उपचार विनय विधि: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> विनय व्यवहार में शब्दप्रयोग आदि संबंधी कुछ नियम</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सूत्रपाहुड़/12-13 </span><span class="PrakritGatha">जे बावीसपरीसह सहंति सत्तीसएहिं संजुत्त। ते होंति वंदणीया कम्मक्खयणिज्जरासाहू।12। अवसेसा जे लिंगी दंसणणाणेण सम्मसंजुत्त। चेलेण य परिगहिया ते भणिया इच्छणिज्जाय।13। </span>= <span class="HindiText">सैंकड़ों शक्तियों से संयुक्त जो 22 परीषहों को सहन करते हुए नित्य कर्मों की निर्जरा करते हैं, ऐसे दिगंबर साधु वंदना करने योग्य हैं।12। और शेष लिंगधारी, वस्त्र धारण करने वाले परंतु जो ज्ञान दर्शन से संयुक्त हैं वे इच्छाकार करने योग्य हैं।13। </span><br /> | <span class="GRef"> सूत्रपाहुड़/12-13 </span><span class="PrakritGatha">जे बावीसपरीसह सहंति सत्तीसएहिं संजुत्त। ते होंति वंदणीया कम्मक्खयणिज्जरासाहू।12। अवसेसा जे लिंगी दंसणणाणेण सम्मसंजुत्त। चेलेण य परिगहिया ते भणिया इच्छणिज्जाय।13। </span>= <span class="HindiText">सैंकड़ों शक्तियों से संयुक्त जो 22 परीषहों को सहन करते हुए नित्य कर्मों की निर्जरा करते हैं, ऐसे दिगंबर साधु वंदना करने योग्य हैं।12। और शेष लिंगधारी, वस्त्र धारण करने वाले परंतु जो ज्ञान दर्शन से संयुक्त हैं वे इच्छाकार करने योग्य हैं।13। </span><br /> | ||
<span class="GRef">मूलाचार/131, 195</span> <span class="PrakritGatha">संजमणाणुवकरणे अण्णुवकरणे च जायणे अण्णे। जोग्गग्गहणादीसु अ इच्छाकारी दु कादव्वो।131। पंच छ सत्त हत्थे सूरी अज्झावगो य साधु य। परिहरिऊणज्झाओ गवासणेणेक्वंदंति।195।</span> =<span class="HindiText"> संयमोपकरण, ज्ञानोपकरण तथा अन्य भी जो उपकरण उनमें औषधादि में, आतापन आदि योगों में इच्छाकार करना चाहिए।131। आर्यिकाएँ आचार्यों को पाँच हाथ दूर से, उपाध्याय को छह हाथ दूर से और साधुओं को सात हाथ दूर से गवासन से बैठकर वंदना करती हैं।195। </span><br /> | <span class="GRef">मूलाचार/131, 195</span> <span class="PrakritGatha">संजमणाणुवकरणे अण्णुवकरणे च जायणे अण्णे। जोग्गग्गहणादीसु अ इच्छाकारी दु कादव्वो।131। पंच छ सत्त हत्थे सूरी अज्झावगो य साधु य। परिहरिऊणज्झाओ गवासणेणेक्वंदंति।195।</span> =<span class="HindiText"> संयमोपकरण, ज्ञानोपकरण तथा अन्य भी जो उपकरण उनमें औषधादि में, आतापन आदि योगों में इच्छाकार करना चाहिए।131। आर्यिकाएँ आचार्यों को पाँच हाथ दूर से, उपाध्याय को छह हाथ दूर से और साधुओं को सात हाथ दूर से गवासन से बैठकर वंदना करती हैं।195। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/ टीका/12/314 पर उद्धृत गाथा</span>- <span class="PrakritGatha">‘‘वरिससयदिक्खियाए अज्जाए अज्ज दिक्खिओ साहू। अभिगमणं-वंदण-णमंसणेण विणएण सो पुज्जे।1। </span>= <span class="HindiText">सौ वर्ष की दीक्षित आर्यिका के द्वारा भी आज का नवदीक्षित साधु अभिगमन, वंदन, नमस्कार व विनय से पूज्य है। | <span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/ टीका/12/314 पर उद्धृत गाथा</span>- <span class="PrakritGatha">‘‘वरिससयदिक्खियाए अज्जाए अज्ज दिक्खिओ साहू। अभिगमणं-वंदण-णमंसणेण विणएण सो पुज्जे।