अंतर: Difference between revisions
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<p>कोई एक कार्य विशेष हो | <p>कोई एक कार्य विशेष हो चुकने पर जितने काल पश्चात् उसका पुनः होना संभव हो उसे अंतर काल कहते हैं। जीवों की गुणस्थान प्राप्ति अथवा किन्हीं स्थान विशेषों में उसका जन्म-मरण अथवा कर्मों के बंध उदय आदि सर्व प्रकरणों में इस अंतर काल का विचार करना ज्ञान की विशदता के लिए आवश्यक है। इसी विषय का कथन इस अधिकार में किया गया है।</p> | ||
<h3>1. अंतर निर्देश -</h3> | <h3>1. अंतर निर्देश -</h3> | ||
<ol> | <ol> | ||
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<li>[[#1.4 | स्थानांतर का लक्षण]]</li> | <li>[[#1.4 | स्थानांतर का लक्षण]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<h3>2. अंतर | <h3>2. अंतर प्ररूपणा संबंधी कुछ नियम- </h3> | ||
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<li>[[#2.1 | अंतरप्ररूपणा संबंधी सामान्य नियम]]</li> | <li>[[#2.1 | अंतरप्ररूपणा संबंधी सामान्य नियम]]</li> | ||
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<p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/8/29 </span>अंतरं विरहकालः।</p> | <p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/8/29 </span>अंतरं विरहकालः।</p> | ||
<p>= विरह काल को अंतर कहते हैं। (अर्थात् जितने काल तक अवस्था विशेष से जुदा होकर पुनः उसकी प्राप्ति नहीं होती उस काल को अंतर कहते हैं।)</p> | <p>= विरह काल को अंतर कहते हैं। (अर्थात् जितने काल तक अवस्था विशेष से जुदा होकर पुनः उसकी प्राप्ति नहीं होती उस काल को अंतर कहते हैं।)</p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">( धवला 1/1,1,8/103/156 )</span> <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/553/982 )</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> राजवार्तिक 1/8/7/42/5 </span>अंतरशब्दत्यानेकार्थवृत्तेः छिद्रमध्यविरहेष्वन्यतमग्रहणम् ।7। [अंतरशब्दः] बहुष्वर्थेषु दृष्टप्रयोगः। क्वचिच्छिद्रे वर्तते सांतरं काष्ठम्, सच्छिद्रम् इति। क्वचिदन्यत्वे `द्रव्याणि द्रव्यांतरमारभंते' [वैशेषिक सूत्र 1/1/10] इति। क्वचिन्मध्ये हिमवत्सागरांतर इति। क्वचित्सामीप्ये `स्फटिकस्य शुक्लरक्ताद्यंतरस्थस्यतद्वर्गता' इति `शुक्लरक्तसमीपस्थस्य' इति गम्यते। क्वचिद्विशेषे - ``वाजिवारणलोहानां काष्ठपाषाणवाससाम्। नारीपुरुषतोयानामंतरं महदंतरम्।।'' [गरुड़पु. 110/15] इति महान् विशेष इत्यर्थः। क्वचिद् बहिर्योगे `ग्रामस्यांतरे कूपाः' इति। क्वचिदुपसंव्याने-अंतरे शाटका इति। क्वचिद्विरहे अनभिप्रेतश्रोतृजनांतरे मंत्रं मंत्रयते, तद्विरहे मंत्रयत इत्यर्थः।</p> | <p><span class="GRef"> राजवार्तिक 1/8/7/42/5 </span>अंतरशब्दत्यानेकार्थवृत्तेः छिद्रमध्यविरहेष्वन्यतमग्रहणम् ।7। [अंतरशब्दः] बहुष्वर्थेषु दृष्टप्रयोगः। क्वचिच्छिद्रे वर्तते सांतरं काष्ठम्, सच्छिद्रम् इति। क्वचिदन्यत्वे `द्रव्याणि द्रव्यांतरमारभंते' [वैशेषिक सूत्र 1/1/10] इति। क्वचिन्मध्ये हिमवत्सागरांतर इति। क्वचित्सामीप्ये `स्फटिकस्य शुक्लरक्ताद्यंतरस्थस्यतद्वर्गता' इति `शुक्लरक्तसमीपस्थस्य' इति गम्यते। क्वचिद्विशेषे - ``वाजिवारणलोहानां काष्ठपाषाणवाससाम्। नारीपुरुषतोयानामंतरं महदंतरम्।।'' [गरुड़पु. 110/15] इति महान् विशेष इत्यर्थः। क्वचिद् बहिर्योगे `ग्रामस्यांतरे कूपाः' इति। क्वचिदुपसंव्याने-अंतरे शाटका इति। क्वचिद्विरहे अनभिप्रेतश्रोतृजनांतरे मंत्रं मंत्रयते, तद्विरहे मंत्रयत इत्यर्थः।</p> | ||
<p>= अंतर शब्द के अनेक अर्थ हैं। 1. यथा `सांतरं काष्ठं' में छिद्र अर्थ है। 2. कहीं पर अन्य अर्थ के रूप में वर्तता है। 3. `हिमवत्सागरांतरे' में अंतर शब्द का अर्थ मध्य है। 4. `शुक्लरक्ताद्यंतरस्थस्य स्फटिकस्य - सफेद और लाल रंग के समीप रखा हुआ स्फटिक। यहाँ | <p>= अंतर शब्द के अनेक अर्थ हैं। 1. यथा `सांतरं काष्ठं' में छिद्र अर्थ है। 2. कहीं पर अन्य अर्थ के रूप में वर्तता है। 3. `हिमवत्सागरांतरे' में अंतर शब्द का अर्थ मध्य है। 4. `शुक्लरक्ताद्यंतरस्थस्य स्फटिकस्य - सफेद और लाल रंग के समीप रखा हुआ स्फटिक। यहाँ अंतर का समीप अर्थ है। 5. कहीं पर विशेषता अर्थ में भी प्रयुक्त होता है जैसे - घोड़ा, हाथी और लोहे में, लकड़ी, पत्थर और कपड़े में, स्त्री, पुरुष और जल में अंतर ही नहीं, महान् अंतर है। यहाँ अंतर शब्द वैशिष्ट्यवाचक है। 6. `ग्रामस्यांतर कूपाः' में बाह्यार्थक अंतर शब्द है अर्थात् गाँव के बाहर कुआँ है। 7. कहीं उपसंव्यान अर्थात् अंतर्वस्त्र के अर्थ में अंतर शब्द का प्रयोग होता है यथा `अंतरे शाटकाः'। 8. कहीं विरह अर्थ में जैसे `अनभिप्रेतश्रोतृजनांतरे मंत्रयते' - अनिष्ट व्यक्तियों के विरह में मण्त्रणा करता है।</p> | ||
<p><span class="GRef"> राजवार्तिक 1/8/8/42/14 </span>अनुपहतवीर्यस्य द्रव्यस्य निमित्तवशात् कस्यचित् पर्यायस्य न्यग्भावे सति पुनर्निमित्तांतरात् तस्यैवाविर्भावदर्शनात् तदंतरमित्युच्यते।</p> | <p><span class="GRef"> राजवार्तिक 1/8/8/42/14 </span>अनुपहतवीर्यस्य द्रव्यस्य निमित्तवशात् कस्यचित् पर्यायस्य न्यग्भावे सति पुनर्निमित्तांतरात् तस्यैवाविर्भावदर्शनात् तदंतरमित्युच्यते।</p> | ||
<p>= किसी समर्थ | <p>= किसी समर्थ द्रव्य की किसी निमित्त से अमुक पर्याय का अभाव होनेपर निमित्तांतर से जब तक वह पर्याय पुनः प्रकट नहीं होती, तब तक के कालको अंतर कहते हैं।</p> | ||
<p><span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 143/357 </span>लोके नानाजीवापेक्षया विवक्षितगुणस्थानं मार्गणास्थानं वा त्यक्त्वा गुणांतरे मार्गणास्थानांतरे वा गत्वा पुनर्यावत्तद्विवक्षितगुणस्थानं मार्गणास्थानं वा नायाति तावन् कालः अंतरं नाम।</p> | <p><span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 143/357 </span>लोके नानाजीवापेक्षया विवक्षितगुणस्थानं मार्गणास्थानं वा त्यक्त्वा गुणांतरे मार्गणास्थानांतरे वा गत्वा पुनर्यावत्तद्विवक्षितगुणस्थानं मार्गणास्थानं वा नायाति तावन् कालः अंतरं नाम।</p> | ||
<p>= नाना जीवनिकी अपेक्षा विवक्षित गुणस्थान वा मार्गणास्थान नै छोडि अन्य कोई गुणस्थान वा मार्गणास्थान में प्राप्त होई बहुरि उस ही विवक्षित स्थान वा मार्गणास्थान कौ यावत् काल प्राप्त न होई तिस कालका नाम अंतर है।</p> | <p>= नाना जीवनिकी अपेक्षा विवक्षित गुणस्थान वा मार्गणास्थान नै छोडि अन्य कोई गुणस्थान वा मार्गणास्थान में प्राप्त होई बहुरि उस ही विवक्षित स्थान वा मार्गणास्थान कौ यावत् काल प्राप्त न होई तिस कालका नाम अंतर है।</p> | ||
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<h4 id="1.3">3. निक्षेप रूप अंतर के लक्षण - देखें [[ निक्षेप ]]।</h4> | <h4 id="1.3">3. निक्षेप रूप अंतर के लक्षण - देखें [[ निक्षेप ]]।</h4> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 5/1,6,1/ पृष्ट 3/4</span> खेत्तकालंतराणि दव्वंतरे पविट्ठाणि, छदव्ववदिरित्तखेत्तकालाणमभावा।</p> | <p><span class="GRef"> धवला 5/1,6,1/ पृष्ट 3/4</span> खेत्तकालंतराणि दव्वंतरे पविट्ठाणि, छदव्ववदिरित्तखेत्तकालाणमभावा।</p> | ||
<p>= क्षेत्रांतर और कालांतर, ये दोनों ही द्रव्यांतर में प्रविष्ट हो जाते हैं, क्योंकि छः द्रव्यों से व्यतिरिक्त क्षेत्र और | <p>= क्षेत्रांतर और कालांतर, ये दोनों ही द्रव्यांतर में प्रविष्ट हो जाते हैं, क्योंकि छः द्रव्यों से व्यतिरिक्त क्षेत्र और काल का अभाव है।</p> | ||
<h4 id="1.4">4. स्थानांतर का लक्षण</h4> | <h4 id="1.4">4. स्थानांतर का लक्षण</h4> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 12/4 2,7,201/114/9 </span>हेट्ठिमट्ठाणमुवरिभट्ठाणम्हि सोहियरूवूणे कदे जं लद्धं तं ट्ठाणंतरं णाम।</p> | <p><span class="GRef"> धवला 12/4 2,7,201/114/9 </span>हेट्ठिमट्ठाणमुवरिभट्ठाणम्हि सोहियरूवूणे कदे जं लद्धं तं ट्ठाणंतरं णाम।</p> | ||
<p>= उपरिम स्थानों में अधस्तन | <p>= उपरिम स्थानों में अधस्तन स्थान को घटाकर एक कम करने पर जो प्राप्त हो वह स्थानों का अंतर कहा जाता है।</p> | ||
<h3>2. अंतर प्ररूपणा संबंधी कुछ नियम -</h3> | <h3>2. अंतर प्ररूपणा संबंधी कुछ नियम -</h3> | ||
<h4 id="2.1">1. अंतरप्ररूपणा संबंधी सामान्य नियम</h4> | <h4 id="2.1">1. अंतरप्ररूपणा संबंधी सामान्य नियम</h4> | ||
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<h4 id="2.2">2. योग मार्गणा में अंतर संबंधी नियम</h4> | <h4 id="2.2">2. योग मार्गणा में अंतर संबंधी नियम</h4> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 5/1,6,153/87/9 </span>कधमेगजीवमासेज्ज अंतराभावो। ण ताव जोगंतरगमणेणंतरं संभवदि, मग्गणाए विणासापत्तीदो। ण च अण्णगुणगमणेण अंतर संभवदि, गुणंतरं गदस्स जीवस्स जोगंतरगमणेण विणा पुणो आगमणाभावादो।</p> | <p><span class="GRef"> धवला 5/1,6,153/87/9 </span>कधमेगजीवमासेज्ज अंतराभावो। ण ताव जोगंतरगमणेणंतरं संभवदि, मग्गणाए विणासापत्तीदो। ण च अण्णगुणगमणेण अंतर संभवदि, गुणंतरं गदस्स जीवस्स जोगंतरगमणेण विणा पुणो आगमणाभावादो।</p> | ||
<p>= प्रश्न एक जीवकी अपेक्षा अंतर का अभाव कैसे कहा? उत्तर - सूत्रोक्त गुणस्थानों में न तो अन्य योग में गमन-द्वारा अंतर संभव है, क्योंकि, ऐसा | <p>= प्रश्न एक जीवकी अपेक्षा अंतर का अभाव कैसे कहा? उत्तर - सूत्रोक्त गुणस्थानों में न तो अन्य योग में गमन-द्वारा अंतर संभव है, क्योंकि, ऐसा मानने पर विवक्षित मार्गणा के विनाश की आपत्ति आती है। और न अन्य गुणस्थान में जाने से भी अंतर संभव है, क्योंकि दूसरे गुणस्थान को गये हुए जीव के अन्य योग को प्राप्त हुए बिना पुनः आगमन का अभाव है।</p> | ||
<h4 id="2.3">3. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में अंतर संबंधी नियम</h4> | <h4 id="2.3">3. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में अंतर संबंधी नियम</h4> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 5/1,6,375/170/2 </span>हेट्ठा ओइण्णस्स वेदगसम्मत्तमपडिवज्जिय पुव्वुवसमसम्मत्तेणुवसमसेढी समारूहणे संभवाभावादो।</p> | <p><span class="GRef"> धवला 5/1,6,375/170/2 </span>हेट्ठा ओइण्णस्स वेदगसम्मत्तमपडिवज्जिय पुव्वुवसमसम्मत्तेणुवसमसेढी समारूहणे संभवाभावादो।</p> | ||
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<p><span class="GRef"> धवला 10/4,2,4,65/288/1 </span>एत्थ वेदगसम्मत्त चेव एसो पडिवज्जदि उवसमसम्मत्तंतरकालस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागस्स एत्थाणुवलंभादो।</p> | <p><span class="GRef"> धवला 10/4,2,4,65/288/1 </span>एत्थ वेदगसम्मत्त चेव एसो पडिवज्जदि उवसमसम्मत्तंतरकालस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागस्स एत्थाणुवलंभादो।</p> | ||
<p>= सासादन सम्यग्दृष्टियों का अंतर जघन्य से पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र है ।।139।। क्योंकि, प्रथमोपशम सम्यक्त्व को ग्रहण कर और अंतर्मुहूर्त रहकर सासादन गुणस्थान को प्राप्त हो, आदि करके पुनः मिथ्यात्व में जाकर अंतर को प्राप्त हो सर्व जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र उद्वेलना काल से सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों के प्रथम सम्यक्त्व के योग्य सागरोपम पृथक्त्व मात्र स्थिति सत्त्व को स्थापित कर तीनों ही करणों को करके पुनः प्रथम सम्यक्त्व को ग्रहण कर उपशम सम्यक्त्व काल में छः आवलियों के शेष रहनेपर सासादन को प्राप्त हुए जीव के पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य अंतर प्राप्त होता है।</p> | <p>= सासादन सम्यग्दृष्टियों का अंतर जघन्य से पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र है ।।139।। क्योंकि, प्रथमोपशम सम्यक्त्व को ग्रहण कर और अंतर्मुहूर्त रहकर सासादन गुणस्थान को प्राप्त हो, आदि करके पुनः मिथ्यात्व में जाकर अंतर को प्राप्त हो सर्व जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र उद्वेलना काल से सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों के प्रथम सम्यक्त्व के योग्य सागरोपम पृथक्त्व मात्र स्थिति सत्त्व को स्थापित कर तीनों ही करणों को करके पुनः प्रथम सम्यक्त्व को ग्रहण कर उपशम सम्यक्त्व काल में छः आवलियों के शेष रहनेपर सासादन को प्राप्त हुए जीव के पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य अंतर प्राप्त होता है।</p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">( धवला 5/1,6,5-7/7-11 )</span> <span class="GRef">( धवला 5/1,6,376/170/9 )</span></p> | ||
<p>प्रश्न - उपशम श्रेणी से उतरकर सासादन को प्राप्त हो अंतर्मुहूर्त से फिर भी उपशम श्रेणी पर चढ़कर व उतरकर सासादन को प्राप्त हुए जीव के अंतर्मुहूर्त मात्र अंतर प्राप्त होता है; उसका यहाँ निरूपण क्यों नहीं किया! उत्तर - उपशम श्रेणी से उतरा हुआ उपशम सम्यग्दृष्टि जीव सासादन को प्राप्त नहीं होता। <span class="GRef"> कषायपाहुड़ </span>की अपेक्षा ऐसा संभव होने पर भी वहाँ एक ही जीव दो बार सासादन गुणस्थान को प्राप्त नहीं करता। प्रश्न - वही जीव उपशम सम्यक्त्व को भी अंतर्मुहूर्त काल के पश्चात् ही क्यों नहीं प्राप्त होता है? उत्तर - नहीं, क्योंकि, उपशम सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व को प्राप्त होकर, सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व-प्रकृति की उद्वेलना करता हुआ, उनकी अंतःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थिति को घात करके सागरोपम से अथवा सागरोपम पृथक्त्व से जब तक नीचे नहीं करता तब तक उपशम सम्यक्त्व का ग्रहण करना संभव ही नहीं है। प्रश्न - सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति की स्थितियों को अंतर्मुहूर्त काल में घात करके सागरोपम से, अथवा सागरोपम पृथक्त्व काल से नीचे क्यों नहीं करता? उत्तर - नहीं, क्योंकि पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र आयाम के द्वारा अंतर्मुहूर्त उत्कीरण काल वाले उद्वेलना कांडकों से घात की | <p>प्रश्न - उपशम श्रेणी से उतरकर सासादन को प्राप्त हो अंतर्मुहूर्त से फिर भी उपशम श्रेणी पर चढ़कर व उतरकर सासादन को प्राप्त हुए जीव के अंतर्मुहूर्त मात्र अंतर प्राप्त होता है; उसका यहाँ निरूपण क्यों नहीं किया! उत्तर - उपशम श्रेणी से उतरा हुआ उपशम सम्यग्दृष्टि जीव सासादन को प्राप्त नहीं होता। <span class="GRef"> कषायपाहुड़ </span>की अपेक्षा ऐसा संभव होने पर भी वहाँ एक ही जीव दो बार सासादन गुणस्थान को प्राप्त नहीं करता। प्रश्न - वही जीव उपशम सम्यक्त्व को भी अंतर्मुहूर्त काल के पश्चात् ही क्यों नहीं प्राप्त होता है? उत्तर - नहीं, क्योंकि, उपशम सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व को प्राप्त होकर, सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व-प्रकृति की उद्वेलना करता हुआ, उनकी अंतःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थिति को घात करके सागरोपम से अथवा सागरोपम पृथक्त्व से जब तक नीचे नहीं करता तब तक उपशम सम्यक्त्व का ग्रहण करना संभव ही नहीं है। प्रश्न - सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति की स्थितियों को अंतर्मुहूर्त काल में घात करके सागरोपम से, अथवा सागरोपम पृथक्त्व काल से नीचे क्यों नहीं करता? उत्तर - नहीं, क्योंकि पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र आयाम के द्वारा अंतर्मुहूर्त उत्कीरण काल वाले उद्वेलना कांडकों से घात की जाने वाली सम्यक् और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति की स्थिति का, पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र काल के बिना सागरोपम के अथवा सागरोपमपृथक्त्व के नीचे पतन नहीं हो सकता है। (और भी देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.6 | सम्यग्दर्शन - IV.2.6]])</p> | ||
