उपादान कारण की मुख्यता गौणता: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong name="II" id="II"> उपादान कारण की मुख्यता गौणता</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="II.1" id="II.1"> उपादान की कथंचित् स्वतंत्रता</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="II.1.1" id="II.1.1">अन्य अन्य को अपने रूप नहीं कर सकता</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">योगसार/अमितगति/9/46</span> <span class="SanskritGatha">सर्वे भावा: स्वस्वभावव्यवस्थिता:। न शक्यंतेऽंयथा कर्तुं ते परेण कदाचन।46।</span>=<span class="HindiText">समस्त पदार्थ स्वभाव से ही अपने स्वरूप में स्थित हैं, वे कभी पर पदार्थ से अन्यथा रूप नहीं किये जा सकते अर्थात् कभी पर पदार्थ उन्हें अपने रूप में परिणमन नहीं करा सकता।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="II.1.2" id="II.1.2">अन्य स्वयं अन्य रूप नहीं हो सकता</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/9/10/45/20 </span><span class="SanskritText">मनश्चेंद्रियं चास्य कारणमिति चेत्; न; तस्य तच्छक्त्यभावात् । मनस्तावन्न कारणम् विनष्टत्वात् । नेंद्रियमप्यतीतम्; तत एव।</span>=<span class="HindiText">मनरूप इंद्रिय को ज्ञान का कारण कहना उचित नहीं है, क्योंकि उसमें वह शक्ति ही नहीं है। ‘छहों ज्ञानों के लिए एक क्षण पूर्व का ज्ञान मन होता है’ यह उन बौद्धों का सिद्धांत है। इसलिए अतीतज्ञान रूप मन इंद्रिय भी नहीं हो सकता। (विशेष देखो कर्ता | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/9/10/45/20 </span><span class="SanskritText">मनश्चेंद्रियं चास्य कारणमिति चेत्; न; तस्य तच्छक्त्यभावात् । मनस्तावन्न कारणम् विनष्टत्वात् । नेंद्रियमप्यतीतम्; तत एव।</span>=<span class="HindiText">मनरूप इंद्रिय को ज्ञान का कारण कहना उचित नहीं है, क्योंकि उसमें वह शक्ति ही नहीं है। ‘छहों ज्ञानों के लिए एक क्षण पूर्व का ज्ञान मन होता है’ यह उन बौद्धों का सिद्धांत है। इसलिए अतीतज्ञान रूप मन इंद्रिय भी नहीं हो सकता। (विशेष देखो [[कर्ता#3 | कर्ता-3]])<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="II.1.3" id="II.1.3"> निमित्त किसी में अनहोनी शक्ति उत्पन्न नहीं करा सकता</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला/1/1,1,163/404/1 </span><span class="SanskritText"> न हि स्वतोऽसमर्थोऽन्यत: समर्थो भवत्यतिप्रसंगात् ।</span>=<span class="HindiText"> (मानुषोत्तर पर्वत के उस तरफ देवों की प्रेरणा से भी मनुष्यों का गमन नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा न्याय है कि | <span class="GRef"> धवला/1/1,1,163/404/1 </span><span class="SanskritText"> न हि स्वतोऽसमर्थोऽन्यत: समर्थो भवत्यतिप्रसंगात् ।</span>=<span class="HindiText"> (मानुषोत्तर पर्वत के उस तरफ देवों की प्रेरणा से भी मनुष्यों का गमन नहीं हो सकता), क्योंकि ऐसा न्याय है कि जो स्वयं असमर्थ होता है वह दूसरों के संबंध से भी समर्थ नहीं हो सकता।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/118-119 </span><span class="SanskritText">न हि स्वतोऽसती शक्ति: कर्तुमन्येन पार्यते।</span>=<span class="HindiText">जो शक्ति (वस्तु में) स्वत: न हो उसे अन्य कोई नहीं कर सकता। | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/118-119 </span><span class="SanskritText">न हि स्वतोऽसती शक्ति: कर्तुमन्येन पार्यते।</span>=<span class="HindiText">जो शक्ति (वस्तु में) स्वत: न हो उसे अन्य कोई नहीं कर सकता। <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/62 )</span><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="II.1.4" id="II.1.4">स्वभाव दूसरे की अपेक्षा नहीं करता</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/119 </span><span class="SanskritText">न हि वस्तु शक्तय: परमपेक्षंते।</span>=<span class="HindiText">वस्तु की शक्तियाँ पर की अपेक्षा नहीं रखतीं।</span><br /> | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/119 </span><span class="SanskritText">न हि वस्तु शक्तय: परमपेक्षंते।</span>=<span class="HindiText">वस्तु की शक्तियाँ पर की अपेक्षा नहीं रखतीं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/19 </span><span class="SanskritText">स्वभावस्य तु परानपेक्षत्वादिंद्रियैर्विनाप्यात्मनो ज्ञानानंदौ संभवत:।</span> = <span class="HindiText">(ज्ञान और आनंद आत्मा का स्वभाव ही है; | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/19 </span><span class="SanskritText">स्वभावस्य तु परानपेक्षत्वादिंद्रियैर्विनाप्यात्मनो ज्ञानानंदौ संभवत:।</span> = <span class="HindiText">(ज्ञान और आनंद आत्मा का स्वभाव ही है); और स्वभाव पर की अपेक्षा नहीं करता इसलिए इंद्रियों के बिना भी (केवलज्ञानी) आत्मा के ज्ञान आनंद होता है। <span class="GRef">( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका )</span><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="II.1.5" id="II.1.5">और परिणमन करना द्रव्य का स्वभाव है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/96 </span><span class="PrakritGatha">सब्भावो हि सभावो गुणेहिं सगपज्जएहिं चित्तेहिं। दव्वस्स सव्वकालं उप्पादव्वयधुवत्तेहिं।96।</span>=<span class="HindiText">सर्व लोक में गुण तथा अपनी अनेक प्रकार की पर्यायों से और उत्पाद व्यय ध्रौव्य से द्रव्य का जो अस्तित्व है वह वास्तव में स्वभाव है।</span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार/96 </span><span class="PrakritGatha">सब्भावो हि सभावो गुणेहिं सगपज्जएहिं चित्तेहिं। दव्वस्स सव्वकालं उप्पादव्वयधुवत्तेहिं।96।</span>=<span class="HindiText">सर्व लोक में गुण तथा अपनी अनेक प्रकार की पर्यायों से और उत्पाद व्यय ध्रौव्य से द्रव्य का जो अस्तित्व है वह वास्तव में स्वभाव है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/96 </span><span class="SanskritText">गुणेभ्य: पर्यायेभ्यश्च पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृकरणाधिकरणरूपेण द्रव्यस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तैर्गुणै: पर्यायैश्च ...यदस्तित्वं स स्वभाव:। </span>=<span class="HindiText">जो गुणों और पर्यायों से पृथक् नहीं दिखाई देता, कर्ता करण अधिकरणरूप से द्रव्य के स्वरूप को धारण करके प्रवर्त्तमान द्रव्य का जो अस्तित्व है, वह स्वभाव है।<br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/96 </span><span class="SanskritText">गुणेभ्य: पर्यायेभ्यश्च पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृकरणाधिकरणरूपेण द्रव्यस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तैर्गुणै: पर्यायैश्च ...यदस्तित्वं स स्वभाव:। </span>=<span class="HindiText">जो गुणों और पर्यायों से पृथक् नहीं दिखाई देता, कर्ता करण अधिकरणरूप से द्रव्य के स्वरूप को धारण करके प्रवर्त्तमान द्रव्य का जो अस्तित्व है, वह स्वभाव है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="II.1.6" id="II.1.6"> उपादान अपने परिणमन में स्वतंत्र है </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार/91 </span><span class="PrakritGatha">जं कुणइ भावमादा कत्ता स होदि तस्स भावस्स। कम्मत्तं परिणमदे तम्हि सयं पुग्गलं दव्वं।</span>=<span class="HindiText">आत्मा जिस भाव को करता है, उस भाव का वह कर्ता होता है। उसके कर्ता होने पर पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्म रूप परिणमित होता है। | <span class="GRef"> समयसार/91 </span><span class="PrakritGatha">जं कुणइ भावमादा कत्ता स होदि तस्स भावस्स। कम्मत्तं परिणमदे तम्हि सयं पुग्गलं दव्वं।</span>=<span class="HindiText">आत्मा जिस भाव को करता है, उस भाव का वह कर्ता होता है। उसके कर्ता होने पर पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्म रूप परिणमित होता है। <span class="GRef">( समयसार/80-81 )</span>; <span class="GRef">( समयसार / आत्मख्याति/105 )</span>; <span class="GRef">( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/12 )</span>; (और भी देखो [[कारण#III.3.1 | कारण-III.3.1]])।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार/119 </span><span class="PrakritGatha"> अह सयमेव हि परिणमदि कम्मभावेण पुग्गलं दव्वं। जीवो परिणामयदे कम्मं कम्मत्तमिदि मिच्छा।119।</span>=<span class="HindiText">अथवा यदि पुद्गलद्रव्य अपने आप ही कर्मभाव से परिणमन करता है ऐसा माना जाये, तो जीव कर्म को अर्थात् पुद्गलद्रव्य को परिणमन कराता है यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है</span> <span class="SanskritText">‘‘तत: पुद्गलद्रव्यं परिणामस्वभावं स्वयमेवास्तु’’ </span><span class="HindiText">अत: | <span class="GRef"> समयसार/119 </span><span class="PrakritGatha"> अह सयमेव हि परिणमदि कम्मभावेण पुग्गलं दव्वं। जीवो परिणामयदे कम्मं कम्मत्तमिदि मिच्छा।119।</span>=<span class="HindiText">अथवा यदि पुद्गलद्रव्य अपने आप ही कर्मभाव से परिणमन करता है ऐसा माना जाये, तो जीव कर्म को अर्थात् पुद्गलद्रव्य को परिणमन कराता है यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है</span> <span class="SanskritText">‘‘तत: पुद्गलद्रव्यं परिणामस्वभावं स्वयमेवास्तु’’ </span><span class="HindiText">अत: पुद्गल द्रव्य परिणाम स्वभावी स्वयमेव हो (आत्मख्याति)। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/15 </span><span class="PrakritGatha"> उवओगविसुद्धो जो विगदावरणांतरायमोहरओ। भूदो सयमेवादा जादि पारं णेयभूदाणं।15।