1। </span>= <span class="HindiText">सौ वर्ष की दीक्षित आर्यिका के द्वारा भी आज का नवदीक्षित साधु अभिगमन, वंदन, नमस्कार व विनय से पूज्य है। <span class="GRef">( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/225 प्रक्षेपक 8/304/27)</span>। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/ टीका/12/313/19</span> <span class="SanskritText">मुनिजनस्य स्त्रियाश्च परस्परं वंदनापि न युक्ता। यदि ता वंदंते तदा मुनिभिर्नमोऽस्त्विति न वक्तव्यं, किं तर्हि वक्तव्यं। समाधिकर्मक्षयोऽस्त्विति।</span> =<span class="HindiText"> मुनिजन व आर्यिकाओं के बीच परस्पर वंदना भी युक्त नहीं है। यदि वे वंदन करें तो मुनि को उनके लिए ‘नमोऽस्तु’ शब्द नहीं कहना चाहिए, किंतु ‘समाधिरस्तु’ या ‘कर्मक्षयोऽस्तु’ कहना चाहिए। <br /> | <span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/ टीका/12/313/19</span> <span class="SanskritText">मुनिजनस्य स्त्रियाश्च परस्परं वंदनापि न युक्ता। यदि ता वंदंते तदा मुनिभिर्नमोऽस्त्विति न वक्तव्यं, किं तर्हि वक्तव्यं। समाधिकर्मक्षयोऽस्त्विति।</span> =<span class="HindiText"> मुनिजन व आर्यिकाओं के बीच परस्पर वंदना भी युक्त नहीं है। यदि वे वंदन करें तो मुनि को उनके लिए ‘नमोऽस्तु’ शब्द नहीं कहना चाहिए, किंतु ‘समाधिरस्तु’ या ‘कर्मक्षयोऽस्तु’ कहना चाहिए। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> विनय व्यवहार के योग्य व अयोग्य अवस्थाएँ</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">मूलाचार/597-599</span><span class="PrakritGatha"> वखित्तपराहुतं तु पमत्तं मा कदाइ वंदिज्जो। आहारं च करं तो णीहारं वा जदि करेदि।597। आसणे आसणत्थं च उवसंतं च उवट्ठिदं। अणुविण्णय मेधावी किदियम्मं पउंजदेः।598। आलोयणाय करणे पडिपुच्छा पूजणे य सज्झाए। अवराधे य गुरुणं वंदणमेदेसु ठाणेसु।599।</span> = <span class="HindiText">व्याकुल चित्त वाले को, निद्रा, विकथा आदि से प्रमत्त दशा को प्राप्त को तथा आहार व नीहार करते को वंदना नहीं करनी चाहिए।597। एकांत भूमि में पद्मासनादि से स्वस्थ चित्तरूप से बैठे हुए मुनि को वंदना करनी चाहिए और वह भी उनकी विज्ञप्ति लेकर।598। आलोचना के समय, प्रश्न के समय, पूजा व स्वाध्याय के समय तथा क्रोधादि अपराध के समय आचार्य उपाध्याय आदि की वंदना करनी चाहिए।599। | <span class="GRef">मूलाचार/597-599</span><span class="PrakritGatha"> वखित्तपराहुतं तु पमत्तं मा कदाइ वंदिज्जो। आहारं च करं तो णीहारं वा जदि करेदि।597। आसणे आसणत्थं च उवसंतं च उवट्ठिदं। अणुविण्णय मेधावी किदियम्मं पउंजदेः।598। आलोयणाय करणे पडिपुच्छा पूजणे य सज्झाए। अवराधे य गुरुणं वंदणमेदेसु ठाणेसु।599।</span> = <span class="HindiText">व्याकुल चित्त वाले को, निद्रा, विकथा आदि से प्रमत्त दशा को प्राप्त को तथा आहार व नीहार करते को वंदना नहीं करनी चाहिए।