<p>यहाँ यह (पूर्व कोटि तक सम्यक्त्व सहित संयम पालन करके अंत समय मिथ्यात्व को प्राप्त होकर मरने तथा हीन देवों में उत्पन्न होनेवाला जीव अंतर्मुहूर्त पश्चात् यदि सम्यक्त्व को प्राप्त करता भी है तो) वेदक सम्यक्त्व को ही प्राप्त करता है, क्योंकि उपशम सम्यग्दर्शन का अंतर काल जो पल्य का असंख्यातवाँ भाग है, वह यहाँ नहीं पाया जाता।</p> | <p>यहाँ यह (पूर्व कोटि तक सम्यक्त्व सहित संयम पालन करके अंत समय मिथ्यात्व को प्राप्त होकर मरने तथा हीन देवों में उत्पन्न होनेवाला जीव अंतर्मुहूर्त पश्चात् यदि सम्यक्त्व को प्राप्त करता भी है तो) वेदक सम्यक्त्व को ही प्राप्त करता है, क्योंकि उपशम सम्यग्दर्शन का अंतर काल जो पल्य का असंख्यातवाँ भाग है, वह यहाँ नहीं पाया जाता।</p> | ||
<p><span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 704/1141/15 </span>ते [प्रशमोपशमसम्यग्दृष्टयः] अप्रमत्तसंयतं विना त्रय एव तत्सम्यक्त्वकालांतर्मुहूर्ते जघन्येन एकसमये उत्कृष्टेन च षडावलिमात्रेऽवशिष्टे अनंतानुबंध्यंयतमोदये सासादना भवंति। अथवा ते चत्वारोऽपि यदि भव्यतागुणविशेषेण सम्यक्त्वविराधका न स्युः तदा तत्काले संपूर्णे जाते सम्यक् कृत्युदये वेदकसम्यग्दृष्टयो वा मिश्रप्रकृत्युदये सम्यग्मिथ्यादृष्ट्यो वा मिथ्यात्वोदये मिथ्यादृष्टयो भवंति।</p> | <p><span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 704/1141/15 </span>ते [प्रशमोपशमसम्यग्दृष्टयः] अप्रमत्तसंयतं विना त्रय एव तत्सम्यक्त्वकालांतर्मुहूर्ते जघन्येन एकसमये उत्कृष्टेन च षडावलिमात्रेऽवशिष्टे अनंतानुबंध्यंयतमोदये सासादना भवंति। अथवा ते चत्वारोऽपि यदि भव्यतागुणविशेषेण सम्यक्त्वविराधका न स्युः तदा तत्काले संपूर्णे जाते सम्यक् कृत्युदये वेदकसम्यग्दृष्टयो वा मिश्रप्रकृत्युदये सम्यग्मिथ्यादृष्ट्यो वा मिथ्यात्वोदये मिथ्यादृष्टयो भवंति।</p> | ||
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<h5>नानाजीवापेक्षया -</h5> | <h5>नानाजीवापेक्षया -</h5> | ||
<p>[दो जीवों को आदि करके पल्य के असंख्यातवें भाग मात्र विकल्प से उपशम सम्यग्दृष्टि जीव, जितना काल अवशेष रहनेपर सम्यक्त्व छोड़ा था उतने काल प्रमाण सासादन गुणस्थान में रहकर सब मिथ्यात्व को प्राप्त हुए और तीनों लोकों में एक समय के लिए सासादन सम्यग्दृष्टियों का अभाव हो गया। पुनः द्वितीय समय में कुछ उपशम सम्यग्दृष्टि जीव सासादन गुणस्थान को प्राप्त हुए। इस प्रकार सासादन गुणस्थान का (नानाजीवापेक्षया) एक समय रूप जघन्य अंतर प्राप्त हुआ। बहुत-से सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव अपने काल के क्षय से सम्यक्त्व को अथवा मिथ्यात्व को प्राप्त हुए और तीनों ही लोकों में सम्यग् मिथ्यादृष्टि जीवों का एक समय के लिए अभाव हो गया। पुनः अनंतर समय में ही मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि कुछ जीव सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुए। इस प्रकार से सम्यग्मिथ्यात्व का एक समय रूप जघन्य अंतर प्राप्त हो गया]</p> | <p>[दो जीवों को आदि करके पल्य के असंख्यातवें भाग मात्र विकल्प से उपशम सम्यग्दृष्टि जीव, जितना काल अवशेष रहनेपर सम्यक्त्व छोड़ा था उतने काल प्रमाण सासादन गुणस्थान में रहकर सब मिथ्यात्व को प्राप्त हुए और तीनों लोकों में एक समय के लिए सासादन सम्यग्दृष्टियों का अभाव हो गया। पुनः द्वितीय समय में कुछ उपशम सम्यग्दृष्टि जीव सासादन गुणस्थान को प्राप्त हुए। इस प्रकार सासादन गुणस्थान का (नानाजीवापेक्षया) एक समय रूप जघन्य अंतर प्राप्त हुआ। बहुत-से सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव अपने काल के क्षय से सम्यक्त्व को अथवा मिथ्यात्व को प्राप्त हुए और तीनों ही लोकों में सम्यग् मिथ्यादृष्टि जीवों का एक समय के लिए अभाव हो गया। पुनः अनंतर समय में ही मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि कुछ जीव सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुए। इस प्रकार से सम्यग्मिथ्यात्व का एक समय रूप जघन्य अंतर प्राप्त हो गया]</p> | ||
<p>(विशेष देखें <span class="GRef"> धवला 5/1,6,4/7/9 </span> | <p>(विशेष देखें <span class="GRef"> धवला 5/1,6,4/7/9 )</span>।</p> | ||
<h4 id="3.6">6. पल्य/असंख्यात अंतर निकालना</h4> | <h4 id="3.6">6. पल्य/असंख्यात अंतर निकालना</h4> | ||
<h5>नानाजीवापेक्षया -</h5> | <h5>नानाजीवापेक्षया -</h5> | ||
<p>[इसकी प्ररूपणा भी जघन्य अंतर एक समयवत् ही जानना। विशेष केवल इतना है कि यहाँ पर एक समय के स्थान पर उत्कृष्ट अंतर पल्य का असंख्यातवाँ भाग मात्र कहा है]</p> | <p>[इसकी प्ररूपणा भी जघन्य अंतर एक समयवत् ही जानना। विशेष केवल इतना है कि यहाँ पर एक समय के स्थान पर उत्कृष्ट अंतर पल्य का असंख्यातवाँ भाग मात्र कहा है]</p> | ||
<p>(विशेष देखें <span class="GRef"> धवला 5/1,6,6/8/8 </span> | <p>(विशेष देखें <span class="GRef"> धवला 5/1,6,6/8/8 )</span>।</p> | ||
<h4 id="3.7">7. अनंत काल अंतर निकालना</h4> | <h4 id="3.7">7. अनंत काल अंतर निकालना</h4> | ||
<h5>एक जीवापेक्षया -</h5> | <h5>एक जीवापेक्षया -</h5> | ||
Line 136: | Line 136: | ||
<p><span class="GRef">पंचसंग्रह प्राकृत 1/206</span> पणयालीसमुहुत्ता पक्खो मासो य विण्णि चउमासा। छम्मास वरिसमेयं च अंतरं होइ पुढवीणं ।।206।।</p> | <p><span class="GRef">पंचसंग्रह प्राकृत 1/206</span> पणयालीसमुहुत्ता पक्खो मासो य विण्णि चउमासा। छम्मास वरिसमेयं च अंतरं होइ पुढवीणं ।।206।।</p> | ||
<p>= रत्नप्रभादि सातों पृथ्वियों में नारकियों की उत्पत्ति का अंतरकाल क्रमशः 45 मुहूर्त, एक पक्ष, एक मास, दो मास, चार मास, छह मास और एक वर्ष होता है।</p> | <p>= रत्नप्रभादि सातों पृथ्वियों में नारकियों की उत्पत्ति का अंतरकाल क्रमशः 45 मुहूर्त, एक पक्ष, एक मास, दो मास, चार मास, छह मास और एक वर्ष होता है।</p> | ||
<p><span class="GRef"> हरिवंशपुराण | <p><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_4#370|हरिवंशपुराण - 4.370-371]] </span>चत्वारिंशत्सहाष्टाभिर्घटिकाः प्रथमक्षितौ अंतर। नरकोत्पत्तेरंतरज्ञैः स्फुटीकृतम् ।।370।। सप्ताहश्चैव पक्षः स्यान्मासो भासौ यथाक्रमम्। चत्वारोऽपि च षण्मासा विरहं षट्षु भूमिषु ।।371।।</p> | ||
<p>= अंतर के जाननेवाले आचार्यों ने प्रथम पृथिवी में नारकियों की उत्पत्ति का अंतर 48 घड़ी बतलाया है ।।370।। और नीचे की 6 भूमियों में क्रम से 1 सप्ताह, 1 पक्ष, 1 मास, 2 मास, 4 मास और 6 मास का विरह अर्थात् अंतरकाल कहा है ।।371।। नोट - (यह कथन नानाजीवापेक्षया जानना। दोनों मान्यताओं में कुछ अंतर है जो ऊपर से विदित होता है।</p> | <p>= अंतर के जाननेवाले आचार्यों ने प्रथम पृथिवी में नारकियों की उत्पत्ति का अंतर 48 घड़ी बतलाया है ।।370।। और नीचे की 6 भूमियों में क्रम से 1 सप्ताह, 1 पक्ष, 1 मास, 2 मास, 4 मास और 6 मास का विरह अर्थात् अंतरकाल कहा है ।।371।। नोट - (यह कथन नानाजीवापेक्षया जानना। दोनों मान्यताओं में कुछ अंतर है जो ऊपर से विदित होता है।</p> | ||
<h5>2. देवगति -</h5> | <h5>2. देवगति -</h5> |
Latest revision as of 14:40, 27 November 2023
कोई एक कार्य विशेष हो चुकने पर जितने काल पश्चात् उसका पुनः होना संभव हो उसे अंतर काल कहते हैं। जीवों की गुणस्थान प्राप्ति अथवा किन्हीं स्थान विशेषों में उसका जन्म-मरण अथवा कर्मों के बंध उदय आदि सर्व प्रकरणों में इस अंतर काल का विचार करना ज्ञान की विशदता के लिए आवश्यक है। इसी विषय का कथन इस अधिकार में किया गया है।
1. अंतर निर्देश -
2. अंतर प्ररूपणा संबंधी कुछ नियम-
- अंतरप्ररूपणा संबंधी सामान्य नियम
- योग मार्गणा में अंतर संबंधी नियम
- द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में अंतर संबंधी नियम
- सासादन सम्यक्त्व में अंतर संबंधी नियम
- सम्यग्मिथ्यादृष्टि में अंतर संबंधी नियम
- प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन में अंतर संबंधी नियम
3. सारणी में दिया गया अंतर काल निकालना-
- गुणस्थान परिवर्तन-द्वारा-अंतर निकालना
- गति परिवर्तन-द्वारा अंतर निकालना
- निरंतर काल निकालना
- 2 x 66 सागर अंतर निकालना
- एक समय अंतर निकालना
- पल्य/असं. अंतर निकालना
- काल व अंतर में अंतर देखें काल - 6
4. अंतर विषयक प्ररूपणाएँ-
- नरक व देवगति में उपपाद विषयक अंतर प्ररूपणा
- सारणी में प्रयुक्त संकेतों की सूची
- अंतर विषयक ओघ प्ररूपणा
- आदेश प्ररूपणा
- कर्मों के बंध, उदय, सत्त्व विषयक अंतर प्ररूपणा
- अन्य विषयों संबंधी ओघ आदेश प्ररूपणाएँ
- काल व अंतरानुयोगद्वार में अंतर - देखें काल - 5
1. अंतर निर्देश
1. अंतर प्ररूपणा सामान्य का लक्षण-
सर्वार्थसिद्धि/1/8/29 अंतरं विरहकालः।
= विरह काल को अंतर कहते हैं। (अर्थात् जितने काल तक अवस्था विशेष से जुदा होकर पुनः उसकी प्राप्ति नहीं होती उस काल को अंतर कहते हैं।)
( धवला 1/1,1,8/103/156 ) ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/553/982 )
राजवार्तिक 1/8/7/42/5 अंतरशब्दत्यानेकार्थवृत्तेः छिद्रमध्यविरहेष्वन्यतमग्रहणम् ।7। [अंतरशब्दः] बहुष्वर्थेषु दृष्टप्रयोगः। क्वचिच्छिद्रे वर्तते सांतरं काष्ठम्, सच्छिद्रम् इति। क्वचिदन्यत्वे `द्रव्याणि द्रव्यांतरमारभंते' [वैशेषिक सूत्र 1/1/10] इति। क्वचिन्मध्ये हिमवत्सागरांतर इति। क्वचित्सामीप्ये `स्फटिकस्य शुक्लरक्ताद्यंतरस्थस्यतद्वर्गता' इति `शुक्लरक्तसमीपस्थस्य' इति गम्यते। क्वचिद्विशेषे - ``वाजिवारणलोहानां काष्ठपाषाणवाससाम्। नारीपुरुषतोयानामंतरं महदंतरम्।। [गरुड़पु. 110/15] इति महान् विशेष इत्यर्थः। क्वचिद् बहिर्योगे `ग्रामस्यांतरे कूपाः' इति। क्वचिदुपसंव्याने-अंतरे शाटका इति। क्वचिद्विरहे अनभिप्रेतश्रोतृजनांतरे मंत्रं मंत्रयते, तद्विरहे मंत्रयत इत्यर्थः।
= अंतर शब्द के अनेक अर्थ हैं। 1. यथा `सांतरं काष्ठं' में छिद्र अर्थ है। 2. कहीं पर अन्य अर्थ के रूप में वर्तता है। 3. `हिमवत्सागरांतरे' में अंतर शब्द का अर्थ मध्य है। 4. `शुक्लरक्ताद्यंतरस्थस्य स्फटिकस्य - सफेद और लाल रंग के समीप रखा हुआ स्फटिक। यहाँ अंतर का समीप अर्थ है। 5. कहीं पर विशेषता अर्थ में भी प्रयुक्त होता है जैसे - घोड़ा, हाथी और लोहे में, लकड़ी, पत्थर और कपड़े में, स्त्री, पुरुष और जल में अंतर ही नहीं, महान् अंतर है। यहाँ अंतर शब्द वैशिष्ट्यवाचक है। 6. `ग्रामस्यांतर कूपाः' में बाह्यार्थक अंतर शब्द है अर्थात् गाँव के बाहर कुआँ है। 7. कहीं उपसंव्यान अर्थात् अंतर्वस्त्र के अर्थ में अंतर शब्द का प्रयोग होता है यथा `अंतरे शाटकाः'। 8. कहीं विरह अर्थ में जैसे `अनभिप्रेतश्रोतृजनांतरे मंत्रयते' - अनिष्ट व्यक्तियों के विरह में मण्त्रणा करता है।
राजवार्तिक 1/8/8/42/14 अनुपहतवीर्यस्य द्रव्यस्य निमित्तवशात् कस्यचित् पर्यायस्य न्यग्भावे सति पुनर्निमित्तांतरात् तस्यैवाविर्भावदर्शनात् तदंतरमित्युच्यते।
= किसी समर्थ द्रव्य की किसी निमित्त से अमुक पर्याय का अभाव होनेपर निमित्तांतर से जब तक वह पर्याय पुनः प्रकट नहीं होती, तब तक के कालको अंतर कहते हैं।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 143/357 लोके नानाजीवापेक्षया विवक्षितगुणस्थानं मार्गणास्थानं वा त्यक्त्वा गुणांतरे मार्गणास्थानांतरे वा गत्वा पुनर्यावत्तद्विवक्षितगुणस्थानं मार्गणास्थानं वा नायाति तावन् कालः अंतरं नाम।
= नाना जीवनिकी अपेक्षा विवक्षित गुणस्थान वा मार्गणास्थान नै छोडि अन्य कोई गुणस्थान वा मार्गणास्थान में प्राप्त होई बहुरि उस ही विवक्षित स्थान वा मार्गणास्थान कौ यावत् काल प्राप्त न होई तिस कालका नाम अंतर है।
2. अंतर के भेद
- धवला 5/1,6,1/ पृष्ट /पंक्ति
(Chitra-1)
अंतर 1/9
(नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल भाव)
2/1 3/5 2/3
सद्भाव असद्भाव आगम नो आगम आगम नो आगम
2/4
ज्ञायक भव्य तद्व्यतिरिक्त
2/5 3/1
भव्य वर्तमान समुत्त्यक्त सचित्त अचित्त मिश्र
3. निक्षेप रूप अंतर के लक्षण - देखें निक्षेप ।
धवला 5/1,6,1/ पृष्ट 3/4 खेत्तकालंतराणि दव्वंतरे पविट्ठाणि, छदव्ववदिरित्तखेत्तकालाणमभावा।
= क्षेत्रांतर और कालांतर, ये दोनों ही द्रव्यांतर में प्रविष्ट हो जाते हैं, क्योंकि छः द्रव्यों से व्यतिरिक्त क्षेत्र और काल का अभाव है।
4. स्थानांतर का लक्षण
धवला 12/4 2,7,201/114/9 हेट्ठिमट्ठाणमुवरिभट्ठाणम्हि सोहियरूवूणे कदे जं लद्धं तं ट्ठाणंतरं णाम।
= उपरिम स्थानों में अधस्तन स्थान को घटाकर एक कम करने पर जो प्राप्त हो वह स्थानों का अंतर कहा जाता है।
2. अंतर प्ररूपणा संबंधी कुछ नियम -
1. अंतरप्ररूपणा संबंधी सामान्य नियम
धवला 5/1,6,104/66/2 जीए मग्गणाए बहुगुणट्ठाणाणि अत्थि तीए त मग्गणछंडिय अण्णगुणेहि अंतराविह अंतरपरूवणा कादव्वा। जीए पुण्णमग्गणाए एक्कं चेव गुणट्ठाण तत्थ अण्णमग्गणाए अतराविय अंतरपरूवणा कादव्वा इदि एसो सुत्ताभिप्पाओ।
= जिस मार्गणा में बहुत गुणस्थान होते हैं, उस मार्गणा को नहीं छोड़कर अन्य गुणस्थानों से अंतर कराकर अंतर प्ररूपणा करनी चाहिए। परंतु जिस मार्गणा में एक ही गुणस्थान होता है, वहाँ पर अन्य मार्गणा में अंतर करा करके अंतर प्ररूपणा करनी चाहिए। इस प्रकार यहाँ पर यह सूत्र का अभिप्राय है।
