गुरु: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
(18 intermediate revisions by 6 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
== सिद्धांतकोष से == | | ||
<p class="HindiText">गुरु शब्द का अर्थ महान् होता है। लोक में अध्यापकों को गुरु कहते हैं। माता पिता भी गुरु कहलाते हैं। | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p class="HindiText">गुरु शब्द का अर्थ महान् होता है। लोक में अध्यापकों को गुरु कहते हैं। माता पिता भी गुरु कहलाते हैं। परंतु धार्मिक प्रकरण में आचार्य, उपाध्याय व साधु गुरु कहलाते हैं, क्योंकि वे जीव को उपदेश देकर अथवा बिना उपदेश दिये ही केवल अपने जीवन का दर्शन कराकर कल्याण का वह सच्चा मार्ग बताते हैं, जिसे पाकर वह सदा के लिए कृतकृत्य हो जाता है। इसके अतिरिक्त विरक्त चित्त सम्यग्दृष्टि श्रावक भी उपरोक्त कारणवश ही गुरु संज्ञा को प्राप्त होते हैं। दीक्षा गुरु, शिक्षा गुरु, परम गुरु आदि के भेद से गुरु कई प्रकार के होते हैं।<br /> | |||
</p> | </p> | ||
<ol> | |||
<li class="HindiText"><strong>[[ #1 | गुरु निर्देश ]]</strong></li> | |||
<ol> | |||
<li class="HindiText">[[ #1.1 | अर्हंत भगवान् परम गुरु हैं]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #1.2 | आचार्य उपाध्याय साधु गुरु हैं]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #1.3 | संयत साधु के अतिरिक्त अन्य को गुरु संज्ञा प्राप्त नहीं]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #1.4 | सदोष साधु भी गुरु नहीं है]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #1.5 | निर्यापकाचार्य को शिक्षा गुरु कहते हैं]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #1.6 | निश्चय से अपना आत्मा ही गुरु है]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #1.7 | उपकारी जनों को भी कदाचित् गुरु माना जाता है]]</li> | |||
</ol> | |||
<li class="HindiText"><strong>[[ #2 | गुरु शिष्य संबंध ]]</strong></li> | |||
<ol> | |||
<li class="HindiText">[[ #2.1 | शिष्य के दोषों के प्रति उपेक्षित मृदु भी ‘गुरु’ गुरु नहीं]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #2.2 | शिष्य के दोषों का निग्रह करने वाला कठोर भी ‘गुरु’ गुरु है]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #2.3 | गुरु शिष्य के दोषों को अन्य पर प्रगट न करे]]</li> | |||
</ol> | |||
<li class="HindiText"><strong>[[ #3 | दीक्षागुरु निर्देश ]]</strong></li> | |||
<ol> | |||
<li class="HindiText">[[ #3.1 | दीक्षा गुरु का लक्षण]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #3.2 | दीक्षा गुरु ज्ञानी व वीतरागी होना चाहिए]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #3.3 | स्त्री को दीक्षा देने वाले गुरु की विशेषता]]</li> | |||
</ol> | |||
</ol> | |||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1"> गुरु निर्देश</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">अर्हंत भगवान् परम गुरु हैं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/79/ प्रक्षेपक गाथा 2/100/24 </span><span class="PrakritText">अनंतज्ञानादिगुरुगुणैस्त्रैलोकस्यापि गुरुस्तं त्रिलोकगुरुं, तमित्थंभूतं भगवंतं...।</span>=<span class="HindiText">अनंतज्ञानादि महान् गुणों के द्वारा जो तीनों लोकों में भी महान् हैं -वे भगवान् अर्हंत त्रिलोक गुरु हैं। <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/620 )</span>।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> आचार्य, उपाध्याय और साधु गुरु हैं </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/300/511/13 </span><span class="SanskritText">सुस्सूसया गुरूणं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैर्गुरुतया गुरव इत्युच्यंते आचार्योंपाध्यायसाधव: ।