597। एकांत भूमि में पद्मासनादि से स्वस्थ चित्तरूप से बैठे हुए मुनि को वंदना करनी चाहिए और वह भी उनकी विज्ञप्ति लेकर।598। आलोचना के समय, प्रश्न के समय, पूजा व स्वाध्याय के समय तथा क्रोधादि अपराध के समय आचार्य उपाध्याय आदि की वंदना करनी चाहिए।599। <span class="GRef">( अनगारधर्मामृत/7/53-54/772 )</span>। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/275/9 </span><span class="SanskritText">वसतेः, कायभूमितः, भिक्षातः, चैत्यात्, गुरुसकाशात्, ग्रामांतराद्वा आगमनकालेऽभ्यु-त्थातव्यम्। गुरुजनश्च यदा निष्क्रामति निष्क्राम्य प्रविशति वा तदा तदा अभ्युत्थानं कार्यम्। अनया दिशा यथागममि-तरदप्यनुगंतव्यम्। </span>= <span class="HindiText">वसतिका स्थान से, कायभूमि से (?) भिक्षा लेकर लौटते समय, चैत्यालय से आते समय, गुरु के पास से आते समय अथवा ग्रामांतर से आते समय अथवा गुरुजन जब बाहर जाते हैं या बाहर से आते हैं, तब तब अभ्युत्थान करना चाहिए। इसी प्रकार अन्य भी जानना चाहिए। <br /> | <span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/275/9 </span><span class="SanskritText">वसतेः, कायभूमितः, भिक्षातः, चैत्यात्, गुरुसकाशात्, ग्रामांतराद्वा आगमनकालेऽभ्यु-त्थातव्यम्। गुरुजनश्च यदा निष्क्रामति निष्क्राम्य प्रविशति वा तदा तदा अभ्युत्थानं कार्यम्। अनया दिशा यथागममि-तरदप्यनुगंतव्यम्। </span>= <span class="HindiText">वसतिका स्थान से, कायभूमि से (?) भिक्षा लेकर लौटते समय, चैत्यालय से आते समय, गुरु के पास से आते समय अथवा ग्रामांतर से आते समय अथवा गुरुजन जब बाहर जाते हैं या बाहर से आते हैं, तब तब अभ्युत्थान करना चाहिए। इसी प्रकार अन्य भी जानना चाहिए। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> उपचार विनय की आवश्यकता ही क्या</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना व विजयोदया टीका/756-757/920</span> <span class="PrakritText">ननु सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपांसि संसारमुच्छिंदंति यद्यपि न स्यान्नमस्कार इत्यशंकायामाह–जो भावणमोक्कारेण विणा सम्मत्तणाणचरणतवा। ण हु ते होंति समत्था संसारुच्छेदणं कादुं।756। यद्येवं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति सूत्रेण विरुध्यते। नमस्कारमात्रमेव कर्मणां विनाश ने उपाय इत्येकमुक्तिमार्गकथनादित्याशंकायामाह–चदुरंगाए सेणाए णायगो जह पवत्तवो हादि। तह भावणमोक्कारो मरणे तवणाणचरणाणं।757। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र और तप संसार का नाश करते हैं, इसलिए नमस्कार की क्या आवश्यकता है? <strong>उत्तर–</strong>भाव नमस्कार के बिना सम्यक्त्व ज्ञान चारित्र और तप संसार का नाश करने में समर्थ नहीं होते हैं। <strong>प्रश्न–</strong>यदि ऐसा है तो ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’ इस सूत्र के साथ विरोध उत्पन्न होगा, क्योंकि आपके मत के अनुसार नमस्कार अकेला ही कर्मविनाश का उपाय है? <strong>उत्तर–</strong>चतुरंगी सेना का जैसे