</span>=<span class="HindiText">जो उपयोग विशुद्ध है, वह आत्मा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अंतराय रज से रहित स्वयमेव होता हुआ ज्ञेयभूत पदार्थों के पार को प्राप्त होता है।</span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार/15 </span><span class="PrakritGatha"> उवओगविसुद्धो जो विगदावरणांतरायमोहरओ। भूदो सयमेवादा जादि पारं णेयभूदाणं।15।</span>=<span class="HindiText">जो उपयोग विशुद्ध है, वह आत्मा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अंतराय रज से रहित स्वयमेव होता हुआ ज्ञेयभूत पदार्थों के पार को प्राप्त होता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/167 </span><span class="PrakritGatha">दुपदेसादी खंधा सुहुमा वा बादरा स संठाणा। पुढविजलतेउवाऊ सगपरिणामेहिं जायंते।</span>=<span class="HindiText">द्विप्रदेशादिक स्कंध जो कि सूक्ष्म अथवा बादर होते हैं और संस्थानों (आकारों) सहित होते हैं, वे पृथिवी, जल, तेज और वायुरूप अपने परिणामों से होते हैं।</span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार/167 </span><span class="PrakritGatha">दुपदेसादी खंधा सुहुमा वा बादरा स संठाणा। पुढविजलतेउवाऊ सगपरिणामेहिं जायंते।</span>=<span class="HindiText">द्विप्रदेशादिक स्कंध जो कि सूक्ष्म अथवा बादर होते हैं और संस्थानों (आकारों) सहित होते हैं, वे पृथिवी, जल, तेज और वायुरूप अपने परिणामों से होते हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/219 </span><span class="PrakritText"> कालाहलद्धि जुत्ता णाणा सत्तीहि संजुदा अत्था। परिणममाणा हि सयं ण सक्कदे को वि वारेदुं।</span>=<span class="HindiText">काल आदि लब्धियों से युक्त तथा नाना शक्तियों वाले पदार्थों को स्वयं परिणमन करते हुए कौन रोक सकता है।</span><br /> | <span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/219 </span><span class="PrakritText"> कालाहलद्धि जुत्ता णाणा सत्तीहि संजुदा अत्था। परिणममाणा हि सयं ण सक्कदे को वि वारेदुं।</span>=<span class="HindiText">काल आदि लब्धियों से युक्त तथा नाना शक्तियों वाले पदार्थों को स्वयं परिणमन करते हुए कौन रोक सकता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी x`/760 </span><span class="SanskritText">उत्पद्यते विनश्यति सदिति यथास्वं प्रतिक्षणं यावत् । व्यवहारविशिष्टोऽयं नियतमनित्यनय: प्रसिद्ध स्यात् ।760।</span>=<span class="HindiText">सत् यथायोग्य प्रतिसमय में उत्पन्न होता है तथा विनष्ट होता है यह निश्चय से व्यवहार विशिष्ट अनित्य नय है।</span><br /> | <span class="GRef"> पंचाध्यायी x`/760 </span><span class="SanskritText">उत्पद्यते विनश्यति सदिति यथास्वं प्रतिक्षणं यावत् । व्यवहारविशिष्टोऽयं नियतमनित्यनय: प्रसिद्ध स्यात् ।760।</span>=<span class="HindiText">सत् यथायोग्य प्रतिसमय में उत्पन्न होता है तथा विनष्ट होता है यह निश्चय से व्यवहार विशिष्ट अनित्य नय है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/932 </span><span class="SanskritText"> तस्मात्सिद्धोऽस्ति सिद्धांतो दृङ्मोहंस्येतरस्य वा। उदयोऽनुदयो वाथ स्यादनन्यगति: स्वत:।</span>=<span class="HindiText">इसलिए यह सिद्धांत सिद्ध होता है कि | <span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/932 </span><span class="SanskritText"> तस्मात्सिद्धोऽस्ति सिद्धांतो दृङ्मोहंस्येतरस्य वा। उदयोऽनुदयो वाथ स्यादनन्यगति: स्वत:।</span>=<span class="HindiText">इसलिए यह सिद्धांत सिद्ध होता है कि दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय इन दोनों के उदय अथवा अनुदय ये दोनों ही स्वयं अनन्य गति हैं अर्थात् अपने आप होते हैं, परस्पर में एक दूसरे के निमित्त से नहीं होते।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="II.1.7" id="II.1.7">उपादान के परिणमन में निमित्त की प्रधानता नहीं होती</strong></span><strong><BR> | ||
</strong> <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/2/12/20/19 </span><span class="SanskritText"> यदिदं दर्शनमोहाख्यं कर्म तदात्मगुणघाति, कुतश्चिदात्मपरिणामादेवोपक्षीणशक्तिकं सम्यक्त्वाख्यां लभते। अतो न तदात्मपरिणामस्य प्रधानं कारणम्, आत्मैव स्वशक्त्या दर्शनपर्यायेणोत्पद्यत इति तस्यैव मोक्षकारणत्वं युक्तम् ।</span>=<span class="HindiText"> | </strong> <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/2/12/20/19 </span><span class="SanskritText"> यदिदं दर्शनमोहाख्यं कर्म तदात्मगुणघाति, कुतश्चिदात्मपरिणामादेवोपक्षीणशक्तिकं सम्यक्त्वाख्यां लभते। अतो न तदात्मपरिणामस्य प्रधानं कारणम्, आत्मैव स्वशक्त्या दर्शनपर्यायेणोत्पद्यत इति तस्यैव मोक्षकारणत्वं युक्तम् ।</span>=<span class="HindiText">दर्शन मोहनीय नाम के कर्म को आत्म विशुद्धि के द्वारा ही रसघात करके स्वल्पघाती क्षीण शक्तिक सम्यक्त्व कर्म बनाया जाता है। अत: यह सम्यक्त्व प्रकृति आत्मस्वरूप मोक्ष का प्रधान कारण नहीं हो सकती। आत्मा | ||
ही अपनी शक्ति से दर्शन पर्याय को धारण करता है अत: वही मोक्ष का कारण है। </span><br /> | ही अपनी शक्ति से दर्शन पर्याय को धारण करता है अत: वही मोक्ष का कारण है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/1/27/434/24 </span><span class="SanskritText">धर्माधर्माकाशपुद्गला: इति बहुवचनं स्वातंत्र्यप्रतिपत्त्यर्थं द्रष्टव्यम् । किं पुन: स्वातंत्र्यम् । धर्मादयो गत्याद्यपग्रहान् प्रति वर्तमाना: स्वयमेव तथा परिणमंते न परप्रत्ययाधीना तेषां प्रवृत्ति: इत्येतदत्र विवक्षितं स्वातंत्र्यम् । ननु च बाह्यद्रव्यादिनिमित्तवशात् परिणामिनां परिणाम उपलभ्यते, स च स्वातंत्र्ये सति विरुध्यत इति: नैष दोष:;बाह्यस्य निमित्तमात्रत्वात् । न हि गत्यादिपरिणामिनो जीवपुद्गला: गत्याद्युपग्रहे धर्मादीनां प्रेरका:।</span>=सूत्र में <span class="SanskritText">‘धर्माधर्माकाशपुद्गला:’</span><span class="HindiText"> यहाँ बहुवचन स्वातंत्र्य की प्रतिपत्ति के लिए है। <strong>प्रश्न</strong>–वह स्वातंत्र्य क्या है? <strong>उत्तर</strong>–इनका यही स्वातंत्र्य है कि ये स्वयं गति और स्थिति रूप से परिणत जीव और पुद्गलों की गति और स्थिति में स्वयं निमित्त होते हैं, जीव या पुद्गल इन्हें उकसाते नहीं हैं। इनकी प्रवृत्ति पराधीन नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>–बाह्य द्रव्यादि के निमित्त से परिणामियों के परिणाम उपलब्ध होते हैं, और वह इस स्वातंत्र्य के मानने पर विरोध को प्राप्त होता है? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि बाह्य वस्तुएँ निमित्त मात्र होती हैं, परिणामक नहीं।</span><br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/5/1/27/434/24 </span><span class="SanskritText">धर्माधर्माकाशपुद्गला: इति बहुवचनं स्वातंत्र्यप्रतिपत्त्यर्थं द्रष्टव्यम् । किं पुन: स्वातंत्र्यम् । धर्मादयो गत्याद्यपग्रहान् प्रति वर्तमाना: स्वयमेव तथा परिणमंते न परप्रत्ययाधीना तेषां प्रवृत्ति: इत्येतदत्र विवक्षितं स्वातंत्र्यम् । ननु च बाह्यद्रव्यादिनिमित्तवशात् परिणामिनां परिणाम उपलभ्यते, स च स्वातंत्र्ये सति विरुध्यत इति: नैष दोष:;बाह्यस्य निमित्तमात्रत्वात् । न हि गत्यादिपरिणामिनो जीवपुद्गला: गत्याद्युपग्रहे धर्मादीनां प्रेरका:।</span>=सूत्र में <span class="SanskritText">‘धर्माधर्माकाशपुद्गला:’</span><span class="HindiText"> यहाँ बहुवचन स्वातंत्र्य की प्रतिपत्ति के लिए है। <strong>प्रश्न</strong>–वह स्वातंत्र्य क्या है? <strong>उत्तर</strong>–इनका यही स्वातंत्र्य है कि ये स्वयं गति और स्थिति रूप से परिणत जीव और पुद्गलों की गति और स्थिति में स्वयं निमित्त होते हैं, जीव या पुद्गल इन्हें उकसाते नहीं हैं। इनकी प्रवृत्ति पराधीन नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>–बाह्य द्रव्यादि के निमित्त से परिणामियों के परिणाम उपलब्ध होते हैं, और वह इस स्वातंत्र्य के मानने पर विरोध को प्राप्त होता है? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि बाह्य वस्तुएँ निमित्त मात्र होती हैं, परिणामक नहीं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/2/1/6/40-41/394 </span><span class="SanskritGatha">चक्षुरादिप्रमाणं चेदचेतनमपीष्यते। न साधकतमत्वस्याभावात्तस्याचित: सदा।40। चितस्तु भावनेत्रादे: प्रमाणत्वं न वार्यते। तत्साधकतमत्वस्य कथंचिदुपपत्तित:।41।</span>=<span class="HindiText">वैशेषिक व नैयायिक लोग नेत्र आदि इंद्रियों को प्रमाण मानते हैं, परंतु उनका कहना ठीक नहीं है; क्योंकि नेत्रादि जड़ हैं, उनके प्रमिति का प्रकृष्ट | <span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/2/1/6/40-41/394 </span><span class="SanskritGatha">चक्षुरादिप्रमाणं चेदचेतनमपीष्यते। न साधकतमत्वस्याभावात्तस्याचित: सदा।40। चितस्तु भावनेत्रादे: प्रमाणत्वं न वार्यते। तत्साधकतमत्वस्य कथंचिदुपपत्तित:।41।</span>=<span class="HindiText">वैशेषिक व नैयायिक लोग नेत्र आदि इंद्रियों को प्रमाण मानते हैं, परंतु उनका कहना ठीक नहीं है; क्योंकि नेत्रादि जड़ हैं, उनके प्रमिति का प्रकृष्ट साधक पना सर्वदा नहीं है। प्रमिति का कारण वास्तव में ज्ञान ही है। जड़ इंद्रिय ज्ञप्ति के करण कदापि नहीं हो सकते, हाँ भावेंद्रियों के साधकतम पने की सिद्धि किसी प्रकार हो जाती है, क्योंकि भावेंद्रिय चेतनस्वरूप हैं और चेतन का प्रमाण पना हमें अभीष्ट है। <span class="GRef">( श्लोकवार्तिक/2/1/6/29/377/23 )</span>; <span class="GRef">( परीक्षामुख/2/6-9 )</span>; <span class="GRef">( स्याद्वादमंजरी/16/208/23 )</span>; <span class="GRef">( न्यायदीपिका/2/5/27 )</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef">योगसार/अमितगति/5/18-19</span><span class="SanskritGatha"> ज्ञानदृष्टिचारित्राणि ह्रियंते नाक्षगोचरै:। क्रियंते न च गुर्वाद्यै: सेव्यमानैरनारतम् ।