</span>=<span class="HindiText">सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र - इन गुणों के द्वारा जो बड़े बन चुके हैं उनको गुरु कहते हैं। अर्थात् : आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीन परमेष्ठी गुरु कहे जाते हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> ज्ञानसार/5 </span><span class="SanskritText">पंचमहाव्रतकलितो मदमथन: क्रोधलोभभयत्यक्त:। एष गुरुरिति भण्यते तस्माज्जानीहि उपदेशं।5।</span>=<span class="HindiText">पाँच महाव्रतधारी, मद का मंथन करने वाले, तथा क्रोध लोभ व भय को त्यागने वाले गुरु कहे जाते हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/621,637 </span><span class="SanskritText"> तेभ्योऽर्वागपि छद्मस्थरूपास्तद् रूपधारिण:। गुरव: स्यर्गुरोर्न्यायान्नान्योऽवस्थाविशेषभाक् ।621। अथास्त्येक: स सामान्यात्सद्विशेष्यस्त्रिधा मत:। एकोऽप्यग्निर्यथा तार्ण्य: पार्ण्यो दार्व्यस्त्रिधोच्यते।637।</span>=<span class="HindiText">उन सिद्ध और अर्हंतों की अवस्था के पहिले की अवस्थावाले , उसी देव के रूपधारी, छठे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक रहने वाले मुनि भी गुरु कहलाते हैं, क्योंकि वे भी भावी नैगम नय की अपेक्षा से उक्त गुरु की अवस्था-विशेष को धारण करने वाले हैं, अगुरु नहीं हैं।631। वह गुरु यद्यपि सामान्य रूप से एक प्रकार का है परंतु सत् की विशेष अपेक्षा से तीन प्रकार का माना गया है–(आचार्य, उपाध्याय व साधु) जैसे कि अग्नित्व सामान्य से अग्नि एक प्रकार की होकर भी तृण की, पत्र की तथा लकड़ी की अग्नि इस प्रकार तीन प्रकार की कही जाती है।637। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li | <li class="HindiText"> देखें - [[आचार्य]], [[उपाध्याय]] व [[साधु]] ।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="3"> | <ol start="3"> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> संयत साधु के अतिरिक्त अन्य को गुरु संज्ञा प्राप्त नहीं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> अमितगति श्रावकाचार/1/43 </span> <span class="SanskritText">ये ज्ञानिनश्चारुचारित्रभाजो ग्राह्या गुरूणां वचनेन तेषां। संदेहमत्यस्य बुधेन धर्मो विकल्पनीयं वचनं परेषां।43।</span><span class="HindiText"> जे ज्ञानवान सुंदर चारित्र के धरने वाले हैं, तिनि गुरूनि के वचननिकरि संदेह छोड़ धर्म ग्रहण करना योग्य है। बहुरि ऐसे गुरुनि बिना औरनिका वचन संदेह योग्य है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/658 </span><span class="SanskritText">इत्युक्तव्रततप:शीलसंयमादिधरो गणी। नमस्य: स गुरु: साक्षादन्यो न तु गुरुर्गणी।658।</span> <span class="HindiText">=इस प्रकार जो आचार्य पूर्वोक्त तपशील और संयमादि को धारण करने वाले हैं, वही साक्षात् गुरु हैं, और नमस्कार करने योग्य हैं, किंतु उससे भिन्न आचार्य गुरु नहीं हो सकता।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार/टीका/1/10/पं.सदासुखदास</span><br><span class="HindiText">—जो विषयनि का लंपटी होय सो ओरनिकूं विषयनितै छुड़ाय वीतराग मार्ग में नाहीं प्रवर्तावै। संसारमार्ग में लगाय संसार समुद्र में डुबोय देय है। तातै विषयनि की आशाकै वश नहीं होय सो ही गुरु आराधन करने व वंदन करने योग्य है। जातैं विषयनि में जाकै अनुराग होय सो तो आत्मज्ञानरहित बहिरात्मा है, गुरु कैसे होय। बहुरि जिसकैं त्रस स्थावर जीवनि का घातक आरंभ होय तिसकै पाप का भय नहीं, तदि पापिष्ठकै गुरुपना कैसे संभवै। बहुरि जो चौदह प्रकार अंतरंग परिग्रह और दस प्रकार बहिरंग परिग्रहकरि सहित होय सो गुरु कैसे होय ? परिग्रही तो आप ही संसार में फँस रह्या, सो अन्य का उद्धार करने वाला गुरु कैसे होय ? <br /> | |||
