केवलज्ञान का विषय होने से अर्धपुद्गल परिवर्तन काल भी अनंत है, ऐसा कहा जाता है। <br> | ||
< | <b>प्रश्न</b> - केवलज्ञान के विषयत्व के प्रति कोई विशेषता न होने से सभी संख्याओं को अनंतत्व प्राप्त हो जायेगा? <br> | ||
<p class="HindiText">= मिथ्यादृष्टि | <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि जो संख्याएँ अवधिज्ञान का विषय हो सकती हैं उनसे अतिरिक्त ऊपर की संख्याएँ केवलज्ञान को छोड़कर दूसरे और किसी ज्ञान का विषय नहीं हो सकतीं, अतएव ऐसी संख्याओं में अनंतत्व के उपचार की प्रवृत्ति हो जाती है। अथवा, जो संख्या पाँचों इंद्रियों का विषय है वह संख्यात है, उसके ऊपर जो संख्या अवधिज्ञान का विषय है वह असंख्यात है, उसके ऊपर जो संख्या केवलज्ञान के विषय-भाव को ही प्राप्त होती है वह अनंत है। </p> | ||
<p>• | <p> <span class="GRef">त्रिलोकसार गाथा 52</span> <p class="PrakritText">जावदियं पच्चक्खं जुगवं सुदओहिकेवलाण हवे। तावदियं संखेज्जमसंखमणंतं कमा जाणे ॥52॥ <p class="HindiText">- यावन्मात्र विषय युगपत् प्रत्यक्ष श्रुत, अवधि, केवलज्ञान के होंहि तावन्मात्र संख्यात असंख्यात अनंत क्रमतैं जानऊ।</p><br> | ||
<p class="HindiText" id="2.5"> <p class="HindiText"><b>5. सर्वज्ञत्व के साथ अनंतत्व का समन्वय</b></p> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 5/9,3-4/452/24</span> <p class="SanskritText">अनंतत्वादपरिज्ञानमिति चेत्, न; अतिशयज्ञानदृष्टत्वात् ॥3॥ स्यादेतत्-सर्वज्ञेनानंतं परिच्छिन्नं वा, अपरिच्छिन्नं वा। यदि परिच्छिन्नम्; उपलब्धावसानत्वाद् अनंतत्वमस्य हीयते। अथापरिच्छिन्नम्; तत्स्वरूपानवबोधाद् असर्वज्ञत्वं स्यादिति। तन्न किं कारणम्। अतिशयज्ञानदृष्टत्वात्। यत्तत्केवलिनां ज्ञानं क्षायिकम् अतिशयवद् अनंतानंतपरिमाणं तेन तदनंतमवबुध्यते साक्षात्। तदुपदेशादितरैरनुमानेनेति न सर्वज्ञत्वहानिः। न च तेन परिच्छिन्नमित्यतः सांतम् अनंतेनानंतमिति ज्ञातत्वात्। किं च सर्वेषामविप्रतिपत्तेः ॥4॥ </p> | |||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - अनंत होने के कारण वह ज्ञान में नहीं आना चाहिए? <br> | |||
<b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि अतिशय रूप केवलज्ञान के द्वारा उसे भी जान लिया जाता है। <br> | |||
<b>प्रश्न</b> - सर्वज्ञ के द्वारा अनंत जाना जाता है अथवा नहीं जाना जाता? यदि अनंत को सर्वज्ञ ने जाना है तो अनंत का ज्ञान के द्वारा अंत जान लेने से अनंतता नहीं रहेगी, और यदि नहीं जाना है तो उसके स्वरूप का ज्ञान न होने के कारण असर्वज्ञता का प्रसंग आयेगा? <br> | |||
<b>उत्तर</b> - ऐसा नहीं है, क्योंकि अतिशय ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है। यह जो केवलज्ञानियों का क्षायिकज्ञान है सो अतिशयवान् तथा अनंतानंत परिमाण वाला है। उसके द्वारा अनंत साक्षात् जाना जाता है। अन्य लोक सर्वज्ञ के उपदेश से तथा अनुमान से अनंतता का ज्ञान कर लेते हैं। <br> | |||
<b>प्रश्न</b> - यदि कहोगे कि उसके द्वारा जाना गया है, अतः वह अनंत भी सांत है? <br> | |||
<b>उत्तर</b> - तो ऐसा भी नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञ ने अनंत को अनंत रूप से ही जाना है और सभी वादी प्रायः इस विषय में विरोध भी नहीं रखते हैं। </p> | |||
<p class="HindiText">(वि. देखें [[ अनंत#2.2 | अनंत - 2.2]])।</p> | |||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 3/1,2,3/30/6</span> <p class="PrakritText">ण च अणादि त्ति जाणिदे सादित्तं पावेदि, विरोहा। </p> | |||
<p class="HindiText">= अनादित्व का ज्ञान हो जाता है, इसलिए उसे सादित्व की प्राप्ति हो जायेगी, सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है।</p><br> | |||
<p class="HindiText"id="2.6"><p class="HindiText"><b>6. निर्व्यय भी अभव्य राशि में अनंतत्व कैसे सिद्ध होता है</b></p> | |||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 7/2,5,160/295/10 </span><p class="PrakritText">कधं एदस्स अव्वए संते अव्वोच्छिज्जमाणस्स अणंतववएसो ण, अणंतस्स केवलणाणस्स चेव विसए अवट्ठिदाणं संखाणमुवयारेण अणंतत्तविरोहाभावादो। </p> | |||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - व्यय के न होनेसे व्युच्छित्ति को प्राप्त न होनेवाली अभव्य राशि के `अनंत' यह संज्ञा कैसे संभव है? - <br> | |||
<b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि अनंत रूप केवलज्ञान के ही विषय में अवस्थित संख्याओं के उपचार से अनंतपन मानने में विरोध नहीं आता।</p><br> | |||
<p class="HindiText" id="2.7"><p class="HindiText"><b>7. अनंत चतुष्टय में अनंतत्व कैसे सिद्ध है</b></p> | |||