2. योग मार्गणा में अंतर संबंधी नियम
धवला 5/1,6,153/87/9 कधमेगजीवमासेज्ज अंतराभावो। ण ताव जोगंतरगमणेणंतरं संभवदि, मग्गणाए विणासापत्तीदो। ण च अण्णगुणगमणेण अंतर संभवदि, गुणंतरं गदस्स जीवस्स जोगंतरगमणेण विणा पुणो आगमणाभावादो।
= प्रश्न एक जीवकी अपेक्षा अंतर का अभाव कैसे कहा? उत्तर - सूत्रोक्त गुणस्थानों में न तो अन्य योग में गमन-द्वारा अंतर संभव है, क्योंकि, ऐसा मानने पर विवक्षित मार्गणा के विनाश की आपत्ति आती है। और न अन्य गुणस्थान में जाने से भी अंतर संभव है, क्योंकि दूसरे गुणस्थान को गये हुए जीव के अन्य योग को प्राप्त हुए बिना पुनः आगमन का अभाव है।
3. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में अंतर संबंधी नियम
धवला 5/1,6,375/170/2 हेट्ठा ओइण्णस्स वेदगसम्मत्तमपडिवज्जिय पुव्वुवसमसम्मत्तेणुवसमसेढी समारूहणे संभवाभावादो।
= उपशम श्रेणी से नीचे उतरे हुए जीव के वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त हुए बिना पहले वाले उपशम सम्यक्त्व के द्वारा पुनः उपशम श्रेणी पर समारोहण की संभावना का अभाव है।
4. सासादन सम्यक्त्व में अंतर संबंधी नियम
धवला 7/2,3,136/233/11 उवसमसेडीदो ओदिण्ण उवसमसम्माइट्ठी दोबारमेक्को ण सासणगुणं पडिवज्जदि त्ति।
= उपशम श्रेणी से उतरा हुआ उपशम सम्यग्दृष्टि एक जीव दो बार सासादन गुणस्थान को प्राप्त नहीं होता।
5. सम्यग्मिथ्यादृष्टि में अंतर संबंधी नियम
धवला 5/1,6,36/31/2 जो जीवो सम्मादिट्ठी होदूण आउअं बंधिय सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जदि, सो सम्मत्तेणेव णिप्फिददि। अह मिच्छादिट्ठी होदूण आउअं बंधिय जो सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जदि, सो मिच्छत्तेणेव णिप्फिददि।
= जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर और आयु को बाँधकर सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है, वह सम्यक्त्व के साथ ही उस गति से निकलता है। अथवा जो मिथ्यादृष्टि होकर और आयु को बाँधकर सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है, वह मिथ्यात्व के साथ ही निकलता है।
6. प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन में अंतर संबंधी नियम
षट्खंडागम 7/2,3/ सूत्र 139/233 जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागो।
धवला 7/2,3,139/233/3 कुदो। पढमसम्मत्तं घेत्तूण अंतोमुहुत्तमच्छिय सासणगुणं गंतूणहिं करिय मिच्छत्तं गंतूणंतरिय सव्वजहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तुव्वेलणकालेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पढमसम्मत्तपाओग्गसागरोवमपुधत्तमेत्तट्ठिदिसंतकम्मं ठविय तिण्णि वि करणाणि काऊण पुणो पढमसम्मत्तं घेत्तूण छावलियावसेसाए उवसम-सम्मत्तद्धाए सासणं गदस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागमेत्तंतरुवलंभादो। उवसमसेडीदो ओयरिय सासणं गंतूण अंतोमुहुत्तेण पुणो वि उवसमसेडिं चडिय ओदरिदूण शासणं गदस्स अंतोमुहुत्तमेत्तमंतरं उवलब्भदे, एदमेत्थ किण्ण परूविदं। ण च उवसमसेडीदो ओदिण्णउवसमसम्माइट्ठिणो सासणं (ण) गच्छंति त्ति णियमो अत्थि, `आसाणं पि गच्छेज्ज' इदि कसायपाहुडे चुण्णिसुत्तदंसणादो। एत्थ परिहारो उच्चदे - उवसमसेडीदो ओदिण्ण उवसमसम्माइट्ठी दोवारमेक्को ण सासणगुणं पडिवज्जदि त्ति। तम्हि भवे सासणं पडिवज्जिय उवसमसेडिमारुहिय तत्तो ओदिण्णो वि ण सासणं पडिवज्जदि त्ति अहिप्पओ एदस्स सुत्तरस। तेणंतोमुहुत्तमेत्तं जहण्णंतरं णोवलब्भदे।
धवला 5/1,6,7/10/3 उवसमसम्मत्तं पि अंतोमुहुत्तेण किण्ण पडिवज्जदे। ण उवसमसम्मादिट्ठी मिच्छत्तं गंतूणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेलमाणो तेसिमंतोकोडाकोडीमेत्तट्ठिदिं घादिय सागरोवमादो सागरोवमपुधत्तादो वा जाव हेट्ठा ण करेदि ताव उवसमसम्मत्तगहणसंभवाभावा। ताणं ट्ठिदीओ अंतोमुहुत्तेण घादिय सागरोवमादो सागरोवमपुधत्तादो वा हेट्ठा किण्ण करेदि। ण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तायामेण अंतोमुहुत्तक्कीरणकालेहि उव्वेलणखंडएहि घादिज्जमाणाए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तट्ठिदीए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालेण विणा सागरोवमस्स वा सागरोवमपुधत्तस्स वा हेट्ठा पदणाणुववत्तीदो।
धवला 10/4,2,4,65/288/1 एत्थ वेदगसम्मत्त चेव एसो पडिवज्जदि उवसमसम्मत्तंतरकालस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागस्स एत्थाणुवलंभादो।
= सासादन सम्यग्दृष्टियों का अंतर जघन्य से पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र है ।।139।। क्योंकि, प्रथमोपशम सम्यक्त्व को ग्रहण कर और अंतर्मुहूर्त रहकर सासादन गुणस्थान को प्राप्त हो, आदि करके पुनः मिथ्यात्व में जाकर अंतर को प्राप्त हो सर्व जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र उद्वेलना काल से सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों के प्रथम सम्यक्त्व के योग्य सागरोपम पृथक्त्व मात्र स्थिति सत्त्व को स्थापित कर तीनों ही करणों को करके पुनः प्रथम सम्यक्त्व को ग्रहण कर उपशम सम्यक्त्व काल में छः आवलियों के शेष रहनेपर सासादन को प्राप्त हुए जीव के पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य अंतर प्राप्त होता है।
( धवला 5/1,6,5-7/7-11 ) ( धवला 5/1,6,376/170/9 )
प्रश्न - उपशम श्रेणी से उतरकर सासादन को प्राप्त हो अंतर्मुहूर्त से फिर भी उपशम श्रेणी पर चढ़कर व उतरकर सासादन को प्राप्त हुए जीव के अंतर्मुहूर्त मात्र अंतर प्राप्त होता है; उसका यहाँ निरूपण क्यों नहीं किया! उत्तर - उपशम श्रेणी से उतरा हुआ उपशम सम्यग्दृष्टि जीव सासादन को प्राप्त नहीं होता। कषायपाहुड़ की अपेक्षा ऐसा संभव होने पर भी वहाँ एक ही जीव दो बार सासादन गुणस्थान को प्राप्त नहीं करता। प्रश्न - वही जीव उपशम सम्यक्त्व को भी अंतर्मुहूर्त काल के पश्चात् ही क्यों नहीं प्राप्त होता है? उत्तर - नहीं, क्योंकि, उपशम सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व को प्राप्त होकर, सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व-प्रकृति की उद्वेलना करता हुआ, उनकी अंतःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थिति को घात करके सागरोपम से अथवा सागरोपम पृथक्त्व से जब तक नीचे नहीं करता तब तक उपशम सम्यक्त्व का ग्रहण करना संभव ही नहीं है। प्रश्न - सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति की स्थितियों को अंतर्मुहूर्त काल में घात करके सागरोपम से, अथवा सागरोपम पृथक्त्व काल से नीचे क्यों नहीं करता? उत्तर - नहीं, क्योंकि पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र आयाम के द्वारा अंतर्मुहूर्त उत्कीरण काल वाले उद्वेलना कांडकों से घात की जाने वाली सम्यक् और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति की स्थिति का, पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र काल के बिना सागरोपम के अथवा सागरोपमपृथक्त्व के नीचे पतन नहीं हो सकता है। (और भी देखें सम्यग्दर्शन - IV.2.6)
यहाँ यह (पूर्व कोटि तक सम्यक्त्व सहित संयम पालन करके अंत समय मिथ्यात्व को प्राप्त होकर मरने तथा हीन देवों में उत्पन्न होनेवाला जीव अंतर्मुहूर्त पश्चात् यदि सम्यक्त्व को प्राप्त करता भी है तो) वेदक सम्यक्त्व को ही प्राप्त करता है, क्योंकि उपशम सम्यग्दर्शन का अंतर काल जो पल्य का असंख्यातवाँ भाग है, वह यहाँ नहीं पाया जाता।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 704/1141/15 ते [प्रशमोपशमसम्यग्दृष्टयः] अप्रमत्तसंयतं विना त्रय एव तत्सम्यक्त्वकालांतर्मुहूर्ते जघन्येन एकसमये उत्कृष्टेन च षडावलिमात्रेऽवशिष्टे अनंतानुबंध्यंयतमोदये सासादना भवंति। अथवा ते चत्वारोऽपि यदि भव्यतागुणविशेषेण सम्यक्त्वविराधका न स्युः तदा तत्काले संपूर्णे जाते सम्यक् कृत्युदये वेदकसम्यग्दृष्टयो वा मिश्रप्रकृत्युदये सम्यग्मिथ्यादृष्ट्यो वा मिथ्यात्वोदये मिथ्यादृष्टयो भवंति।
= अप्रमत्त संयत के बिना वे तीनों (4,5,6ठे गुणस्थानवर्ती उपशम सम्यग्दृष्टि जीव) उस सम्यक्त्व के अंतर्मुहूर्त काल में जघन्य एक समय उत्कृष्ट छह आवलि मात्र शेष रह जाने पर अनंतानुबंधी की कोई एक प्रकृति के उदय में सासादन गुणस्थान को प्राप्त हो जाते हैं अथवा वे (4-7 तक) चारों ही यदि भव्यता गुण विशेष के द्वारा सम्यक्त्व की विराधना न करें तो उतना काल पूर्ण हो जाने पर या तो सम्यक्प्रकृति के उदय से वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं, या मिश्र प्रकृति के उदय से सम्यग्मिथ्यादृष्टि हो जाते हैं, या मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यादृष्टि हो जाते हैं।
नोट :- यद्यपि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व का जघन्य अंतर अंतर्मुहूर्त है, क्योंकि उपशम श्रेणी पर चढ़कर उतरने के अंतर्मुहूर्त पश्चात् पुनः द्वितीयोपशम उत्पन्न करके श्रेणी पर आरूढ़ होना संभव है परंतु प्रथमोपशम सम्यक्त्व तो मिथ्यादृष्टि को ही प्राप्त होता है, और वह भी उस समय जब कि उसकी सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्याप्रकृति की स्थिति सागरोपम पृथक्त्व से कम हो जाये। अतः इसका जघन्य अंतर पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र जानना।]
3. सारणी में दिया गया अंतरकाल निकालना
1. गुणस्थान परिवर्तन-द्वारा अंतर निकालना
धवला 5/1,6,3/5/5 एक्को मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छत्त-सम्मत्त-संजमासंजमसंजमेसु बहुसो परियट्टिदो, परिणामपच्चण्णसम्मत्तं गदो, सव्वलहुमंतोमुहुत्तं त सम्मत्तेण अच्छिय मिच्छत्तं गदो, लद्धमंतोमुहुत्तं सव्वजहण्णं मिच्छतंतरं।
= एक मिथ्यादृष्टि जीव, सम्यग्मिथ्यात्व, अविरतसम्यक्त्व, संयमासंयम और संयत में बहुत बार परिवर्तित होता हुआ परिणामों के निमित्त से सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ, और वहाँ पर सर्व लघु अंतर्मुहूर्त काल तक सम्यक्त्व के साथ रहकर मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। इस प्रकार से सर्व जघन्य अंतर्मुहूर्त प्रमाण मिथ्यात्व गुणस्थान का अंतर प्राप्त हो गया।
धवला 5/1,6,6/9/2 नाना जीव की अपेक्षा भी उपरोक्तवत् ही कथन है। अंतर केवल इतना है कि यहाँ एक जीव की बजाय युगपत् सात, आठ या अधिक जीवों का ग्रहण करना चाहिए।
2. गति परिवर्तन-द्वारा अंतर निकालना
धवला 5/1,6,45/40/3 एक्को मणुसो णेइरयो देवो वा एगसमयावसेसाए सासणद्धाए पंचिंदियतिरिक्खेसु उववण्णो। त थ पंचाणउदिपुव्वकोडिअब्भहिय तिण्णि पलिदोवमाणि गमिय अवसाणे (उवसमसम्मत्तं घेत्तूण) एगसमयावसेसे आउए आसाणं गदो कालं करिय देवो जादो। एवं दुसमऊणसगट्ठिदी सासणुक्कस्संतरं होदि।
= कोई एक मनुष्य, नारकी अथवा देव सासादन गुणस्थान के काल में एक समय अवशेष रह जाने पर पंचेंद्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ। उनमें पंचानवे पूर्व कोटिकाल से अधिक तीन पल्योपम बिताकर अंत में (उपशम सम्यक्त्व ग्रहण करके) आयु के एक समय अवशेष रह जानेपर सासादन गुणस्थान को प्राप्त हुआ और मरण करके देव उत्पन्न हुआ। इस प्रकार दो समय कम अपनी स्थिति सासादन गुणस्थान का उत्कृष्ट अंतर होता है।
3. निरंतरकाल निकालना
धवला 5/1,6,2/4/8 णत्थि अंतरं मिच्छत्तपज्जयपरिणदजीवाणं तिसु वि कालेसु वोच्छेदो विरहो अभावो णत्थि त्ति उत्तं होदि।
= अंतर नहीं है। अर्थात् मिथ्यात्व पर्याय से परिणत जीवों का तीनों ही कालों में व्युच्छेद, विरह या अभाव नहीं होता है। (अन्य विवक्षित स्थानों के संबंधमें भी निरंतर का अर्थ नाना जीवापेक्षया ऐसा ही जानना।)
धवला 5/1,6,18/21/7 एगजीवं णत्थि अंतरं, णिरंतरं ।।18।। कुदो। खवगाणं पदणाबावा।
= एक जीव की अपेक्षा उक्त चारों क्षपकों का और अयोगिकेवली का अंतर नहीं होता है, निरंतर है ।।18।। क्योंकि, क्षपक श्रेणी वाले जीवों के पतन का अभाव है।
धवला 5/1,6,20/22/1 सजोगिणमजोगिभावेण परिणदाणं पुणो सजोगिभावेण परिणमणाभावा।
= अयोगि केवली रूप से परिणत हुए सयोगि केवलियों का पुनः सयोगिकेवली रूप से परिणमन नहीं होता है। [अर्थात् उनका अपने स्थानसे पतन नहीं होता है, इसी प्रकार एक जीव की अपेक्षा सर्वत्र ही निरंतर काल निकालने में पतनाभाव कारण जानना।]
4. 2 X 66 सागर अंतर निकालना-
एक जीवापेक्षया-
धवला 5/1,6,4/6/6 उक्कसेण वे छावट्ठिसागरोवमाणि देसूणाणि ।।4।। एदस्स णिदरिसणं-एक्को तिरिक्खो मणुस्सो वा लंतयकाविट्ठकप्पवासियदेवेसु चोद्दससागरोवमाउट्ठिदिएसु उप्पण्णो। एक्कं सागरोवमं गमियविदियसागरोवमादिसमएसम्मत्तंपडिवण्णो। तेरसागरोवमाणि तत्थ अच्छिय सम्मत्तेण सह चुदो मणुसो जादो। तत्थ संजमं संजमा-संजमं वा अणुपालिय मणुसाउएणूववावीससागरोवमाउट्ठिदिएसु आरणच्चुददेवेसु उववण्णो। तत्तो चुदो मणुसो जादो। तत्थ संजममणुपालिय उवरिमगेवज्जे देवेसु मणुसाउएणूणएक्कत्तीससागरोवमाउट्ठिदिएसु उववण्णो। अंतोमुहुत्तूणछावट्ठिसागरोवमचरिमसमए परिणामपच्चएण सम्मामिच्छत्तं गदो। तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो सम्मत्तं पडिवज्जिय विस्समिय चुदो मणुसो जादो। तत्थ संजमं संजमासंजमं वा अणुपालिय मणुस्साउएणूणवीससागरोवमाउट्ठिदिएसुवज्जिय पुणो जहाकमेण मणुसाउवेणूणवावीस-चउवीससागरोवमट्ठिदिएसु देवेसुवज्जिय अंतोमुहुत्तूणवेछावट्ठिसागरोवमचरिमसमये मिच्छत्तं गदो! लद्धमंतरं अंतोमुहुत्तूण वेछावट्टिसागरोवमाणि। एसो उप्पत्तिकमो अउप्पण्णउप्पायणट्ठं उत्तो। परमत्थदो पुण जेण केण वि पयारेण छावट्ठी पूरेदव्वा।
= मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अंतर कुछ कम दो छयासठ सागरोपम काल है ।।4।। कोई एक तिर्यंच अथवा मनुष्य चौदह सागरोपम आयु स्थिति वाले लांतव कापिष्ठ देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ एक सागरोपम काल बिताकर दूसरे सागरोपम के आदि समय में सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। तेरह सागरोपम काल वहाँ रहकर सम्यक्त्व के साथ ही च्युत हुआ और मनुष्य हो गया। उस मनुष्य भव में संयम को अथवा संयमासंयम को अनुपालन कर इस मनुष्य भव संबंधी आयु से कम बाईस सागरोपम आयु की स्थिति वाले आरणाच्युत कल्प के देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्युत होकर पुनः मनुष्य हुआ। इस मनुष्य भव में संयम को अनुपालन कर उपरिम ग्रैवेयक में मनुष्य आयु से कम इकतीस सागरोपम आयु की स्थिति वाले अहमिंद्र देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ पर अंतर्मुहूर्त कम छयासठ सागरोपम काल के चरम समय में परिणामों के निमित्त से सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। उस सम्यग्मिथ्यात्व में अंतर्मुहूर्तकाल रहकर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त होकर, विश्राम ले, च्युत हो, मनुष्य हो गया। उस मनुष्य भव में संयम को अथवा संयमासंयम को परिपालन कर, इस मनुष्य भव संबंधी आयु से कम बीस सागरोपम आयु की स्थिति वाले आनतप्राणत कल्पों के देवों में उत्पन्न होकर पुनः यथाक्रम से मनुष्यायु से कम बाईस और चोबीस सागरोपम की स्थिति वाले देवों में उत्पन्न होकर, अंतर्मुहूर्त कम दो छयासठ सागरोपम काल के अंतिम समय में मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। (14-1+22+31+20+22+24 = 2x66 सागरोपम) यह ऊपर बताया गया उत्पत्ति का क्रम अव्युत्पन्न जनों के समझाने के लिए कहा है। परमार्थ से तो जिस किसी भी प्रकार से छयासठ सागरोपम काल पूरा किया जा सकता है।
