क्षायिक सम्यक्त्व: Difference between revisions
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<span class="HindiText"> नौ क्षायिक-शुद्धियों में तीसरी क्षायिक-शुद्धि । यह दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय से उत्पन्न होती है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 3. 144 </span> | <span class="HindiText"> नौ क्षायिक-शुद्धियों में तीसरी क्षायिक-शुद्धि । यह दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय से उत्पन्न होती है । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_3#144|हरिवंशपुराण - 3.144]] </span> | ||
Latest revision as of 14:41, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/160-162 खीणे दंसणमोहे जं सद्दहणं सुणिम्मलं होइ। तं खाइयसम्मत्तं णिच्चं कम्मक्खवणहेउं।160। वयणेहिं वि हेऊहि य इंदियभय जणणगेहिं रूवेहिं। वीभच्छ-दुगुंछेहि य णे तेल्लोक्केण चालिज्जा।161। एवं विउला बुद्धी ण य विभयमेदि किंचि दट्ठूणं। पट्ठविए सम्मत्ते खइए जीवस्स लद्धीए।162। =दर्शनमोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने पर जो निर्मल श्रद्धान होता है, उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। वह सम्यक्त्व नित्य है और कर्मों के क्षय करने का कारण है।160। श्रद्धान को भ्रष्ट करने वाले वचनों से, तर्कों से, इंद्रियों को भय उत्पन्न करने वाले रूपों से तथा वीभत्स और जुगुप्सित पदार्थों से भी चलायमान नहीं होता। अधिक क्या कहा जाय वह त्रैलोक्य के द्वारा भी चल-विचल नहीं होता।161। क्षायिक सम्यक्त्व के प्रारंभ होने पर अथवा प्राप्ति या निष्ठापन होने पर, क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव के ऐसी विशाल, गंभीर एवं दृढ़ बुद्धि उत्पन्न हो जाती है कि वह कुछ (असंभव या अनहोनी घटनाएँ) देखकर भी विस्मय या क्षोभ को प्राप्त नहीं होता।162। ( धवला 1/1,144/ गाथा 213-214); ( गोम्मटसार जीवकांड/646-647/1096 )।
देखें सम्यग्दर्शन ।
पुराणकोष से
नौ क्षायिक-शुद्धियों में तीसरी क्षायिक-शुद्धि । यह दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय से उत्पन्न होती है । हरिवंशपुराण - 3.144