<span class="GRef">क्षपणासार / मूल या टीका गाथा 610/725 </span><p class="PrakritText">खीणे घादिचउक्के णं तचउक्कस्स होदि उप्पत्ती। सादी अपज्जवसिदा उक्कस्साणंतपरिसंखा ॥610॥ </p> | |||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - (घातिया कर्मनि के चतुष्टय का नाश होतैं अनंतचतुष्टय की उत्पत्ति ही है। अनंतपन कैसे संभव है?) = <br> | |||
<b>उत्तर</b> - सादि कहिये उपजने काल विषै आदि सहित है तथापि अपर्यवसिता कहिए अवसान या अंत ताकरि रहित है तातै अनंत कहिये। अथवा अविभाग प्रतिच्छेदनि की अपेक्षा इनकी उत्कृष्ट अनंतानंत मात्र संख्या है तातै भी अनंत कहिये।</p><br> | |||
<p class="HindiText" id="2.8"><p class="HindiText"><b>8. अनंत भी कथंचित् सीमित है</b></p> | |||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 3/1,2,3/30/1</span> <p class="PrakritText">तेन कारणेण मिच्छाइट्ठिरासी ण अवहिरिज्जदि, सव्वे समया अवहिरिज्जंति। ...अण्णहा तस्साभावपसंगादो। ण च अणादि त्ति जाणिदं सादित्तं पावेदि, विरोहा। </p> | |||
<p class="HindiText">= मिथ्यादृष्टि जीव राशि का प्रमाण समाप्त नहीं होता, परंतु अतीत काल के संपूर्ण समय समाप्त हो जाते हैं। ...यदि उसका प्रमाण नहीं माना जाये तो उसके अभाव का प्रसंग आ जायेगा। परंतु उसके अनादित्व का ज्ञान हो जाता है, इसलिए उसे सादित्व की प्राप्ति हो जायेगी, सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है। <br> | |||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/2/1/7/19/569/6 भाषाकार</span> <p class="HindiText"> "जैन सिद्धांत अनुसार अलोकाकाश के अनंतानंत प्रदेश भी संख्या में परिमित हैं, क्योंकि अक्षय अनंत जीव राशि से अनंतगुणी पुद्गल राशि से भी अनंत गुणे हैं।</p> | |||
<p class="HindiText">• आगम में अनंत की यथास्थान प्रयोग विधि - देखें [[ गणित#I.1.1 | गणित - I.1.1]],[[ गणित#I.1.6 | गणित - I.1.6]]।</p> | |||
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[[Category: अ]] | [[Category: अ]] | ||
[[Category: करणानुयोग]] | |||
== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<div class="HindiText"> <p id="1"> (1) भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 24. 34,25.69 </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText"> (1) भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 24. 34,25.69 </span></p> | ||
<p id="2">(2) एक मुनि का नाम । घातकी खंड के पूर्व भाग में स्थित तिलकनगर के राजा अभय घोष ने इनसे दीक्षा ली थी । <span class="GRef"> महापुराण 63. 173 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) एक मुनि का नाम । घातकी खंड के पूर्व भाग में स्थित तिलकनगर के राजा अभय घोष ने इनसे दीक्षा ली थी । <span class="GRef"> महापुराण 63. 173 </span></p> | ||
<p id="3">(3) एक गणधर का नाम । घातकीखंड के सारसमुच्चय नामक देश में नागपुर नगर का नृप नरदेव इन्हीं से संयमी हुआ था । <span class="GRef"> महापुराण 68.3-7 </span></p> | <p id="3" class="HindiText">(3) एक गणधर का नाम । घातकीखंड के सारसमुच्चय नामक देश में नागपुर नगर का नृप नरदेव इन्हीं से संयमी हुआ था । <span class="GRef"> महापुराण 68.3-7 </span></p> | ||
<p id="4">(4) गणना का एक भेद । <span class="GRef"> महापुराण 3. 3 </span></p> | <p id="4" class="HindiText">(4) गणना का एक भेद । <span class="GRef"> महापुराण 3. 3 </span></p> | ||
<p id="5" | <p id="5" class="HindiText">(5) चौदहवें तीर्थंकर [[ अनंतनाथ ]] । </p> | ||
<p id="6">(6) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25.109 </span></p> | <p id="6" class="HindiText">(6) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25.109 </span></p> | ||
</div> | </div> | ||
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[[Category: पुराण-कोष]] | [[Category: पुराण-कोष]] | ||
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Latest revision as of 14:39, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
द्रव्यों, पदार्थों व भावों तक की संख्याओं का विचित्र प्रकार से निरूपण करने का ढंग सर्वज्ञ मत से अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता। ये संख्याएँ गणना को अतिक्रांत करके वर्तने के कारण असंख्यात व अनंत द्वारा प्ररूपित की जाती हैं। यद्यपि अनंत संख्या को जानना अल्पज्ञ के लिए संभव नहीं है, फिर भी उसमें एक-दूसरे की अपेक्षा तरतमता दर्शा कर बड़ी योग्यता के साथ उसका अनुमान कराया जाता है।
- अनंत के भेद व लक्षण
- अनंत सामान्य का लक्षण
- अनंत के भेद-प्रभेद
- गामादि 11 भेदों के लक्षण
- जघन्यादि परीतानंत के लक्षण
- वर्गित संवर्गित करने की प्रतिक्रिया
- जघन्यादि युक्तानंत के लक्षण
- जघन्यादि अनंतानंत के लक्षण
- अनंत निर्देश
1. अनंत के भेद व लक्षण
1. अनंत सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /5/9/275
अविद्यमानोऽंतो येषां ते अनंताः।