5. एक समय अंतर निकालना
नानाजीवापेक्षया -
[दो जीवों को आदि करके पल्य के असंख्यातवें भाग मात्र विकल्प से उपशम सम्यग्दृष्टि जीव, जितना काल अवशेष रहनेपर सम्यक्त्व छोड़ा था उतने काल प्रमाण सासादन गुणस्थान में रहकर सब मिथ्यात्व को प्राप्त हुए और तीनों लोकों में एक समय के लिए सासादन सम्यग्दृष्टियों का अभाव हो गया। पुनः द्वितीय समय में कुछ उपशम सम्यग्दृष्टि जीव सासादन गुणस्थान को प्राप्त हुए। इस प्रकार सासादन गुणस्थान का (नानाजीवापेक्षया) एक समय रूप जघन्य अंतर प्राप्त हुआ। बहुत-से सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव अपने काल के क्षय से सम्यक्त्व को अथवा मिथ्यात्व को प्राप्त हुए और तीनों ही लोकों में सम्यग् मिथ्यादृष्टि जीवों का एक समय के लिए अभाव हो गया। पुनः अनंतर समय में ही मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि कुछ जीव सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुए। इस प्रकार से सम्यग्मिथ्यात्व का एक समय रूप जघन्य अंतर प्राप्त हो गया]
(विशेष देखें धवला 5/1,6,4/7/9 )।
6. पल्य/असंख्यात अंतर निकालना
नानाजीवापेक्षया -
[इसकी प्ररूपणा भी जघन्य अंतर एक समयवत् ही जानना। विशेष केवल इतना है कि यहाँ पर एक समय के स्थान पर उत्कृष्ट अंतर पल्य का असंख्यातवाँ भाग मात्र कहा है]
(विशेष देखें धवला 5/1,6,6/8/8 )।
7. अनंत काल अंतर निकालना
एक जीवापेक्षया -
धवला 9/4,1,66/305/2 होदु एदमंतरं पंचिंदियतिरिक्खाणं, ण तिरिक्खाणं, सेसतिगदीट्ठिदीए आणंतियाभावादो। ण, अप्पिदपदजीव सेसतिगदीसु हिंडाविय अणप्पिदपदेण तिरिक्खेसु पवेसिय तत्थ अणंतकालमच्छिय णिप्पिदिदूण पुणो अप्पिदपदेण तिरिक्खेसुवक्कंतस्स अणंतंतरुलंभादो।
= प्रश्न -यह अंतर पंचेंद्रिय तिर्यंचों का भले ही हो, किंतु वह सामान्य तिर्यंचों का नहीं है? उत्तर - ऐसा नहीं है, क्योंकि विवक्षित पद (कृति संचित आदि) वाले जीव को शेष तीन गतियों में घुमाकर तथा अविवक्षित पद से तिर्यंचों में प्रवेश कराकर वहाँ अनंतकाल तक रहने के बाद निकलकर अर्पित पद से तिर्यंचों में उत्पन्न होने पर अनंतकाल अंतर पाया जाता है।
4. अंतर विषयक प्ररूपणाएँ
1. नरक व देवगति में उपपाद विषयक अंतर प्ररूपणा
1. नरक गति -
पंचसंग्रह प्राकृत 1/206 पणयालीसमुहुत्ता पक्खो मासो य विण्णि चउमासा। छम्मास वरिसमेयं च अंतरं होइ पुढवीणं ।।206।।
= रत्नप्रभादि सातों पृथ्वियों में नारकियों की उत्पत्ति का अंतरकाल क्रमशः 45 मुहूर्त, एक पक्ष, एक मास, दो मास, चार मास, छह मास और एक वर्ष होता है।
हरिवंशपुराण - 4.370-371 चत्वारिंशत्सहाष्टाभिर्घटिकाः प्रथमक्षितौ अंतर। नरकोत्पत्तेरंतरज्ञैः स्फुटीकृतम् ।।370।। सप्ताहश्चैव पक्षः स्यान्मासो भासौ यथाक्रमम्। चत्वारोऽपि च षण्मासा विरहं षट्षु भूमिषु ।।371।।
= अंतर के जाननेवाले आचार्यों ने प्रथम पृथिवी में नारकियों की उत्पत्ति का अंतर 48 घड़ी बतलाया है ।।370।। और नीचे की 6 भूमियों में क्रम से 1 सप्ताह, 1 पक्ष, 1 मास, 2 मास, 4 मास और 6 मास का विरह अर्थात् अंतरकाल कहा है ।।371।। नोट - (यह कथन नानाजीवापेक्षया जानना। दोनों मान्यताओं में कुछ अंतर है जो ऊपर से विदित होता है।
2. देवगति -
त्रिलोकसार/529-530 दुसुदुसु तिचउक्केसु य सेसे जणणंतरं तु चवणे य। सत्तदिणपक्खमासं दुगचदुछम्मासगं होदि ।।529।। वरविरह छम्मासं इंदमहादेविलोयवालाणं। चउतेत्तीससुराणं तणुरक्खसमाण परिसाणं ।।530।।
= दोय दोय तीन चतुष्क शेष इन विषै जननान्तर अर च्यवनै कहिये मरण विषै अंतर सो सात दिन, पक्ष, मास, दो, चार, छह मास प्रमाण हैं। (अर्थात् सामान्य देवों के जन्म व मरण का अंतर उत्कृष्टपने सौधर्मादिक विमानवासी देवों में क्रम से दो स्वर्गों में सात दिन, आगे के दो स्वर्गों में एक पक्ष, आगे चार स्वर्गों में एक मास, आगे चार स्वर्गों में दो मास, आगे चार स्वर्गों में चार मास, अवशेष ग्रैवेयकादि विषै छ मास जानना) ।।529।। उत्कृष्टपने मरण भए पीछे तिसकी जगह अन्य जीव आय यावत् न अवतरै तिस काल का प्रमाण सो सर्व ही इंद्र और इंद्र की महादेवी, अर लोकपाल, इनका तो विरह छ मास जानना। बहुरि त्रायस्त्रिंश देव अर अंगरक्षक अर सामानिक अर पारिषद इनका च्यार मास विरह काल जानना ।।530।।
- 2. सारणी में प्रयुक्त संकेतों का परिचय
अप0 |
अपर्याप्त |
सम्य0 |
सम्यक्त्व |
असं0 |
असंख्यात |
सा0 |
सागर |
तिर्य0 |
तिर्यंच |
को0पू0 |
क्रोड़ पूर्व |
प0 |
पर्याप्त |
पू0को0 |
पूर्व क्रोड़ |
पल्य/असं0 |
पल्य का असंख्यातवाँ भाग |
मिथ्या0 |
मिथ्यात्व |
पृ0 |
पृथिवी |
अंतर्मु0 |
अंतर्मुहूत (जघन्य कोष्ठक में जघन्य व उत्कृष्ट कोष्ठक में उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त)। |
मनु0 |
मनुष्य |
को0को0सा0 |
कोड़ाकोड़ी सागर |
28/ज0 |
28 प्रकृतियों की सत्ता वाला कोई मिथ्यादृष्टि या वेदक सम्यग्दृष्टि जीव सामान्य |
ज0 |
जघन्य |
आ0 |
आवली |
उ0 |
उत्कृष्ट |
औ0 |
औदारिक |
पूर्व |
70560000000000 वर्ष |
दि. |
दिन |
एके0 या ए. |
एकेंद्रिय |
नि. |
निगोद |
ज-उ. |
उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट जघन्य व अजघन्य बंध उदयादि। |
पु.परि. |
पुद्गल परिवर्तन |
न पुं. |
नपुंसक |
पृ. |
पृथक्त्व |
पंचें. |
पंचेंद्रिय |
भुजगार |
भुजगार अल्पतर अवस्थित अवक्तव्य बंध उदय आदि। |
स्थान |
जैसे 24 प्रकृति बंध स्थान, 28 प्रकृति बंध का स्थान आदि। |
मनु. |
मनुष्य |
बा. |
बादर |
वन. |
वनस्पति |
वृद्धि |
बंध उदयादि में षट्स्थान पति वृद्धि हानि। |
वै. |
वैक्रियक |
ल.अप. |
लब्धि अपर्याप्त |
वृद्धआ. पद |
जघन्य उत्कृष्ट वृद्धि हानि व अवस्थान पद। |
विकलें. |
विकलेंद्रिय |
सू. |
सूक्ष्म |
मा. |
मास |
सासा. |
सासादनवत् |
सं. |
संख्यात |
क्षप. |
क्षपक |
परि. |
परिवर्तन |
2. जीवों की अंतरविषयक ओघप्ररूपणा
प्रमाण — ष.ख.5/1-6/सूत्र सं.टीका सहित, पृ.1-21
<tbody> </tbody>
गुण स्थान |
प्रमाण नं0 1/सू. |
नाना जीवापेक्षा |
|
एक जीवापेक्षा |
||||||
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट |
अपेक्षा |
प्र. सू. |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट |
अपेक्षा |
||
1 |
2 |
... |
निरंतर |
... |
निरंतर |
3,4 |
अंतर्मुहूर्त |
देखें अंतर - 3.1 |
2×66 सागर अंतर्मुहूर्त |
देखें अंतर - 3.4 |
2 |
5,6 |
एक समय |
देखें अंतर - 3.5 |
पल्य/असं. |
देखें अंतर - 3.6 |
7,8 |
पल्य/असं. |
देखें अंतर - 2.6.1 |
अर्ध.पु. परि.–14 अंत.+ 1 समय |
प्रथमोपशम से सासादन पूर्वक मिथ्यात्व पुन: वैसे ही। फिर सासादनवत् । |
3 |
5 |
एक समय |
देखें अंतर - 3.5 |
पल्य/असं. |
देखें अंतर - 3.6 |
7,8 |
अंतर्मुहूर्त |
गुणस्थान परिवर्तन |
अर्ध.पु. परि.–14 अंत.+ 1 समय |
मिथ्यात्व से प्रथमोपशम, अंतर्मुहूर्त तक 2रे 3रे आदि में रहकर मिथ्यात्व। 10 अंत. संसार शेष रहने पर पुन: सम्यक्त्व। |
4 |
9 |
... |
निरंतर |
... |
निरंतर |
10, 11 |
अंतर्मुहूर्त |
4 व 5 के बीच गुणस्थान परिवर्तन |
अर्धपुद्गल परिवर्तन– 11 अंत. |
|
5 |
9 |
... |
निरंतर |
... |
निरंतर |
10, 11 |
अंतर्मुहूर्त |
5वें से 4 थे, 6ठे या 1ले में आ पुन: 5वाँ |
अर्धपुद्गल परिवर्तन– 11 अंत. |
प्रथमोपशम के साथ 5वाँ। आगे उपरोक्तवत् |
6 |
9 |
... |
निरंतर |
... |
निरंतर |
10, 11 |
अंतर्मुहूर्त |
6ठें 7वाँ पुन: छठा। नीचे उतरकर जघन्य अंतर प्राप्त नहीं होता। |
अर्धपुद्गल परिवर्तन 10 अंत. |
पहले ही प्रथमोपशम के साथ प्रमत्त। आगे उपरोक्तवत् |
7 |
19-21 |
... |
निरंतर |
... |
निरंतर |
10, 11 |
अंतर्मुहूर्त |
7वें से उपशम श्रेणी पुन: 7वाँ। नीचे उतर कर जघन्य अंतर नहीं होता। |
अर्धपुद्गल परिवर्तन 10 अंत. |
उपरोक्तवत् (6ठे के स्थान पर 7वाँ) |
उपशम |
||||||||||
8 |
12,13 |
1 समय |
7-8 जन ऊपर चढ़े तब 1 समय के लिए अंतर पड़े |
वर्ष पृ. |
7-8 जनें ऊपर चढ़ें तब |
14, 15 |
अंतर्मुहूर्त |
यथाक्रम 8,9,10,11 में चढ़कर नीचे गिरा |
अर्ध.पु.परि.– 28 अंतर्मुहूर्त |
अनादि मिथ्यादृष्टि यथाक्रम 11वें जाकर 8वें को प्राप्त करता हुआ नीचे गिरा। पुन: 8,9,10,9,8,7-6, 8,9,10,12,13,14, मोक्ष |
9-11 |
12,13 |
1 समय |
7-8 जन ऊपर चढ़े तब 1 समय के लिए अंतर पड़े |
वर्ष पृ. |
7-8 जनें ऊपर चढ़ें तब |
14, 15 |
अंतर्मुहूर्त |
यथाक्रम 8,9,10,11 में चढ़कर नीचे गिरा |
अर्ध.पु.परि.– 26 अंतर्मुहूर्त |
यथायोग्यरूपेण उपरोक्तवत् |
10 |
12,13 |
1 समय |
7-8 जन ऊपर चढ़े तब 1 समय के लिए अंतर पड़े |
वर्ष पृ. |
7-8 जनें ऊपर चढ़ें तब |
14, 15 |
अंतर्मुहूर्त |
यथाक्रम 8,9,10,11 में चढ़कर नीचे गिरा |
अर्ध.पु.परि.– 24 अंतर्मुहूर्त |
यथायोग्यरूपेण उपरोक्तवत् |
11 |
12,13 |
1 समय |
7-8 जन ऊपर चढ़े तब 1 समय के लिए अंतर पड़े |
वर्ष पृ. |
7-8 जनें ऊपर चढ़ें तब |
14, 15 |
अंतर्मुहूर्त |
यथाक्रम 11 से 10,9,8,7-6, 8,9,10,11 रूप से गिरकर ऊपर चढ़ना |
अर्ध.पु.परि.– 22 अंतर्मुहूर्त |
यथायोग्यरूपेण उपरोक्तवत् |
क्षपक |
||||||||||
8-12 |
16,17 |
1 समय |
|
6 मास |
7-8 जनें ऊपर चढ़ें तब |
18 |
... |
पतन का अभाव |
... |
पतन का अभाव |
13 |
19 |
1 समय |
|
... |
निरंतर |
20 |
... |
पतन का अभाव |
... |
पतन का अभाव |
14 |
16,17 |
1 समय |
|
... |
निरंतर |
18 |
... |
पतन का अभाव |
... |
पतन का अभाव |
3. जीवों के अंतरविषयक सामान्य व विशेष आदेश प्ररूपणा
प्रमाण— ;2. ;3.
1. गति मार्गणा
नरक गति—
<tbody> </tbody>
मार्गणा |
गुणस्थान |
नाना जीवापेक्षया |
एक जीवापेक्षया |
|||||||||
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट
|
प्रमाण |
जघन्य |
विशेष |
उत्कृष्ट |
विशेष |
||||
नं.1 |
नं.2 |
नं.1 |
नं.3 |
|||||||||
नरकगति सामान्य |
... |
|
2 |
... |
निरंतर |
...
|
|
2 |
अंतर्मु0 |
गति परिवर्तन |
असं.पु.परि. |
गति परिवर्तन |
1ली पृथिवी |
... |
|
4 |
... |
निरंतर |
...
|
|
4 |
अंतर्मु0 |
गति परिवर्तन |
असं.पु.परि. |
गति परिवर्तन |
नरक सामान्य |
1 |
21 |
|
... |
निरंतर |
...
|
22,23 |
|
अंतर्मु0 |
गुणस्थान परिवर्तन |
33 सागर – अंतर्मुहूर्त |
28/ज.7वीं पृथिवी में 6 पर्याप्तियाँ पूर्णकर वेदक सम्य. हो भव के अंत में मिथ्यात्व सहित चयकर तिर्यंच हुआ। |
|
4 |
21 |
|
... |
निरंतर |
...
|
22,23 |
|
अंतर्मु0 |
गुणस्थान परिवर्तन |
33 सागर – अंतर्मुहूर्त |
28/ज. 7वीं पृ. 1ले से 4थ वेदक, पुन: 1ला। आयु के अंत में उपशम सम्यक्त्व। |
|
2 |
24,25 |
|
1 समय |
ओघवत् |
पल्य/असं. |
26,27 |
|
|
ओघवत् |
33 सागर – 5 अंतर्मुहूर्त |
28/ज. 7वीं पृ. 1ले से 4थ वेदक, पुन: 1ला। आयु के अंत में उपशम सम्यक्त्व। |
|
3 |
24,25 |
|
1 समय |
ओघवत् |
पल्य/असं. |
26,27 |
|
|
ओघवत् |
33 सागर – 6 अंतर्मुहूर्त |
28/ज. 7वीं पृ. 1ले से 4थ वेदक, पुन: 1ला। आयु के अंत में उपशम सम्यक्त्व। |
1-7 पृथिवी |
1,4 |
28 |
|
... |
निरंतर |
...
|
29,30 |
|
अंतर्मु0 |
ओघवत् |
क्रमेण देशोन 1,3,7,10,17,22,33 सागर |
28/ज. 7वीं पृ. 1ले से 4थ वेदक, पुन: 1ला। आयु के अंत में उपशम सम्यक्त्व। |
|
2 |
31,32 |
|
1 समय |
ओघवत् |
पल्य/असं. |
33,34 |
|
|
ओघवत् |
क्रमेण देशोन 1,3,7,10,17,22,33 सागर |
28/ज. 7वीं पृ. 1ले से 4थ वेदक, पुन: 1ला। आयु के अंत में उपशम सम्यक्त्व। |
|
3 |
31,32 |
|
1 समय |
ओघवत् |
पल्य/असं. |
33,34 |
|
अंतर्मु0 |
ओघवत् |
क्रमेण देशोन 1,3,7,10,17,22,33 सागर कम |
28/ज. 7वीं पृ. 1ले से 4थ वेदक, पुन: 1ला। आयु के अंत में उपशम सम्यक्त्व। |
2. तिर्यंच गति
<tbody> </tbody>
मार्गणा |
गुणस्थान |
नाना जीवापेक्षया |
एक जीवापेक्षया |
||||||||||||||||||
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट
|
प्रमाण |
जघन्य |
विशेष |
उत्कृष्ट |
विशेष |
|||||||||||||
नं.1 |
नं.2 |
नं.1 |
नं.3 |
||||||||||||||||||
तिर्यंच सामान्य |
... |
|
6 |
... |
निरंतर |
...
|
|
6,7 |
क्षुद्रभव |
तिर्यंच से मनु. हो कदलीघात कर पुन: तिर्यंच |
100 सा.पृ. |
शेष अविवक्षित गतियों में भ्रमण |
|||||||||
पंचेंद्रिय सामा.,प.अप. |
... |
|
6 |
... |
निरंतर |
...
|
|
9,10 |
क्षुद्रभव |
तिर्यंच से मनु. हो कदलीघात कर पुन: तिर्यंच |
असं.पु.परि. |
शेष अविवक्षित गतियों में भ्रमण |
|||||||||
पंचेंद्रिय योनिमति |
... |
|
6 |
... |
निरंतर |
...
|
|
9,10 |
क्षुद्रभव |
तिर्यंच से मनु. हो कदलीघात कर पुन: तिर्यंच |
असं.पु.परि. |
शेष अविवक्षित गतियों में भ्रमण |
|||||||||
लब्ध्यपर्याप्त |
... |
52 |
|
... |
निरंतर |
...
|
53,54 |
|
क्षुद्रभव |
पर्याय विच्छेद |
असं.पु.परि. |
शेष अविवक्षित गतियों में भ्रमण |
|||||||||
तिर्यंच सामान्य |
1 |
35 |
4-5 |
... |
निरंतर |
...
|
36,37 |
|
अंतर्मु0 |
ओघवत् |
3 पल्य – 2 मास + मुहूर्त पृ. |
28/ज. वेदक हो आयु के अंत में मिथ्या. पुन: सम्यक्त्व हो देवों में उत्पत्ति |
|||||||||
|
2-5 |
38 |
4-5 |
ओघवत् |
ओघवत् |
ओघवत् |
38 |
|
ओघवत् |
ओघवत् |
3 पल्य – 2 मास + मुहूर्त पृ. |
28/ज. वेदक हो आयु के अंत में मिथ्या. पुन: सम्यक्त्व हो देवों में उत्पत्ति |
|||||||||
पंचे0 सा0प0 व योनिमति |
1 |
39 |
|
... |
निरंतर |
...
|
40,41 |
|
अंतर्मु0 |
ओघवत् |
3 पल्य – 2 मास + 2 अंत0 |
28/ज. वेदक हो आयु के अंत में मिथ्या. पुन: सम्यक्त्व हो देवों में उत्पत्ति |
|||||||||
|
2 |
42,43 |
|
1 समय |
ओघवत् |
पल्य/असं. |
44,45 |
|
पल्य/असं. |
ओघवत् |
3 पल्य – 95 पू.को. योनिमति में 95 के स्थान पर 15 पू.को. |
देखें अंतर - 3.2 |
|
||||||||
|
3 |
42 |
|
1 समय |
निरंतर |
पल्य/असं. |
44,45 |
|
अंतर्मु0 |
ओघवत् |
3 पल्य – 95 पू.को. योनिमति में 95 के स्थान पर 15 पू.को. |
देखें अंतर - 3.2 (सासा. के स्थल पर मिश्र) |
|
||||||||
|
4 |
46 |
|
... |
निरंतर |
...