18। उत्पद्यंते विनश्यंति जीवस्य परिणामिन:। तत: स्वयं स दाता न परतो न कदाचन।19।</span>=<span class="HindiText">ज्ञान दर्शन और चारित्र का न तो इंद्रियों के विषयों से हरण होता है, और न गुरुओं की निरंतर सेवा से उनकी उत्पत्ति होती है, किंतु इस जीव के परिणमन शील होने से प्रति समय इसके गुणों की पर्याय पलटती हैं इसलिए मतिज्ञान आदि का उत्पाद न तो स्वयं जीव ही कर सकता है और न कभी पर पदार्थ से ही उनका उत्पाद विनाश हो सकता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/22/67/3 </span><span class="SanskritText"> तदेव (निश्चय सम्यक्त्वमेव) कालत्रयेऽपि मुक्ति कारणम् । कालस्तु तदभावे सहकारिकारणमपि न भवति।</span>=<span class="HindiText">वह निश्चय सम्यक्त्व ही सदा तीनों कालों में मुक्ति का कारण है। काल तो उसके अभाव में वीतराग चारित्र का | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/22/67/3 </span><span class="SanskritText"> तदेव (निश्चय सम्यक्त्वमेव) कालत्रयेऽपि मुक्ति कारणम् । कालस्तु तदभावे सहकारिकारणमपि न भवति।</span>=<span class="HindiText">वह निश्चय सम्यक्त्व ही सदा तीनों कालों में मुक्ति का कारण है। काल तो उसके अभाव में वीतराग चारित्र का सहकारी कारण भी नहीं हो सकता।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="II.1.8" id="II.1.8">परिणमन में उपादान की योग्यता ही प्रधान है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/ </span> | <span class="GRef"> प्रवचनसार/ व तत्त्वप्रदीपिका/169 </span><span class="SanskritText">कम्मत्तणपाओग्गा खंधा जीवस्स परिणइं पप्पा। गच्छंति कम्मभावं ण हि ते जीवेण परिमिदा। (जीवं परिणमयितारमंतरेणापि कर्मत्वपरिणमनशक्तियोगिन: पुद्गलस्कंधा: स्वयमेव कर्मभावेन परिणमंति।</span>=<span class="HindiText">कर्मत्व के योग्य स्कंध जीव की परिणति को प्राप्त करके कर्म भाव को प्राप्त होते हैं, जीव उनको परिणमाता नहीं।169। अर्थात् जीव उसको परिणमाने वाला नहीं होने पर भी, कर्मरूप परिणमित होने वाले की योग्यता या शक्ति वाले पुद्गल स्कंध स्वयमेव कर्मभाव से परिणमित होते हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> इष्टोपदेश/ </span> | <span class="GRef"> इष्टोपदेश/ मूल/2 </span> <span class="SanskritGatha">योग्योपादानयोगेन दृषद: स्वर्णता मता। द्रव्यादिस्वादिसंपत्तावात्मनोऽप्यात्मता।2।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार स्वर्णरूप पाषाण में कारण; योग्य उपादान रूप करण के संबंध से पाषाण भी स्वर्ण हो जाता है, उसी तरह द्रव्यादि चतुष्टय रूप सुयोग्य संपूर्ण सामग्री के विद्यमान होने पर निर्मल चैतन्य स्वरूप आत्मा की उपलब्धि हो जाती है। <span class="GRef">( मोक्षपाहुड़/24 )</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/44 </span><span class="SanskritText">केवलिनां प्रयत्नमंतरेणापि तथाविधयोग्यतासद्भावात् स्थानमासनं विहरणं धर्मदेशना च स्वभावभूता एव प्रवर्तंते।</span>=<span class="HindiText">केवली भगवान् के बिना ही प्रयत्न के उस प्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से खड़े रहने, बैठना, विहार और धर्म देशना स्वभावभूत ही प्रवर्तते हैं। </span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/44 </span><span class="SanskritText">केवलिनां प्रयत्नमंतरेणापि तथाविधयोग्यतासद्भावात् स्थानमासनं विहरणं धर्मदेशना च स्वभावभूता एव प्रवर्तंते।</span>=<span class="HindiText">केवली भगवान् के बिना ही प्रयत्न के उस प्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से खड़े रहने, बैठना, विहार और धर्म देशना स्वभावभूत ही प्रवर्तते हैं। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> परीक्षामुख/2/9 </span><span class="SanskritText">स्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थं व्यवस्थापयति।9।</span>=<span class="HindiText">जाननेरूप अपनी शक्ति के | <span class="GRef"> परीक्षामुख/2/9 </span><span class="SanskritText">स्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थं व्यवस्थापयति।9।</span>=<span class="HindiText">जाननेरूप अपनी शक्ति के क्षयोपशम रूप अपनी योग्यता से ही ज्ञान घटपटादि पदार्थों की जुदी जुदी रीति से व्यवस्था कर देता है। इसलिए विषय तथा प्रकाश आदि उसके कारण नहीं हैं। <span class="GRef">( श्लोकवार्तिक/2/1/6/40-41/394 )</span>; <span class="GRef">( श्लोकवार्तिक/1/6/29/377/23 )</span>; (प्रमाण परीक्षा/पृष्ठ 52,67); (प्रमेय कमल मार्तंड पृष्ठ 105); <span class="GRef">( न्यायदीपिका/2/5/27 )</span>; <span class="GRef">( स्याद्वादमंजरी/16/209/10 )</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/106/168/12 </span><span class="SanskritText">शुद्धात्मस्वभावरूपव्यक्तियोग्यतासहितानां भव्यानामेव न च शुद्धात्मरूपव्यक्तियोग्यतारहितानामभव्यानाम् ।</span>=<span class="HindiText"> | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/106/168/12 </span><span class="SanskritText">शुद्धात्मस्वभावरूपव्यक्तियोग्यतासहितानां भव्यानामेव न च शुद्धात्मरूपव्यक्तियोग्यतारहितानामभव्यानाम् ।</span>=<span class="HindiText">शुद्धात्म स्वभावरूप व्यक्ति योग्यता सहित भव्यों को ही वह चारित्र होता है, शुद्धात्म स्वभावरूप व्यक्ति योग्यता रहित अभव्यों को नहीं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/580/1022/10 </span> | <span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/580/1022/10 में उद्धृत</span>–<span class="SanskritText">निमित्तांतरं तत्र योग्यता वस्तुनि स्थिता। बहिर्निश्चयकालस्तु निश्चितं तत्त्वदर्शिभि:।1।</span>=<span class="HindiText">तीहिं वस्तुविषै तिष्ठती परिणमन रूप जो योग्यता सो अंतरंग निमित्त है बहुरि तिस परिणमन का निश्चयकाल बाह्य निमित्त है, ऐसे तत्त्व दर्शीनिकरि निश्चय किया है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="II.1.9" id="II.1.9">निमित्त के सद्भाव में भी परिणमन तो स्वत: ही होता है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/95 </span><span class="SanskritText"> द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचितबहिरंगसाधनसंनिधिसद्भावे विचित्रबहुतरावस्थानं स्वरूपकर्तृकरणसामर्थ्यस्वभावेनांतरंगसाधनतामुपागतेनानुगृहीतमुत्तरावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते।</span>=<span class="HindiText">जिसने पूर्व अवस्था प्राप्त की है ऐसा द्रव्य भी जो कि उचित बहिरंग साधनों के सान्निध्य के सद्भाव में अनेक प्रकार की बहुत सी अवस्थाएँ करता है वह-अंतरंग साधनभूत | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/95 </span><span class="SanskritText"> द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचितबहिरंगसाधनसंनिधिसद्भावे विचित्रबहुतरावस्थानं स्वरूपकर्तृकरणसामर्थ्यस्वभावेनांतरंगसाधनतामुपागतेनानुगृहीतमुत्तरावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते।</span>=<span class="HindiText">जिसने पूर्व अवस्था प्राप्त की है ऐसा द्रव्य भी जो कि उचित बहिरंग साधनों के सान्निध्य के सद्भाव में अनेक प्रकार की बहुत सी अवस्थाएँ करता है वह-अंतरंग साधनभूत स्वरूप कर्ता और स्वरूप करण के सामर्थ्यरूप स्वभाव से अनुगृहीत होने पर उत्तर अवस्था से उत्पन्न होता हुआ उत्पाद से लक्षित होता है। <span class="GRef">( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/96, 124 )</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/79 </span><span class="SanskritText"> शब्दयोग्यवर्गणाभिरन्योन्यमनुप्रविश्य समंततोऽभिव्याप्य पूरितेऽपि सकले लोके यत्र यत्र बहिरंगकारणसामग्री समुदेति तत्र तत्र ता: शब्दत्वेन स्वयं व्यपरिणमंत इति शब्दस्य नियतमुत्पाद्यत्वात् स्कंधप्रभवत्वमिति।</span>=<span class="HindiText">एक दूसरे में प्रविष्ट होकर सर्वत्र व्याप्त होकर स्थित ऐसी जो | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/79 </span><span class="SanskritText"> शब्दयोग्यवर्गणाभिरन्योन्यमनुप्रविश्य समंततोऽभिव्याप्य पूरितेऽपि सकले लोके यत्र यत्र बहिरंगकारणसामग्री समुदेति तत्र तत्र ता: शब्दत्वेन स्वयं व्यपरिणमंत इति शब्दस्य नियतमुत्पाद्यत्वात् स्कंधप्रभवत्वमिति।</span>=<span class="HindiText">एक दूसरे में प्रविष्ट होकर सर्वत्र व्याप्त होकर स्थित ऐसी जो स्वभाव निष्पन्न अनंत परमाणुमयी शब्द योग्य वर्गणाएँ, उनसे समस्त लोक भरपूर होने पर भी जहाँ-जहाँ बहिरंग कारण सामग्री उचित होती है वहाँ-वहाँ वे वर्गणाएँ शब्द रूप से स्वयं परिणमित होती हैं; इसलिए शब्द नियत रूप से उत्पाद्य होने से स्कंधजंय है। (और भी देखें [[ कारण#III.2 | कारण - III.2]])<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="II.2" id="II.2"> उपादान की कथंचित् प्रधानता</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="II.2.1" id="II.2.1">उपादान के अभाव में कार्य का भी अभाव</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला/9/4, 1, | <span class="GRef"> धवला/9/4, 1, 44/115/7 </span><span class="PrakritText"> ण चोवायाणकारणेण विणा कज्जुप्पत्ती, विरोहादो।</span>=<span class="HindiText">उपादान कारण के बिना, कार्य की उत्पत्ति संभव नहीं है, क्योंकि ऐसा होने में विरोध है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/60/112/12 </span><span class="SanskritText"> परस्परोपादानकर्तृत्वं खलु स्फुटम् । नैव विनाभूते संजाते तु पुनस्ते द्रव्यभावकर्मणी द्वे। कं बिना। उपादानकर्तारं बिना, किंतु जीवगतरागादिभावानां जीव एव उपादानकर्ता द्रव्यकर्मणां कर्मवर्गणायोग्यपुद्गल एवेति।