= जिनका अंत नहीं है, वे अनंत कहलाते हैं।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /8/9/386
अनंतसंसारकारणत्वांमिथ्यादर्शनमनंतम्।
= अनंत संसार का कारण होने से मिथ्यादर्शन अनंत कहलाता है।
धवला पुस्तक 1/1,1,140/392/6
न हि सांतस्यानंत्यं विरोधात्। सव्ययस्य निरायस्य राशेः कथमानंत्यमिति चेन्न, अंयथैकस्याप्यानंत्यप्रसंगः। शव्ययस्यानंतस्य न क्षयोऽस्तीत्येकांतोऽस्ति।
= सांत को अनंत मानने में विरोध आता है।
प्रश्न - जिस राशि का निरंतर व्यय चालू है, परंतु उसमें आय नहीं है, तो उसको अनंतपन कैसे बन सकता है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि यदि सव्यय और निराय राशि को भी अनंत न माना जावे तो एक को भी अनंतपने का प्रसंग आ जायेगा। व्यय होते हुए भी अनंत का क्षय नहीं होता है यह एकांत नियम है।
धवला पुस्तक 3/1, 2, 53/267/5
जो रासी एगेगरूवे अवणिज्जमाणे णिट्ठादि सो असंखेज्जो। जो पुण ण समप्पइ सो रासी अणंतो।
= एक-एक संख्या के घटाते जाने पर जो राशि समाप्त हो जाती है वह असंख्यात है और जो राशि समाप्त नहीं होती है वह अनंत है।
( धवला पुस्तक 3/1, 2, 2/15/8) (धवला पुस्तक 14/5, 6, 128/235/6)।
2. अनंत के भेद-प्रभेद
धवला पुस्तक 3/1, 2, 2/गाथा 8/11/7
णामं ट्ठवणादवियां सस्सद गणणापदेसियमणंतं। एगो उभयादेसो वित्थारो सव्वभावो य।
= नामानंत, स्थापनानंत, द्रव्यानंत, शाश्वतानंत, गणनानंत, अप्रदेशिकानंत, एकानंतउभयानंत, विस्तारानंत, सर्वानंत और भावानंत - इस प्रकार अनंत के ग्यारह भेद हैं।
धवला पुस्तक 3/1,2,2/पृष्ठ/पंक्ति
तं दव्वाणं तं तं दुविहं आगमदो णोआगमदो य (12/3)। तं णोआगमदो दव्वाणं तं तं तिविहं, जाणुगसरीरदव्वाणं तं भवियदव्वाणं तं तव्वदिरिक्तदव्वाणं तं चेदि (13/3)। तं दव्वादिरिक्तदव्वाणंतं तं दुविहं, कम्माणं तं णोकम्माणंतमिदि (15/1)| तं भावाणं तं तं दुविहं आगमदो णोआगमदो य (16/9)। तं गणणाणंतं तं पि तिविहं, परिक्ताणंतं जुत्ताणंतं अणंताणंतमिदि (18/3)| तं अणंताणंतं तं पि तिविहं, जहण्णमुक्कसं मज्झिममिदि (19/2)।
= द्रव्यानंत
- आगम व
- नोआगम के भेद से दो प्रकार का है। नोआगम द्रव्यानंत तीन प्रकार का है -
- ज्ञायक शरीर नोआगम द्रव्यानंत
- भव्य नोआगम द्रव्यानंत
- तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यानंत| तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यानंत दो प्रकार का है
- कर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यानंत और
- नोकर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यानंत।
- आगम और
- नोआगम की अपेक्षा भावानंत दो प्रकार का है।
गणनानंत तीन प्रकार का है -
- परीतानंत
- युक्तानंत, और
- अनंतानंत
और उपलक्षण से परीतानंत व युक्तानंत भी तीन प्रकार का है -
- जघन्य,
- उत्कृष्ट और
- मध्यम ।
(तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/311) (राजवार्तिक अध्याय 3/38/5/15/206-207)।
(Chitra-6)
अनंत
नाम
स्थापना
द्रव्य
शाश्वत
गणना
अप्रदेशिक
एका
उभयादेश
विस्तार
सर्व
भाव
परीतानंत
युक्तानंत
अनंतानंत
आगम
नोआगम
उत्तम मध्यम जघन्य
आगम नोआगम
ज्ञायक शरीर भव्य तद्व्यतिरिक्त
कर्म नोकर्म
3. गामादि 11 भेदों के लक्षण
धवला पुस्तक 3/1,2,2/11-16/9
णामाणंतं जीवाजीवमिस्सदव्वस्स कारणणिरवेक्खा सण्णा अणंता इदि। जं तं ट्ठवणाणंतं णामं तं कट्ठकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्पकम्मेसु वा लेणकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा भेंडकम्मेसु वा द तकम्मेसु वा अक्खो वा वराडयो वा जे च अण्णे ट्ठवणाए ट्ठविदा अणंतमिदि तं सव्वं ट्ठवणाणं तं णाम। ...आगमो गंथो सुदणाणं सिद्धं तो पवयणमिदि एगट्ठो...तत्थ आगमदो दव्वाणं तं अणंतपाहुड जाणओ अणुवजुत्तो। आगमादण्णो णोआगमो। तत्थ जाणुगसरीरदव्वाणं तं अणंतपाहुडजाणुगसरीरं तिकालजादं। ....भवियाणं तं अणंतप्पाहुडजाणुगभावी जोवो...जं तं कम्माणं तं तं कम्मस्स पदेसा। जं तं णोकम्माणं तं तं कंडय-रूजगदीव समुद्दादि एयपदेसादि पोग्गलदव्वं वा। ...। जं तं सस्सदाणं तं तं धम्मादिदव्वगयं। कुदो। सासयत्तेण दव्वाणं विणासाभावादो। जं तं गणणाणं तं तं बहुवण्णणीयं सुगमं च। जं तं अपदेसियाणं तं तं परमाणू। .....एकप्रदेशे परमाणौ तद्व्यतिरिक्तापरो द्वितीयः प्रदेशोऽंतव्यपदेशभाक नास्तीति परमाणुरप्रदेशानंतः। ...जं तं एयाणं तं तं लोगमज्झादो एगसेढिं पेक्खमाणे अंताभावादो एयाणं तं। ...जहा अपारो सागरो, अथाहं जलमिदि। जं तं उभयाणंतं तं तधा चेव उभयदिसाए पेक्खमाणे अंताभावादो उभयादेसणं तं। जं तं वित्थाराणं तं तं पदरागारेण आगासं पेक्खमाणे अंताभावादो भवदि। जं तं सव्वाणं तं तं घणागारेण आगासं पेक्खमाणे अंताभावादो सव्वाणं तं भवदि। ...आगमदो भावाणं तं अणंतपाहुडजाणगो उवजुत्तो। जं तं णोआगमदो भावाणं तं तं तिकालजादं अणंतपज्जयपरिणदजीवादिदव्वं।
- = नामानंत - कारण के बिना ही जीव अजीव और मिश्र द्रव्य की `अनंत' ऐसी संज्ञा करना नाम अनंत है (11/9)।