|
47,48 |
|
अंतर्मु0 |
ओघवत् |
3 पल्य – 95 पू.को. योनिमति में 95 के स्थान पर 15 पू.को. |
देखें अंतर - 3.2 (सासा. के स्थल पर सम्य0) |
|
||||||||
पंचेंद्रिय सामान्य पर्याप्त |
5 |
49 |
|
... |
निरंतर |
...
|
50,51 |
|
अंतर्मु. |
ओघवत् |
3 पल्य+96 पू.को. |
सासादनवत् |
|
||||||||
योनिमति |
5 |
49 |
|
... |
निरंतर |
... |
50,51 |
|
अंतर्मु. |
ओघवत् |
3 पल्य+16 पू.को. |
सासादनवत् |
|
||||||||
पंचे.ति.ल.अप. |
1 |
52 |
|
... |
निरंतर |
...
|
56 |
|
... |
निरंतर |
... |
निरंतर |
|
||||||||
3. मनुष्यगति―
<tbody> </tbody>
मार्गणा |
गुणस्थान |
नाना जीवापेक्षया |
एक जीवापेक्षया |
|||||||||||||||||||
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट
|
प्रमाण |
जघन्य |
विशेष |
उत्कृष्ट |
विशेष |
||||||||||||||
नं.1 |
नं.2 |
नं.1 |
नं.3 |
|||||||||||||||||||
मनुष्य सा.प. व मनुष्यणी |
... |
|
6 |
... |
निरंतर |
...
|
|
9,10 |
क्षुद्रभव |
गति परिवर्तन (मनु. से तिर्यं) |
असं. पु. परि. |
अविवक्षित गतियों में भ्रमण |
||||||||||
मनुष्य ल. अप. |
... |
78,79 |
9, 10 |
1 समय |
... |
पल्य/असं.
|
80, 81 |
9,10 |
क्षुद्रभव |
गति परिवर्तन (मनु. से तिर्यं) |
असं. पु. परि. |
अविवक्षित गतियों में भ्रमण |
||||||||||
मनु. सा.प. व मनुष्यणी |
1 |
57 |
|
... |
निरंतर |
...
|
58, 59 |
|
अंतर्मु0 |
ओघवत् |
3 पल्य – 9 मास + 49 दिन + 2 अंत0 |
भोगभूमिजों में भ्रमण |
||||||||||
मनुष्य ल.अप. |
2 |
60, 61 |
|
1 समय |
ओघवत् |
पल्य/असं.
|
62, 63 |
|
पल्य/असं.
|
ओघवत् |
3 पल्य + 47 पू.को. |
मनु. गति में भ्रमण तथा गुणस्थान परिवर्तन |
||||||||||
|
3 |
60, 61 |
|
1 समय |
ओघवत् |
पल्य/असं.
|
62, 63 |
|
अंतर्मु0 |
ओघवत् |
उपरोक्त – 8 वर्ष |
मनु. गति में भ्रमण तथा गुणस्थान परिवर्तन |
||||||||||
|
4 |
64 |
|
... |
निरंतर |
... |
65,66 |
|
अंतर्मु0 |
ओघवत् |
उपरोक्त – 8 वर्ष |
मनु. गति में भ्रमण तथा गुणस्थान परिवर्तन |
||||||||||
मनु.सा. |
5-7 |
67 |
|
... |
निरंतर |
... |
68, 69 |
|
अंतर्मु0 |
ओघवत् |
3 पल्य – 8 वर्ष + 48 पू.को. |
मनु. गति में भ्रमण तथा गुणस्थान परिवर्तन |
||||||||||
मनुष्य पर्याप्त |
5-7 |
67 |
|
... |
निरंतर |
... |
68, 69 |
|
अंतर्मु0 |
ओघवत् |
3 पल्य – 8 वर्ष + 24 पू.को. |
मनु. गति में भ्रमण तथा गुणस्थान परिवर्तन |
||||||||||
मनुष्यणी |
5-7 |
67 |
|
... |
निरंतर |
... |
68, 69 |
|
अंतर्मु0 |
ओघवत् |
3 पल्य – 8 वर्ष + 8 पू.को. |
मनु. गति में भ्रमण तथा गुणस्थान परिवर्तन |
||||||||||
उपशम |
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
||||||||||
मनुष्य पर्याप्त |
8-11 |
70,71 |
|
1 समय |
ओघवत् |
वर्ष पृ. |
72,73 |
|
अंतर्मु0 |
ओघवत् |
3 पल्य – 8 वर्ष + 24 पू.को. |
मनु. गति में भ्रमण तथा गुणस्थान परिवर्तन |
||||||||||
मनुष्यणी |
8-11 |
70,71 |
|
1 समय |
ओघवत् |
वर्ष पृ. |
|
|
अंतर्मु0 |
ओघवत् |
3 पल्य – 8 वर्ष + 8 पू.को. |
मनु. गति में भ्रमण तथा गुणस्थान परिवर्तन |
||||||||||
क्षपक |
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
||||||||||
मनुष्य पर्याप्त |
8-12 |
74,75 |
|
1 समय |
ओघवत् |
6 मास |
76 |
|
... |
ओघवत् |
... |
ओघवत् |
||||||||||
मनुष्यणी |
8-12 |
74,75 |
|
1 समय |
उपशमकवत् |
वर्ष पृ. |
76 |
|
... |
ओघवत् |
... |
ओघवत् |
||||||||||
मनु. व मनुष्यणी |
13 |
77 |
|
... |
ओघवत् |
... |
77 |
|
... |
ओघवत् |
... |
ओघवत् |
||||||||||
|
14 |
74,75 |
|
1 समय |
8-12 वत् |
6 मास व वर्ष पृ. |
76 |
|
... |
ओघवत् |
... |
ओघवत् |
||||||||||
मनुष्य ल.अप. |
1 |
83 |
|
... |
निरंतर |
... |
83 |
|
... |
निरंतर |
... |
निरंतर |
||||||||||
देव गति—
<tbody> </tbody>
मार्गणा |
गुणस्थान |
नाना जीवापेक्षया |
एक जीवापेक्षया |
|||||||||
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट
|
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट |
अपेक्षा |
||||
नं.1 |
नं.2 |
नं.1 |
नं.3 |
|||||||||
देवगति सामान्य |
... |
|
12 |
... |
निरंतर |
...
|
|
12,13 |
अंतर्मु0 |
देव से गर्भज मनु. या तिर्यं. पुन: देव |
असं.पु.परि. |
असं.पु.परि. |
भवनत्रिक |
... |
|
14 |
... |
निरंतर |
... |
|
14 |
अंतर्मु0 |
देव से गर्भज मनु. या तिर्यं. पुन: देव |
असं.पु.परि. |
असं.पु.परि. |
सौधर्म ईशान |
... |
|
14 |
... |
निरंतर |
... |
|
14 |
अंतर्मु0 |
देव से गर्भज मनु. या तिर्यं. पुन: देव |
असं.पु.परि. |
असं.पु.परि. |
सानत्कुमार माहेंद्र |
... |
|
14 |
... |
निरंतर |
... |
|
16, 17 |
मुहूर्त पृथ. |
इस स्वर्ग में मनु. या तिर्यं की आयु इससे कम नहीं बंधती |
असं.पु.परि. |
असं.पु.परि. |
ब्रह्म-कापिष्ट |
... |
|
14 |
... |
निरंतर |
... |
|
19, 20 |
दिवस पृथ. |
इस स्वर्ग में मनु. या तिर्यं की आयु इससे कम नहीं बंधती |
असं.पु.परि. |
असं.पु.परि. |
शुक्र-सहस्रार |
... |
|
14 |
... |
निरंतर |
... |
|
22, 23 |
पक्ष पृथ. |
इस स्वर्ग में मनु. या तिर्यं की आयु इससे कम नहीं बंधती |
असं.पु.परि. |
असं.पु.परि. |
आनत-अच्युत |
... |
|
14 |
... |
निरंतर |
... |
|
25, 26 |
मास पृथ. |
इस स्वर्ग में मनु. या तिर्यं की आयु इससे कम नहीं बंधती |
असं.पु.परि. |
असं.पु.परि. |
नव ग्रैवेयक |
... |
|
14 |
... |
निरंतर |
... |
|
28, 29 |
वर्ष पृथ. |
इस स्वर्ग में मनु. या तिर्यं की आयु इससे कम नहीं बंधती |
असं.पु.परि. |
असं.पु.परि. |
नव अनुदिश |
... |
|
14 |
... |
निरंतर |
... |
|
31, 32 |
वर्ष पृथ. |
इस स्वर्ग में मनु. या तिर्यं की आयु इससे कम नहीं बंधती |
2 सा. + 2 पू.को. |
वहाँ से चय पूर्व कोटि वाला मनुष्य हो, वहाँ से सौधर्म, ईशान में जा; 2 सा. पश्चात् पुन: पूर्व कोटि वाला मनुष्य हो संयम धार मरे और विवक्षित देव होय |
सर्वार्थ सिद्धि |
... |
|
14 |
... |
निरंतर |
... |
|
34 |
... |
वहाँ से आकर नियम से मोक्ष |
... |
वहाँ से आकर नियम से मोक्ष |
देव सामान्य |
1 |
84 |
|
... |
निरंतर |
... |
85,86 |
|
अंतर्मु0 |
ओघवत् |
31 सा. – 4 अंतर्मु. |
द्रव्यलिंगी उपशम ग्रैवेयकों में जा सम्यक्त्व ग्रहणकर भव के अंत में मिथ्यात्व |
|
4 |
84 |
|
... |
निरंतर |
... |
85,86 |
|
अंतर्मु0 |
ओघवत् |
31 सा. – 5 अंतर्मु. |
द्रव्यलिंगी उपशम ग्रैवेयकों में जा सम्यक्त्व ग्रहणकर भव के अंत में मिथ्यात्व |
|
2 |
87,88 |
|
1 समय |
ओघवत् |
पल्य/असं. |
89,90 |
|
पल्य/असं. |
ओघवत् |
31 सा. – 3 समय |
” परंतु सासादन सहित उत्पत्ति |
|
3 |
87,88 |
|
1 समय |
ओघवत् |
पल्य/असं. |
89,90 |
|
अंतर्मु0 |
ओघवत् |
31 सा. – 6 अंतर्मु. |
उपरोक्त जीव नव ग्रैवेयक में नवीन सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ |
भवनत्रिक व सौधर्म-सहस्रार |
1 |
91 |
|
... |
निरंतर |
... |
92,93 |
|
अंतर्मु0 |
ओघवत् |
स्व आयु – 4 अंतर्मु. |
मिथ्यात्व सहित उत्पत्ति, सम्यक्त्व प्राप्ति, अंत में च्युति |
|
4 |
91 |
|
... |
निरंतर |
... |
92,93 |
|
अंतर्मु0 |
ओघवत् |
स्व आयु – 5 अंतर्मु. |
मिथ्यात्व सहित उत्पत्ति, सम्यक्त्व प्राप्ति, अंत में च्युति |
|
2-3 |
94 |
|
देव सा.वत् |
देव सा.वत् |
देव सा.वत् |
94 |
|
देव सा.वत् |
देव सा.वत् |
देव सा.वत् |
नोट–31 सागर के स्थान पर स्व आयु लिखना। |
आनत-उप, ग्रैवेयक |
1-4 |
95 व 98 |
|
देव सा.वत् |
देव सा.वत् |
देव सा.वत् |
96,97,98 |
|
देव सा.वत् |
देव सा.वत् |
देव सा.वत् |
नोट–31 सागर के स्थान पर स्व आयु लिखना। |
अनुदिश-सर्वार्थसिद्धि |
4 |
99 |
|
... |
निरंतर |
... |
99 |
|
... |
वहाँ से आकर नियम से मोक्ष |
... |
वहाँ से आकर नियम से मोक्ष |
2. इंद्रिय मार्गणा―
<tbody> </tbody>
मार्गणा |
गुणस्थान |
नाना जीवापेक्षया |
एक जीवापेक्षया |
|||||||||
प्रमाण |
|
|
|
प्रमाण |
|
|
|
|
||||
नं.1 |
नं.3 |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट |
नं.1 |
नं.2 |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट |
अपेक्षा |
||
एकेंद्रिय सामान्य |
... |
101 |
16 |
... |
निरंतर |
...
|
102,103 |
36 |
क्षुद्रभव |
अन्य पर्याय में जाकर पुन: एकेंद्रिय |
2000 सा.+ पू.को. |
त्रसकायिक में भ्रमण |
बा.सा., प., अप. |
... |
104 |
16 |
... |
निरंतर |
...
|
105,106 |
39 |
क्षुद्रभव |
अन्य पर्याय में जाकर पुन: एकेंद्रिय |
असं. लोक |
सूक्ष्म एकेंद्रिय में भ्रमण (तीनों में कुछ-कुछ अंतर है) |
सू.सा. |
... |
108 |
16 |
... |
निरंतर |
...
|
109,110 |
42 |
क्षुद्रभव |
अन्य पर्याय में जाकर पुन: एकेंद्रिय |
असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी |
बा.एकेंद्रिय में भ्रमण |
सू.प., अप. |
... |
108 |
16 |
... |
निरंतर |
...
|
109 |
42,43 |
क्षुद्रभव |
अन्य पर्याय में जाकर पुन: एकेंद्रिय |
ऊपर से कुछ अधिक |
अविवक्षित पर्यायों में भ्रमण |
विकलें. व पंचे. सा. |
... |
111 |
16 |
... |
निरंतर |
...
|
112 |
45,46 |
क्षुद्रभव |
अन्य पर्याय में जाकर पुन: एकेंद्रिय |
असं.पु.परि. |
एकेंद्रियों में भ्रमण |
पंचे.ल.अप. |
... |
127 |
|
... |
निरंतर |
...
|
127 |
|
क्षुद्रभव |
गति परिवर्तन |
असं.पु.परि. |
विकलेंद्रिय में भ्रमण |
पंचे.ल.अप. |
1 |
129 |
|
... |
निरंतर |
...
|
129 |
|
... |
निरंतर |
... |
निरंतर |
एकेंद्रिय सा. |
1 |
101 |
|
... |
निरंतर |
...
|
102,103 |
|
क्षुद्रभव |
अन्य पर्याय में जाकर पुन: एकेंद्रिय |
2000सा.+ पू.को. |
त्रसकाय में भ्रमण |
एके.बा.सा. |
1 |
104 |
|
... |
निरंतर |
...
|
105,106 |
|
क्षुद्रभव |
अन्य पर्याय में जाकर पुन: एकेंद्रिय |
असं. लोक |
सूक्ष्म एकेंद्रिय में भ्रमण |
बा.प., अप. |
1 |
107 |
|
... |
निरंतर |
...
|
107 |
|
क्षुद्रभव |
अन्य पर्याय में जाकर पुन: एकेंद्रिय |
असं. लोक |
सूक्ष्म एकेंद्रिय में भ्रमण |
सू.सा., प., अप. |
1 |
108 |
|
... |
निरंतर |
...
|
109,110 |
|
क्षुद्रभव |
अन्य पर्याय में जाकर पुन: एकेंद्रिय |
सू.सा.वत् |
बा.एकेंद्रिय में भ्रमण |
विकलें.सा., प., अप. |
1 |
111 |
|
... |
निरंतर |
...
|
112,113 |
|
क्षुद्रभव |
अन्य पर्याय में जाकर पुन: एकेंद्रिय |
असं.पु.परि. |
अविवक्षित पर्यायों में भ्रमण |
पंचे.सा., प. |
1 |
114 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
114 |
|
― |
मूल ओघवत् |
― |
ओघवत् |
|
2-3 |
115,116 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
117,118 |
|
― |
मूल ओघवत् |
भवनत्रिक की उत्कृष्ट स्थिति– आ./असं.-क्रमेण 9 या 12 अंत. |
एकेंद्रिय जीव असंज्ञी पंचें. हो भवनत्रिक में उत्पन्न हुआ। उपशम पूर्वक सासादन फिर मिथ्यादृष्टि। भव के अंत में पुन: सासादन। |
|
4 |
119 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
120,121 |
|
― |
मूल ओघवत् |
भवनत्रिक की उत्कृष्ट स्थिति 10 अंत. |
असंज्ञी पंचें. भव को प्राप्त एकें. भवनत्रिक में उत्पन्न हो उपशम पा गिरा। भव के अंत में पुन: उपशम। |
|
5 |
119 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
120,121 |
|
― |
मूल ओघवत् |
स्व उ. स्थिति – 3 पक्ष 3 दिन 12 अंत.+6 मुहूर्त |
संज्ञी भव प्राप्त एकें. उपशम सहित 5वाँ पा गिरा। भव के अंत में पुन: उपशम सहित संयमासंयम प्राप्त किया। |
|
6-7 |
119 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
120,121 |
|
― |
मूल ओघवत् |
स्व उ. स्थिति – (8वर्ष+10 अंतर्मू.+6 अंतर्मू.) |
मनुष्य भव प्राप्त एकें. गर्भादि के काल पश्चात् संयम पा गिरा। मनु. व देवादि में भ्रमण। अंत में मनुष्य हो, भव के अंत में संयम। |
उपशम |
8-11 |
122 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
123,124 |
|
― |
मूलोघवत् |
स्व उ. स्थिति – (8वर्ष+10 अंतर्मू.+6 अंतर्मू.) |
नोट-10 अंतर्मु. के स्थान पर क्रमश: 30,28,26,24 करें। |
क्षपक |
8-14 |
125 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
125 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
3. काय मार्गणा―
<tbody> </tbody>
मार्गणा |
गुणस्थान |
नाना जीवापेक्षया |
एक जीवापेक्षया |
|||||||||
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट
|
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट |
अपेक्षा |
||||
नं.1 |
नं.3 |
नं.1 |
नं.2 |
|||||||||
चार स्थावर बा. सू. प. अप. |
... |
|
19 |
... |
निरंतर |
...
|
|
48,49 |
क्षुद्रभव |
अविवक्षित पर्याय में जाकर लौटे |
असं.पु.परि. |
अविवक्षित पर्यायों में भ्रमण |
वनस्पति सा.निगोद |
... |
|
19 |
... |
निरंतर |
...
|
|
51,52 |
क्षुद्रभव |
अविवक्षित पर्याय में जाकर लौटे |
असं. लोक |
पृथिवी आदि में भ्रमण |
वन.नि.बा.सू.प.अप. |
... |
|
19 |
... |
निरंतर |
...
|
|
51,52 |
क्षुद्रभव |
अविवक्षित पर्याय में जाकर लौटे |
असं. लोक |
पृथिवी आदि में भ्रमण |
वन.प्रत्येक बा.प. |
... |
|
19 |
... |
निरंतर |
...
|
|
54,55 |
क्षुद्रभव |
अविवक्षित पर्याय में जाकर लौटे |
2 पु.परि. |
निगोदादि में भ्रमण |
त्रस सा. प. अप. |
... |
|
19 |
... |
निरंतर |
...
|
|
57,58 |
क्षुद्रभव |
अविवक्षित पर्याय में जाकर लौटे |
असं.पु.परि. |
वनस्पति आदि स्थावरों में भ्रमण |
त्रस ल.अप. |
... |
|
|
... |
निरंतर |
...
|
|
|
क्षुद्रभव |
अविवक्षित पर्याय में जाकर लौटे |
असं.पु.परि. |
वनस्पति आदि स्थावरों में भ्रमण |
चार स्थावर बा. सू. प. अप. |
1 |
130 |
|
... |
निरंतर |
...