</span>=<span class="HindiText">जीव व कर्म में परस्पर उपादान कर्तापना स्पष्ट है, क्योंकि बिना | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/60/112/12 </span><span class="SanskritText"> परस्परोपादानकर्तृत्वं खलु स्फुटम् । नैव विनाभूते संजाते तु पुनस्ते द्रव्यभावकर्मणी द्वे। कं बिना। उपादानकर्तारं बिना, किंतु जीवगतरागादिभावानां जीव एव उपादानकर्ता द्रव्यकर्मणां कर्मवर्गणायोग्यपुद्गल एवेति।</span>=<span class="HindiText">जीव व कर्म में परस्पर उपादान कर्तापना स्पष्ट है, क्योंकि बिना उपादान कर्ता के वे दोनों द्रव्य व भाव कर्म होने संभव नहीं हैं। तहाँ जीवगत रागादि भाव कर्मों का तो जीव उपादान कर्ता है और द्रव्य कर्मों का कर्म वर्गणा योग्य पुद्गल उपादान कर्ता है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="II.2.2" id="II.2.2"> उपादान से ही कार्य की उत्पत्ति होती है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला/6/1,9-6/19/164 </span><span class="PrakritText">तम्हा कम्हि वि अंतरंगकारणादो चेव कज्जुप्पत्ती होदि त्ति णिच्छओ कायव्वो।</span> =<span class="HindiText">कहीं भी अंतरंग कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है, ऐसा निश्चय करना चाहिए (क्योंकि | <span class="GRef"> धवला/6/1,9-6/19/164 </span><span class="PrakritText">तम्हा कम्हि वि अंतरंगकारणादो चेव कज्जुप्पत्ती होदि त्ति णिच्छओ कायव्वो।</span> =<span class="HindiText">कहीं भी अंतरंग कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है, ऐसा निश्चय करना चाहिए (क्योंकि बाह्य कारणों से उत्पत्ति मानने में शाली के बीज से जौ की उत्पत्ति का प्रसंग होगा)।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="II.2.3" id="II.2.3">अंतरंग कारण ही बलवान है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला/12/4, 2, 748/36/6 </span><span class="PrakritText">ण केवलमकसायपरिणामो चेव अणुभागघादस्स कारणं, किं पयडिगयसत्तिसव्वपेक्खो परिणामो अणुभागघादस्स कारणं। तत्थ वि पहाणमंतरंगकारणं, तम्हि उक्कस्से संते बहिरंगकारणे थोवे वि बहुअणुभागघाददंसणादो, अंतरंगकारणे थोवे संते बहिरंगकारणे बहुए संते वि बहुअणुभागघादाणुवलंभादो।</span>=<span class="HindiText">केवल अकषाय परिणाम ही (कर्मों के) | <span class="GRef"> धवला/12/4, 2, 748/36/6 </span><span class="PrakritText">ण केवलमकसायपरिणामो चेव अणुभागघादस्स कारणं, किं पयडिगयसत्तिसव्वपेक्खो परिणामो अणुभागघादस्स कारणं। तत्थ वि पहाणमंतरंगकारणं, तम्हि उक्कस्से संते बहिरंगकारणे थोवे वि बहुअणुभागघाददंसणादो, अंतरंगकारणे थोवे संते बहिरंगकारणे बहुए संते वि बहुअणुभागघादाणुवलंभादो।</span>=<span class="HindiText">केवल अकषाय परिणाम ही (कर्मों के) अनुभाग घात का कारण नहीं है, किंतु प्रकृति गत शक्ति की अपेक्षा रखने वाला परिणाम अनुभाग घात का कारण है। उसमें भी अंतरंग कारण प्रधान है, उसके उत्कृष्ट होने पर बहिरंग कारण के स्तोक रहने पर भी अनुभाग घात बहुत देखा जाता है। तथा अंतरंग कारण के स्तोक होने पर बहिरंग कारण के बहुत होते हुए भी अनुभाग घात बहुत नहीं उपलब्ध होता।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला/14/5,6, 93/90/1 </span><span class="PrakritText">ण बहिरंगहिंसाए आसवत्ताभावो। तं कुदो णव्वदे। तदभावे वि अंतरंगहिंसादो चेव सित्थमच्छस्स बंधुवलभादो। जेण विणा जं ण होदि चेव तं तस्स कारणं। तम्हा अंतरंग हिंसा चेव सुद्धणएण हिंसा ण बहिरंगा त्ति सिद्धं। ण च अंतरंगहिंसा एत्थ अत्थि कसायासंजमाणमभावादो।</span>=<span class="HindiText">(अप्रमत्त जनों को) बहिरंग हिंसा आस्रव रूप नहीं होती? <strong>प्रश्न</strong>–यह किस प्रमाण से जाना जाता है? <strong>उत्तर</strong>–क्योंकि बहिरंग हिंसा का अभाव होने पर भी केवल अंतरंग हिंसा से सिक्थमत्स्य के बंध की उपलब्धि होती है। जिसके बिना जो नहीं होता है वह उसका कारण है, इसलिए शुद्ध नय से अंतरंग हिंसा ही हिंसा है, बहिरंग नहीं यह बात सिद्ध होती है। यहाँ (अप्रमत्त साधुओं में) अंतरंग हिंसा नहीं है, क्योंकि कषाय और असंयम का अभाव है।</span><br /> | <span class="GRef"> धवला/14/5,6, 93/90/1 </span><span class="PrakritText">ण बहिरंगहिंसाए आसवत्ताभावो। तं कुदो णव्वदे। तदभावे वि अंतरंगहिंसादो चेव सित्थमच्छस्स बंधुवलभादो। जेण विणा जं ण होदि चेव तं तस्स कारणं। तम्हा अंतरंग हिंसा चेव सुद्धणएण हिंसा ण बहिरंगा त्ति सिद्धं। ण च अंतरंगहिंसा एत्थ अत्थि कसायासंजमाणमभावादो।</span>=<span class="HindiText">(अप्रमत्त जनों को) बहिरंग हिंसा आस्रव रूप नहीं होती? <strong>प्रश्न</strong>–यह किस प्रमाण से जाना जाता है? <strong>उत्तर</strong>–क्योंकि बहिरंग हिंसा का अभाव होने पर भी केवल अंतरंग हिंसा से सिक्थमत्स्य के बंध की उपलब्धि होती है। जिसके बिना जो नहीं होता है वह उसका कारण है, इसलिए शुद्ध नय से अंतरंग हिंसा ही हिंसा है, बहिरंग नहीं यह बात सिद्ध होती है। यहाँ (अप्रमत्त साधुओं में) अंतरंग हिंसा नहीं है, क्योंकि कषाय और असंयम का अभाव है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/227 </span><span class="SanskritText">यस्य... सकलाशनतृष्णाशून्यत्वात् स्वयमनशन एव स्वभाव:। तदेव तस्यानशनं नाम तपोऽंतरंगस्य बलीयस्त्वात्...।</span>=<span class="HindiText">समस्त अनशन की तृष्णा से रहित होने से जिसका स्वयं अनशन ही स्वभाव है, वही उसके अनशन नामक तप है, क्योंकि अंतरंग की विशेष बलवत्ता है।</span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/227 </span><span class="SanskritText">यस्य... सकलाशनतृष्णाशून्यत्वात् स्वयमनशन एव स्वभाव:। तदेव तस्यानशनं नाम तपोऽंतरंगस्य बलीयस्त्वात्...।</span>=<span class="HindiText">समस्त अनशन की तृष्णा से रहित होने से जिसका स्वयं अनशन ही स्वभाव है, वही उसके अनशन नामक तप है, क्योंकि अंतरंग की विशेष बलवत्ता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/238 </span><span class="SanskritText">आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्येऽप्यात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमंतव्यम्।</span> =<span class="HindiText">आगम ज्ञान तत्त्वार्थ श्रद्धान और संतत्व की युगपतता होने पर भी आत्मज्ञान को ही | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/238 </span><span class="SanskritText">आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्येऽप्यात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमंतव्यम्।</span> =<span class="HindiText">आगम ज्ञान तत्त्वार्थ श्रद्धान और संतत्व की युगपतता होने पर भी आत्मज्ञान को ही मोक्ष मार्ग का साधकतम संमत करना।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/7/63/22 </span>पर उद्धृत—<span class="SanskritText">अव्यभिचारी मुख्योऽविकलोऽसाधारणोऽंतरंगश्च।</span>=<span class="HindiText">अव्यभिचारी, अविकल, असाधारण और अंतरंग अर्थ को मुख्य कहते हैं।</span><br /> | <span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/7/63/22 </span>पर उद्धृत—<span class="SanskritText">अव्यभिचारी मुख्योऽविकलोऽसाधारणोऽंतरंगश्च।</span>=<span class="HindiText">अव्यभिचारी, अविकल, असाधारण और अंतरंग अर्थ को मुख्य कहते हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> स्वयंभू स्तोत्र/59 | <span class="GRef"> स्वयंभू स्तोत्र/59 की टीका पृष्ठ 156 </span> <span class="SanskritText">अनेन भक्तिलक्षणशुभपरिणामहीनस्य पूजादिकं न पुण्यकारणं इत्युक्तं भवति। तत: अभ्यंतरंगशुभाशुभजीवपरिणामलक्षणं कारणं केवलं बाह्यवस्तुनिरपेक्षम्।</span> =<span class="HindiText">इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि भक्ति युक्त शुभ परिणामों से रहित पूजादिक पुण्य के कारण नहीं होते हैं। अत: बाह्य वस्तुओं से निरपेक्ष जीव के केवल अंतरंग शुभाशुभ परिणाम ही कारण है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="II.2.4" id="II.2.4"> विघ्नकारी कारण भी अंतरंग ही हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/92 </span><span class="SanskritText">यदयं स्वयमात्मा धर्मो भवति स खलु मनोरथ एव, तस्य त्वेका बहिर्मोदृष्टिरेव विहंत्री।</span>=<span class="HindiText">यह आत्मा स्वयं धर्म हो, यह वास्तव में मनोरथ है। इसमें विघ्न डालने वाली एक बहिर्मोदृष्टि ही है।</span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/92 </span><span class="SanskritText">यदयं स्वयमात्मा धर्मो भवति स खलु मनोरथ एव, तस्य त्वेका बहिर्मोदृष्टिरेव विहंत्री।</span>=<span class="HindiText">यह आत्मा स्वयं धर्म हो, यह वास्तव में मनोरथ है। इसमें विघ्न डालने वाली एक बहिर्मोदृष्टि ही है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/35/144/2 </span><span class="SanskritText">परमसमाधिर्दुर्लभ:। कस्मादिति चेत्तत्प्रतिबंधकमिथ्यात्वविषयकषायनिदानबंधादिविभावपरिणामानां प्रबलत्वादिति।</span>=<span class="HindiText">परमसमाधि दुर्लभ है। क्योंकि | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/35/144/2 </span><span class="SanskritText">परमसमाधिर्दुर्लभ:। कस्मादिति चेत्तत्प्रतिबंधकमिथ्यात्वविषयकषायनिदानबंधादिविभावपरिणामानां प्रबलत्वादिति।</span>=<span class="HindiText">परमसमाधि दुर्लभ है। क्योंकि परम समाधि को रोकने वाले मिथ्यात्व, विषय, कषाय, निदानबंध आदि जो विभाव परिणाम हैं, उनकी जीव में प्रबलता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/56/225/5 </span><span class="SanskritText"> नित्यनिरंजननिष्क्रियनिजशुद्धात्मानुभूतिप्रतिबंधकं शुभाशुभचेष्टारूपं कायव्यापारं... वचनव्यापारं...चित्तव्यापारं च किमपि मा कुरूत हे विवेकिजना:।