- स्थापनानंत - काष्ठ कर्म, चित्रकर्म, पुस्त (वस्त्र) कर्म, लेप्यकर्म, लेनकर्म, शैलकर्म, भित्तिकर्म, गृहकर्म, भेंडकर्म अथवा दंतकर्म में अथवा अक्ष (पासा) हो या कौड़ी हो, अथवा कोई दूसरी वस्तु हो उसमें `यह अनंत है' इस प्रकार की स्थापना करना स्थापनानंत है (11/9)।
- द्रव्यानंत - द्रव्यानंत आगम नोआगम के भेद से दो प्रकार का है। आगम, ग्रंथ, श्रुतज्ञान, सिद्धांत और प्रवचन ये एकार्थवाची शब्द हैं (12/3)।
- आगम द्रव्यानंत - अनंत विषयक शास्त्र को जानने वाले परंतु वर्तमान में उसके उपयोग से रहित जीव को आगम द्रव्यानंत कहते हैं। (12/11)।
- नोआगम द्रव्यानंत - [वह नोआगम द्रव्यानंत तीन प्रकार का है - ज्ञायक शरीर, भव्य और तद्व्यतिरिक्त] उनमें से अनंत विषयक शास्त्र को जानने वाले (जीव) के तीनों कालों में होने वाले शरीर को ज्ञायक शरीर नोआगम द्रव्यानंत कहते हैं (13/3)। जो जीव भविष्यकाल में अनंत विषयक शास्त्र को जानेगा उसे भावि नोआगम द्रव्यानंत कहते हैं। तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यानंत दो प्रकार का है - कर्म तद्व्यतिरिक्त और नोकर्म तद्व्यतिरिक्त। ज्ञानावरणादिक आठ कर्मों के प्रदेशों को कर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यानंत कहते हैं। कटक (कंकण) रुचक (तावीज़) द्वीप और समुद्रादिक अथवा एकप्रदेशादिक पुद्गल द्रव्य ये सब नोकर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यानंत हैं (15/1)।
- शाश्वतानंत - शाश्वतानंत धर्मादि द्रव्यों में रहता है, क्योंकि धर्मादि द्रव्य शाश्वतिक होने से उनका कभी भी विनाश नहीं होता। ....अंत विनाश को कहते हैं। जिसका अंत अर्थात् विनाश नहीं होता उसको अनंत कहते हैं (15/4)।
- गणनानंत - गणनानंत बहुवर्णनीय है तथा सुगम है (देखें आगे पृथक् लक्षण ) ।
- अप्रदेशानंत - एक परमाणु को अप्रदेशानंत कहते हैं। ...क्योंकि, एकप्रदेशी परमाणु में उस एक प्रदेश को छोड़कर `अंत' इस संज्ञा को प्राप्त होने वाला दूसरा प्रदेश नहीं पाया जाता है, इसलिए परमाणु अप्रदेशानंत है (15/9)।
- एकानंत - लोक के मध्य से आकाश के प्रदेशों की एक श्रेणी को (एक दिशा में) देखने पर उसका अंत नहीं पाया जाता, इसलिए उसको एकानंत कहते हैं - जैसे अथाह समुद्र, अथाह जलादि। Unidirectional infinite (जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो / प्रस्तावना 105) ।
- उभयानंत - लोक के मध्य से आकाश प्रदेश पंक्ति को दो दिशाओं में देखने पर उनका अंत नहीं पाया जाता है, इसलिए उसे उभयानंत कहते हैं।
- विस्तारानंत - आकाश को प्रतर रूप से देखने पर उसका अंत नहीं पाया जाता इसलिए उसे विस्तारानंत कहते हैं (16/7)।
- सर्वानंत - आकाश को घन रूप से देखने पर उसका अंत नहीं पाया जाता इसलिए उसे सर्वानंत कहते हैं (16/8)।
- भावानंत - आगम और नोआगमकी अपेक्षा भावानंत दो प्रकार का है।
- आगम भावानंत - अनंत विषयक शास्त्र को जानने वाले और वर्तमान में उसके उपयोग से उपयुक्त जीव को आगम भावानंत कहते हैं।
- नोआगम भावानंत - त्रिकाल जात अनंत पर्यायों से परिणत जीवादि द्रव्य को नोआगम भावानंत कहते हैं।
4. जघन्यादि परीतानंत के लक्षण
राजवार्तिक अध्याय 3/38/5/207/7
यज्जघन्या संख्येयासंख्येयं तद्विरलीकृत्य पूर्वविधिना त्रोन्वारान् वर्गितसंवर्गित उत्कृष्टासंख्येयासंख्येयं प्राप्नोति। ततो धर्माधर्मैकजीवलोकाकाशप्रदेशप्रत्येकशरीरजीवबादरनिगोतशरीराणि षडप्येतान्यसंख्येयानि स्थितिबंधाध्यवसायस्थानांयनुभागबंधाध्यवसायस्थानानि योगविभागपरिच्छेदरूपाणि चासंख्येयलोकप्रदेशपरिमाणान्युत्सपिण्यवसर्पिणीसमयांश्च प्रक्षिप्य पूर्वोक्तराशौ त्रोन्वारान् वर्गितसंवर्गित कृत्वा उत्कृष्टासंख्येयासंख्येयमतीत्य जघंयपरीतानंतं गत्वा पतितम्। ...यज्जघंयपरीतानंतं तत्वपूर्ववद्वगितसंवर्गितमुत्कृष्टपरीतानंतमतीत्य जघंययुक्तानंतं गत्वा पतितम्। तत् एकरूपेऽपनीतेउत्कृष्टपरीतानंतं तद्भवति। मध्यममजघंयोत्कृष्टपरीतानंतम्।
= जघन्य संख्येयासंख्येय (देखे असंख्यात ) को विरलन कर पूर्वोक्त विधि से (देखें नीचे ) तीन बार वर्गित संवर्गित करने पर भी उत्कृष्ट संख्येयासंख्येय नहीं होता । इसमें धर्म, अधर्म, एक जीव व लोकाकाश के प्रदेश, प्रत्येक शरीर, बादर निगोद शरीर ये छहों असंख्येय, स्थिति बंधाध्यवसाय स्थान, अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान, योग के अविभाग प्रतिच्छेद, उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल के समयों को जोड़कर तीन बार वर्गित संवगित करने पर उत्कृष्टासंख्येयासंख्येय को उल्लंघ कर जघन्य परीतानंत में जाकर स्थित होता है। ...यह जो जघन्य परीतानंत उसको पूर्ववत् वर्गितसंवर्गित करने पर उत्कृष्ट परीतानंत को उल्लंघ कर जघन्य युक्तानंत में जाकर गिरता है। उसमें-से एक कम करने पर उत्कृष्ट परीतानंत हो जाता है। मध्यम परीतानंत इन दोनों सीमाओं के बीच में अजघन्य व अनुत्कृष्ट रूप वाला है।
( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/310/181) ( त्रिलोकसार गाथा 45-46)।