देखें [[ विनय#4 | विनय - 4 ]]असंयत सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि साधु आदि | देखें [[ विनय#4 | विनय - 4 ]]असंयत सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि साधु आदि वंदने योग्य नहीं है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li | <li class="HindiText"> मिथ्यादृष्टि साधु को गुरु मानना मूढ़ता है–देखें [[ मूढ़ता ]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> कुगुरु निषेध—देखें [[ कुदेव ]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="4"> | <ol start="4"> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4">सदोष साधु भी गुरु नहीं है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/657 </span><span class="SanskritText"> यद्वा मोहात्मप्रमादाद्वा कुर्याद्यो लौकिकीं क्रियाम् । तावत्कालं स नाचार्योऽप्यस्ति चांतर्व्रताच्च्युत:।657।</span>=<span class="HindiText">जो मोह से अथवा प्रमाद से जितने काल तक लौकिक क्रिया को करता है, उतने काल तक वह आचार्य नहीं है और अंतरंग में व्रतों से च्युत भी है।657।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> निर्यापकाचार्य को शिक्षा गुरु कहते हैं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/210/284/15 </span><span class="SanskritText">छेदयोर्ये प्रायश्चित्तं दत्वा संवेगवैराग्यजनकपरमागमवचनै: संवरणं कुर्वंति ते निर्यापका: शिक्षागुरव: श्रुतगुरवश्चेति भण्यते।</span>=<span class="HindiText">देश व सकल इन दोनों प्रकार के संयम के छेद की शुद्धि के अर्थ प्रायश्चित्त देकर संवेग व वैराग्य जनक परमागम के वचनों द्वारा साधु का संवरण करते हैं वे निर्यापक हैं। उन्हें ही शिक्षा गुरु या श्रुत गुरु भी कहते हैं।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> निश्चय से अपना आत्मा ही गुरु है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> इष्टोपदेश/34 </span><span class="SanskritText"> स्वस्मिन्सदाभिलाषित्वादभीष्टज्ञापकत्वत:। स्वयं हि प्रयोक्तृत्वादात्मैव गुरुरात्मन:।34।</span>=<span class="HindiText">वास्तव में आत्मा का गुरु आत्मा ही है, क्योंकि वही सदा मोक्ष की अभिलाषा करता है, मोक्ष सुख का ज्ञान करता है और स्वयं ही उसे परम हितकर जान उसकी प्राप्ति में अपने को लगाता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> समाधिशतक/75 </span><span class="SanskritText">नयत्यात्मानमात्मैव जन्म निर्वाणमेव च। गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थत:।75।</span> =<span class="HindiText">आत्मा ही आत्मा को देहादि में ममत्व करके जन्म मरण कराता है, और आत्मा ही उसे मोक्ष प्राप्त कराता है। इसलिए निश्चय से आत्मा का गुरु आत्मा ही है, दूसरा कोई नहीं।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/32/81 </span><span class="SanskritText">आत्मात्मना भवं मोक्षमात्मन: कुरुते यत:। अतो रिपुर्गुरुश्चायमात्मैव व स्फुटमात्मन:।81।</span>=<span class="HindiText">यह आत्मा अपने ही द्वारा अपने संसार को या मोक्ष को करता है। इसलिए आप ही अपना शत्रु और आप ही अपना गुरु है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/628 </span><span class="SanskritText"> निर्जरादिनिदानं य: शुद्धो भावश्चिदात्मन: । परमार्ह: स एवास्ति तद्वानात्मा परं गुरु:।628।</span> =<span class="HindiText">वास्तव में आत्मा का शुद्धभाव ही निर्जरादि का कारण है, वही परमपूज्य है, और उस शुद्धभाव से युक्त आत्मा ही केवल गुरु कहलाता है।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> उपकारी जनों को भी कदाचित् गुरु माना जाता है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/21/128-131 </span><span class="SanskritText">अक्रमस्य तदा हेतुं खेचरौ पर्यपृच्छताम् । देवावृषिमतिक्रम्य प्राग्नतौ श्रावकं कुत:।128। त्रिदशावूचतुर्हेतु जिनधर्मोपदेशक:। चारुदत्तो गुरु: साक्षादावयोरिति बुध्यताम् ।129। तत्कथं कथमित्युक्ते छागपूर्व: सुरोऽभणीत। श्रूयतां मे कथा तावत कथ्यते खेचरौ ! स्फुटम् ।130।