</span>=<span class="HindiText">नित्य निरंजन निष्क्रिय निज शुद्धात्मा की अनुभूति के प्रतिबंधक जो शुभाशुभ मन वचन काय का व्यापार उसे हे | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/56/225/5 </span><span class="SanskritText"> नित्यनिरंजननिष्क्रियनिजशुद्धात्मानुभूतिप्रतिबंधकं शुभाशुभचेष्टारूपं कायव्यापारं... वचनव्यापारं...चित्तव्यापारं च किमपि मा कुरूत हे विवेकिजना:।</span>=<span class="HindiText">नित्य निरंजन निष्क्रिय निज शुद्धात्मा की अनुभूति के प्रतिबंधक जो शुभाशुभ मन वचन काय का व्यापार उसे हे विवेकी जनो ! तुम मत करो।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="II.3" id="II.3"> उपादान की कथंचित् परतंत्रता</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="II.3.1" id="II.3.1">निमित्त की अपेक्षा रखने वाला पदार्थ उस कार्य के प्रति स्वयं समर्थ नहीं हो सकता</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/5/30/11 </span><span class="SanskritText">समर्थोऽपि तत्तत्सहकारिसमवधाने तं समर्थं करोतीति चेत्, न तर्हि तस्य सामर्थ्यम्; अपरसहकारिसापेक्षवृत्तित्वात् । सापेक्षमसमर्थम् इति न्यायात् ।</span>=<span class="HindiText">यदि ऐसा माना जाये कि समर्थ होने पर भी अमुक सहकारी कारणों के मिलने पर ही पदार्थ अमुक कार्य को करता है तो इससे उस पदार्थ की असमर्थता ही सिद्ध होती है, क्योंकि वह दूसरों के सहयोग की अपेक्षा रखता है, न्याय का वचन भी है कि ‘‘जो दूसरों की अपेक्षा रखता है। वह असमर्थ है। <br /> | <span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/5/30/11 </span><span class="SanskritText">समर्थोऽपि तत्तत्सहकारिसमवधाने तं समर्थं करोतीति चेत्, न तर्हि तस्य सामर्थ्यम्; अपरसहकारिसापेक्षवृत्तित्वात् । सापेक्षमसमर्थम् इति न्यायात् ।</span>=<span class="HindiText">यदि ऐसा माना जाये कि समर्थ होने पर भी अमुक सहकारी कारणों के मिलने पर ही पदार्थ अमुक कार्य को करता है तो इससे उस पदार्थ की असमर्थता ही सिद्ध होती है, क्योंकि वह दूसरों के सहयोग की अपेक्षा रखता है, न्याय का वचन भी है कि ‘‘जो दूसरों की अपेक्षा रखता है। वह असमर्थ है। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="II.3.2" id="II.3.2"> व्यावहारिक कार्य करने में उपादान निमित्तों के आधीन है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/10/8 </span><span class="SanskritText"> धर्मास्तिकायाभावात् ।</span>=<span class="HindiText">धर्मास्तिकाय का अभाव होने से जीव लोकांत से ऊपर नहीं जाता। (विशेष देखें [[ धर्माधर्म ]])</span><br /> | <span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/10/8 </span><span class="SanskritText"> धर्मास्तिकायाभावात् ।</span>=<span class="HindiText">धर्मास्तिकाय का अभाव होने से जीव लोकांत से ऊपर नहीं जाता। (विशेष देखें [[ धर्माधर्म ]])</span><br /> | ||
पभू../सू./1/66 <span class="PrakritGatha">अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ। भुवणत्तयहं वि मज्झि जिय विह आणइ विहि णेइ।66।</span>=<span class="HindiText">हे जीव ! यह आत्मा पंगु के समान है। आप न कहीं जाता है, न आता है। तीनों लोकों में इस जीव को कर्म ही ले जाता है और कर्म ही ले आता है।</span><br /> | पभू../सू./1/66 <span class="PrakritGatha">अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ। भुवणत्तयहं वि मज्झि जिय विह आणइ विहि णेइ।66।</span>=<span class="HindiText">हे जीव ! यह आत्मा पंगु के समान है। आप न कहीं जाता है, न आता है। तीनों लोकों में इस जीव को कर्म ही ले जाता है और कर्म ही ले आता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> आप्तपरीक्षा/114-115/296-297/246-247 </span><span class="SanskritText">जीवं परतंत्रीकुर्वंति, स परतंत्रीक्रियते वा यैस्तानि कर्माणि।...तानि च पुद्गलपरिणामात्मकानि जीवस्य पारतंत्र्यनिमित्तत्वात्, निगडादिवत्। क्रोधादिभिर्व्यभिचार इति चेत्, न,....पारतंत्र्यं हि क्रोधादिपरिणामो न पुन: पारतंत्र्यनिमित्तम्।296। ननु च ज्ञानावरण...जीवस्वरूपघातित्वात्पारतंत्र्यनिमित्तत्वं न पुनर्नामगोत्रसद्वेद्यायुषाम् तेषामात्मस्वरूपाघातित्वात्पारतंत्र्यनिमित्तत्वासिद्धेरिति पक्षाव्यापको हेतु:।...न; तेषामपि जीवस्वरूपसिद्धत्वप्रतिबंधत्वात्पारतंत्र्यनिमित्तत्वोपपत्ते:। कथमेवं तेषामघातिकर्मत्वं। इति चेत्, जीवंमुक्तलक्षणपरमार्हंत्यलक्ष्मीघातित्वाभावादिति ब्रूमहे।297।</span>=<span class="HindiText">जो जीव को परतंत्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतंत्र किया जाता है उन्हें कर्म कहते हैं। वे सब | <span class="GRef"> आप्तपरीक्षा/114-115/296-297/246-247 </span><span class="SanskritText">जीवं परतंत्रीकुर्वंति, स परतंत्रीक्रियते वा यैस्तानि कर्माणि।...तानि च पुद्गलपरिणामात्मकानि जीवस्य पारतंत्र्यनिमित्तत्वात्, निगडादिवत्। क्रोधादिभिर्व्यभिचार इति चेत्, न,....पारतंत्र्यं हि क्रोधादिपरिणामो न पुन: पारतंत्र्यनिमित्तम्।296। ननु च ज्ञानावरण...जीवस्वरूपघातित्वात्पारतंत्र्यनिमित्तत्वं न पुनर्नामगोत्रसद्वेद्यायुषाम् तेषामात्मस्वरूपाघातित्वात्पारतंत्र्यनिमित्तत्वासिद्धेरिति पक्षाव्यापको हेतु:।...न; तेषामपि जीवस्वरूपसिद्धत्वप्रतिबंधत्वात्पारतंत्र्यनिमित्तत्वोपपत्ते:। कथमेवं तेषामघातिकर्मत्वं। इति चेत्, जीवंमुक्तलक्षणपरमार्हंत्यलक्ष्मीघातित्वाभावादिति ब्रूमहे।297।</span>=<span class="HindiText">जो जीव को परतंत्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतंत्र किया जाता है उन्हें कर्म कहते हैं। वे सब पुद्गल परिणामात्मक हैं, क्योंकि वे जीव की परतंत्रता में कारण हैं जैसे निगड (बेड़ी) आदि। <strong>प्रश्न</strong>–उपयुक्त हेतु क्रोधादि के साथ व्यभिचारी है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि जीव के क्रोधादि भाव स्वयं परतंत्रता है, परतंत्रता का कारण नहीं।296। <strong>प्रश्न</strong>–ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्म ही जीवस्वरूप घातक होने से परतंत्रता के कारण हैं, नाम गोत्र आदि अघाति कर्म नहीं, क्योंकि वे जीव के स्वरूपघातक नहीं हैं। अत: उनके परतंत्रता की कारणता असिद्ध है और इसलिए (उपरोक्त) हेतु पक्षव्यापक है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि नामादि अघातीकर्म भी जीव सिद्धत्वस्वरूप के प्रतिबंधक हैं, और इसलिए उनके भी परतंत्रता की कारणता उपपन्न है। <strong>प्रश्न</strong>–तो फिर उन्हें अघाती कर्म क्यों कहा जाता है? <strong>उत्तर</strong>–जीवन्मुक्तिरूप आर्हंत्य लक्ष्मी के घातक नहीं हैं, इसलिए उन्हें हम अघातिकर्म कहते हैं। <span class="GRef">( राजवार्तिक/5/24/9/488/20 )</span>, <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/244/508/2 )</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/279/ </span> | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/279/ कलश 275</span> <span class="SanskritText">न जातु रागादिनिमित्तभावमात्मात्मनो याति यथार्ककांत:। तस्मिन्निमित्तं परसंग एव, वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत्।275।</span>=<span class="HindiText">सूर्यकांत मणि की भाँति आत्मा अपने को रागादि का निमित्त कभी भी नहीं होता। (जिस प्रकार वह मणि सूर्य के निमित्त से ही अग्नि रूप परिणमन करती है, उसी प्रकार आत्मा को भी रागादिरूप परिणमन करने में) पर-संग ही निमित्त है। ऐसा वस्तु स्वभाव प्रकाशमान है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/5 </span><span class="SanskritText">इंद्रियमन:परोपदेशावलोकादिबहिरंगनिमित्तभूतात् ....उपलब्धेरर्थावधारणरूप ... यद्विज्ञानं तत्पराधीनत्वात्परोक्षमित्युच्यते।</span>=<span class="HindiText">इंद्रिय, मन, परोपदेश तथा प्रकाशादि बहिरंग निमित्तों से उपलब्ध होने वाला जो अर्थाविधारण रूप विज्ञान वह पराधीन होने के कारण परोक्ष कहा जाता है।</span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/5 </span><span class="SanskritText">इंद्रियमन:परोपदेशावलोकादिबहिरंगनिमित्तभूतात् ....उपलब्धेरर्थावधारणरूप ... यद्विज्ञानं तत्पराधीनत्वात्परोक्षमित्युच्यते।</span>=<span class="HindiText">इंद्रिय, मन, परोपदेश तथा प्रकाशादि बहिरंग निमित्तों से उपलब्ध होने वाला जो अर्थाविधारण रूप विज्ञान वह पराधीन होने के कारण परोक्ष कहा जाता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/14/44/10 </span><span class="SanskritText">(जीवप्रदेशानां) विस्तारश्च शरीरनामकर्माधीन एव न च स्वभावस्तेन कारणेन शरीराभावे विस्तारो न भवति।</span>=<span class="HindiText">(जीव के प्रदेशों का संहार तथा) विस्तार शरीर नामक नामकर्म के आधीन है, जीव का स्वभाव नहीं है। इस कारण जीव के इस शरीर का अभाव होने पर प्रदेशों का (संहार या) विस्तार नहीं होता है।</span><br /> | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/14/44/10 </span><span class="SanskritText">(जीवप्रदेशानां) विस्तारश्च शरीरनामकर्माधीन एव न च स्वभावस्तेन कारणेन शरीराभावे विस्तारो न भवति।</span>=<span class="HindiText">(जीव के प्रदेशों का संहार तथा) विस्तार शरीर नामक नामकर्म के आधीन है, जीव का स्वभाव नहीं है। इस कारण जीव के इस शरीर का अभाव होने पर प्रदेशों का (संहार या) विस्तार नहीं होता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> स्वयंभू स्तोत्र/ </span> | <span class="GRef"> स्वयंभू स्तोत्र/ टीका/62/162 </span> <span class="SanskritText">‘‘उपादानकारणं सहकारिकारणमपेक्षते। तच्चोपादानकारणं न च सर्वेण सर्वमपेक्ष्यते। किंतु यद्येन अपेक्ष्यमाणं दृश्यते तत्तेनापेक्ष्यते।’’ </span>=<span class="HindiText">उपादान कारण सहकारी कारण की अपेक्षा करता है। सर्व ही उपादान कारणों से सभी सहकारी कारण अपेक्षित होते हों सो भी नहीं। जो जिसके द्वारा अपेक्ष्यमाण होता है वही उसके द्वारा अपेक्षित होता है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="II.3.3" id="II.3.3">जैसा-जैसा कारण मिलता है वैसा-वैसा ही कार्य होता है–</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/4/42/7/251/12 </span><span class="SanskritText">नापि स्वत एव, परापेक्षाभावे तद्व्यक्त्यभावात् । तस्मात्तस्यानंतपरिणामस्य द्रव्यस्य तत्तत्सहकारिकारणं प्रतीत्य तत्तद्रूपं वक्ष्यते। न तत् स्वत एव नापि परकृतमेव।</span><span class="HindiText">=जीवों के सर्व भेद प्रभेद स्वत: नहीं हैं, क्योंकि पर की अपेक्षा के अभाव में उन भेदों की व्यक्ति का अभाव है। इसलिए अनंत परिणामी द्रव्य ही उन-उन सहकारी कारणों की अपेक्षा उन-उन रूप से व्यवहार में आता है। यह बात न स्वत: होती है और न परकृत ही है।</span><br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/4/42/7/251/12 </span><span class="SanskritText">नापि स्वत एव, परापेक्षाभावे तद्व्यक्त्यभावात् । तस्मात्तस्यानंतपरिणामस्य द्रव्यस्य तत्तत्सहकारिकारणं प्रतीत्य तत्तद्रूपं वक्ष्यते। न तत् स्वत एव नापि परकृतमेव।</span><span class="HindiText">=जीवों के सर्व भेद प्रभेद स्वत: नहीं हैं, क्योंकि पर की अपेक्षा के अभाव में उन भेदों की व्यक्ति का अभाव है। इसलिए अनंत परिणामी द्रव्य ही उन-उन सहकारी कारणों की अपेक्षा उन-उन रूप से व्यवहार में आता है। यह बात न स्वत: होती है और न परकृत ही है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला/12/4, 2, 13, 243/453/7 </span><span class="PrakritText">कधमेगो परिणामो भिण्णकज्जकारओ। ण सहकारिकारणसंबंधभेएणतस्स तदविरोहादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–एक परिणाम भिन्न कार्यों को करने वाला कैसे हो सकता है (ज्ञानावरणीय के बंध योग्य परिणाम आयु कर्म को भी कैसे बाँध सकता है) ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, सहकारी कारणों के संबंध से उसके भिन्न कार्यों के करने में कोई विरोध नहीं है। | <span class="GRef"> धवला/12/4, 2, 13, 243/453/7 </span><span class="PrakritText">कधमेगो परिणामो भिण्णकज्जकारओ। ण सहकारिकारणसंबंधभेएणतस्स तदविरोहादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–एक परिणाम भिन्न कार्यों को करने वाला कैसे हो सकता है (ज्ञानावरणीय के बंध योग्य परिणाम आयु कर्म को भी कैसे बाँध सकता है) ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, सहकारी कारणों के संबंध से उसके भिन्न कार्यों के करने में कोई विरोध नहीं है। <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/76/134 )</span>–(देखें पीछे [[कारण#II.1.9 | कारण - II.1.9]])।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="II.3.4" id="II.3.4"> उपादान को ही स्वयं सहकारी मानने में दोष—</strong></span><strong> <BR></strong><span class="GRef"> आप्तमीमांसा/21 </span><span class="SanskritText">एवं विधिनिषेधाभ्यामनवस्थितमर्थकृत् । नेत्ति चेन्न यथा कार्यं बहिरंतरुपाधिभि:।21।</span> =<span class="HindiText">पूर्वोक्त सप्तभंगी विषै विधि निषेधकरि अनवस्थित जीवादि वस्तु हैं सो अर्थ क्रिया को करै हैं। बहुरि अन्यवादी केवल अंतरंग कारण से ही कार्य होना मानै तैसा नाहीं है। वस्तु को सर्वथा सत् या सर्वथा असत् मानने से, जैसा कार्य सिद्ध होना बाह्य अंतरंग सहकारी कारण अर उपादान कारणनि करि माना है तैसा नाहीं सिद्ध होय है। तिसकी विशेष चर्चा अष्टसहस्री तै जानना। (देखें [[ धर्माधर्म#3|धर्माधर्म-3 ]] तथा देखें [[काल#2|काल#2]]) यदि उपादान को ही सहकारी कारण भी माना जायेगा तो लोक में जीव पुद्गल दो ही द्रव्य मानने होंगे। </span></li> | ||
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Latest revision as of 14:40, 27 November 2023
- उपादान की कथंचित् स्वतंत्रता
- अन्य अन्य को अपने रूप नहीं कर सकता
- अन्य स्वयं अन्य रूप नहीं हो सकता
- निमित्त किसी में अनहोनी शक्ति उत्पन्न नहीं करा सकता
- स्वभाव दूसरे की अपेक्षा नहीं करता
- और परिणमन करना द्रव्य का स्वभाव है
- उपादान अपने परिणमन में स्वतंत्र है
- उपादान के परिणमन में निमित्त की प्रधानता नहीं होती
- परिणमन में उपादान की योग्यता ही प्रधान है
- निमित्त के सद्भाव में भी परिणमन तो स्वत: ही होता है
- उपादान की कथंचित् प्रधानता
- उपादान के अभाव में कार्य का भी अभाव
- उपादान से ही कार्य की उत्पत्ति होती है
- अंतरंग कारण ही बलवान है
- विघ्नकारी कारण भी अंतरंग ही हैं
- उपादान की कथंचित् परतंत्रता
- निमित्त की अपेक्षा रखने वाला पदार्थ उस कार्य के प्रति स्वयं समर्थ नहीं हो सकता
- व्यावहारिक कार्य करने में उपादान निमित्तों के आधीन है
- जैसा-जैसा कारण मिलता है वैसा-वैसा ही कार्य होता है
- उपादान को ही स्वयं सहकारी मानने में दोष
- उपादान कारण की मुख्यता गौणता
- उपादान की कथंचित् स्वतंत्रता
- अन्य अन्य को अपने रूप नहीं कर सकता
योगसार/अमितगति/9/46 सर्वे भावा: स्वस्वभावव्यवस्थिता:। न शक्यंतेऽंयथा कर्तुं ते परेण कदाचन।46।=समस्त पदार्थ स्वभाव से ही अपने स्वरूप में स्थित हैं, वे कभी पर पदार्थ से अन्यथा रूप नहीं किये जा सकते अर्थात् कभी पर पदार्थ उन्हें अपने रूप में परिणमन नहीं करा सकता।
- अन्य स्वयं अन्य रूप नहीं हो सकता
राजवार्तिक/1/9/10/45/20 मनश्चेंद्रियं चास्य कारणमिति चेत्; न; तस्य तच्छक्त्यभावात् । मनस्तावन्न कारणम् विनष्टत्वात् । नेंद्रियमप्यतीतम्; तत एव।=मनरूप इंद्रिय को ज्ञान का कारण कहना उचित नहीं है, क्योंकि उसमें वह शक्ति ही नहीं है। ‘छहों ज्ञानों के लिए एक क्षण पूर्व का ज्ञान मन होता है’ यह उन बौद्धों का सिद्धांत है। इसलिए अतीतज्ञान रूप मन इंद्रिय भी नहीं हो सकता। (विशेष देखो कर्ता-3)
- निमित्त किसी में अनहोनी शक्ति उत्पन्न नहीं करा सकता
धवला/1/1,1,163/404/1 न हि स्वतोऽसमर्थोऽन्यत: समर्थो भवत्यतिप्रसंगात् ।= (मानुषोत्तर पर्वत के उस तरफ देवों की प्रेरणा से भी मनुष्यों का गमन नहीं हो सकता), क्योंकि ऐसा न्याय है कि जो स्वयं असमर्थ होता है वह दूसरों के संबंध से भी समर्थ नहीं हो सकता।
समयसार / आत्मख्याति/118-119 न हि स्वतोऽसती शक्ति: कर्तुमन्येन पार्यते।=जो शक्ति (वस्तु में) स्वत: न हो उसे अन्य कोई नहीं कर सकता। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/62 )
- स्वभाव दूसरे की अपेक्षा नहीं करता
समयसार / आत्मख्याति/119 न हि वस्तु शक्तय: परमपेक्षंते।=वस्तु की शक्तियाँ पर की अपेक्षा नहीं रखतीं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/19 स्वभावस्य तु परानपेक्षत्वादिंद्रियैर्विनाप्यात्मनो ज्ञानानंदौ संभवत:। = (ज्ञान और आनंद आत्मा का स्वभाव ही है); और स्वभाव पर की अपेक्षा नहीं करता इसलिए इंद्रियों के बिना भी (केवलज्ञानी) आत्मा के ज्ञान आनंद होता है। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका )
- और परिणमन करना द्रव्य का स्वभाव है
प्रवचनसार/96 सब्भावो हि सभावो गुणेहिं सगपज्जएहिं चित्तेहिं। दव्वस्स सव्वकालं उप्पादव्वयधुवत्तेहिं।96।=सर्व लोक में गुण तथा अपनी अनेक प्रकार की पर्यायों से और उत्पाद व्यय ध्रौव्य से द्रव्य का जो अस्तित्व है वह वास्तव में स्वभाव है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/96 गुणेभ्य: पर्यायेभ्यश्च पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृकरणाधिकरणरूपेण द्रव्यस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तैर्गुणै: पर्यायैश्च ...यदस्तित्वं स स्वभाव:। =जो गुणों और पर्यायों से पृथक् नहीं दिखाई देता, कर्ता करण अधिकरणरूप से द्रव्य के स्वरूप को धारण करके प्रवर्त्तमान द्रव्य का जो अस्तित्व है, वह स्वभाव है।
- उपादान अपने परिणमन में स्वतंत्र है
समयसार/91 जं कुणइ भावमादा कत्ता स होदि तस्स भावस्स। कम्मत्तं परिणमदे तम्हि सयं पुग्गलं दव्वं।=आत्मा जिस भाव को करता है, उस भाव का वह कर्ता होता है। उसके कर्ता होने पर पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्म रूप परिणमित होता है। ( समयसार/80-81 ); ( समयसार / आत्मख्याति/105 ); ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/12 ); (और भी देखो कारण-III.3.1)।
समयसार/119 अह सयमेव हि परिणमदि कम्मभावेण पुग्गलं दव्वं। जीवो परिणामयदे कम्मं कम्मत्तमिदि मिच्छा।119।=अथवा यदि पुद्गलद्रव्य अपने आप ही कर्मभाव से परिणमन करता है ऐसा माना जाये, तो जीव कर्म को अर्थात् पुद्गलद्रव्य को परिणमन कराता है यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है ‘‘तत: पुद्गलद्रव्यं परिणामस्वभावं स्वयमेवास्तु’’ अत: पुद्गल द्रव्य परिणाम स्वभावी स्वयमेव हो (आत्मख्याति)।
प्रवचनसार/15 उवओगविसुद्धो जो विगदावरणांतरायमोहरओ। भूदो सयमेवादा जादि पारं णेयभूदाणं।15।=जो उपयोग विशुद्ध है, वह आत्मा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अंतराय रज से रहित स्वयमेव होता हुआ ज्ञेयभूत पदार्थों के पार को प्राप्त होता है।
प्रवचनसार/167 दुपदेसादी खंधा सुहुमा वा बादरा स संठाणा। पुढविजलतेउवाऊ सगपरिणामेहिं जायंते।=द्विप्रदेशादिक स्कंध जो कि सूक्ष्म अथवा बादर होते हैं और संस्थानों (आकारों) सहित होते हैं, वे पृथिवी, जल, तेज और वायुरूप अपने परिणामों से होते हैं।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/219 कालाहलद्धि जुत्ता णाणा सत्तीहि संजुदा अत्था। परिणममाणा हि सयं ण सक्कदे को वि वारेदुं।=काल आदि लब्धियों से युक्त तथा नाना शक्तियों वाले पदार्थों को स्वयं परिणमन करते हुए कौन रोक सकता है।
पंचाध्यायी x`/760 उत्पद्यते विनश्यति सदिति यथास्वं प्रतिक्षणं यावत् । व्यवहारविशिष्टोऽयं नियतमनित्यनय: प्रसिद्ध स्यात् ।760।=सत् यथायोग्य प्रतिसमय में उत्पन्न होता है तथा विनष्ट होता है यह निश्चय से व्यवहार विशिष्ट अनित्य नय है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/932 तस्मात्सिद्धोऽस्ति सिद्धांतो दृङ्मोहंस्येतरस्य वा। उदयोऽनुदयो वाथ स्यादनन्यगति: स्वत:।=इसलिए यह सिद्धांत सिद्ध होता है कि दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय इन दोनों के उदय अथवा अनुदय ये दोनों ही स्वयं अनन्य गति हैं अर्थात् अपने आप होते हैं, परस्पर में एक दूसरे के निमित्त से नहीं होते।