|
131,132 |
|
क्षुद्रभव |
अविवक्षित पर्याय में जाकर लौटे |
असं.पु.परि. |
अविवक्षित वनस्पति में भ्रमण |
वन. नियमसार बा.सू.प.अप. |
1 |
133 |
|
... |
निरंतर |
...
|
134,135 |
|
क्षुद्रभव |
अविवक्षित पर्याय में जाकर लौटे |
असं.लोक |
चार स्थावरों में भ्रमण |
वन. प्रवचनसार प.अप. |
1 |
136 |
|
... |
निरंतर |
...
|
137,138 |
|
क्षुद्रभव |
अविवक्षित पर्याय में जाकर लौटे |
2 पु.परि. |
निगोदादि में भ्रमण |
त्रस सा.प. |
1 |
139 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
139 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
|
2 |
140 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
141,142 |
|
― |
मूलोघवत् |
2000सा.+पू.को.पू.–आ/असं.-9 अंतर्मु. |
असंज्ञी पंचें. भव प्राप्त एकें. भवनत्रिक में उत्पन्न हो सासादन वाला हुआ। च्युत हो त्रसों में भ्रमण कर अंत में सासादन फिर स्थावर। |
|
3 |
140 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
141,142 |
|
― |
मूलोघवत् |
2000सा.+पू.को.पू.–1–2 अंतर्मू. |
असंज्ञी पंचें. भव प्राप्त एकें. भवनत्रिक में उत्पन्न हो सासादन वाला हुआ। च्युत हो त्रसों में भ्रमण कर अंत में सासादन फिर स्थावर। |
|
4 |
143 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
144,145 |
|
― |
मूलोघवत् |
2000सा.+पू.को.पू.–आ/असं.-10 अंतर्मू. |
असंज्ञी पंचें. भव प्राप्त एकें. भवनत्रिक में उत्पन्न हो सासादन वाला हुआ। च्युत हो त्रसों में भ्रमण कर अंत में सासादन फिर स्थावर। |
|
5 |
143 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
144,145 |
|
― |
मूलोघवत् |
2000सा.+पू.को.पू.–48 दिन-12 अंतर्मू. |
संज्ञी प्राप्त एकें. 5वाँ पा गिरे। भ्रमण। फिर संज्ञी पा 5वाँ प्राप्त करे। |
|
6-7 |
143 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
144,145 |
|
― |
मूलोघवत् |
2000सा.+पू.को.पू.–8 वर्ष-10 अंतर्मू. |
उपरोक्तवत् परंतु एकें. से मनु. भव |
उपशम |
8-11 |
146 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
147,148 |
|
― |
मूलोघवत् |
|
नोट-10 अंतर्मू. के स्थान पर क्रमश: 30,28,26,24 करें। |
क्षपक |
8-14 |
149 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
|
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
त्रस ल.अप. |
1 |
151 |
|
... |
मूलोघवत् |
... |
|
|
... |
निरंतर |
... |
निरंतर |
4. योग मार्गणा―
<tbody> </tbody>
मार्गणा |
गुणस्थान |
नाना जीवापेक्षया |
एक जीवापेक्षया |
|||||||||
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट |
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट |
अपेक्षा |
||||
नं.1 |
नं.3 |
नं.1 |
नं.2 |
|||||||||
पाँचों मन व वचन योग |
... |
|
22 |
... |
निरंतर |
...
|
|
60, 61 |
अंतर्मुहूर्त |
एक समय अंतर संभव नहीं |
असं.पु.परि. |
काययोगियों में भ्रमण |
काययोग सा. |
... |
|
22 |
... |
निरंतर |
...
|
|
63, 64 |
1 समय |
मरण पश्चात् भी पुन: काय योग होता ही है। |
अंतर्मुहूर्त |
योग परिवर्तन |
औदारिक |
... |
|
22 |
... |
निरंतर |
...
|
|
66,67 |
1 समय |
मरकर जन्मते ही काय योग होता ही है। |
33 सा.+9 अंतर्मू.+2 समय |
औ. से चारों मनोयोग फिर चारों वचन योग फिर सर्वार्थसिद्धि देव, फिर मनु. में अंतर्मू. तक औ.मिश्र, फिर औदारिक |
औदारिक मिश्र |
... |
|
22 |
... |
निरंतर |
...
|
|
66,67 |
1 समय |
विग्रह गति में 1 समय कार्मण फिर औ.मिश्र |
33 सा.+पू.को.+ अंतर्मू. |
औ. से चारों मनोयोग फिर चारों वचन योग फिर सर्वार्थसिद्धि देव, फिर मनु. में अंतर्मू. तक औ.मिश्र, फिर औदारिक |
वैक्रियिक |
... |
|
22 |
... |
निरंतर |
...
|
|
69,70 |
1 समय |
व्याघात की अपेक्षा |
असं.पु.परि. |
औ. काययोगियों में भ्रमण |
वैक्रियिक मिश्र |
... |
|
25,26 |
1 समय |
... |
12 मुहूर्त |
|
72,73 |
साधिक 10000 वर्ष |
नारकी व देवों में जा वहाँ आ पुन: वहाँ ही जाने वाले मनु. व तिर्यं. |
असं.पु.परि. |
औ. काययोगियों में भ्रमण |
आहारक |
... |
|
28,29 |
1 समय |
... |
वर्ष पृ. |
|
75,76 |
अंतर्मुहूर्त |
... |
अर्ध.पु.परि.– 8 अंतर्मू. |
... |
आहारक मिश्र |
... |
|
28,29 |
1 समय |
... |
वर्ष पृ. |
|
75,76 |
अंतर्मुहूर्त |
... |
अर्ध.पु.परि.– 7 अंतर्मू. |
... |
कार्मण |
... |
|
22 |
... |
निरंतर |
...
|
|
78,79 |
क्षुद्र भव–3 समय |
... |
असं.×असं.उत्. अवसर्पिणी |
बिना मोड़े की गति से भ्रमण |
मनो वचन सा.व चारों प्रकार के विशेष तथा काय सा. व औ. |
1 |
153 |
|
... |
निरंतर |
...
|
153 |
|
...
|
निरंतर (उत्कृष्टवत्) |
... |
निरंतर गुणस्थान परिवर्तन करने से योग भी बदल जाता है। |
4-7 |
153 |
|
... |
निरंतर |
...
|
153 |
|
...
|
निरंतर (उत्कृष्टवत्) |
... |
निरंतर गुणस्थान परिवर्तन करने से योग भी बदल जाता है। |
|
13 |
153 |
|
... |
निरंतर |
... |
153 |
|
...
|
निरंतर (उत्कृष्टवत्) |
... |
निरंतर गुणस्थान परिवर्तन करने से योग भी बदल जाता है। |
|
2-3 |
154,155 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
156 |
|
― |
निरंतर (उत्कृष्टवत्) |
... |
निरंतर गुणस्थान परिवर्तन करने से योग भी बदल जाता है। |
|
उपशमक |
8-11 |
157,158 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
158 |
|
...
|
निरंतर (उत्कृष्टवत्) |
... |
निरंतर गुणस्थान परिवर्तन करने से योग भी बदल जाता है। |
क्षपक |
8-12 |
159 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
159 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूल ओघवत् |
औ.मिश्र |
1 |
160 |
|
... |
निरंतर |
... |
160 |
|
...
|
निरंतर |
... |
निरंतर |
|
2 |
161 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
162 |
|
...
|
निरंतर |
... |
मिश्र योग में अन्य योग रूप परि. भी नहीं तथा गुणस्थान परिवर्तन भी नहीं |
|
4 |
163,164 |
|
1 समय |
देखें टिप्पण |
वर्ष पृ. |
165 |
|
...
|
निरंतर (उत्कृष्टवत्) |
... |
मिश्र योग में अन्य योग रूप परि. भी नहीं तथा गुणस्थान परिवर्तन भी नहीं |
|
13 |
166,167 |
|
1 समय |
|
वर्ष पृ. |
168 |
|
...
|
निरंतर (उत्कृष्टवत्) |
... |
मिश्र योग में अन्य योग रूप परि. भी नहीं तथा गुणस्थान परिवर्तन भी नहीं |
वैक्रियिक |
1-4 |
169 |
|
― |
मनोयोगवत् |
― |
169 |
|
― |
मनोयोगवत् |
― |
मनोयोगवत् |
वै.मिश्र |
1 |
170,171 |
|
1 समय |
|
12 मुहूर्त |
172 |
|
...
|
निरंतर (उत्कृष्टवत्) |
... |
औ.मिश्र के सासादनवत् |
|
2-4 |
173 |
|
― |
औ.मिश्रवत् |
― |
173 |
|
― |
औ.मिश्रवत् |
― |
औ.मिश्रवत् |
आहा. व मिश्र |
6 |
174,175 |
|
1 समय |
... |
वर्ष पृ. |
176 |
|
― |
निरंतर (उत्कृष्टवत्) |
... |
औ. मिश्र के सासादनवत् |
कार्मण |
1,2,4,13 |
177 |
|
― |
औ.मिश्रवत् |
― |
177 |
|
...
|
निरंतर (उत्कृष्टवत्) |
... |
औ. मिश्र के सासादनवत् |
1 समय अंतर = असंयत सम्यग्दृष्टि देव, नरक व मनुष्य का मनुष्य में उत्पत्ति के बिना और असं. मनुष्यों का तिर्यंचों में उत्पत्ति के बिना। वर्ष पृ. अंतर=असंयत सम्यग्दृष्टियों का इतने काल तक तिर्यंच मनुष्यों में उत्पाद नहीं होता। |
5. वेद मार्गणा―
<tbody> </tbody>
मार्गणा |
गुणस्थान |
नाना जीवापेक्षया |
एक जीवापेक्षया |
|||||||||||||||||||
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट
|
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट |
अपेक्षा |
||||||||||||||
नं.1 |
नं.3 |
नं.1 |
नं.2 |
|||||||||||||||||||
स्त्री वेद सा. |
... |
|
31 |
... |
निरंतर |
...
|
|
81,82 |
क्षुद्र भव |
|
असं.पु.परि. |
नपुं. वेदी एकेंद्रियों में भ्रमण |
||||||||||
पुरुषवेद सा. |
|
|
31 |
... |
निरंतर |
...
|
|
84,85 |
1 समय |
उपशम श्रेणी से उतरते हुए मृत्यु |
असं.पु.परि. |
नपुं. वेदी एकेंद्रियों में भ्रमण |
||||||||||
नपुंसकवेद सा. |
|
|
31 |
... |
निरंतर |
...
|
|
87,88 |
अंतर्मू. |
क्षुद्रभव में नपुं. है। |
100 सा. पृ. |
अविवक्षित वेदों में भ्रमण |
||||||||||
अपगतवेद उप. |
|
|
31 |
... |
निरंतर |
...
|
|
90,91 |
अंतर्मू. |
उपशम से उतर कर पुन: आरोहण |
कुछ कम अर्ध पु.परि. |
|
||||||||||
अपगतवेद क्षपक |
|
|
31 |
... |
निरंतर |
...
|
|
92 |
... |
पतन का अभाव |
... |
पतन का अभाव |
||||||||||
1. स्त्री वेद |
1 |
178 |
|
... |
निरंतर |
...
|
179,180 |
|
अंतर्मू. |
गुणस्थान परिवर्तन |
55 पल्य–5 अंतर्मू. |
28/ज. पु. वेदी मनु. देवियों में जा गुणस्थान परिवर्तन कर पुन: मनुष्य |
||||||||||
|
2 |
181 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
182,183 |
|
पल्य/असं. |
मूलोघवत् |
पल्यशत पृ.–2 समय |
सासादन की 1 समय स्थिति रहने पर अन्य वेदी स्त्री वेद सा. में उपजा। च्युत हो स्त्रीवेदियों में भ्रमण। भवांत में सासादन हो देवों में जन्म। |
||||||||||
|
3 |
181 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
182,183 |
|
अंतर्मू. |
मूलोघवत् |
पल्यशत पृ.–6 अंतर्मू. |
” (परंतु देवियों में जन्म) |
||||||||||
|
4 |
184 |
|
... |
निरंतर |
... |
185,186 |
|
अंतर्मू. |
मूलोघवत् |
पल्यशत पृ.–5 अंतर्मू. |
” (परंतु देवियों में जन्म) |
||||||||||
|
5 |
184 |
|
... |
निरंतर |
... |
185,186 |
|
अंतर्मू. |
मूलोघवत् |
पल्यशत पृ.–(2मास+दिवस पृ.+2 अंतर्मू.) |
” (स्त्रीवेदी सामान्य में उत्पन्न कराना) |
||||||||||
|
6-7 |
184 |
|
... |
निरंतर |
... |
188,189 |
|
अंतर्मू. |
मूलोघवत् |
पल्यशत पृ.–(8 वर्ष+33 अंतर्मू.) |
” (स्त्रीवेदी मनुष्यों में उत्पन्न कराना) |
||||||||||
उपशम |
8 |
187 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
188,189 |
|
अंतर्मू. |
मूलोघवत् |
पल्यशत पृ.–(8 वर्ष+13 अंतर्मू.) |
” (स्त्रीवेदी मनुष्यों में उत्पन्न कराना) |
||||||||||
उपशम |
9 |
187 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
188,189 |
|
अंतर्मू. |
मूलोघवत् |
पल्यशत पृ.–(8 वर्ष+12 अंतर्मू.) |
” (स्त्रीवेदी मनुष्यों में उत्पन्न कराना) |
||||||||||
क्षपक |
8-9 |
190,191 |
|
1 समय |
अप्रशस्त वेद में अधिक नहीं होते |
वर्ष पृ. |
192 |
|
... |
पतन का अभाव |
... |
पतन का अभाव |
||||||||||
2.पुरुषवेद |
1 |
193 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
193 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
||||||||||
|
2 |
194,195 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
पल्य/असं. |
196,197 |
|
पल्य/असं. |
मूलोघवत् |
पल्यशत पृ.–2 समय |
स्त्रीवेदीवत् (परंतु देवियों में जन्म) |
||||||||||
|
3 |
194,195 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
पल्य/असं. |
196,197 |
|
अंतर्मू. |
मूलोघवत् |
पल्यशत पृ.–6 अंतर्मू. |
स्त्रीवेदीवत् (परंतु देवियों में जन्म) |
||||||||||
|
4 |
198 |
|
... |
निरंतर |
... |
199,200 |
|
अंतर्मू. |
मूलोघवत् |
पल्यशत पृ.–5 अंतर्मू. |
स्त्रीवेदीवत् (परंतु देवियों में जन्म) |
||||||||||
|
5 |
198 |
|
... |
निरंतर |
... |
199,200 |
|
अंतर्मू. |
मूलोघवत् |
पल्यशत पृ.–(2मास+3 दि. पृ.+11 अंतर्मू.) |
स्त्रीवेदीवत् (परंतु देवियों में जन्म) |
||||||||||
|
6-7 |
198 |
|
... |
निरंतर |
... |
199,200 |
|
अंतर्मू. |
मूलोघवत् |
पल्यशत पृ.–(8 वर्ष 10 अंतर्मू.+6 अंतर्मू.) |
स्त्रीवेदीवत् (परंतु देवियों में जन्म) |
||||||||||
उपशम |
8 |
201 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
202,203 |
|
अंतर्मू. |
मूलोघवत् |
पल्यशत पृ.–(8 वर्ष 29 अंतर्मू.) |
स्त्रीवेदीवत् (परंतु देवियों में जन्म) |
||||||||||
उपशम |
9 |
201 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
202,203 |
|
अंतर्मू. |
मूलोघवत् |
पल्यशत पृ.–(8 वर्ष 27 अंतर्मू.) |
स्त्रीवेदीवत् (परंतु देवियों में जन्म) |
||||||||||
क्षपक (दृष्टि 1) |
8-9 |
204,205 |
|
1 समय |
स्त्री व नपुं. रहते हैं |
साधिक 1 वर्ष 6 मास |
206 |
|
... |
पतन का अभाव |
... |
पतन का अभाव |
||||||||||
क्षपक (दृष्टि 2) |
8-9 |
205 |
|
1 समय |
स्त्री व नपुं. नहीं |
साधिक 1 वर्ष 6 मास |
206 |
|
... |
पतन का अभाव |
... |
पतन का अभाव |
||||||||||
3. नपुंसक वेद |
1 |
207 |
|
... |
निरंतर |
... |
|
|
अंतर्मु. |
मूलोघवत् |
33 सा.–6 अंतर्मू. |
28/ज. 7वीं पृथिवी में उपज सम्यक्त्व पा भव के अंत में पुन: मिथ्यादृष्टि |
||||||||||
|
2-7 |
210 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
|
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
||||||||||
उपशम |
8-9 |
210 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
|
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
||||||||||
क्षपक |
8-9 |
211,212 |
|
1 समय |
स्त्रीवेदवत् |
वर्ष पृ. |
|
|
... |
पतन का अभाव |
... |
पतन का अभाव |
||||||||||
4. अपगत वेद उप. |
9-10 |
214,215 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
वर्ष पृ. |
|
|
अंतर्मु. |
मूलोघवत् |
अंतर्मु. |
गिरने पर अपगत वेदी नहीं रहता |
||||||||||
|
11 |
218,219 |
|
1 समय |
ऊपर चढ़कर गिरे |
वर्ष पृ. |
|
|
... |
वेद का उदय नहीं |
... |
इस स्थान में वेद का उदय नहीं |
||||||||||
अपगत वेद क्षप. |
9-14 |
221 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
|
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
||||||||||
6. कषाय मार्गणा―
<tbody> </tbody>
मार्गणा |
गुणस्थान |
नाना जीवापेक्षया |
एक जीवापेक्षया |
||||||||||||||||||||
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट
|
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट |
अपेक्षा |
|||||||||||||||
नं.1 |
नं.3 |
नं.1 |
नं.2 |
||||||||||||||||||||
क्रोध |
... |
|
34 |
... |
निरंतर |
...
|
|
94,95 |
1 समय |
कषाय परि. कर मरे, नरक में जन्म |
अंतर्मुहूर्त |
किसी भी कषाय की स्थिति इससे अधिक नहीं |
|||||||||||
मान |
... |
|
34 |
... |
निरंतर |
...
|
|
94,95 |
1 समय |
” मनु. जन्म व्याघात नहीं |
अंतर्मुहूर्त |
किसी भी कषाय की स्थिति इससे अधिक नहीं |
|||||||||||
माया |
... |
|
34 |
... |
निरंतर |
...
|
|
94,95 |
1 समय |
” तिर्यं. जन्म व्याघात नहीं |
अंतर्मुहूर्त |
किसी भी कषाय की स्थिति इससे अधिक नहीं |
|||||||||||
लोभ |
... |
|
34 |
... |
निरंतर |
...