</span>=<span class="HindiText">(उस रत्नद्वीप में जब चारण मुनिराज के समक्ष चारुदत्त व दो विद्याधर विनय पूर्वक बैठे थे, तब स्वर्गलोक से दो देव आये जिन्होंने मुनि को छोड़कर पहिले चारुदत्त को नमस्कार किया) विद्याधरों ने उस समय उस अक्रम का कारण पूछा कि हे देवो, तुम दोनों ने मुनिराज को छोड़कर श्रावक को पहिले नमस्कार क्यों किया ? देवों ने इसका कारण कहा कि इस चारुदत्त ने हम दोनों को जिन धर्म का उपदेश दिया है, इसलिए यह हमारा साक्षात् गुरु है। यह समझिए।128-129। यह कैसे ? इस प्रकार पूछने पर जो पहिले बकरा का जीव था वह बोला कि हे विद्याधरो ! सुनिए मैं अपनी कथा स्पष्ट कहता हूँ।130।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> महापुराण/9/172 </span><span class="SanskritText">महाबलभवेऽप्यासीत् स्वयंबुद्धो गुरो स न:। वितीर्थ दर्शनं सम्यक् अधुना तु विशेषत:।172।</span>=<span class="HindiText">महाबल के भव में भी वे मेरे स्वयंबुद्ध (मंत्री) नामक गुरु हुए थे और आज इस भव में भी सम्यग्दर्शन देकर (प्रीतंकर मुनिराज के रूप में) विशेष गुरु हुए हैं।172।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li | <li class="HindiText"> अणुव्रती श्रावक भी गृहस्थाचार्य या गुरु संज्ञा को प्राप्त हो जाता है।–देखें [[ आचार्य#2 | आचार्य - 2]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> गुरु की विशेषता–देखें [[ वक्ता#4 | वक्ता - 4]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> गुरु शिष्य संबंध</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> शिष्य के दोषों के प्रति उपेक्षित मृदु भी ‘गुरु’ गुरु नहीं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">मूलाचार/168</span> <span class="PrakritGatha">जदि इदरो सोऽजोग्गो छेदमुवट्ठावणं च कादव्वं। जदि णेच्छदि छंडेज्जो अह गेह्णादि सोवि छेदरिहो।168।=</span><span class="HindiText">आगंतुक साधु या चरणकरण से अशुद्ध हो तो संघ के आचार्य को उसे प्रायश्चित्तादि देकर छेदोपस्थापना करना योग्य है। यदि वह छेदोपस्थापना स्वीकार न करे तो उसका त्याग कर देना योग्य है। यदि अयोग्य साधु को भी मोह के कारण ग्रहण करे और उसे प्रायश्चित्त न दे तो वह आचार्य भी प्रायश्चित्त के योग्य है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/481/703 </span><span class="PrakritText">जिब्भाए वि लिहंतो ण भद्दओ जत्थ सारणा णत्थि।</span>=<span class="HindiText">जो शिष्यों के दोष देखकर भी उन दोषों को निवारण नहीं करते और जिह्वा से मधुर भाषण बोलते हैं तो भी वे भद्र नहीं है अर्थात् उत्तम गुरु नहीं है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> आत्मानुशासन/142 </span><span class="SanskritText">दोषान् कश्चिन तान्प्रवर्तकतया प्रच्छाद्य गच्छत्ययं सार्धं तै: सहसा प्रियेद्यदि गुरु: पश्चात् करोत्येष किम् । तस्मान्मे न गुरुर्गुरुर्गुरुतरान् कृत्वा लघूंश्च स्फुटं, ब्रूतेय: सततं समीक्ष्य निपुणं सोऽयं खल: सद्गुरु।142।=</span><span class="HindiText">जो गुरु शिष्यों के चारित्र में लगते हुए अनेक दोषों को देखकर भी उनकी तरफ दुर्लक्ष्य करता है व उनके महत्त्व को न समझकर उन्हें छिपाता चलता है वह गुरु हमारा गुरु नहीं है। वे दोष तो साफ न हो पाये हों और इतने में ही यदि शिष्य का मरण हो गया तो वह गुरु पीछे से उस शिष्य का सुधार कैसे करेगा ? किंतु जो दुष्ट होकर भी उसके दोष प्रगट करता है वह उसका परम कल्याण करता है। इसलिए उससे अधिक और कौन उपकारी गुरु हो सकता है।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> शिष्य के दोषों का निग्रह करने वाला कठोर भी ‘गुरु’ गुरु है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/479-483 </span><span class="PrakritText"> पिल्लेदूण रडंत पि जहा बालस्स मुहं विदारित्ता। पज्जेइ घदं माया तस्सेव हिदं विचितंती।79। तह आयरिओ वि अणुज्जस्स खवयस्स दोसणीहरणं। कुणदि हिदं से पच्छा होहिदि कडुओसहं वत्ति।