- उपादान के परिणमन में निमित्त की प्रधानता नहीं होती
राजवार्तिक/1/2/12/20/19 यदिदं दर्शनमोहाख्यं कर्म तदात्मगुणघाति, कुतश्चिदात्मपरिणामादेवोपक्षीणशक्तिकं सम्यक्त्वाख्यां लभते। अतो न तदात्मपरिणामस्य प्रधानं कारणम्, आत्मैव स्वशक्त्या दर्शनपर्यायेणोत्पद्यत इति तस्यैव मोक्षकारणत्वं युक्तम् ।=दर्शन मोहनीय नाम के कर्म को आत्म विशुद्धि के द्वारा ही रसघात करके स्वल्पघाती क्षीण शक्तिक सम्यक्त्व कर्म बनाया जाता है। अत: यह सम्यक्त्व प्रकृति आत्मस्वरूप मोक्ष का प्रधान कारण नहीं हो सकती। आत्मा ही अपनी शक्ति से दर्शन पर्याय को धारण करता है अत: वही मोक्ष का कारण है।
राजवार्तिक/5/1/27/434/24 धर्माधर्माकाशपुद्गला: इति बहुवचनं स्वातंत्र्यप्रतिपत्त्यर्थं द्रष्टव्यम् । किं पुन: स्वातंत्र्यम् । धर्मादयो गत्याद्यपग्रहान् प्रति वर्तमाना: स्वयमेव तथा परिणमंते न परप्रत्ययाधीना तेषां प्रवृत्ति: इत्येतदत्र विवक्षितं स्वातंत्र्यम् । ननु च बाह्यद्रव्यादिनिमित्तवशात् परिणामिनां परिणाम उपलभ्यते, स च स्वातंत्र्ये सति विरुध्यत इति: नैष दोष:;बाह्यस्य निमित्तमात्रत्वात् । न हि गत्यादिपरिणामिनो जीवपुद्गला: गत्याद्युपग्रहे धर्मादीनां प्रेरका:।=सूत्र में ‘धर्माधर्माकाशपुद्गला:’ यहाँ बहुवचन स्वातंत्र्य की प्रतिपत्ति के लिए है। प्रश्न–वह स्वातंत्र्य क्या है? उत्तर–इनका यही स्वातंत्र्य है कि ये स्वयं गति और स्थिति रूप से परिणत जीव और पुद्गलों की गति और स्थिति में स्वयं निमित्त होते हैं, जीव या पुद्गल इन्हें उकसाते नहीं हैं। इनकी प्रवृत्ति पराधीन नहीं है। प्रश्न–बाह्य द्रव्यादि के निमित्त से परिणामियों के परिणाम उपलब्ध होते हैं, और वह इस स्वातंत्र्य के मानने पर विरोध को प्राप्त होता है? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि बाह्य वस्तुएँ निमित्त मात्र होती हैं, परिणामक नहीं।
श्लोकवार्तिक/2/1/6/40-41/394 चक्षुरादिप्रमाणं चेदचेतनमपीष्यते। न साधकतमत्वस्याभावात्तस्याचित: सदा।40। चितस्तु भावनेत्रादे: प्रमाणत्वं न वार्यते। तत्साधकतमत्वस्य कथंचिदुपपत्तित:।41।=वैशेषिक व नैयायिक लोग नेत्र आदि इंद्रियों को प्रमाण मानते हैं, परंतु उनका कहना ठीक नहीं है; क्योंकि नेत्रादि जड़ हैं, उनके प्रमिति का प्रकृष्ट साधक पना सर्वदा नहीं है। प्रमिति का कारण वास्तव में ज्ञान ही है। जड़ इंद्रिय ज्ञप्ति के करण कदापि नहीं हो सकते, हाँ भावेंद्रियों के साधकतम पने की सिद्धि किसी प्रकार हो जाती है, क्योंकि भावेंद्रिय चेतनस्वरूप हैं और चेतन का प्रमाण पना हमें अभीष्ट है। ( श्लोकवार्तिक/2/1/6/29/377/23 ); ( परीक्षामुख/2/6-9 ); ( स्याद्वादमंजरी/16/208/23 ); ( न्यायदीपिका/2/5/27 )।
योगसार/अमितगति/5/18-19 ज्ञानदृष्टिचारित्राणि ह्रियंते नाक्षगोचरै:। क्रियंते न च गुर्वाद्यै: सेव्यमानैरनारतम् ।18। उत्पद्यंते विनश्यंति जीवस्य परिणामिन:। तत: स्वयं स दाता न परतो न कदाचन।19।=ज्ञान दर्शन और चारित्र का न तो इंद्रियों के विषयों से हरण होता है, और न गुरुओं की निरंतर सेवा से उनकी उत्पत्ति होती है, किंतु इस जीव के परिणमन शील होने से प्रति समय इसके गुणों की पर्याय पलटती हैं इसलिए मतिज्ञान आदि का उत्पाद न तो स्वयं जीव ही कर सकता है और न कभी पर पदार्थ से ही उनका उत्पाद विनाश हो सकता है।
द्रव्यसंग्रह टीका/22/67/3 तदेव (निश्चय सम्यक्त्वमेव) कालत्रयेऽपि मुक्ति कारणम् । कालस्तु तदभावे सहकारिकारणमपि न भवति।=वह निश्चय सम्यक्त्व ही सदा तीनों कालों में मुक्ति का कारण है। काल तो उसके अभाव में वीतराग चारित्र का सहकारी कारण भी नहीं हो सकता।
- परिणमन में उपादान की योग्यता ही प्रधान है
प्रवचनसार/ व तत्त्वप्रदीपिका/169 कम्मत्तणपाओग्गा खंधा जीवस्स परिणइं पप्पा। गच्छंति कम्मभावं ण हि ते जीवेण परिमिदा। (जीवं परिणमयितारमंतरेणापि कर्मत्वपरिणमनशक्तियोगिन: पुद्गलस्कंधा: स्वयमेव कर्मभावेन परिणमंति।=कर्मत्व के योग्य स्कंध जीव की परिणति को प्राप्त करके कर्म भाव को प्राप्त होते हैं, जीव उनको परिणमाता नहीं।169। अर्थात् जीव उसको परिणमाने वाला नहीं होने पर भी, कर्मरूप परिणमित होने वाले की योग्यता या शक्ति वाले पुद्गल स्कंध स्वयमेव कर्मभाव से परिणमित होते हैं।
इष्टोपदेश/ मूल/2 योग्योपादानयोगेन दृषद: स्वर्णता मता। द्रव्यादिस्वादिसंपत्तावात्मनोऽप्यात्मता।2। =जिस प्रकार स्वर्णरूप पाषाण में कारण; योग्य उपादान रूप करण के संबंध से पाषाण भी स्वर्ण हो जाता है, उसी तरह द्रव्यादि चतुष्टय रूप सुयोग्य संपूर्ण सामग्री के विद्यमान होने पर निर्मल चैतन्य स्वरूप आत्मा की उपलब्धि हो जाती है। ( मोक्षपाहुड़/24 )
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/44 केवलिनां प्रयत्नमंतरेणापि तथाविधयोग्यतासद्भावात् स्थानमासनं विहरणं धर्मदेशना च स्वभावभूता एव प्रवर्तंते।=केवली भगवान् के बिना ही प्रयत्न के उस प्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से खड़े रहने, बैठना, विहार और धर्म देशना स्वभावभूत ही प्रवर्तते हैं।
परीक्षामुख/2/9 स्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थं व्यवस्थापयति।9।=जाननेरूप अपनी शक्ति के क्षयोपशम रूप अपनी योग्यता से ही ज्ञान घटपटादि पदार्थों की जुदी जुदी रीति से व्यवस्था कर देता है। इसलिए विषय तथा प्रकाश आदि उसके कारण नहीं हैं। ( श्लोकवार्तिक/2/1/6/40-41/394 ); ( श्लोकवार्तिक/1/6/29/377/23 ); (प्रमाण परीक्षा/पृष्ठ 52,67); (प्रमेय कमल मार्तंड पृष्ठ 105); ( न्यायदीपिका/2/5/27 ); ( स्याद्वादमंजरी/16/209/10 )
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/106/168/12 शुद्धात्मस्वभावरूपव्यक्तियोग्यतासहितानां भव्यानामेव न च शुद्धात्मरूपव्यक्तियोग्यतारहितानामभव्यानाम् ।=शुद्धात्म स्वभावरूप व्यक्ति योग्यता सहित भव्यों को ही वह चारित्र होता है, शुद्धात्म स्वभावरूप व्यक्ति योग्यता रहित अभव्यों को नहीं।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/580/1022/10 में उद्धृत–निमित्तांतरं तत्र योग्यता वस्तुनि स्थिता। बहिर्निश्चयकालस्तु निश्चितं तत्त्वदर्शिभि:।1।=तीहिं वस्तुविषै तिष्ठती परिणमन रूप जो योग्यता सो अंतरंग निमित्त है बहुरि तिस परिणमन का निश्चयकाल बाह्य निमित्त है, ऐसे तत्त्व दर्शीनिकरि निश्चय किया है।
- निमित्त के सद्भाव में भी परिणमन तो स्वत: ही होता है
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/95 द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचितबहिरंगसाधनसंनिधिसद्भावे विचित्रबहुतरावस्थानं स्वरूपकर्तृकरणसामर्थ्यस्वभावेनांतरंगसाधनतामुपागतेनानुगृहीतमुत्तरावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते।=जिसने पूर्व अवस्था प्राप्त की है ऐसा द्रव्य भी जो कि उचित बहिरंग साधनों के सान्निध्य के सद्भाव में अनेक प्रकार की बहुत सी अवस्थाएँ करता है वह-अंतरंग साधनभूत स्वरूप कर्ता और स्वरूप करण के सामर्थ्यरूप स्वभाव से अनुगृहीत होने पर उत्तर अवस्था से उत्पन्न होता हुआ उत्पाद से लक्षित होता है। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/96, 124 )।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/79 शब्दयोग्यवर्गणाभिरन्योन्यमनुप्रविश्य समंततोऽभिव्याप्य पूरितेऽपि सकले लोके यत्र यत्र बहिरंगकारणसामग्री समुदेति तत्र तत्र ता: शब्दत्वेन स्वयं व्यपरिणमंत इति शब्दस्य नियतमुत्पाद्यत्वात् स्कंधप्रभवत्वमिति।=एक दूसरे में प्रविष्ट होकर सर्वत्र व्याप्त होकर स्थित ऐसी जो स्वभाव निष्पन्न अनंत परमाणुमयी शब्द योग्य वर्गणाएँ, उनसे समस्त लोक भरपूर होने पर भी जहाँ-जहाँ बहिरंग कारण सामग्री उचित होती है वहाँ-वहाँ वे वर्गणाएँ शब्द रूप से स्वयं परिणमित होती हैं; इसलिए शब्द नियत रूप से उत्पाद्य होने से स्कंधजंय है। (और भी देखें कारण - III.2)
- अन्य अन्य को अपने रूप नहीं कर सकता
- उपादान की कथंचित् प्रधानता
- उपादान के अभाव में कार्य का भी अभाव
धवला/9/4, 1, 44/115/7 ण चोवायाणकारणेण विणा कज्जुप्पत्ती, विरोहादो।=उपादान कारण के बिना, कार्य की उत्पत्ति संभव नहीं है, क्योंकि ऐसा होने में विरोध है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/60/112/12 परस्परोपादानकर्तृत्वं खलु स्फुटम् । नैव विनाभूते संजाते तु पुनस्ते द्रव्यभावकर्मणी द्वे। कं बिना। उपादानकर्तारं बिना, किंतु जीवगतरागादिभावानां जीव एव उपादानकर्ता द्रव्यकर्मणां कर्मवर्गणायोग्यपुद्गल एवेति।=जीव व कर्म में परस्पर उपादान कर्तापना स्पष्ट है, क्योंकि बिना उपादान कर्ता के वे दोनों द्रव्य व भाव कर्म होने संभव नहीं हैं। तहाँ जीवगत रागादि भाव कर्मों का तो जीव उपादान कर्ता है और द्रव्य कर्मों का कर्म वर्गणा योग्य पुद्गल उपादान कर्ता है।
- उपादान से ही कार्य की उत्पत्ति होती है
धवला/6/1,9-6/19/164 तम्हा कम्हि वि अंतरंगकारणादो चेव कज्जुप्पत्ती होदि त्ति णिच्छओ कायव्वो। =कहीं भी अंतरंग कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है, ऐसा निश्चय करना चाहिए (क्योंकि बाह्य कारणों से उत्पत्ति मानने में शाली के बीज से जौ की उत्पत्ति का प्रसंग होगा)। - अंतरंग कारण ही बलवान है
धवला/12/4, 2, 748/36/6 ण केवलमकसायपरिणामो चेव अणुभागघादस्स कारणं, किं पयडिगयसत्तिसव्वपेक्खो परिणामो अणुभागघादस्स कारणं। तत्थ वि पहाणमंतरंगकारणं, तम्हि उक्कस्से संते बहिरंगकारणे थोवे वि बहुअणुभागघाददंसणादो, अंतरंगकारणे थोवे संते बहिरंगकारणे बहुए संते वि बहुअणुभागघादाणुवलंभादो।=केवल अकषाय परिणाम ही (कर्मों के) अनुभाग घात का कारण नहीं है, किंतु प्रकृति गत शक्ति की अपेक्षा रखने वाला परिणाम अनुभाग घात का कारण है। उसमें भी अंतरंग कारण प्रधान है, उसके उत्कृष्ट होने पर बहिरंग कारण के स्तोक रहने पर भी अनुभाग घात बहुत देखा जाता है। तथा अंतरंग कारण के स्तोक होने पर बहिरंग कारण के बहुत होते हुए भी अनुभाग घात बहुत नहीं उपलब्ध होता।
