आर्य: Difference between revisions
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<p><span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 3/35/229/6 </span><p class="SanskritText"> गुणैर्गुणवद्भिर्वा अर्यंते इत्यार्या।</span></p> | <p><span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 3/35/229/6 </span><p class="SanskritText"> गुणैर्गुणवद्भिर्वा अर्यंते इत्यार्या।</span></p> | ||
<p class="HindiText">= जो गुणों या | <p class="HindiText">= जो गुणों या गुणवालों के द्वारा माने जाते हों-वे आर्य कहलाते हैं।</p> | ||
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<p class="HindiText">= उसके दो भेद हैं-ऋद्धिप्राप्त आर्य और ऋद्धिरहित आर्य।</p> | <p class="HindiText">= उसके दो भेद हैं-ऋद्धिप्राप्त आर्य और ऋद्धिरहित आर्य।</p> | ||
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<span class="HindiText">= ऋद्धिरहित आर्य पाँच | <span class="HindiText">= ऋद्धिरहित आर्य पाँच प्रकार के हैं-क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कर्मार्य, चारित्रार्य और दर्शनार्य।</span> | ||
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<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 3/36/2/200 </span><span class="SanskritText">तत्र....कर्मार्यास्त्रेधा-सावद्यकर्मार्या अल्पसावद्यकर्मार्या असावद्यकर्मार्याश्चेति। सावद्यकर्मार्याः षोढा-असि-मषी-कृषि-विद्या-शिल्प-वणिक्कर्म-भेदात्।...चारित्रार्या द्वेधा-अधिगत चारित्रार्याः अनधिगमचारित्रार्याश्चेति।...दर्शनार्या दशधा- | <span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 3/36/2/200 </span><span class="SanskritText">तत्र....कर्मार्यास्त्रेधा-सावद्यकर्मार्या अल्पसावद्यकर्मार्या असावद्यकर्मार्याश्चेति। सावद्यकर्मार्याः षोढा-असि-मषी-कृषि-विद्या-शिल्प-वणिक्कर्म-भेदात्।...चारित्रार्या द्वेधा-अधिगत चारित्रार्याः अनधिगमचारित्रार्याश्चेति।...दर्शनार्या दशधा-आज्ञामार्गोपदेशसूत्रबीजसंक्षेपविस्तारार्थावगाढपरमावगाढरुचिभेदात्।</span> | ||
<span class="HindiText">= उपरोक्त अनृद्धि प्राप्त | <span class="HindiText">= उपरोक्त अनृद्धि प्राप्त आर्यों में भी कर्मार्य तीन प्रकार के हैं-सावद्य कर्मार्य, अल्पसावद्य कर्मार्य, असावद्य कर्मार्य। अल्प सावद्य कर्मार्य छः प्रकार के होते हैं-असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, विद्या, व शिल्प के भेद से। (इन सबके लक्षणों के लिए-देखें [[ सावद्य ]]) चारित्रार्य दो प्रकार के हैं -अधिगत चारित्रार्य और अनधिगम चारित्रार्य। दर्शनार्य दश प्रकार के हैं-आज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ, परमावगाढ रुचि के भेद से। लक्षणों के लिए-देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.1 | सम्यग्दर्शन - I.1]] - दश प्रकारके सम्यग्दर्शन के भेद)</span> | ||
<li><span class="HindiText" id="5"><strong>क्षेत्रार्य का लक्षण</strong> <br /></span> | <li><span class="HindiText" id="5"><strong>क्षेत्रार्य का लक्षण</strong> <br /></span> | ||
<p><span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 3/36/2/200/30 </span><span class="SanskritText"> तत्र क्षेत्रार्याः काशीकौशलादिषु जाताः।</span> | <p><span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 3/36/2/200/30 </span><span class="SanskritText"> तत्र क्षेत्रार्याः काशीकौशलादिषु जाताः।</span> | ||