80।...। पाएण वि ताडिंतो स भद्दओ जत्थ सारणा अत्थि।81। आदट्ठमेव जे चिंतेदुमुटि्ठदा जे परट्ठमवि लोगे। कडुय फरुसेहिं ते हु अदिदुल्लहा लोए।483।</span>=<span class="HindiText">जो जिसका हित करना चाहता है वह उसको हित के कार्य में बलात्कार से प्रवृत्त करता है, जैसे हित करने वाली माता अपने रोते हुए भी बालक मुँह फाड़कर उसे घी पिलाती है।479। उसी प्रकार आचार्य भी मायाचार धारण करने वाले क्षपक को जबरदसती दोषों की आलोचना करने में बाध्य करते हैं तब वह दोष कहता है जिससे कि उसका कल्याण होता है जैसे कि कड़वी औषधी पीने के अनंतर रोगी का कल्याण होता है।480। लातों से शिष्यों को ताड़ते हुए भी जो शिष्य को दोषों से अलिप्त रखता है वही गुरु हित करने वाला समझना चाहिए।481। जो पुरुष आत्महित के साथ-साथ, कटु व कठोर शब्द बोलकर परहित भी साधते हैं वे जगत् में अतिशय दुर्लभ समझने चाहिए।483।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li | <li class="HindiText"> कठोर व हितकारी उपदेश देनेवाला गुरु श्रेष्ठ है–देखें [[ उपदेश#3 | उपदेश - 3]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="3"> | <ol start="3"> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> गुरु शिष्य के दोषों को अन्य पर प्रगट न करे</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/488 </span><span class="PrakritText">आयरियाणं वीसत्थदाए भिक्खू कहेदि सगदोसे। कोई पुण णिद्धम्मो अण्णेसिं कहेदि ते दोसे।488।</span>=<span class="HindiText">आचार्य पर विश्वास करके ही भिक्षु अपने दोष उससे कह देता है। परंतु यदि कोई आचार्य उन दोषों को किसी अन्य से कहता है तो उसे जिनधर्म बाह्य समझना चाहिए।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li | <li class="HindiText"> गुरु विनय का महात्म्य–देखें [[ विनय#2 | विनय - 2]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3"> दीक्षागुरु निर्देश</strong></span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> दीक्षा गुरु का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/210 </span><span class="PrakritText"> लिंगग्गहणे तेसिं गुरु त्ति पव्वज्जदायगो होदि।....।</span> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/210 </span><span class="SanskritText"> लिंगग्रहणकाले निर्विकल्पसामायिकसंयमप्रतिपादकत्वेन य: किलाचार्य: प्रव्रज्यादायक: स गुरु:। <br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/210/284/12 </span>योऽसौ प्रव्रज्यादायक: स एव दीक्षागुरु:।</span>=<span class="HindiText">लिंग धारण करते समय जो निर्विकल्प सामायिक चारित्र का प्रतिपादन करके शिष्य को प्रव्रज्या देते हैं वे आचार्य दीक्षा गुरु हैं।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> दीक्षा गुरु ज्ञानी व वीतरागी होना चाहिए</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/256 </span><span class="PrakritText">छदुमत्थविहिदवत्थुसु वदणियमज्झयणझाणदाणरदो। ण लहदि अपुणब्भावं सादप्पगं लहदि।256। </span> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/256/349/15 </span><span class="SanskritText">ये केचन निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गं न जानंति पुण्यमेव मुक्तिकारणं भणंति ते छद्मस्थशब्देन गृह्यंते न च गणधरदेवादय:। तैश्छद्मस्थैरज्ञानिभि: शुद्धात्मोपदेशशून्यैर्ये दीक्षितास्तानि छद्मस्थविहितवस्तूनि भण्यंते।</span>=<span class="HindiText">जो कोई निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग को तो नहीं जानते और पुण्य को ही मोक्ष का कारण बताते हैं वे यहाँ ‘छद्मस्थ’ शब्द के द्वारा ग्रहण किये गये हैं। (यहाँ सिद्धांत ग्रंथों में प्ररूपित 12वें गुणस्थान पर्यंत छद्मस्थ संज्ञा को प्राप्त) गणधरदेवादि से प्रयोजन नहीं हैं। ऐसे शुद्धात्मा के उपदेश से शून्य अज्ञानी छद्मस्थों द्वारा दीक्षा को प्राप्त जो साधु हैं उन्हें छद्मस्थविहित वस्तु कहा गया है। ऐसी छद्मस्थ विहित वस्तुओं में जो पुरुष व्रत, नियम, पठन, ध्यान, दानादि क्रियाओं युक्त है वह पुरुष मोक्ष को नहीं पाता किंतु पुण्यरूप उत्तम देवमुनष्य पदवी को पाता है।