|
|
94,95 |
1 समय |
” देवजन्म व्याघात नहीं |
अंतर्मुहूर्त |
किसी भी कषाय की स्थिति इससे अधिक नहीं |
|||||||||||
उपशांत कषाय |
... |
|
|
― |
मूलोघवत् |
― |
|
96 |
अंतर्मुहूर्त |
उप. श्रेणी से उतर पुन: आरोहण |
कुछ कम अर्ध पु.परि. |
किसी भी कषाय की स्थिति इससे अधिक नहीं |
|||||||||||
क्षीण कषाय |
... |
|
|
― |
मूलोघवत् |
― |
|
96 |
... |
पतन का अभाव |
... |
पतन का अभाव |
|||||||||||
चारों कषाय |
1-10 |
223 |
|
― |
मनोयोगीवत् |
― |
223 |
|
― |
मनोयोगीवत् |
― |
मनोयोगीवत् |
|||||||||||
उपशमक |
8-10 |
223 |
|
― |
मनोयोगीवत् |
― |
223 |
|
― |
मनोयोगीवत् |
― |
मनोयोगीवत् |
|||||||||||
क्षपक |
8-10 |
223 |
|
― |
मनोयोगीवत् |
― |
223 |
|
― |
मनोयोगीवत् |
― |
मनोयोगीवत् |
|||||||||||
अकषाय |
11 |
224,225 |
|
1 समय |
उपशम श्रेणी के कारण |
वर्ष पृ. |
226 |
|
... |
नीचे उतरने पर अकषाय नहीं रहता |
... |
नीचे उतरने पर अषाय नहीं रहता |
|||||||||||
अकषाय |
12-14 |
227 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
227 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
|||||||||||
7. ज्ञान मार्गणा―
<tbody> </tbody>
मार्गणा |
गुणस्थान |
नाना जीवापेक्षया |
एक जीवापेक्षया |
||||||||||||||||||||
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट
|
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट |
अपेक्षा |
|||||||||||||||
नं.1 |
नं.3 |
नं.1 |
नं.2 |
||||||||||||||||||||
मति, श्रुत अज्ञान |
... |
|
37 |
... |
निरंतर |
... |
|
98,99 |
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
132 सागर |
सम्यक्त्व के साथ 66 सा. रह सम्यग्मि. में जा पुन: सम्यक्त्व के साथ 66 सा.। फिर मिथ्या. |
|||||||||||
विभंग |
... |
|
37 |
... |
निरंतर |
... |
|
101,102 |
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
असं. पु. परि. |
अविवक्षित पर्यायों में भ्रमण |
|||||||||||
मति, श्रुत, अवधिज्ञान |
... |
|
37 |
... |
निरंतर |
...
|
|
104,105 |
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
कुछ कम अर् धवला पु. परि. |
सम्यक्त्व से च्युत हो भ्रमण, पुन: सम्य. |
|||||||||||
मन:पर्यय |
... |
|
37 |
... |
निरंतर |
... |
|
104,105 |
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
कुछ कम अर् धवला पु. परि. |
सम्यक्त्व से च्युत हो भ्रमण, पुन: सम्य. |
|||||||||||
केवल |
... |
|
37 |
|
पतन का अभाव |
|
|
107 |
... |
पतन का अभाव |
... |
पतन का अभाव |
|||||||||||
कुमति, कुश्रुत, विभंग |
1 |
229 |
|
... |
निरंतर |
...
|
229 |
|
... |
निरंतर |
... |
निरंतर |
|||||||||||
|
2 |
230 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
231 |
|
... |
निरंतर |
... |
इस गुण. में अज्ञान ही होता ज्ञान नहीं |
|||||||||||
मति-श्रुतज्ञान |
4 |
232 |
|
... |
निरंतर |
... |
233,234 |
|
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
1 पू.को.–4 अंतर्मू. |
28/ज सम्मूर्च्छिम पर्याप्तकों में उपज 4थे 5वें में रहकर मरे देव होय। |
|||||||||||
|
5 |
235 |
|
... |
निरंतर |
... |
236,237 |
|
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
66 सा.+3 पू.को.–8 वर्ष 11 अंतर्मू. |
28/ज. मनुष्य हो 5वाँ 6ठा धार उत्कृष्ट स्थिति पश्चात् देव हुआ। वहाँ से चय मनु. हो छठा धार पुन: देव हुआ। वहाँ से चय मनु. हो 5वाँ फिर 6ठा धार मुक्त हुआ। |
|||||||||||
|
6-7 |
238 |
|
... |
निरंतर |
... |
239,240 |
|
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
33 सा.+पू.को. –3 व 5 अंतर्मू. |
6ठे से ऊपर जा मरा, देव हो, मनु. हुआ। भव के अंत में पुन: 6ठा। |
|||||||||||
उपशमक |
8-11 |
241,242 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
वर्ष पृ. |
243,244 |
|
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
66 सा.+3 पू.को.–8 वर्ष 26 अंतर्मू. |
श्रेणी परि. कर नीचे आ असंयत हो मनु. अनुत्तर देवों में उपजा। वहाँ से मनु. संयत, पुन: अनुत्तर देव। फिर मनु. उपजा। पीछे नीचे आ क्षपक हो मुक्त हुआ। |
|||||||||||
क्षपक |
8-12 |
|
|
― |
मूलोघवत् |
― |
|
|
― |
मूलोघवत् |
|
|
|||||||||||
अवधिज्ञान |
4 |
232 |
|
... |
निरंतर |
... |
233,234 |
|
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
1 पू.को.–5 अंतर्मू. |
मतिज्ञानवत् (सम्य.के साथ अवधि भी हुआ) |
|||||||||||
|
5 |
235 |
|
... |
निरंतर |
... |
236,237 |
|
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
66 सा.+3 पू.को.–8 वर्ष 12 अंतर्मू. |
मतिज्ञानवत् (सम्य.के साथ अवधि भी हुआ) |
|||||||||||
|
6-7 |
238 |
|
― |
मति-श्रुतवत् |
― |
239 |
|
― |
मति-श्रुतवत् |
― |
मतिश्रुतवत् |
|||||||||||
उपशमक |
8-11 |
245 |
|
1 समय |
ऐसे जीव कम होते हैं |
वर्ष पृ. |
245 |
|
... |
पतन का अभाव |
... |
पतन का अभाव |
|||||||||||
क्षपक |
8-12 |
245 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
245 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
|||||||||||
मन:पर्यय |
6-7 |
246 |
|
... |
निरंतर |
... |
247, 248 |
|
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
अंतर्मुहूर्त |
6ठे से 7वाँ और 7वे से 6ठा |
|||||||||||
उपशमक |
8-11 |
249,250 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
वर्ष पृ. |
251,252 |
|
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
पू.को.–8 वर्ष– क्रमश: 12,10,9,8 अंतर्मू. |
उप. श्रेणी प्राप्त मनुष्य गुणस्थान परि. कर भव के अंत में पुन: श्रेणी चढ़ मरे, देव हो |
|||||||||||
क्षपक |
8-12 |
253,254 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
वर्ष पृ. |
255 |
|
... |
पतन का अभाव |
... |
पतन का अभाव |
|||||||||||
केवलज्ञान |
13-14 |
256 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
256 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
|||||||||||
8. संयम मार्गणा―
<tbody> </tbody>
मार्गणा |
गुणस्थान |
नाना जीवापेक्षया |
एक जीवापेक्षया |
||||||||||
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट
|
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट |
अपेक्षा |
|||||
नं.1 |
नं.3 |
नं.1 |
नं.2 |
||||||||||
संयम सामान्य |
... |
|
40 |
... |
निरंतर |
... |
|
109,110 |
अंतर्मु. |
असंयत हो पुन: संयत |
कुछ कम अर्ध पु.परि. |
|
|
सामायिक छेदो. |
... |
|
40 |
... |
निरंतर |
... |
|
109,110 |
अंतर्मु. |
सूक्ष्म सांप. हो पुन: सामा.छेदो. |
कुछ कम अर्ध पु.परि.–अंत. |
उप.सम्य. व संयम का युगपत् ग्रहण |
|
परिहारविशुद्धि |
... |
|
40 |
... |
निरंतर |
... |
|
109,110 |
अंतर्मु. |
सामा.छेदो. हो पुन: परिहार विशुद्धि |
कुछ कम अर्ध पु.परि.–30 वर्ष–अंतर्मु. |
सम्य. के 30 वर्ष पश्चात् परिहार विशुद्धि का ग्रहण |
|
सूक्ष्मसांप. उप. |
... |
|
43,44 |
1 समय |
|
6 मास |
|
112,113 |
अंतर्मु. |
उपशांतकषाय हो पुन: सूक्ष्मसांपराय |
अर्ध पु.परि.– अंतर्मु. |
उप.सम्य. व संयम का युगपत् ग्रहण। तुरंत श्रेणी। गिरकर भ्रमण। पुन: श्रेणी। |
|
सूक्ष्मसांप. क्षपक |
... |
|
43,44 |
1 समय |
|
6 मास |
|
114 |
अंतर्मु. |
पतन का अभाव |
... |
पतन का अभाव |
|
यथाख्यात उप. |
... |
|
40 |
... |
निरंतर |
... |
|
112,113 |
अंतर्मु. |
सूक्ष्मसांपराय हो पुन: यथाख्यात |
अर्ध पु.परि.– अंतर्मु. |
मिथ्यादृष्टियों में भ्रमण |
|
यथाख्यात क्षप. |
... |
|
40 |
... |
निरंतर |
... |
|
114 |
अंतर्मु. |
पतन का अभाव |
... |
पतन का अभाव |
|
संयतासंयत |
... |
|
40 |
... |
निरंतर |
... |
|
109,110 |
अंतर्मु. |
असंयत हो पुन: संयतासंयत |
कुछ कम अर्ध पु.परि. |
मिथ्यादृष्टियों में भ्रमण |
|
असंयत |
... |
|
40 |
... |
निरंतर |
... |
|
116,117 |
अंतर्मु. |
संयतासंयत हो पुन: असंयत |
1 पू.को.–अंतर्मू. |
सयतासंयत हो देवगति में उत्पत्ति |
|
सामान्य व उप. |
6-11 |
258 |
|
― |
मन:पर्यय ज्ञानीवत् |
― |
258 |
|
― |
मन:पर्यय ज्ञानीवत् |
― |
मन:पर्यय ज्ञानीवत् |
|
सामान्य व क्षप. |
8-13 |
259 |
|
... |
मूलोघवत् |
― |
|
259 |
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
|
सामायिक छेदो. |
6-7 |
261 |
|
... |
निरंतर |
... |
|
262,263 |
अंतर्मु. |
परस्पर गुणस्थान परिवर्तन |
अंतर्मुहूर्त |
परस्पर गुणस्थान परिवर्तन |
|
उपशमक |
8-9 |
264,265 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
वर्ष पृ. |
|
266,267 |
अंतर्मु. |
श्रेणी से उतरकर पुन: चढ़ने वाले |
पू.को.–8 वर्ष– अंतर्मु. व 9 अंतर्मु. |
श्रेणी चढ़ फिर प्रमत्त अप्रमत्त हो भव के अंत में पुन: श्रेणी चढ़ मरे देव हो |
|
क्षपक |
8-9 |
268 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
|
268 |
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
|
परिहार विशुद्धि |
6-7 |
269 |
|
... |
निरंतर |
... |
|
270,271 |
अंतर्मु. |
परस्पर गुणस्थान परिवर्तन |
अंतर्मुहूर्त |
परस्पर गुणस्थान परिवर्तन |
|
सूक्ष्मसांप. उप. |
10 |
272,273 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
वर्ष पृ. |
|
274 |
... |
अन्य गुणस्थान संभव नहीं |
... |
अन्य गुणस्थान संभव नहीं |
|
सूक्ष्मसांप. क्षप. |
10 |
275 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
|
275 |
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
|
यथाख्यात उप., क्षप. |
11-14 |
276 |
|
― |
अकषायवत् |
― |
|
276 |
― |
अकषायवत् |
― |
अकषायवत् |
|
संयतासंयत |
5 |
277 |
|
... |
निरंतर |
... |
|
277 |
... |
अन्य गुणस्थान संभव नहीं |
... |
अन्य गुणस्थान संभव नहीं |
|
असंयत |
1 |
278 |
|
... |
निरंतर |
... |
|
279,280 |
अंतर्मु. |
1ले व 4थे में गुणस्थान परि. |
33 सा.– 6 अंतर्मू. |
7वीं पृ. को प्राप्त मिथ्यात्वी सम्यक्त्व धार भव के अंत में पुन: मिथ्यात्व |
|
|
2-4 |
281 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
|
281 |
― |
मूलोघवत् |
4थे में 11 की बजाये 15 अंतर्मू. |
शेष मूलोघवत् |
|
9. दर्शन मार्गणा―
<tbody> </tbody>
मार्गणा |
गुणस्थान |
नाना जीवापेक्षया |
एक जीवापेक्षया |
||||||||||
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट
|
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट |
अपेक्षा |
|||||
नं.1 |
नं.3 |
नं.1 |
नं.2 |
||||||||||
चक्षुदर्शन सा. |
... |
|
46 |
... |
निरंतर |
... |
|
119,120 |
क्षुद्रभव |
|
असं. पु.परि. |
अविवक्षित पर्यायों में भ्रमण |
|
अचक्षुदर्शन सा. |
... |
|
46 |
... |
निरंतर |
... |
|
122 |
... |
संसारी जीव को सदा रहता है |
... |
संसारी जीव को सदा रहता है |
|
अवधिदर्शन |
... |
|
46 |
... |
निरंतर |
... |
|
123 |
अंतर्मु. |
अवधिज्ञानवत् |
कुछ कम अर्ध पु.परि. |
अवधि ज्ञानवत् |
|
केवलदर्शन |
... |
|
46 |
... |
निरंतर |
... |
|
124 |
― |
केवलज्ञानवत् |
― |
केवलज्ञानवत् |
|
चक्षुदर्शन |
1 |
282 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
282 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
|
|
2 |
283 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
284,285 |
|
― |
मूलोघवत् |
2000 सा.–आ/असं.–9 अंतर्मु. |
अचक्षु से असंज्ञी पंचें. सासादन हो गिरा चक्षुदर्शनियों में भ्रमण। अंतिम भव में पुन: सासादन |
|
|
3 |
283 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
284, 285 |
|
― |
मूलोघवत् |
2000 सा.–12 अंतर्मु. |
उपरोक्त जीव भवनत्रिक में जा उप.सम्य.पूर्वक मिश्र हो गिरे। स्वस्थिति प्रमाणभ्रमण। अंतिम भव के अंत में पुन: मिश्र। |
|
|
4 |
286 |
|
... |
निरंतर |
... |
287,288 |
|
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
2000 सा.–10 अंतर्मु. |
उपरोक्त मिश्रवत् |
|
|
5 |
286 |
|
... |
निरंतर |
... |
287 |
|
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
2000 सा.–48 दिन–12 अंतर्मु. |
अचक्षुदर्शनी गर्भज संज्ञी में उपज उप.सम्य.पूर्वक 5वाँ धार गिरा। स्वस्थिति प्रमाण भ्रमण। अंतिम भव के अंत में वेदक सहित संयमासंयम। |
|
|
6-7 |
286 |
|
... |
निरंतर |
... |
287,288 |
|
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
2000 सा.–8 वर्ष–10 अंतर्मु. |
” (परंतु प्रथम व अंतिम भव में मनुष्य) |
|
उपशमक |
8-11 |
289 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
290,291 |
|
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
2000 सा.–8 वर्ष–क्रमश: 29,27,25,23 अंतर्मु. |
” (परंतु प्रथम व अंतिम भव में मनुष्य) |
|
क्षपक |
8-12 |
292 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
292 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
|
अचक्षुदर्शन |
1-12 |
293 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
293 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
|
अवधिदर्शन |
4-12 |
294 |
|
― |
अवधिज्ञानवत् |
― |
294 |
|
― |
अवधिज्ञानवत् |
― |
अवधिज्ञानवत् |
|
केवलदर्शन |
13-14 |
295 |
|
― |
केवलज्ञानवत् |
― |
295 |
|
― |
केवलज्ञानवत् |
― |
केवलज्ञानवत् |
|
10. लेश्या मार्गणा―
<tbody> </tbody>
मार्गणा |
गुणस्थान |
नाना जीवापेक्षया |
एक जीवापेक्षया |
||||||||||
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट
|
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट |
अपेक्षा |
|||||
नं.1 |
नं.3 |
नं.1 |
नं.2 |
||||||||||
कृष्ण |
... |
|
49 |
... |
निरंतर |
... |
|
126,127 |
अंतर्मु. |
नील में जा पुन: कृष्ण |
33 सा.+1 पू.को.–8 वर्ष+10 अंतर्मु. |
8 वर्ष में 6 अंतर्मु. शेष रहने पर कृष्ण हो अन्य पाँचों लेश्याओं में भ्रमणकर, संयम सहित 1 पू.को. रह देव हुआ। वहाँ से आ पुन: कृष्ण। |
|
नील |
... |
|
49 |
... |
निरंतर |
... |
|
126,127 |
अंतर्मु. |
कापोत हो पुन: नील |
33 सा.+1 पू.को.–8 वर्ष+8 अंतर्मु. |
“ ” |
|
कापोत |
... |
|
49 |
... |
निरंतर |
... |
|
127 |
अंतर्मु. |
तेज हो पुन: कापोत |
33 सा.+1 पू.को.–8 वर्ष+6 अंतर्मु. |
“ ” |
|
तेज |
... |
|
49 |
... |
निरंतर |
... |
|
129,130 |
अंतर्मु. |
|
असं.पु.परि. |
सं.सहस्रवर्ष+6 अंतर्मु. |
|
पद्म |
... |
|
49 |
... |
निरंतर |
... |
|
129,130 |
अंतर्मु. |
|
आ/असं. पु.परि.+असं.पु.परि. |
सं.सहस्रवर्ष+पल्य/असं.+2 सा.+5 अंतर्मु. |
|
शुक्ल |
... |
|
49 |
... |
निरंतर |
... |
|
129,130 |
अंतर्मु. |
|
आ/असं. पु.परि.+असं.पु.परि. पद्मवत् परंतु |
5 अंतर्मु. की जगह 7 अंतर्मु. |
|
कृष्ण |
1 |
296 |
|
... |
निरंतर |
... |
297,298 |
|
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
33 सा.–6 अंतर्मु. |
7वीं पृ. में उपज सम्य.। भवांत में मिथ्या. |
|
|
2 |
299 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
पल्य/असं. |
300,301 |
|
पल्य/असं. |
मूलोघवत् |
33 सा.–5 अंतर्मु. |
” (परंतु सम्य. से मिथ्या.कराकर भव के अंत में सम्य.कराना) |
|
|
3 |
299 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
पल्य/असं. |
300,301 |
|
अंतर्मु. |
मूलोघवत् |
33 सा.–6 अंतर्मु. |
” (परंतु सम्य. से मिथ्या.कराकर भव के अंत में सम्य.कराना) |
|
|
4 |
296 |
|
... |
निरंतर |
... |
297,298 |
|
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
33 सा.–8 अंतर्मु. |
7वीं पृ. में उपज सम्य.धार मिथ्या. हुआ। भव के अंत में पुन: सम्य.। |
|
नील |
1 |
296 |
|
... |
निरंतर |
... |
297,298 |
|
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
17 सा.– 4 अंतर्मु. |
कृष्णवत् पर 7वीं की अपेक्षा 5वीं पृ. |
|
|
2 |
299 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
पल्य/असं. |
300,301 |
|
पल्य/असं. |
मूलोघवत् |
17 सा.– 4 अंतर्मु. |