<span class="HindiText">= काशी, कौशल आदि उत्तम | <span class="HindiText">= काशी, कौशल आदि उत्तम देशों में उत्पन्न हुओं को क्षेत्रार्य कहते हैं।</span> | ||
<li><span class="HindiText" id="6"><strong>जात्यार्य का लक्षण</strong> <br /></span> | <li><span class="HindiText" id="6"><strong>जात्यार्य का लक्षण</strong> <br /></span> | ||
<p><span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 3/36/2/200/31</span><span class="SanskritText"> इक्ष्वाकुज्ञातिभोजादिषु कुलेषु जाता जात्यार्याः।</span> | <p><span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 3/36/2/200/31</span><span class="SanskritText"> इक्ष्वाकुज्ञातिभोजादिषु कुलेषु जाता जात्यार्याः।</span> | ||
<p class="HindiText">= इक्ष्वाकु, ज्ञाति, भोज | <p class="HindiText">= इक्ष्वाकु, ज्ञाति, भोज आदिक उत्तम कुलों में उत्पन्न हुओं को जात्यार्य कहते हैं।</p> | ||
<li><span class="HindiText" id="7"><strong>चारित्रार्य का लक्षण</strong> <br /></span> | <li><span class="HindiText" id="7"><strong>चारित्रार्य का लक्षण</strong> <br /></span> | ||
<p><span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 3/36/2/201/9 </span><span class="SanskritText">तद्भेदः अनुपदेशोपदेशापेक्षभेदकृतः। चारित्रमोहस्योपशमात् क्षयाच्च बाह्योपदेशानपेक्षा आत्मप्रसादादेव चारित्रपरिणामास्कांदिनः उपशांतकषायाश्चधिगतचारित्रार्याः। अंतश्चारित्रमोहक्षयोपशमसद्भावे सति बाह्योपदेशनिमित्तविरतिपरिणामा अनधिगमचारित्रार्याः।</span> | <p><span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 3/36/2/201/9 </span><span class="SanskritText">तद्भेदः अनुपदेशोपदेशापेक्षभेदकृतः। चारित्रमोहस्योपशमात् क्षयाच्च बाह्योपदेशानपेक्षा आत्मप्रसादादेव चारित्रपरिणामास्कांदिनः उपशांतकषायाश्चधिगतचारित्रार्याः। अंतश्चारित्रमोहक्षयोपशमसद्भावे सति बाह्योपदेशनिमित्तविरतिपरिणामा अनधिगमचारित्रार्याः।</span> | ||
<p class="HindiText">= उपरोक्त | <p class="HindiText">= उपरोक्त चारित्रार्य के दो भेद उपदेश व अनुपदेश की अपेक्षा किये गये हैं। जो बाह्योपदेश के बिना आत्म प्रसाद मात्र से चारित्र मोह के उपशम अथवा क्षय होने से चारित्र परिणाम को प्राप्त होते हैं, ऐसे उपशांत कषाय व क्षीण कषाय जीव अधिगत चारित्रार्य हैं। और अंतरंग चारित्र मोह के क्षयोपशम का सद्भाव होने पर बाह्योपदेश के निमित्त से विरति परिणाम को प्राप्त अनधिगम चारित्रार्य हैं।</span> | ||
<li><span class="HindiText" id="8"><span class="HindiText"> विजयार्धपर हरिपुर निवासी पवनवेग विद्याधर का पुत्र था (23-24) पूर्व जन्म के वैरी ने इसकी समस्त विद्याएँ हर लीं। परंतु दया से चंपापुर का राजा बना दिया (49-53) इसी के हरि नामक पुत्र से हरिवंश की उत्पत्ति हुई (57-58) | <li><span class="HindiText" id="8"><span class="HindiText"> विजयार्धपर हरिपुर निवासी पवनवेग विद्याधर का पुत्र था (23-24) पूर्व जन्म के वैरी ने इसकी समस्त विद्याएँ हर लीं। परंतु दया से चंपापुर का राजा बना दिया (49-53) इसी के हरि नामक पुत्र से हरिवंश की उत्पत्ति हुई (57-58)<span class="GRef">हरिवंश पुराण सर्ग 15/श्लोक</span></span></li> | ||