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li | <li class="HindiText"> व्रत धारण में गुरु साक्षी की प्रधानता–देखें [[ व्रत#1.6 | व्रत - 1.6]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="3"> | <ol start="3"> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3">स्त्री को दीक्षा देने वाले गुरु की विशेषता</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> मूलाचार/183-185</span> <span class="PrakritText">पियधम्मो दढधम्मो संविग्गोऽवज्जभीरु परिसुद्धो। संगहणुग्गहकुसलो सददं सारक्खणाजुत्तो।183। गंभीरों दुद्धरिसो मिदवादी अप्पकोदुहल्लो य । चिरपव्वइ गिहिदत्थो अज्जाणं गणधरो होदि।184। एवं गुणवदिरित्तो जदि गणधारित्तं करेदि अज्जाणं । चत्तारि कालगा से गच्छादिविराहणा होज्ज ।। 185।</span>=<span class="HindiText">आर्यिकाओं का गणधर ऐसा होना चाहिए, कि उत्तम क्षमादि धर्म जिसको प्रिय हों, दृढ़ धर्मवाला हो, धर्म में हर्ष करने वाला हो, पाप से डरता हो, सब तरह से शुद्ध हो अर्थात् अखंडित आचरणवाला हो, दीक्षा-शिक्षादि उपकार कर नया शिष्य बनाने व उसका उपकार करने में चतुर हो, और सदा शुभ क्रियायुक्त हो हितोपदेशी हो।183। गुणों कर अगाध हो, परवादियों से दबने वाला न हो, थोड़ा बोलने वाला हो, अल्प विस्मय जिसके हो, बहुत काल का दीक्षित हो, और आचार प्रायश्चित्तादि ग्रंथों का जानने वाला हो, ऐसा आचार्य आर्यिकाओं को उपदेश दे सकता है।184। इन पूर्वकथित गुणों से रहित मुनि जो आर्यिकाओं का गणधरपना करता है उसके गणपोषण आदि चारकाल तथा गच्छ आदि की विराधना होती है।185। </span></li> | |||
</ol> | </ol> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 117: | Line 143: | ||
== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<span class="HindiText">(1)निर्ग्रंथ साथु-पंचपरमेष्ठी गुरु होते है। ये अंतरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित होते हैं और आत्म-कल्याण में लीन रहते हैं । इनके उपदेश से सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है― जीवन सन्मार्ग में प्रवृत्त होता है जिससे इहलौकिक और पारलौकिक कल्याण होता है । <span class="GRef"> महापुराण 5.230, 7-53-54, 9. 172-177, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_1#28|हरिवंशपुराण - 1.28]], </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 8.52 </span></p> | |||
<p id="2">(2) | <p id="2" class="HindiText">(2) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25. 160, 36.203 </span></p> | ||
</span> | |||
<noinclude> | <noinclude> | ||
Line 129: | Line 155: | ||
[[Category: पुराण-कोष]] | [[Category: पुराण-कोष]] | ||
[[Category: ग]] | [[Category: ग]] | ||
[[Category: चरणानुयोग]] |
Latest revision as of 14:41, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
गुरु शब्द का अर्थ महान् होता है। लोक में अध्यापकों को गुरु कहते हैं। माता पिता भी गुरु कहलाते हैं। परंतु धार्मिक प्रकरण में आचार्य, उपाध्याय व साधु गुरु कहलाते हैं, क्योंकि वे जीव को उपदेश देकर अथवा बिना उपदेश दिये ही केवल अपने जीवन का दर्शन कराकर कल्याण का वह सच्चा मार्ग बताते हैं, जिसे पाकर वह सदा के लिए कृतकृत्य हो जाता है। इसके अतिरिक्त विरक्त चित्त सम्यग्दृष्टि श्रावक भी उपरोक्त कारणवश ही गुरु संज्ञा को प्राप्त होते हैं। दीक्षा गुरु, शिक्षा गुरु, परम गुरु आदि के भेद से गुरु कई प्रकार के होते हैं।
- गुरु निर्देश
- अर्हंत भगवान् परम गुरु हैं
- आचार्य उपाध्याय साधु गुरु हैं
- संयत साधु के अतिरिक्त अन्य को गुरु संज्ञा प्राप्त नहीं
- सदोष साधु भी गुरु नहीं है
- निर्यापकाचार्य को शिक्षा गुरु कहते हैं