5. वर्गित संवर्गित करने की प्रतिक्रिया
धवला पुस्तक 5/प्रस्तावना 23 (धवला पुस्तक 3/1,2,2/20)
(Chitra-7)
अ अ ज = जघन्य असंख्यातासंख्यात
(यही राशि)
(अ अ ज)
(अ अ ज)
यदि (अ अ ज)
`क' = (अ अ ज)
`ख' = क + (धर्म व अधर्म द्रव्य तथा एक जीव व लोकाकाश के प्रदेश + प्रत्येक शरीर जीव + बादर निगोद शरीर ये छह)
-
(ख)
(ख)
(ख)
(ख) + 4 निम्नराशि
`ग' = (ख)
(ख)
(ख)
(ख)
4 राशि = स्थिति बंधाध्यववसाय स्थान + अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान+योग के अविभाग प्रतिच्छेद + उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालों के कुल समय।
(ग)
(ग)
(ग)
(ग)
तो जघन्य परीतानंत = (ग)
न. प. ज. = (ग)
(ग)
(ग)
मध्यम परीतानंत = न. प. म. = > न. प. ज. किंतु < न.प.उ. अर्थात् न. प. ज. से बड़ा और न. प. उ. से छोटा।
उत्कृष्ट परीतानंत = न. प. उ. - न. प. ज. - 1
6. जघन्यादि युक्तानंत के लक्षण
राजवार्तिक अध्याय 3/38,5/207/14
यज्जघंयपरीतानंतं तत्पूर्ववद्वर्गितसंवर्गितमुत्कृष्टपरीतानंतमतीत्य जघंययुक्तानंतं गत्वा पतितम्। ...यज्जघंययुक्तानंतं तद्विरलीकृत्यात्रैकैकरूपे जघंययुक्तानंतं दत्वा सकृद्वर्गितमुत्कृष्टयुक्तानंतमतीत्य जघंयमनंतानंतं गत्वा पतितम्। तत् एकरूपेऽपनीते उत्कृष्टयुक्तानंतं भवति। मध्यममजघंयोत्कृष्टयुक्तानंतम्।
= जघन्य परीतानंत पूर्ववत् वर्गित, संवर्गित उत्कृष्ट परीतानंत को उल्लंघ कर जघन्य युक्तानंत में जाकर स्थित होता है। ... इस जघन्य युक्तानंत को विरलन कर प्रत्येक पर जघन्य युक्तानंत को रख उन्हें परस्पर वर्ग करने पर उत्कृष्ट युक्तानंत को उल्लंघकर जघन्य परीतानंत (जघन्य युक्तानंत) को प्राप्त होता है अर्थात् (जघन्य युक्तानंत) यह राशि जघन्य अनंतानंत के बराबर है। इसमें से एक कम करने पर उत्कृष्ट युक्तानंत होता है। मध्यम युक्तानंत इन दोनों की सीमाओं के बीच में अजघन्य व अनुत्कृष्ट रूप है।
( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/311) ( त्रिलोकसार गाथा 46-47)।
7. जघन्यादि अनंतानंत के लक्षण
राजवार्तिक अध्याय 3/38,5/207/16
यज्जघंययुक्तानंतं तद्विरलीकृत्यात्रैकैकरूपे जघंययुक्तानंतं दत्वा सकृद्वर्गितमुत्कृष्टयुक्तानंतमतीत्य जघंयानंतानंतं गत्वा पतितम्। ...यज्जघंयानंतानंतं तद्विरलीकृत्य पूर्ववत्त्रीन्वारान् वर्गितसंवर्गितमुत्कृष्टानंतानंतं न प्राप्नोति, ततः सिद्धनिगोतजीववनस्पतिकायातीतानागतकालसमय सर्वपुद्गलसर्वाकाशप्रदेशधर्माधर्मास्तिकायागुरुलघुगुणानंतां प्रक्षिप्य प्रक्षिप्य त्रीन् वारान् वर्गितसंवर्गिते कृते उत्कृष्टानंतानंतं न प्राप्नोति ततोऽनंते केवलज्ञाने दर्शने च प्रक्षिप्ते उत्कृष्टानंतानंतं भवति। तत् एकरूपेऽपनोतेऽजघंयोत्कृष्टानंतानंतं भवति।
= जघन्य युक्तानंत को विरलन कर प्रत्येक पर जघन्य युक्तानंत को रख उन्हें परस्पर वर्ग (जघन्य युक्तानंत) करने पर अर्थात् (जघन्य युक्तानंत) उत्कृष्ट युक्तानंत से आगे जघन्य अनंतानंत में जाकर प्राप्त होता है.... इस जघन्य अनंतानंत को पूर्ववत् विरलीकृत कर तीन बार वर्गित संवर्गित करने पर उत्कृष्ट अनंतानंत प्राप्त नहीं होता है। उसमें सिद्ध जीव, निगोद जीव, वनस्पति काय वाले जीव, अतीत व अनागत कालके समय, सर्व पुद्गल, सर्व आकाश प्रदेश, धर्म व अधर्मास्तिकाय द्रव्यों के अगुरुलघु गुणों के अनंत अविभाग प्रतिच्छेद जोड़े। फिर तीन बार वर्गित संवर्गित करें। तब भी उत्कृष्ट अनंतानंत नहीं होता है। अतः उसमें केवलज्ञान व केवलदर्शन को (अर्थात् इनके सर्व अविभागी प्रतिच्छेदों को) जोड़ें, तब उत्कृष्ट अनंतानंत होता है। उसमें से एक कम करने पर अजघन्योत्कृष्ट या मध्यम अनंतानंत होता है।
( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/311) ( धवला पुस्तक 3/1,2,2/18/5) ( त्रिलोकसार गाथा 47-51) (धवला पुस्तक 5/प्रस्तावना 24) जघन्य अनंतानंत = न. न. ज.।
(Chitra-8)
+ 6 राशि
(न.न.ज.)
(न.न.ज;)
(न.न.ज.)
(न.न.ज.)
(न.न.ज.)
(न.न.ज.)
(न.न.ज.)
(न.न.ज.)
यदि `क्ष' =
छः राशि = सिद्ध+साधारण वनस्पति निगोद+वनस्पति काय+अतीत व अनागत काल के समय या व्यवहार काल+पुद्गल+अलोकाकाश।
(क्ष क्ष)
`त्र' = (क्ष. क्ष.)
(क्ष. क्ष) + दो राशि
(क्ष. क्ष.)
दो राशि = धर्म व अधर्म द्रव्य के अगुरुलघु गुणों के अविभाग प्रतिच्छेद।
त्र)
(त्र
त्र)
(त्र
`ज्ञ' =
त्र)
(त्र
त्र)
(त्र
तब केवल ज्ञान राशि > `ज्ञ'
उत्कृष्ट अनंतानंत = न. न. उ. = ज्ञ+केवलज्ञान व केवलदर्शन के अविभाग प्रतिच्छेद
2. अनंत निर्देश
1. अनंत वह है जिसका कभी अंत न हो।
धवला पुस्तक 1/1,1,141/392/6