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<div class="HindiText"> <p id="1"> (1) मनुष्यों की द्विविध (आर्य और म्लेच्छ) जातियों मे एक जाति । <span class="GRef"> महापुराण 14.41, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 3.128 </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText"> (1) मनुष्यों की द्विविध (आर्य और म्लेच्छ) जातियों मे एक जाति । <span class="GRef"> महापुराण 14.41, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_3#128|हरिवंशपुराण - 3.128]] </span></p> | ||
<p id="2">(2) भोगभूमिज पुरुष का सामान्य मान (पुरुष के लिए व्यवहृत शब्द) । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 7.102 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) भोगभूमिज पुरुष का सामान्य मान (पुरुष के लिए व्यवहृत शब्द) । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_7#102|हरिवंशपुराण - 7.102]] </span></p> | ||
<p id="3">(3) विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी के हरिपुर नगर के निवासी पवनगिरि विद्याधर तथा उसकी भार्या मृगावती का पुत्र, सुमुख का जीव । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 15.20-24 </span></p> | <p id="3" class="HindiText">(3) विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी के हरिपुर नगर के निवासी पवनगिरि विद्याधर तथा उसकी भार्या मृगावती का पुत्र, सुमुख का जीव । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_15#20|हरिवंशपुराण - 15.20-24]] </span></p> | ||
<p id="4">(4) विद्याओं के सोलह निकायों मे एक निकाय । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 22. 57-58 </span></p> | <p id="4" class="HindiText">(4) विद्याओं के सोलह निकायों मे एक निकाय । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_22#57|हरिवंशपुराण - 22.57-58]] </span></p> | ||
<p id="5">(5) दूसरे मनु सन्मति तथा आठवें मनु चक्षुष्मान् ने अपनी प्रजा को इसी नाम से संबोधित किया था । <span class="GRef"> महापुराण 3.83, 122 </span></p> | <p id="5" class="HindiText">(5) दूसरे मनु सन्मति तथा आठवें मनु चक्षुष्मान् ने अपनी प्रजा को इसी नाम से संबोधित किया था । <span class="GRef"> महापुराण 3.83, 122 </span></p> | ||
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Latest revision as of 14:40, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
- आर्य सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 3/35/229/6
गुणैर्गुणवद्भिर्वा अर्यंते इत्यार्या।
= जो गुणों या गुणवालों के द्वारा माने जाते हों-वे आर्य कहलाते हैं।
(राजवार्तिक अध्याय 3/36/1/200 ) - आर्य के भेद-प्रभेद
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 3/36/229/6 ते द्विविधा-ऋद्धिप्राप्तार्या अनृद्धिप्राप्तार्याश्चेति।
= उसके दो भेद हैं-ऋद्धिप्राप्त आर्य और ऋद्धिरहित आर्य।
(राजवार्तिक अध्याय 3/36/1/200 ) - ऋद्धि प्राप्त आर्य
देखें ऋद्धि ।
- अनृद्धि प्राप्तार्य के भेद
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 3/36/230/1 अनृद्धिप्राप्तार्याः पच्चविधाः-क्षेत्रार्याः जात्यार्याः कर्मार्याश्चारित्रार्या दर्शनार्याश्चेति। = ऋद्धिरहित आर्य पाँच प्रकार के हैं-क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कर्मार्य, चारित्रार्य और दर्शनार्य। (राजवार्तिक अध्याय 3/36/2/200 )