- निश्चय से अपना आत्मा ही गुरु है
- उपकारी जनों को भी कदाचित् गुरु माना जाता है
- गुरु शिष्य संबंध
- शिष्य के दोषों के प्रति उपेक्षित मृदु भी ‘गुरु’ गुरु नहीं
- शिष्य के दोषों का निग्रह करने वाला कठोर भी ‘गुरु’ गुरु है
- गुरु शिष्य के दोषों को अन्य पर प्रगट न करे
- दीक्षागुरु निर्देश
- गुरु निर्देश
- अर्हंत भगवान् परम गुरु हैं
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/79/ प्रक्षेपक गाथा 2/100/24 अनंतज्ञानादिगुरुगुणैस्त्रैलोकस्यापि गुरुस्तं त्रिलोकगुरुं, तमित्थंभूतं भगवंतं...।=अनंतज्ञानादि महान् गुणों के द्वारा जो तीनों लोकों में भी महान् हैं -वे भगवान् अर्हंत त्रिलोक गुरु हैं। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/620 )।
- आचार्य, उपाध्याय और साधु गुरु हैं
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/300/511/13 सुस्सूसया गुरूणं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैर्गुरुतया गुरव इत्युच्यंते आचार्योंपाध्यायसाधव: ।=सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र - इन गुणों के द्वारा जो बड़े बन चुके हैं उनको गुरु कहते हैं। अर्थात् : आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीन परमेष्ठी गुरु कहे जाते हैं।
ज्ञानसार/5 पंचमहाव्रतकलितो मदमथन: क्रोधलोभभयत्यक्त:। एष गुरुरिति भण्यते तस्माज्जानीहि उपदेशं।5।=पाँच महाव्रतधारी, मद का मंथन करने वाले, तथा क्रोध लोभ व भय को त्यागने वाले गुरु कहे जाते हैं।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/621,637 तेभ्योऽर्वागपि छद्मस्थरूपास्तद् रूपधारिण:। गुरव: स्यर्गुरोर्न्यायान्नान्योऽवस्थाविशेषभाक् ।621। अथास्त्येक: स सामान्यात्सद्विशेष्यस्त्रिधा मत:। एकोऽप्यग्निर्यथा तार्ण्य: पार्ण्यो दार्व्यस्त्रिधोच्यते।637।=उन सिद्ध और अर्हंतों की अवस्था के पहिले की अवस्थावाले , उसी देव के रूपधारी, छठे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक रहने वाले मुनि भी गुरु कहलाते हैं, क्योंकि वे भी भावी नैगम नय की अपेक्षा से उक्त गुरु की अवस्था-विशेष को धारण करने वाले हैं, अगुरु नहीं हैं।631। वह गुरु यद्यपि सामान्य रूप से एक प्रकार का है परंतु सत् की विशेष अपेक्षा से तीन प्रकार का माना गया है–(आचार्य, उपाध्याय व साधु) जैसे कि अग्नित्व सामान्य से अग्नि एक प्रकार की होकर भी तृण की, पत्र की तथा लकड़ी की अग्नि इस प्रकार तीन प्रकार की कही जाती है।637।
- संयत साधु के अतिरिक्त अन्य को गुरु संज्ञा प्राप्त नहीं
अमितगति श्रावकाचार/1/43 ये ज्ञानिनश्चारुचारित्रभाजो ग्राह्या गुरूणां वचनेन तेषां। संदेहमत्यस्य बुधेन धर्मो विकल्पनीयं वचनं परेषां।43। जे ज्ञानवान सुंदर चारित्र के धरने वाले हैं, तिनि गुरूनि के वचननिकरि संदेह छोड़ धर्म ग्रहण करना योग्य है। बहुरि ऐसे गुरुनि बिना औरनिका वचन संदेह योग्य है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/658 इत्युक्तव्रततप:शीलसंयमादिधरो गणी। नमस्य: स गुरु: साक्षादन्यो न तु गुरुर्गणी।658। =इस प्रकार जो आचार्य पूर्वोक्त तपशील और संयमादि को धारण करने वाले हैं, वही साक्षात् गुरु हैं, और नमस्कार करने योग्य हैं, किंतु उससे भिन्न आचार्य गुरु नहीं हो सकता।
रत्नकरंड श्रावकाचार/टीका/1/10/पं.सदासुखदास
—जो विषयनि का लंपटी होय सो ओरनिकूं विषयनितै छुड़ाय वीतराग मार्ग में नाहीं प्रवर्तावै। संसारमार्ग में लगाय संसार समुद्र में डुबोय देय है। तातै विषयनि की आशाकै वश नहीं होय सो ही गुरु आराधन करने व वंदन करने योग्य है। जातैं विषयनि में जाकै अनुराग होय सो तो आत्मज्ञानरहित बहिरात्मा है, गुरु कैसे होय। बहुरि जिसकैं त्रस स्थावर जीवनि का घातक आरंभ होय तिसकै पाप का भय नहीं, तदि पापिष्ठकै गुरुपना कैसे संभवै। बहुरि जो चौदह प्रकार अंतरंग परिग्रह और दस प्रकार बहिरंग परिग्रहकरि सहित होय सो गुरु कैसे होय ? परिग्रही तो आप ही संसार में फँस रह्या, सो अन्य का उद्धार करने वाला गुरु कैसे होय ?