न हि सांतस्यानंत्यं विरोधात्। सव्ययनिरायस्य राशेः कथमानंत्यमिति चेन्न, अंयथैकस्याप्यानंत्यप्रसंगः। सव्ययस्यानंतस्य न क्षयोऽस्तीत्येकांतोऽस्ति स्वसंख्येयासंख्येय भागव्ययस्य राशेरनंतस्यापेक्षया तद्द्विव्यादिसंख्येयराशिव्ययतो न क्षयोऽपीत्यभ्युपगमात्। अर्ध पुद्गलपरिवर्तनकालस्यानंतस्यापि क्षय दर्शनादनैकांतिक आनंत्यहेतुरिति चेन्न, उभयोर्भिंननिबंधतः प्राप्तानंतयोः साम्याभावतोऽर्द्धपुद्गलपरिवर्तनस्य वास्तवानंत्याभावात्। तद्यथा अर्द्ध पुद्गलपरिवर्तनकालः सक्षयोऽप्यनंतः छद्मस्थैरनुपलब्धपर्यंतत्वात्। केवलमनंतस्तद्विषयत्वाद्वा। जीवराशिस्तु पुनः संख्येयराशिक्षयोऽपि निर्मूलप्रलयाभावादनंत इति। किं च सव्ययस्य निरवशेषक्षयेऽभ्युपगम्यमाने कालस्यापि निरवशेषक्षयो जायेत सव्ययत्वं प्रत्यविशेषात्। अस्तु चेन्न, सकलपर्यायप्रक्षयतोऽशेषस्य वस्तुनः प्रक्षीणस्वलक्षणस्याभावापत्तेः।
= जो राशि सांत होती है उसमें अनंतपन नहीं बन सकता है, क्योंकि सांत को अनंत मानने में विरोध आता है। प्रश्न - जिस राशि का निरंतर व्यय चालू है, परंतु इसमें आय नहीं होती है तो उसको अनंतपन कैसे बन सकता है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि यदि सव्यय और निराय राशि को भी अनंत न माना जावे तो एक को भी अनंत मानने का प्रसंग आ जायेगा। व्यय होते हुए भी अनंत का क्षय नहीं होता, यह एकांत नियम है, इसलिए जिसके संख्यातवें और असंख्यातवें भाग का व्यय हो रहा है ऐसी राशि का, अनंत की अपेक्षा उसकी दो तीन आदि संख्यात राशि के व्यय होने से भी क्षय नहीं होता है, ऐसा स्वीकार किया है।
प्रश्न - अर्ध पुद्गल परिवर्तन रूप काल अनंत होते हुए भी उसका क्षय देखा जाता है। इसलिए भव्य राशि के क्षय न होने में जो अनंत रूप हेतु दिया है वह व्यभिचरित हो जाता है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि भिन्न-भिन्न कारणों से अनंतपन को प्राप्त भव्य राशि और अर्धपुद्गल परिवर्तन काल वास्तव में अनंत रूप नहीं है। आगे इसी का स्पष्टीकरण करते हैं। - अर्ध पुद्गल परिवर्तनकाल क्षय सहित होते हुए भी इसलिए अनंत है कि छद्मस्थ जीवों के द्वारा उसका अंत नहीं पाया जाता है। किंतु केवलज्ञान वास्तव में अनंत है। अथवा अनंत को विषय करने वाला होने से वह अनंत है। जीव राशि तो, उसका संख्यातवें भाग रूप राशि के क्षय हो जाने पर भी निर्मूल नाश नहीं होने से, अनंत है। अथवा ऊपर जो भव्य राशि के क्षय होने में अनंत रूप हेतु दे आये हैं, उसमें छद्मस्थ जीवों के द्वारा अनंत की उपलब्धि नहीं होती है, इस अपेक्षा के बिना ही, यह विशेषण लगा देने से अनैकांतिक दोष नहीं आता है। दूसरे व्यय सहित अनंत के सर्वथा क्षय मान लेने पर कालका भी सर्वथा क्षय हो जायेगा, क्योंकि व्यय सहित होने के प्रति दोनों समान हैं।
प्रश्न - यदि ऐसा ही मान लिया जाये तो क्या हानि है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर काल की समस्त पर्यायों के क्षय हो जाने से दूसरे द्रव्यों की स्वलक्षण रूप पर्यायों का भी अभाव हो जायेगा। और इसलिए समस्त वस्तुओं के अभाव की आपत्ति आ जायेगी।
(धवला पुस्तक 4/1,5,4/338/4)।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 29/श्लोक 2 में उद्धृत 332/5
अत्यन्यूनातिरिक्तत्वैर्युज्यते परिमाणवत्। वस्तुन्यपरिमेये तु नूनं तेषामसंभवः ॥2॥
= अपरिमित वस्तु का न कभी अंत होता है, न कभी घटती है और न समाप्त होती है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 37/157
यथा भावितकाले समयानां क्रमेण गच्छतां यद्यपि भाविकालसमयराशेः स्तोकत्वं भवति तथाप्यवसानं नास्ति। तथा मुक्तिं गच्छतां जीवानां यद्यपि जीवराशेः स्तोक्त्वं भवति तथाप्यवसानं नास्ति।
= क्रम से जाते हुए जो भविष्यत्काल के समय, उनसे यद्यपि भविष्यत्काल के समयों की राशि में कमी होती है, फिर भी उस समय-राशि का कभी अंत न होगा, इसी प्रकार मुक्ति में जाते हुए जीवों से यद्यपि जगत् में जीव राशि की न्यूनता होती है तो भी उस राशि का अंत नहीं होता।
2. अनंत की सिद्धि
राजवार्तिक अध्याय 5/9,3-5/452/34
न च तेन परिच्छिन्नमित्यतः सांतम्। अनंतेनानंतमिति ज्ञातत्वात्। ...नात्र सर्वे प्रवादिनो विप्रतिपद्यंते केचित्तावदाहुः-`अनंता लोकधातवः' इति। अपरे मंयंते-दिक्कालात्माकाशानां सर्वगतत्वाद् अनंतत्वमिति। इतरे ब्रुवते-प्रकृतिपुरुषयोरनंतत्वं सर्वगतत्वादिति। न चैतेषामनंतत्वादपरिज्ञानम्, नापि परिज्ञानत्वमात्रादेव तेषामंतवत्त्वम्। ...यस्य अर्थानामानंत्यमपरिज्ञातकारणं तस्य सर्वज्ञाभावः प्रसजति। ....अथांतवत्त्वं स्यात् संसारो मोक्षश्च नोपपद्यते। कथमिति चेत्, उच्यते जीवाश्चेत्सांताः, सर्वेषां हि मोक्षप्राप्तौ संसारोच्छेदः प्राप्नोति। तद्भयात् मुक्तानां पुनरावृत्त्यभ्युपगमे स मोक्ष एव न स्यात् अनात्यंतिकत्वात्। एकैकस्मिन्नपि जीवे कर्मादिभावेन व्यवस्थिताः पुद्गलाः अनंताः, तेषामंतवत्त्वे सति कर्मनोकर्मविषयविकल्पाभावात् संसाराभावः तदभावान्मोक्षश्च न स्यात्। तथा अतीतानागतकालयोरंतवत्त्वे प्राक् पश्चाच्च कालव्यवहाराभावः स्यात्। न चासौ युक्तः असतः प्रादुर्भावाभावात् सतश्चात्यंतविनाशानुपपत्तेरिति। तथा आकाशस्यांतक्त्त्वाभ्युगगमे ततो बहिर्घनत्वप्रसंगः। नास्ति चेदघनत्वम् आकाशेनापि भवितव्यमित्यंतवत्त्वाभावः।
= प्रश्न - अनंत को केवलज्ञान के द्वारा जान लेने से अनंतता नहीं रहेगी?