कृष्णवत् पर 7वीं की अपेक्षा 5वीं पृ. |
|
|
3 |
299 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
पल्य/असं. |
300,301 |
|
अंतर्मु. |
मूलोघवत् |
17 सा.– 6 अंतर्मु. |
कृष्णवत् पर 7वीं की अपेक्षा 5वीं पृ. |
|
|
4 |
296 |
|
... |
निरंतर |
... |
297,298 |
|
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
17 सा.– 6 अंतर्मु. |
कृष्णवत् पर 7वीं की अपेक्षा 5वीं पृ. |
|
कापोत |
1 |
296 |
|
... |
निरंतर |
... |
297,298 |
|
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
7 सा.– 4 अंतर्मु. |
कृष्णवत् पर 7वीं की अपेक्षा 1ली पृ. |
|
|
2 |
299 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
पल्य/असं. |
300,301 |
|
पल्य/असं. |
मूलोघवत् |
7 सा.–4 अंतर्मु. |
कृष्णवत् पर 7वीं की अपेक्षा 1ली पृ. |
|
|
3 |
299 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
पल्य/असं. |
300,301 |
|
अंतर्मु. |
मूलोघवत् |
7 सा.– 6अंतर्मु. |
कृष्णवत् पर 7वीं की अपेक्षा 1ली पृ. |
|
|
4 |
296 |
|
... |
निरंतर |
... |
297,298 |
|
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
7 सा.–6 अंतर्मु. |
कृष्णवत् पर 7वीं की अपेक्षा 1ली पृ. |
|
तेज |
1 |
302 |
|
... |
निरंतर |
... |
303,304 |
|
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
साधिक 2 सा.–4 अंतर्मु. |
2 सा. आयुवाले देवों में उत्पन्न मिथ्या.सम्य.धारे; भवांत में पुन: मिथ्या |
|
|
2 |
305 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
पल्य/असं. |
306,307 |
|
पल्य/असं. |
मूलोघवत् |
साधिक 2 सा.–2 समय. |
2 सा. आयुवाले देवों में उत्पन्न मिथ्या.सम्य.धारे; भवांत में पुन: मिथ्या |
|
|
3 |
305 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
पल्य/असं. |
306,307 |
|
अंतर्मु. |
मूलोघवत् |
साधिक 2 सा.–6 अंतर्मु. |
2 सा. आयुवाले देवों में उत्पन्न मिथ्या.सम्य.धारे; भवांत में पुन: मिथ्या |
|
|
4 |
302 |
|
... |
निरंतर |
... |
303,304 |
|
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
साधिक 2 सा.–5 अंतर्मु. |
” (परंतु मिथ्यात्व प्राप्त को भवांत में सम्य.) |
|
पद्म |
1 |
302 |
|
... |
निरंतर |
... |
303,304 |
|
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
साधिक 18 सा.–4 अंतर्मु. |
तेजवत् पर 7 की बजाये 18 सा. आयु वाले देवों में उत्पत्ति |
|
|
2 |
305 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
पल्य/असं. |
306,307 |
|
पल्य/असं. |
मूलोघवत् |
साधिक 18 सा.–2 समय |
तेजवत् पर 7 की बजाये 18 सा. आयु वाले देवों में उत्पत्ति |
|
|
3 |
305 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
पल्य/असं. |
306,307 |
|
अंतर्मु. |
मूलोघवत् |
साधिक 18 सा.–6 अंतर्मु. |
तेजवत् पर 7 की बजाये 18 सा. आयु वाले देवों में उत्पत्ति |
|
|
4 |
302 |
|
... |
निरंतर |
... |
303,304 |
|
अंतर्मु. |
गुणस्थान परिवर्तन |
साधिक 18 सा.–5 अंतर्मु. |
तेजवत् पर 7 की बजाये 18 सा. आयु वाले देवों में उत्पत्ति |
|
तेज व पद्म |
5-7 |
308 |
|
... |
निरंतर |
... |
308 |
|
... |
लेश्याकाल से गुणस्थान का काल अधिक है |
... |
लेश्या काल से गुण. का काल अधिक है। |
|
शुक्ल |
1 |
309 |
|
... |
निरंतर |
... |
310,311 |
|
अंतर्मु. |
देवों में गुणस्थान परि. |
31 सा.–4 अंतर्मु. |
द्रव्यलिंगी उपरिम ग्रैवेयक में जा सम्य.धार भव के अंत में पुन: मिथ्या. |
|
|
2 |
312 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
पल्य/असं. |
313,314 |
|
पल्य/असं. |
मूलोघवत् |
31 सा.–5 अंतर्मु. |
” (यथायोग्य) |
|
|
3 |
312 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
पल्य/असं. |
313,314 |
|
अंतर्मु. |
मूलोघवत् |
31 सा.–5 अंतर्मु. |
” (यथायोग्य) |
|
|
4 |
309 |
|
... |
निरंतर |
... |
310,311 |
|
अंतर्मु. |
देवों में गुणस्थान परि. |
31 सा.–5 अंतर्मु. |
” (परंतु सम्य. से मिथ्या भवांत में सम्य.) |
|
|
5-6 |
315 |
|
... |
निरंतर |
... |
315 |
|
... |
लेश्या का काल गुण. से कम है |
... |
लेश्या का काल गुणस्थान से कम है |
|
|
7 |
316 |
|
... |
निरंतर |
... |
317,318 |
|
अंतर्मुहूर्त |
7वें पूर्वक उपशम श्रेणी पर चढ़कर उतरे |
अंतर्मुहूर्त |
उप.श्रेणी से उतरकर प्रमत्त हो पुन: चढ़े |
|
उपशम |
8-10 |
319,320 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
वर्ष पृ. |
321,322 |
|
अंतर्मुहूर्त |
लघु काल से चढ़कर उतरे |
अंतर्मुहूर्त |
दीर्घ काल से गिरकर चढ़े |
|
|
11 |
323,324 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
वर्ष पृ. |
325 |
|
... |
गुण. का काल लेश्या से अधिक है यदि नीचे उतरे तो लेश्या बदले |
... |
गुण. का काल लेश्या से अधिक है यदि नीचे उतरे तो लेश्या बदल जाये |
|
क्षपक |
8-13 |
326 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
326 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
|
11. भव्यत्व मार्गणा―
<tbody> </tbody>
मार्गणा |
गुणस्थान |
नाना जीवापेक्षया |
एक जीवापेक्षया |
||||||||||
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट
|
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट |
अपेक्षा |
|||||
नं.1 |
नं.3 |
नं.1 |
नं.2 |
||||||||||
भव्याभव्य सा. |
... |
|
52 |
... |
निरंतर |
... |
|
132 |
... |
अन्योन्य परिवर्तनाभाव |
... |
अन्योन्य परिवर्तन का अभाव |
|
भव्य |
1-14 |
328 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
328 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
|
अभव्य |
1 |
329 |
|
... |
निरंतर |
... |
330 |
|
... |
परिवर्तन का अभाव |
... |
परिवर्तन का अभाव |
|
12. सम्यक्त्व मार्गणा―
<tbody> </tbody>
मार्गणा |
गुणस्थान |
नाना जीवापेक्षया |
एक जीवापेक्षया |
||||||||||
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट
|
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट |
अपेक्षा |
|||||
नं.1 |
नं.3 |
नं.1 |
नं.2 |
||||||||||
सम्यक्त्व सा. |
... |
|
55 |
... |
निरंतर |
... |
|
134,135 |
अंतर्मुहूर्त |
मिथ्यात्व हो पुन: सम्य. |
कुछ कम अर्ध पु. परि. |
भ्रमण |
|
क्षायिक सा. |
... |
|
55 |
... |
निरंतर |
... |
|
137 |
... |
पतन का अभाव |
... |
पतन का अभाव |
|
प्रथमोपशम |
... |
|
|
1 समय |
सासादनवत् |
पल्य/असं. |
|
|
पल्य/असं. |
(देखें अंतर - 2.6) |
कुछ कम अर्ध पु. परि. |
परिभ्रमण |
|
द्वितीयोपशम |
... |
|
58,59 |
1 समय |
|
7 रात-दिन |
|
134,135 |
अंतर्मुहूर्त |
उप.श्रेणी से उतर वेदक हो पुन: उप.श्रेणी |
कुछ कम अर्ध पु. परि. |
परिभ्रमण |
|
वेदक |
... |
|
55 |
... |
निरंतर |
... |
|
134,135 |
अंतर्मुहूर्त |
मिथ्या. हो पुन: सम्य. |
कुछ कम अर्ध पु. परि. |
परिभ्रमण |
|
सासादन |
... |
|
61,62 |
1 समय |
सासादनवत् |
पल्य/असं. |
|
139,140 |
पल्य/असं. |
मूलोघवत् |
कुछ कम अर्ध पु. परि. |
परिभ्रमण |
|
सम्यग्मिथ्यात्व |
... |
|
61,62 |
1 समय |
सासादनवत् |
पल्य/असं. |
|
134,135 |
अंतर्मुहूर्त |
मिथ्या. हो पुन: 3रा |
कुछ कम अर्ध पु. परि. |
मिथ्यात्व में ले जाकर चढ़ाना |
|
मिथ्यादर्शन |
... |
|
55 |
... |
निरंतर |
... |
|
141 |
अंतर्मुहूर्त |
मतिज्ञानवत् |
132 सागर |
मतिअज्ञानवत् |
|
सम्यक्त्व सा. |
4 |
331 |
|
... |
निरंतर |
... |
332,333 |
|
अंतर्मुहूर्त |
मूलोघवत् |
पू.को.पृ.–4 अंतर्मु. |
28/ज संज्ञी सम्मूर्च्छिम हो वेदक सम्य. पा 5वां धार मरा देव हुआ। मिथ्यादर्शन में ले जाने से मार्गणा नष्ट होती हे। |
|
|
5-7 |
334 |
|
― |
अवधिज्ञानवत् |
― |
334 |
|
― |
अवधिज्ञानवत् |
― |
अवधिज्ञानवत् |
|
उपशमक |
8-11 |
334 |
|
― |
अवधिज्ञानवत् |
― |
334 |
|
― |
अवधिज्ञानवत् |
― |
अवधिज्ञानवत् |
|
क्षपक |
8-14 |
335 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
335 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
|
क्षायिक सम्यक्त्व |
4 |
337 |
|
... |
निरंतर |
... |
338,339 |
|
अंतर्मुहूर्त |
गुणस्थान परिवर्तन |
पू.को.–8 वर्ष–2 अंतर्मु. |
28/ज. मनु. असंयत हो ऊपर चढ़े |
|
|
5 |
340 |
|
... |
निरंतर |
... |
341,342 |
|
अंतर्मुहूर्त |
गुणस्थान परिवर्तन |
33 सा.+2 पू.को.–8 वर्ष–14 अंतर्मु. |
” (पर अनुत्तर देव हो। चयकर मनु. हो। भवांत में 5वां व 6ठा धार मुक्त। |
|
|
6-7 |
340 |
|
... |
निरंतर |
... |
341,342 |
|
अंतर्मुहूर्त |
गुणस्थान परिवर्तन |
33 सा.+1 पू.को.–8 वर्ष–1 अंतर्मु. |
” (परंतु प्रथम मनुष्यभव के अंत में भी संयत बनाना) |
|
उपशमक |
8-11 |
343,344 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
वर्ष पृ. |
345,346 |
|
अंतर्मुहूर्त |
ऊपर नीचे दोनों ओर परिवर्तन |
33 सा.+1 पू.को.–8 वर्ष–1 अंतर्मु. |
(1 अंतर्मु. की जगह क्रमश: 27,25,23,21 अंतर्मु.) |
|
क्षपक |
8-14 |
347 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
347 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
|
वेदक सम्य. |
4 |
349 |
|
― |
सम्यक्त्व सा.वत् |
― |
349 |
|
― |
सम्यक्त्व सामान्यवत् |
― |
सम्यक्त्व सामान्यवत् |
|
|
5 |
350 |
|
... |
निरंतर |
... |
351,352 |
|
अंतर्मुहूर्त |
गुणस्थान परिवर्तन |
66 सा.–3 अंतर्मु. |
वेदक 5वां मनु. भव के आदि में संयम पा मरे; देव हो, फिर मनु. संयत, देव, पुन: मनु.। वेदक काल की समाप्ति के निकट संयतासंयत हो क्षायिक संयत बन मोक्ष। |
|
|
6-7 |
353 |
|
... |
निरंतर |
... |
354,355 |
|
अंतर्मुहूर्त |
गुणस्थान परिवर्तन |
33 सा.+ पू.को.–क्रमश: 7 व 8 अंतर्मु. |
संयतासंयतवत् पर 1 बार भ्रमण (6ठे में 7 अंतर्मु. और 7वें में 8 अंतर्मु.) |
|
प्रथमोपशम * (देखें नीचे ) |
सामान्य |
|
|
1 समय |
सासादनवत् |
पल्य/असं. |
|
|
पल्य/असं. |
सासादन मूलोघवत् |
अर्ध पु. परि. |
सासादन मूलोघवत् |
|
उपशम सा. |
4 |
356,357 |
|
1 समय |
निरंतर नहीं होते |
7 दिन रात |
358,359 |
|
अंतर्मुहूर्त |
श्रेणी से उतर 4थे व 5वें में परिवर्तन |
अंतर्मुहूर्त |
श्रेणी से उतर 4,5,7,6 में जा पुन: 4था |
|
|
5 |
360,361 |
|
1 समय |
|
14 दिन रात |
362,363 |
|
अंतर्मुहूर्त |
श्रेणी से उतर 4थे व 5वें में परिवर्तन |
अंतर्मुहूर्त |
श्रेणी से उतर 5,7,6,4 में जा पुन: 5वां |
|
|
6-7 |
364,365 |
|
1 समय |
|
15 दिन रात |
366,367 |
|
अंतर्मुहूर्त |
6-7 में गुणस्थान परिवर्तन |
अंतर्मुहूर्त |
श्रेणी से उतर 6,5,4,5,7 और फिर 6ठा |
|
उपशमक |
8-10 |
368,369 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
वर्ष पृ. |
370,371 |
|
अंतर्मुहूर्त |
चढ़कर द्वि. बार उतरना |
अंतर्मुहूर्त |
श्रेणी से उतर 7,6,4,5 और फिर 7वां चढ़कर प्रथम बार उतरना |
|
|
11 |
372,373 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
वर्ष पृ. |
374 |
|
... |
श्रेणी से उतरकर पुन: उसी सक्यत्व से ऊपर नहीं चढ़ता |
... |
श्रेणी से उतर पुन: उसी सम्यक्त्व से ऊपर नहीं चढ़ता |
|
सासादन |
2 |
375,376 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
पल्य/असं. |
377 |
|
... |
गुण.परि. से मार्गणा नष्ट हो जाती है |
... |
गुणस्थान परिवर्तन से मार्गणा नष्ट हो जाती है |
|
सम्यग्मिथ्यात्व |
3 |
375,376 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
पल्य/असं. |
377 |
|
... |
गुण.परि. से मार्गणा नष्ट हो जाती है |
... |
गुण.परि. से मार्गणा नष्ट हो जाती है |
|
मिथ्यादर्शन |
1 |
378 |
|
... |
विच्छेदाभाव |
... |
378 |
|
... |
अन्य गुण. में संक्रमण नहीं होता |
... |
अन्य गुण. में संक्रमण नहीं होता |
|
* नोट― षट्खंडागम/1/6 में द्वितीयोपशम का कथन किया है, क्योंकि प्रथमोपशम से मिथ्यात्व की ओर ले जाने से मार्गणा विनष्ट हो जाती है। इसके कथन के लिए देखो अंतर 2/6। |
|||||||||||||
13. संज्ञी मार्गणा―
<tbody> </tbody>
मार्गणा |
गुणस्थान |
नाना जीवापेक्षया |
एक जीवापेक्षया |
||||||||||
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट
|
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट |
अपेक्षा |
|||||
नं.1 |
नं.3 |
नं.1 |
नं.2 |
||||||||||
संज्ञी सा. |
... |
|
64 |
... |
निरंतर |
... |
|
143,144 |
क्षुद्रभव |
|
असं. पु. परि. |
असंज्ञियों में भ्रमण |
|
असंज्ञी |
|
|
64 |
... |
निरंतर |
... |
|
146,147 |
क्षुद्रभव |
|
100 सा. पृ. |
संज्ञियों में भ्रमण |
|
संज्ञी |
1 |
379 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
379 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
|
|
2-7 |
380 |
|
― |
पुरुषवेदवत् |
― |
380 |
|
― |
पुरुषवेदवत् |
― |
पुरुषवेदवत् |
|
उपशमक |
8-11 |
380 |
|
― |
पुरुषवेदवत् |
― |
380 |
|
― |
पुरुषवेदवत् |
― |
पुरुषवेदवत् |
|
क्षपक |
8-12 |
381 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
381 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
|
असंज्ञी |
1 |
382 |
|
... |
निरंतर |
... |
383 |
|
... |
गुणस्थान परिवर्तन का अभाव |
... |
गुणस्थान परिवर्तन का अभाव |
|
14. आहारक मार्गणा―
<tbody> </tbody>
मार्गणा |
गुणस्थान |
नाना जीवापेक्षया |
एक जीवापेक्षया |
||||||||||
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट
|
प्रमाण |
जघन्य |
अपेक्षा |
उत्कृष्ट |
अपेक्षा |
|||||
नं.1 |
नं.3 |
नं.1 |
नं.2 |
||||||||||
आहारक सा. |
... |
|
67 |
... |
निरंतर |
... |
|
149,150 |
5 समय |
विग्रह गति में |
3 समय |
विग्रह गति में |
|
अनाहारक सा. |
... |
|
67 |
... |
निरंतर |
... |
|
151 |
क्षुद्रभव–3 समय |
कार्मण काय-योगीवत् |
असंख्याता सं. उत्. अवसर्पिणी |
बिना मोड़े की गति से भ्रमण |
|
आहारक |
1 |
384 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
384 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
|
आहारक |
2 |
385 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
पल्य/असं. |
386,387 |
|
पल्य/असं. |
मूलोघवत् |
आहारक काल–2 समय या असंख्यातसं. उत्. अवसर्पिणी |
2 समय स्थिति वाला सासादन मरकर एक विग्रह से उत्पन्न होकर द्वितीय समय आहारक हो तृतीय समय मिथ्यात्व में गया। परिभ्रमण कर आहारक काल के अंत उप.सम्य. को प्राप्त हो आहारक काल का एक समय शेष रहने पर पुन: सासादन |
|
|
3 |
385 |
|
1 समय |
मूलोघवत् |
पल्य/असं. |
386,387 |
|
अंतर्मुहूर्त |
मूलोघवत् |
आहारक काल–6 अंतर्मु. या असं. उत्. अवसर्पिणी |
28/ज देवों में उत्पन्न हो सम्यग्मिथ्या. को प्राप्तकर मिथ्यादृष्टि हो आहारक काल प्रमाण भ्रमण कर, उपशम पूर्वक सम्यग्मि. धार सम्य. या मिथ्या. होकर विग्रह गति में गया। |
|
|
4 |
388 |
|
... |
निरंतर |
... |
389,390 |
|
अंतर्मुहूर्त |
गुण.परिवर्तन |
आहारक काल–5 अंतर्मु. |
” |
|
|
5 |
388 |
|
... |
निरंतर |
... |
389,390 |
|
अंतर्मुहूर्त |
गुण.परिवर्तन |
आहारक काल–5 अंतर्मु. |
” किंतु संज्ञी सम्मूर्च्छिम तिर्यं. में उत्पन्न कराके प्रथम संयमासंयम ग्रहण कराना। फिर भ्रमण। |
|
|
6-7 |
388 |
|
... |
निरंतर |
... |
389,390 |
|
अंतर्मुहूर्त |
गुण.परिवर्तन |
आहारक काल–8 वर्ष–3 अंतर्मु. |
” परंतु मनुष्यों में उत्पन्न कराके संयत बनाना। फिर भ्रमण |
|
उपशमक |
8-11 |
391 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
392,393 |
|
अंतर्मुहूर्त |
मूलोघवत् |
आहारक काल–8 वर्ष–क्रमश: 12,10,9,8 अंतर्मु |
प्रमत्ताप्रमत्तवत् (8वें में 12, 9वें मे 10, 10वें में 9, 11वें में 8) |
|
क्षपक |
8-13 |
394 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
394 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
|
अनाहारक |
1,2,4,13 |
396 |
|
― |
कार्मण योगवत् |
― |
396 |
|
― |
कार्मणकाय योगवत् |
― |
कार्मण काययोगवत् |
|
|
14 |
397 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
397 |
|
― |
मूलोघवत् |
― |
मूलोघवत् |
|