सेनापति प्रवर्तक माना जाता है, वैसे यह भाव नमस्कार भी मरण समय में तप, ज्ञान, चारित्र का प्रवर्तक है। </span></li> | <span class="GRef"> भगवती आराधना व विजयोदया टीका/756-757/920</span> <span class="PrakritText">ननु सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपांसि संसारमुच्छिंदंति यद्यपि न स्यान्नमस्कार इत्यशंकायामाह–जो भावणमोक्कारेण विणा सम्मत्तणाणचरणतवा। ण हु ते होंति समत्था संसारुच्छेदणं कादुं।756। यद्येवं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति सूत्रेण विरुध्यते। नमस्कारमात्रमेव कर्मणां विनाश ने उपाय इत्येकमुक्तिमार्गकथनादित्याशंकायामाह–चदुरंगाए सेणाए णायगो जह पवत्तवो हादि। तह भावणमोक्कारो मरणे तवणाणचरणाणं।757। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र और तप संसार का नाश करते हैं, इसलिए नमस्कार की क्या आवश्यकता है? <strong>उत्तर–</strong>भाव नमस्कार के बिना सम्यक्त्व ज्ञान चारित्र और तप संसार का नाश करने में समर्थ नहीं होते हैं। <strong>प्रश्न–</strong>यदि ऐसा है तो ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’ इस सूत्र के साथ विरोध उत्पन्न होगा, क्योंकि आपके मत के अनुसार नमस्कार अकेला ही कर्मविनाश का उपाय है? <strong>उत्तर–</strong>चतुरंगी सेना का जैसे सेनापति प्रवर्तक माना जाता है, वैसे यह भाव नमस्कार भी मरण समय में तप, ज्ञान, चारित्र का प्रवर्तक है। </span></li> | ||
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Latest revision as of 14:40, 27 November 2023
- उपचार विनय विधि
- विनय व्यवहार में शब्दप्रयोग आदि संबंधी कुछ नियम
सूत्रपाहुड़/12-13 जे बावीसपरीसह सहंति सत्तीसएहिं संजुत्त। ते होंति वंदणीया कम्मक्खयणिज्जरासाहू।12। अवसेसा जे लिंगी दंसणणाणेण सम्मसंजुत्त। चेलेण य परिगहिया ते भणिया इच्छणिज्जाय।13। = सैंकड़ों शक्तियों से संयुक्त जो 22 परीषहों को सहन करते हुए नित्य कर्मों की निर्जरा करते हैं, ऐसे दिगंबर साधु वंदना करने योग्य हैं।12। और शेष लिंगधारी, वस्त्र धारण करने वाले परंतु जो ज्ञान दर्शन से संयुक्त हैं वे इच्छाकार करने योग्य हैं।13।
मूलाचार/131, 195 संजमणाणुवकरणे अण्णुवकरणे च जायणे अण्णे। जोग्गग्गहणादीसु अ इच्छाकारी दु कादव्वो।131। पंच छ सत्त हत्थे सूरी अज्झावगो य साधु य। परिहरिऊणज्झाओ गवासणेणेक्वंदंति।195। = संयमोपकरण, ज्ञानोपकरण तथा अन्य भी जो उपकरण उनमें औषधादि में, आतापन आदि योगों में इच्छाकार करना चाहिए।131। आर्यिकाएँ आचार्यों को पाँच हाथ दूर से, उपाध्याय को छह हाथ दूर से और साधुओं को सात हाथ दूर से गवासन से बैठकर वंदना करती हैं।195।
मोक्षपाहुड़/ टीका/12/314 पर उद्धृत गाथा- ‘‘वरिससयदिक्खियाए अज्जाए अज्ज दिक्खिओ साहू। अभिगमणं-वंदण-णमंसणेण विणएण सो पुज्जे।1। = सौ वर्ष की दीक्षित आर्यिका के द्वारा भी आज का नवदीक्षित साधु अभिगमन, वंदन, नमस्कार व विनय से पूज्य है। ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/225 प्रक्षेपक 8/304/27)।