उत्तर - 1. उसके द्वारा अनंत का अनंत के रूप में ही ज्ञान हो जाता है। अतः मात्र सर्वज्ञ के द्वारा ज्ञान से उसमें सांतत्व नहीं आता।
2. प्रायः सभी वादी अनंत भी मानते हैं और सर्वज्ञ भी। बौद्ध लोग धातुओं को अनंत कहते हैं। वैशेषिक दिशा, काल, आकाश और आत्मा को सर्वगत होने से अनंत कहते हैं। सांख्य पुरुष और प्रकृति को सर्वगत होने से अनंत कहते हैं। इन सबका परिज्ञान होने मात्र से सांतता हो नहीं सकती। अतः अनंत होने से अपरिज्ञान का दूषण ठीक नहीं है।
3. यदि अनंत होने से पदार्थ को अज्ञेय कहा जायेगा तो सर्वज्ञ का अभाव हो जायेगा।
4. यदि पदार्थों को सांत माना जायेगा तो संसार और मोक्ष दोनों का लोप हो जायेगा। सो कैसे? वह बताते हैं -
(1) यदि जीवों को सांत माना जाता है तो सब जीव मोक्ष चले जायेंगे तब संसार का उच्छेद हो जायेगा। यदि संसारोच्छेद के भय से मुक्त जीवों का संसार में पुनः आगमन माना जाये तो अनात्यंंतिक होने से मोक्ष का भी उच्छेद हो जायेगा। (2) एक जीव में कर्म और नोकर्म पुद्गल अनंत हैं। यदि उन्हें सांत माना जाये तो भी संसार का अभाव हो जायेगा और उसके अभाव से मोक्ष का भी अभाव हो जायेगा। (3) इसी तरह अतीत और अनागत काल को सांत माना जाये तो पहले और बाद में काल व्यवहार का अभाव ही हो जायेगा, पर यह युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि उसकी उत्पत्ति और सत् का सर्वथा नाश दोनों ही अयुक्तिक हैं। (4) इसी तरह आकाश को सांत मानने पर उससे आगे कोई ठोस पदार्थ मानना होगा। यदि नहीं तो आकाश ही आकाश मानने पर सांतता नहीं रहेगी।
रा. प./प्र. 1, 2/(प्रो. लक्ष्मीचंद्र) पायथागोरियन युग में `जीनों'के तर्कों ने इसकी सिद्धि की थी। ....केंटरके कन्टीनम् (continuum) 1, 2, 3.... के अल्पबहुत्व से अनंत के अल्पबहुत्व की सिद्धि होती है। ...जार्ज केन्टर ने `Abstract set Theory' की रचना करके अनंत को स्वीकार किया है।
3. अर्द्धपुद्गल परिवर्तन को अनंत कैसे कहते हैं
धवला पुस्तक 1/1,1,141/393/2
अर्धपुद्गलपरिवर्तनकालः सक्षयोऽप्यनंतः छद्मस्थैरनुपलब्धपर्यंतत्वात्। केवलमनंतस्तद्विषयत्वाद्वा।
= अर्द्ध पुद्गल परिवर्तन काल क्षय सहित होते हुए भी इसीलिए अनंत है कि छद्मस्थ जीवों के द्वारा उसका अंत नहीं पाया जाता है। वास्तव में केवलज्ञान अनंत है अथवा अनंत को विषय करनेवाला होने से वह अनंत है।
धवला पुस्तक 3/1,2,53/267/7
कधं पुणो तस्स अद्धपोग्गलपरिमट्टस्स अणंतववएसो। इदि चे ण, तस्स उवयारणिबंधणत्तादो। तं जहा अणंतस्स केवलणाणस्स अद्धपोग्गलपरियट्टकालो वि अणंतो होदि।
= प्रश्न - अर्द्धपुद्गल परिवर्तनकाल को अनंत संज्ञा कैसे दी गयी है? उत्तर - नहीं, क्योंकि अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल को जो अनंत संज्ञा दी गयी है, वह उपचार-निमित्तक है। आगे उसी का स्पष्टीकरण करते हैं - अनंत रूप केवलज्ञान का विषय होने से अर्द्धपुद्गल परिवर्तन काल भी अनंत है, ऐसा कहा जाता है।
(धवला पुस्तक 3/1,2,2/25-26/9), (धवला पुस्तक 4/1,2,23/266) (धवला पुस्तक 14/5, 6, 128/235/8)।
4. अनंत, संख्यात व असंख्यात में अंतर
धवला पुस्तक 3/1,2,53/267/5
किमसंखेज्जं णाम। जो रासी एगेगरूवे अवणिज्जमाणे णिट्टादि सो असंखेज्जो। जो पुण ण समप्पइ सो रासी अणंतो। जदि एवं तो वयसहिदसक्खयअद्धपोग्गलपरियट्टकालो वि असंखेज्जो जायदे। होदु णाम। कधं पुणो तस्स अद्धपोग्गलपरियट्टस्स अणंतववएसो। इदि चे ण, तस्स उवयारनिबंधणादो। तं जहा-अणंतस्स केवलणाणस्स विसयत्तादो अद्धपोग्गलपरियट्टकालो वि अणंतो होदि। केवलणाणविसयत्तं पडि विसेसाभावा सव्वसंखाणमण्णंतत्तणं जायदे। चे ण, ओहिणाणविसयवदिरित्तसंखाणे अणण्णविसयत्तेण तदुवयारपवुत्तादो। अहवा जं संखाणं पंचिंदियविसओ तं संखेज्जं णाम। तदो उवरि जमोहिणाणविसओ तमसंखेज्जं णाम।
=
प्रश्न - असंख्यात किसे कहते हैं, अर्थात् अनंत से असंख्यात में क्या भेद हैं?
उत्तर - एक-एक संख्या के घटाते जाने पर जो राशि समाप्त हो जाती है वह असंख्यात है और जो राशि समाप्त नहीं होती है वह अनंत है।
प्रश्न - यदि ऐसा है तो व्यय सहित होने से नाश को प्राप्त होने वाला अर्धपुद्गल परिवर्तन काल भी असंख्यात, रूप हो जायेगा?
उत्तर - हो जाये।
प्रश्न - तो फिर उस अर्धपुद्गल परिवर्तन काल को अनंत संज्ञा कैसे दी गयी है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि अर्धपुद्गल परिवर्तन काल को जो अनंत संज्ञा दी गयी है वह उपचार निमित्तक है। आगे उसी का स्पष्टीकरण करते हैं - अनंतरूप केवलज्ञान का विषय होने से अर्धपुद्गल परिवर्तन काल भी अनंत है, ऐसा कहा जाता है।
प्रश्न - केवलज्ञान के विषयत्व के प्रति कोई विशेषता न होने से सभी संख्याओं को अनंतत्व प्राप्त हो जायेगा?
