अन्वत्वानुप्रेक्षा: Difference between revisions
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<p> बारह अनुप्रेक्षाओं (भावनाओं) में एक भावना । इसमें यह भावना की जाती है― न मैं देह हूँ, न मन हूँ और न इन तीनों का कारण हूँ । मैं शरीर से पृथक् हूँ, बाह्य वस्तुओं से परे हूं, निश्चय से मैं अपने शरीर, कर्म ओर कर्मजनित सुख-दु:ख आदि से भिन्न हूँ । कर्म विपाक से ही माता, पिता, | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> बारह अनुप्रेक्षाओं (भावनाओं) में एक भावना । इसमें यह भावना की जाती है― न मैं देह हूँ, न मन हूँ और न इन तीनों का कारण हूँ । मैं शरीर से पृथक् हूँ, बाह्य वस्तुओं से परे हूं, निश्चय से मैं अपने शरीर, कर्म ओर कर्मजनित सुख-दु:ख आदि से भिन्न हूँ । कर्म विपाक से ही माता, पिता, बंधु आदि से मेरे संबंध है । मैं पौद्गलिक कर्मजनित संकल्प-विकल्पों से मुक्त तथा द्रव्य और भाव, मन और वचन से सर्वथा भिन्न हूँ । राग, द्वेष आदि भाव मेरे विभाव है । <span class="GRef"> महापुराण 38.183 </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_14#237|पद्मपुराण - 14.237-239]], </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 25.93-95, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 11.2-3, 44-53 </span>देखें [[ अनुप्रेक्षा ]]</p> | ||
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Latest revision as of 14:39, 27 November 2023
बारह अनुप्रेक्षाओं (भावनाओं) में एक भावना । इसमें यह भावना की जाती है― न मैं देह हूँ, न मन हूँ और न इन तीनों का कारण हूँ । मैं शरीर से पृथक् हूँ, बाह्य वस्तुओं से परे हूं, निश्चय से मैं अपने शरीर, कर्म ओर कर्मजनित सुख-दु:ख आदि से भिन्न हूँ । कर्म विपाक से ही माता, पिता, बंधु आदि से मेरे संबंध है । मैं पौद्गलिक कर्मजनित संकल्प-विकल्पों से मुक्त तथा द्रव्य और भाव, मन और वचन से सर्वथा भिन्न हूँ । राग, द्वेष आदि भाव मेरे विभाव है । महापुराण 38.183 पद्मपुराण - 14.237-239, पांडवपुराण 25.93-95, वीरवर्द्धमान चरित्र 11.2-3, 44-53 देखें अनुप्रेक्षा