धवला/14/5,6, 93/90/1 ण बहिरंगहिंसाए आसवत्ताभावो। तं कुदो णव्वदे। तदभावे वि अंतरंगहिंसादो चेव सित्थमच्छस्स बंधुवलभादो। जेण विणा जं ण होदि चेव तं तस्स कारणं। तम्हा अंतरंग हिंसा चेव सुद्धणएण हिंसा ण बहिरंगा त्ति सिद्धं। ण च अंतरंगहिंसा एत्थ अत्थि कसायासंजमाणमभावादो।=(अप्रमत्त जनों को) बहिरंग हिंसा आस्रव रूप नहीं होती? प्रश्न–यह किस प्रमाण से जाना जाता है? उत्तर–क्योंकि बहिरंग हिंसा का अभाव होने पर भी केवल अंतरंग हिंसा से सिक्थमत्स्य के बंध की उपलब्धि होती है। जिसके बिना जो नहीं होता है वह उसका कारण है, इसलिए शुद्ध नय से अंतरंग हिंसा ही हिंसा है, बहिरंग नहीं यह बात सिद्ध होती है। यहाँ (अप्रमत्त साधुओं में) अंतरंग हिंसा नहीं है, क्योंकि कषाय और असंयम का अभाव है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/227 यस्य... सकलाशनतृष्णाशून्यत्वात् स्वयमनशन एव स्वभाव:। तदेव तस्यानशनं नाम तपोऽंतरंगस्य बलीयस्त्वात्...।=समस्त अनशन की तृष्णा से रहित होने से जिसका स्वयं अनशन ही स्वभाव है, वही उसके अनशन नामक तप है, क्योंकि अंतरंग की विशेष बलवत्ता है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/238 आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्येऽप्यात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमंतव्यम्। =आगम ज्ञान तत्त्वार्थ श्रद्धान और संतत्व की युगपतता होने पर भी आत्मज्ञान को ही मोक्ष मार्ग का साधकतम संमत करना।
स्याद्वादमंजरी/7/63/22 पर उद्धृत—अव्यभिचारी मुख्योऽविकलोऽसाधारणोऽंतरंगश्च।=अव्यभिचारी, अविकल, असाधारण और अंतरंग अर्थ को मुख्य कहते हैं।
स्वयंभू स्तोत्र/59 की टीका पृष्ठ 156 अनेन भक्तिलक्षणशुभपरिणामहीनस्य पूजादिकं न पुण्यकारणं इत्युक्तं भवति। तत: अभ्यंतरंगशुभाशुभजीवपरिणामलक्षणं कारणं केवलं बाह्यवस्तुनिरपेक्षम्। =इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि भक्ति युक्त शुभ परिणामों से रहित पूजादिक पुण्य के कारण नहीं होते हैं। अत: बाह्य वस्तुओं से निरपेक्ष जीव के केवल अंतरंग शुभाशुभ परिणाम ही कारण है।
- विघ्नकारी कारण भी अंतरंग ही हैं
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/92 यदयं स्वयमात्मा धर्मो भवति स खलु मनोरथ एव, तस्य त्वेका बहिर्मोदृष्टिरेव विहंत्री।=यह आत्मा स्वयं धर्म हो, यह वास्तव में मनोरथ है। इसमें विघ्न डालने वाली एक बहिर्मोदृष्टि ही है।
द्रव्यसंग्रह टीका/35/144/2 परमसमाधिर्दुर्लभ:। कस्मादिति चेत्तत्प्रतिबंधकमिथ्यात्वविषयकषायनिदानबंधादिविभावपरिणामानां प्रबलत्वादिति।=परमसमाधि दुर्लभ है। क्योंकि परम समाधि को रोकने वाले मिथ्यात्व, विषय, कषाय, निदानबंध आदि जो विभाव परिणाम हैं, उनकी जीव में प्रबलता है।
द्रव्यसंग्रह टीका/56/225/5 नित्यनिरंजननिष्क्रियनिजशुद्धात्मानुभूतिप्रतिबंधकं शुभाशुभचेष्टारूपं कायव्यापारं... वचनव्यापारं...चित्तव्यापारं च किमपि मा कुरूत हे विवेकिजना:।=नित्य निरंजन निष्क्रिय निज शुद्धात्मा की अनुभूति के प्रतिबंधक जो शुभाशुभ मन वचन काय का व्यापार उसे हे विवेकी जनो ! तुम मत करो।
- उपादान के अभाव में कार्य का भी अभाव
- उपादान की कथंचित् परतंत्रता
- निमित्त की अपेक्षा रखने वाला पदार्थ उस कार्य के प्रति स्वयं समर्थ नहीं हो सकता
स्याद्वादमंजरी/5/30/11 समर्थोऽपि तत्तत्सहकारिसमवधाने तं समर्थं करोतीति चेत्, न तर्हि तस्य सामर्थ्यम्; अपरसहकारिसापेक्षवृत्तित्वात् । सापेक्षमसमर्थम् इति न्यायात् ।=यदि ऐसा माना जाये कि समर्थ होने पर भी अमुक सहकारी कारणों के मिलने पर ही पदार्थ अमुक कार्य को करता है तो इससे उस पदार्थ की असमर्थता ही सिद्ध होती है, क्योंकि वह दूसरों के सहयोग की अपेक्षा रखता है, न्याय का वचन भी है कि ‘‘जो दूसरों की अपेक्षा रखता है। वह असमर्थ है।
- व्यावहारिक कार्य करने में उपादान निमित्तों के आधीन है
तत्त्वार्थसूत्र/10/8 धर्मास्तिकायाभावात् ।=धर्मास्तिकाय का अभाव होने से जीव लोकांत से ऊपर नहीं जाता। (विशेष देखें धर्माधर्म )
पभू../सू./1/66 अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ। भुवणत्तयहं वि मज्झि जिय विह आणइ विहि णेइ।66।=हे जीव ! यह आत्मा पंगु के समान है। आप न कहीं जाता है, न आता है। तीनों लोकों में इस जीव को कर्म ही ले जाता है और कर्म ही ले आता है।
आप्तपरीक्षा/114-115/296-297/246-247 जीवं परतंत्रीकुर्वंति, स परतंत्रीक्रियते वा यैस्तानि कर्माणि।...तानि च पुद्गलपरिणामात्मकानि जीवस्य पारतंत्र्यनिमित्तत्वात्, निगडादिवत्। क्रोधादिभिर्व्यभिचार इति चेत्, न,....पारतंत्र्यं हि क्रोधादिपरिणामो न पुन: पारतंत्र्यनिमित्तम्।296। ननु च ज्ञानावरण...जीवस्वरूपघातित्वात्पारतंत्र्यनिमित्तत्वं न पुनर्नामगोत्रसद्वेद्यायुषाम् तेषामात्मस्वरूपाघातित्वात्पारतंत्र्यनिमित्तत्वासिद्धेरिति पक्षाव्यापको हेतु:।...न; तेषामपि जीवस्वरूपसिद्धत्वप्रतिबंधत्वात्पारतंत्र्यनिमित्तत्वोपपत्ते:। कथमेवं तेषामघातिकर्मत्वं। इति चेत्, जीवंमुक्तलक्षणपरमार्हंत्यलक्ष्मीघातित्वाभावादिति ब्रूमहे।297।=जो जीव को परतंत्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतंत्र किया जाता है उन्हें कर्म कहते हैं। वे सब पुद्गल परिणामात्मक हैं, क्योंकि वे जीव की परतंत्रता में कारण हैं जैसे निगड (बेड़ी) आदि। प्रश्न–उपयुक्त हेतु क्रोधादि के साथ व्यभिचारी है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि जीव के क्रोधादि भाव स्वयं परतंत्रता है, परतंत्रता का कारण नहीं।296। प्रश्न–ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्म ही जीवस्वरूप घातक होने से परतंत्रता के कारण हैं, नाम गोत्र आदि अघाति कर्म नहीं, क्योंकि वे जीव के स्वरूपघातक नहीं हैं। अत: उनके परतंत्रता की कारणता असिद्ध है और इसलिए (उपरोक्त) हेतु पक्षव्यापक है? उत्तर–नहीं, क्योंकि नामादि अघातीकर्म भी जीव सिद्धत्वस्वरूप के प्रतिबंधक हैं, और इसलिए उनके भी परतंत्रता की कारणता उपपन्न है। प्रश्न–तो फिर उन्हें अघाती कर्म क्यों कहा जाता है? उत्तर–जीवन्मुक्तिरूप आर्हंत्य लक्ष्मी के घातक नहीं हैं, इसलिए उन्हें हम अघातिकर्म कहते हैं। ( राजवार्तिक/5/24/9/488/20 ), ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/244/508/2 )।
समयसार / आत्मख्याति/279/ कलश 275 न जातु रागादिनिमित्तभावमात्मात्मनो याति यथार्ककांत:। तस्मिन्निमित्तं परसंग एव, वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत्।275।=सूर्यकांत मणि की भाँति आत्मा अपने को रागादि का निमित्त कभी भी नहीं होता। (जिस प्रकार वह मणि सूर्य के निमित्त से ही अग्नि रूप परिणमन करती है, उसी प्रकार आत्मा को भी रागादिरूप परिणमन करने में) पर-संग ही निमित्त है। ऐसा वस्तु स्वभाव प्रकाशमान है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/5 इंद्रियमन:परोपदेशावलोकादिबहिरंगनिमित्तभूतात् ....उपलब्धेरर्थावधारणरूप ... यद्विज्ञानं तत्पराधीनत्वात्परोक्षमित्युच्यते।=इंद्रिय, मन, परोपदेश तथा प्रकाशादि बहिरंग निमित्तों से उपलब्ध होने वाला जो अर्थाविधारण रूप विज्ञान वह पराधीन होने के कारण परोक्ष कहा जाता है।
द्रव्यसंग्रह टीका/14/44/10 (जीवप्रदेशानां) विस्तारश्च शरीरनामकर्माधीन एव न च स्वभावस्तेन कारणेन शरीराभावे विस्तारो न भवति।=(जीव के प्रदेशों का संहार तथा) विस्तार शरीर नामक नामकर्म के आधीन है, जीव का स्वभाव नहीं है। इस कारण जीव के इस शरीर का अभाव होने पर प्रदेशों का (संहार या) विस्तार नहीं होता है।
स्वयंभू स्तोत्र/ टीका/62/162 ‘‘उपादानकारणं सहकारिकारणमपेक्षते। तच्चोपादानकारणं न च सर्वेण सर्वमपेक्ष्यते। किंतु यद्येन अपेक्ष्यमाणं दृश्यते तत्तेनापेक्ष्यते।’’ =उपादान कारण सहकारी कारण की अपेक्षा करता है। सर्व ही उपादान कारणों से सभी सहकारी कारण अपेक्षित होते हों सो भी नहीं। जो जिसके द्वारा अपेक्ष्यमाण होता है वही उसके द्वारा अपेक्षित होता है।
- जैसा-जैसा कारण मिलता है वैसा-वैसा ही कार्य होता है–
राजवार्तिक/4/42/7/251/12 नापि स्वत एव, परापेक्षाभावे तद्व्यक्त्यभावात् । तस्मात्तस्यानंतपरिणामस्य द्रव्यस्य तत्तत्सहकारिकारणं प्रतीत्य तत्तद्रूपं वक्ष्यते। न तत् स्वत एव नापि परकृतमेव।=जीवों के सर्व भेद प्रभेद स्वत: नहीं हैं, क्योंकि पर की अपेक्षा के अभाव में उन भेदों की व्यक्ति का अभाव है। इसलिए अनंत परिणामी द्रव्य ही उन-उन सहकारी कारणों की अपेक्षा उन-उन रूप से व्यवहार में आता है। यह बात न स्वत: होती है और न परकृत ही है।
धवला/12/4, 2, 13, 243/453/7 कधमेगो परिणामो भिण्णकज्जकारओ। ण सहकारिकारणसंबंधभेएणतस्स तदविरोहादो।=प्रश्न–एक परिणाम भिन्न कार्यों को करने वाला कैसे हो सकता है (ज्ञानावरणीय के बंध योग्य परिणाम आयु कर्म को भी कैसे बाँध सकता है) ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, सहकारी कारणों के संबंध से उसके भिन्न कार्यों के करने में कोई विरोध नहीं है। ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/76/134 )–(देखें पीछे कारण - II.1.9)।
- उपादान को ही स्वयं सहकारी मानने में दोष—
आप्तमीमांसा/21 एवं विधिनिषेधाभ्यामनवस्थितमर्थकृत् । नेत्ति चेन्न यथा कार्यं बहिरंतरुपाधिभि:।21। =पूर्वोक्त सप्तभंगी विषै विधि निषेधकरि अनवस्थित जीवादि वस्तु हैं सो अर्थ क्रिया को करै हैं। बहुरि अन्यवादी केवल अंतरंग कारण से ही कार्य होना मानै तैसा नाहीं है। वस्तु को सर्वथा सत् या सर्वथा असत् मानने से, जैसा कार्य सिद्ध होना बाह्य अंतरंग सहकारी कारण अर उपादान कारणनि करि माना है तैसा नाहीं सिद्ध होय है। तिसकी विशेष चर्चा अष्टसहस्री तै जानना। (देखें धर्माधर्म-3 तथा देखें काल#2) यदि उपादान को ही सहकारी कारण भी माना जायेगा तो लोक में जीव पुद्गल दो ही द्रव्य मानने होंगे।
- निमित्त की अपेक्षा रखने वाला पदार्थ उस कार्य के प्रति स्वयं समर्थ नहीं हो सकता
- उपादान की कथंचित् स्वतंत्रता