उत्तर - नहीं, क्योंकि जो संख्याएँ अवधिज्ञान का विषय हो सकती हैं उनसे अतिरिक्त ऊपर की संख्याएँ केवलज्ञान को छोड़कर दूसरे और किसी ज्ञान का विषय नहीं हो सकतीं, अतएव ऐसी संख्याओं में अनंतत्व के उपचार की प्रवृत्ति हो जाती है। अथवा, जो संख्या पाँचों इंद्रियों का विषय है वह संख्यात है, उसके ऊपर जो संख्या अवधिज्ञान का विषय है वह असंख्यात है, उसके ऊपर जो संख्या केवलज्ञान के विषय-भाव को ही प्राप्त होती है वह अनंत है।
त्रिलोकसार गाथा 52
जावदियं पच्चक्खं जुगवं सुदओहिकेवलाण हवे। तावदियं संखेज्जमसंखमणंतं कमा जाणे ॥52॥
- यावन्मात्र विषय युगपत् प्रत्यक्ष श्रुत, अवधि, केवलज्ञान के होंहि तावन्मात्र संख्यात असंख्यात अनंत क्रमतैं जानऊ।
5. सर्वज्ञत्व के साथ अनंतत्व का समन्वय
राजवार्तिक अध्याय 5/9,3-4/452/24
अनंतत्वादपरिज्ञानमिति चेत्, न; अतिशयज्ञानदृष्टत्वात् ॥3॥ स्यादेतत्-सर्वज्ञेनानंतं परिच्छिन्नं वा, अपरिच्छिन्नं वा। यदि परिच्छिन्नम्; उपलब्धावसानत्वाद् अनंतत्वमस्य हीयते। अथापरिच्छिन्नम्; तत्स्वरूपानवबोधाद् असर्वज्ञत्वं स्यादिति। तन्न किं कारणम्। अतिशयज्ञानदृष्टत्वात्। यत्तत्केवलिनां ज्ञानं क्षायिकम् अतिशयवद् अनंतानंतपरिमाणं तेन तदनंतमवबुध्यते साक्षात्। तदुपदेशादितरैरनुमानेनेति न सर्वज्ञत्वहानिः। न च तेन परिच्छिन्नमित्यतः सांतम् अनंतेनानंतमिति ज्ञातत्वात्। किं च सर्वेषामविप्रतिपत्तेः ॥4॥
= प्रश्न - अनंत होने के कारण वह ज्ञान में नहीं आना चाहिए?
उत्तर - नहीं, क्योंकि अतिशय रूप केवलज्ञान के द्वारा उसे भी जान लिया जाता है।
प्रश्न - सर्वज्ञ के द्वारा अनंत जाना जाता है अथवा नहीं जाना जाता? यदि अनंत को सर्वज्ञ ने जाना है तो अनंत का ज्ञान के द्वारा अंत जान लेने से अनंतता नहीं रहेगी, और यदि नहीं जाना है तो उसके स्वरूप का ज्ञान न होने के कारण असर्वज्ञता का प्रसंग आयेगा?
उत्तर - ऐसा नहीं है, क्योंकि अतिशय ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है। यह जो केवलज्ञानियों का क्षायिकज्ञान है सो अतिशयवान् तथा अनंतानंत परिमाण वाला है। उसके द्वारा अनंत साक्षात् जाना जाता है। अन्य लोक सर्वज्ञ के उपदेश से तथा अनुमान से अनंतता का ज्ञान कर लेते हैं।
प्रश्न - यदि कहोगे कि उसके द्वारा जाना गया है, अतः वह अनंत भी सांत है?
उत्तर - तो ऐसा भी नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञ ने अनंत को अनंत रूप से ही जाना है और सभी वादी प्रायः इस विषय में विरोध भी नहीं रखते हैं।
(वि. देखें अनंत - 2.2)।
धवला पुस्तक 3/1,2,3/30/6
ण च अणादि त्ति जाणिदे सादित्तं पावेदि, विरोहा।
= अनादित्व का ज्ञान हो जाता है, इसलिए उसे सादित्व की प्राप्ति हो जायेगी, सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है।
6. निर्व्यय भी अभव्य राशि में अनंतत्व कैसे सिद्ध होता है
धवला पुस्तक 7/2,5,160/295/10
कधं एदस्स अव्वए संते अव्वोच्छिज्जमाणस्स अणंतववएसो ण, अणंतस्स केवलणाणस्स चेव विसए अवट्ठिदाणं संखाणमुवयारेण अणंतत्तविरोहाभावादो।
= प्रश्न - व्यय के न होनेसे व्युच्छित्ति को प्राप्त न होनेवाली अभव्य राशि के `अनंत' यह संज्ञा कैसे संभव है? -
उत्तर - नहीं, क्योंकि अनंत रूप केवलज्ञान के ही विषय में अवस्थित संख्याओं के उपचार से अनंतपन मानने में विरोध नहीं आता।
7. अनंत चतुष्टय में अनंतत्व कैसे सिद्ध है
क्षपणासार / मूल या टीका गाथा 610/725
खीणे घादिचउक्के णं तचउक्कस्स होदि उप्पत्ती। सादी अपज्जवसिदा उक्कस्साणंतपरिसंखा ॥610॥
= प्रश्न - (घातिया कर्मनि के चतुष्टय का नाश होतैं अनंतचतुष्टय की उत्पत्ति ही है। अनंतपन कैसे संभव है?) =
उत्तर - सादि कहिये उपजने काल विषै आदि सहित है तथापि अपर्यवसिता कहिए अवसान या अंत ताकरि रहित है तातै अनंत कहिये। अथवा अविभाग प्रतिच्छेदनि की अपेक्षा इनकी उत्कृष्ट अनंतानंत मात्र संख्या है तातै भी अनंत कहिये।
8. अनंत भी कथंचित् सीमित है
धवला पुस्तक 3/1,2,3/30/1
तेन कारणेण मिच्छाइट्ठिरासी ण अवहिरिज्जदि, सव्वे समया अवहिरिज्जंति। ...अण्णहा तस्साभावपसंगादो। ण च अणादि त्ति जाणिदं सादित्तं पावेदि, विरोहा।
= मिथ्यादृष्टि जीव राशि का प्रमाण समाप्त नहीं होता, परंतु अतीत काल के संपूर्ण समय समाप्त हो जाते हैं। ...यदि उसका प्रमाण नहीं माना जाये तो उसके अभाव का प्रसंग आ जायेगा। परंतु उसके अनादित्व का ज्ञान हो जाता है, इसलिए उसे सादित्व की प्राप्ति हो जायेगी, सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है।
श्लोकवार्तिक/2/1/7/19/569/6 भाषाकार
"जैन सिद्धांत अनुसार अलोकाकाश के अनंतानंत प्रदेश भी संख्या में परिमित हैं, क्योंकि अक्षय अनंत जीव राशि से अनंतगुणी पुद्गल राशि से भी अनंत गुणे हैं।
• आगम में अनंत की यथास्थान प्रयोग विधि - देखें गणित - I.1.1, गणित - I.1.6।
पुराणकोष से
(1) भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 24. 34,25.69
(2) एक मुनि का नाम । घातकी खंड के पूर्व भाग में स्थित तिलकनगर के राजा अभय घोष ने इनसे दीक्षा ली थी । महापुराण 63. 173
(3) एक गणधर का नाम । घातकीखंड के सारसमुच्चय नामक देश में नागपुर नगर का नृप नरदेव इन्हीं से संयमी हुआ था । महापुराण 68.3-7
(4) गणना का एक भेद । महापुराण 3. 3
(5) चौदहवें तीर्थंकर अनंतनाथ ।
(6) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.109