- क्षेत्रार्य का लक्षण
राजवार्तिक अध्याय 3/36/2/200/30 तत्र क्षेत्रार्याः काशीकौशलादिषु जाताः। = काशी, कौशल आदि उत्तम देशों में उत्पन्न हुओं को क्षेत्रार्य कहते हैं।
- जात्यार्य का लक्षण
राजवार्तिक अध्याय 3/36/2/200/31 इक्ष्वाकुज्ञातिभोजादिषु कुलेषु जाता जात्यार्याः।
= इक्ष्वाकु, ज्ञाति, भोज आदिक उत्तम कुलों में उत्पन्न हुओं को जात्यार्य कहते हैं।
- चारित्रार्य का लक्षण
राजवार्तिक अध्याय 3/36/2/201/9 तद्भेदः अनुपदेशोपदेशापेक्षभेदकृतः। चारित्रमोहस्योपशमात् क्षयाच्च बाह्योपदेशानपेक्षा आत्मप्रसादादेव चारित्रपरिणामास्कांदिनः उपशांतकषायाश्चधिगतचारित्रार्याः। अंतश्चारित्रमोहक्षयोपशमसद्भावे सति बाह्योपदेशनिमित्तविरतिपरिणामा अनधिगमचारित्रार्याः।
= उपरोक्त चारित्रार्य के दो भेद उपदेश व अनुपदेश की अपेक्षा किये गये हैं। जो बाह्योपदेश के बिना आत्म प्रसाद मात्र से चारित्र मोह के उपशम अथवा क्षय होने से चारित्र परिणाम को प्राप्त होते हैं, ऐसे उपशांत कषाय व क्षीण कषाय जीव अधिगत चारित्रार्य हैं। और अंतरंग चारित्र मोह के क्षयोपशम का सद्भाव होने पर बाह्योपदेश के निमित्त से विरति परिणाम को प्राप्त अनधिगम चारित्रार्य हैं।
- विजयार्धपर हरिपुर निवासी पवनवेग विद्याधर का पुत्र था (23-24) पूर्व जन्म के वैरी ने इसकी समस्त विद्याएँ हर लीं। परंतु दया से चंपापुर का राजा बना दिया (49-53) इसी के हरि नामक पुत्र से हरिवंश की उत्पत्ति हुई (57-58)हरिवंश पुराण सर्ग 15/श्लोक
राजवार्तिक अध्याय 3/36/2/200 तत्र....कर्मार्यास्त्रेधा-सावद्यकर्मार्या अल्पसावद्यकर्मार्या असावद्यकर्मार्याश्चेति। सावद्यकर्मार्याः षोढा-असि-मषी-कृषि-विद्या-शिल्प-वणिक्कर्म-भेदात्।...चारित्रार्या द्वेधा-अधिगत चारित्रार्याः अनधिगमचारित्रार्याश्चेति।...दर्शनार्या दशधा-आज्ञामार्गोपदेशसूत्रबीजसंक्षेपविस्तारार्थावगाढपरमावगाढरुचिभेदात्। = उपरोक्त अनृद्धि प्राप्त आर्यों में भी कर्मार्य तीन प्रकार के हैं-सावद्य कर्मार्य, अल्पसावद्य कर्मार्य, असावद्य कर्मार्य। अल्प सावद्य कर्मार्य छः प्रकार के होते हैं-असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, विद्या, व शिल्प के भेद से। (इन सबके लक्षणों के लिए-देखें सावद्य ) चारित्रार्य दो प्रकार के हैं -अधिगत चारित्रार्य और अनधिगम चारित्रार्य। दर्शनार्य दश प्रकार के हैं-आज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ, परमावगाढ रुचि के भेद से। लक्षणों के लिए-देखें सम्यग्दर्शन - I.1 - दश प्रकारके सम्यग्दर्शन के भेद)
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पुराणकोष से
(1) मनुष्यों की द्विविध (आर्य और म्लेच्छ) जातियों मे एक जाति । महापुराण 14.41, हरिवंशपुराण - 3.128
(2) भोगभूमिज पुरुष का सामान्य मान (पुरुष के लिए व्यवहृत शब्द) । हरिवंशपुराण - 7.102
(3) विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी के हरिपुर नगर के निवासी पवनगिरि विद्याधर तथा उसकी भार्या मृगावती का पुत्र, सुमुख का जीव । हरिवंशपुराण - 15.20-24
(4) विद्याओं के सोलह निकायों मे एक निकाय । हरिवंशपुराण - 22.57-58
(5) दूसरे मनु सन्मति तथा आठवें मनु चक्षुष्मान् ने अपनी प्रजा को इसी नाम से संबोधित किया था । महापुराण 3.83, 122