मोक्षपाहुड़/ टीका/12/313/19 मुनिजनस्य स्त्रियाश्च परस्परं वंदनापि न युक्ता। यदि ता वंदंते तदा मुनिभिर्नमोऽस्त्विति न वक्तव्यं, किं तर्हि वक्तव्यं। समाधिकर्मक्षयोऽस्त्विति। = मुनिजन व आर्यिकाओं के बीच परस्पर वंदना भी युक्त नहीं है। यदि वे वंदन करें तो मुनि को उनके लिए ‘नमोऽस्तु’ शब्द नहीं कहना चाहिए, किंतु ‘समाधिरस्तु’ या ‘कर्मक्षयोऽस्तु’ कहना चाहिए।
- विनय व्यवहार के योग्य व अयोग्य अवस्थाएँ
मूलाचार/597-599 वखित्तपराहुतं तु पमत्तं मा कदाइ वंदिज्जो। आहारं च करं तो णीहारं वा जदि करेदि।597। आसणे आसणत्थं च उवसंतं च उवट्ठिदं। अणुविण्णय मेधावी किदियम्मं पउंजदेः।598। आलोयणाय करणे पडिपुच्छा पूजणे य सज्झाए। अवराधे य गुरुणं वंदणमेदेसु ठाणेसु।599। = व्याकुल चित्त वाले को, निद्रा, विकथा आदि से प्रमत्त दशा को प्राप्त को तथा आहार व नीहार करते को वंदना नहीं करनी चाहिए।597। एकांत भूमि में पद्मासनादि से स्वस्थ चित्तरूप से बैठे हुए मुनि को वंदना करनी चाहिए और वह भी उनकी विज्ञप्ति लेकर।598। आलोचना के समय, प्रश्न के समय, पूजा व स्वाध्याय के समय तथा क्रोधादि अपराध के समय आचार्य उपाध्याय आदि की वंदना करनी चाहिए।599। ( अनगारधर्मामृत/7/53-54/772 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/275/9 वसतेः, कायभूमितः, भिक्षातः, चैत्यात्, गुरुसकाशात्, ग्रामांतराद्वा आगमनकालेऽभ्यु-त्थातव्यम्। गुरुजनश्च यदा निष्क्रामति निष्क्राम्य प्रविशति वा तदा तदा अभ्युत्थानं कार्यम्। अनया दिशा यथागममि-तरदप्यनुगंतव्यम्। = वसतिका स्थान से, कायभूमि से (?) भिक्षा लेकर लौटते समय, चैत्यालय से आते समय, गुरु के पास से आते समय अथवा ग्रामांतर से आते समय अथवा गुरुजन जब बाहर जाते हैं या बाहर से आते हैं, तब तब अभ्युत्थान करना चाहिए। इसी प्रकार अन्य भी जानना चाहिए।
- उपचार विनय की आवश्यकता ही क्या
भगवती आराधना व विजयोदया टीका/756-757/920 ननु सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपांसि संसारमुच्छिंदंति यद्यपि न स्यान्नमस्कार इत्यशंकायामाह–जो भावणमोक्कारेण विणा सम्मत्तणाणचरणतवा। ण हु ते होंति समत्था संसारुच्छेदणं कादुं।756। यद्येवं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति सूत्रेण विरुध्यते। नमस्कारमात्रमेव कर्मणां विनाश ने उपाय इत्येकमुक्तिमार्गकथनादित्याशंकायामाह–चदुरंगाए सेणाए णायगो जह पवत्तवो हादि। तह भावणमोक्कारो मरणे तवणाणचरणाणं।757। = प्रश्न–सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र और तप संसार का नाश करते हैं, इसलिए नमस्कार की क्या आवश्यकता है? उत्तर–भाव नमस्कार के बिना सम्यक्त्व ज्ञान चारित्र और तप संसार का नाश करने में समर्थ नहीं होते हैं। प्रश्न–यदि ऐसा है तो ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’ इस सूत्र के साथ विरोध उत्पन्न होगा, क्योंकि आपके मत के अनुसार नमस्कार अकेला ही कर्मविनाश का उपाय है? उत्तर–चतुरंगी सेना का जैसे सेनापति प्रवर्तक माना जाता है, वैसे यह भाव नमस्कार भी मरण समय में तप, ज्ञान, चारित्र का प्रवर्तक है।
- विनय व्यवहार में शब्दप्रयोग आदि संबंधी कुछ नियम