देखें विनय - 4 असंयत सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि साधु आदि वंदने योग्य नहीं है।
- सदोष साधु भी गुरु नहीं है
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/657 यद्वा मोहात्मप्रमादाद्वा कुर्याद्यो लौकिकीं क्रियाम् । तावत्कालं स नाचार्योऽप्यस्ति चांतर्व्रताच्च्युत:।657।=जो मोह से अथवा प्रमाद से जितने काल तक लौकिक क्रिया को करता है, उतने काल तक वह आचार्य नहीं है और अंतरंग में व्रतों से च्युत भी है।657।
- निर्यापकाचार्य को शिक्षा गुरु कहते हैं
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/210/284/15 छेदयोर्ये प्रायश्चित्तं दत्वा संवेगवैराग्यजनकपरमागमवचनै: संवरणं कुर्वंति ते निर्यापका: शिक्षागुरव: श्रुतगुरवश्चेति भण्यते।=देश व सकल इन दोनों प्रकार के संयम के छेद की शुद्धि के अर्थ प्रायश्चित्त देकर संवेग व वैराग्य जनक परमागम के वचनों द्वारा साधु का संवरण करते हैं वे निर्यापक हैं। उन्हें ही शिक्षा गुरु या श्रुत गुरु भी कहते हैं।
- निश्चय से अपना आत्मा ही गुरु है
इष्टोपदेश/34 स्वस्मिन्सदाभिलाषित्वादभीष्टज्ञापकत्वत:। स्वयं हि प्रयोक्तृत्वादात्मैव गुरुरात्मन:।34।=वास्तव में आत्मा का गुरु आत्मा ही है, क्योंकि वही सदा मोक्ष की अभिलाषा करता है, मोक्ष सुख का ज्ञान करता है और स्वयं ही उसे परम हितकर जान उसकी प्राप्ति में अपने को लगाता है।
समाधिशतक/75 नयत्यात्मानमात्मैव जन्म निर्वाणमेव च। गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थत:।75। =आत्मा ही आत्मा को देहादि में ममत्व करके जन्म मरण कराता है, और आत्मा ही उसे मोक्ष प्राप्त कराता है। इसलिए निश्चय से आत्मा का गुरु आत्मा ही है, दूसरा कोई नहीं।
ज्ञानार्णव/32/81 आत्मात्मना भवं मोक्षमात्मन: कुरुते यत:। अतो रिपुर्गुरुश्चायमात्मैव व स्फुटमात्मन:।81।=यह आत्मा अपने ही द्वारा अपने संसार को या मोक्ष को करता है। इसलिए आप ही अपना शत्रु और आप ही अपना गुरु है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/628 निर्जरादिनिदानं य: शुद्धो भावश्चिदात्मन: । परमार्ह: स एवास्ति तद्वानात्मा परं गुरु:।628। =वास्तव में आत्मा का शुद्धभाव ही निर्जरादि का कारण है, वही परमपूज्य है, और उस शुद्धभाव से युक्त आत्मा ही केवल गुरु कहलाता है।
- उपकारी जनों को भी कदाचित् गुरु माना जाता है
हरिवंशपुराण/21/128-131 अक्रमस्य तदा हेतुं खेचरौ पर्यपृच्छताम् । देवावृषिमतिक्रम्य प्राग्नतौ श्रावकं कुत:।128। त्रिदशावूचतुर्हेतु जिनधर्मोपदेशक:। चारुदत्तो गुरु: साक्षादावयोरिति बुध्यताम् ।129। तत्कथं कथमित्युक्ते छागपूर्व: सुरोऽभणीत। श्रूयतां मे कथा तावत कथ्यते खेचरौ ! स्फुटम् ।130।=(उस रत्नद्वीप में जब चारण मुनिराज के समक्ष चारुदत्त व दो विद्याधर विनय पूर्वक बैठे थे, तब स्वर्गलोक से दो देव आये जिन्होंने मुनि को छोड़कर पहिले चारुदत्त को नमस्कार किया) विद्याधरों ने उस समय उस अक्रम का कारण पूछा कि हे देवो, तुम दोनों ने मुनिराज को छोड़कर श्रावक को पहिले नमस्कार क्यों किया ? देवों ने इसका कारण कहा कि इस चारुदत्त ने हम दोनों को जिन धर्म का उपदेश दिया है, इसलिए यह हमारा साक्षात् गुरु है। यह समझिए।128-129। यह कैसे ? इस प्रकार पूछने पर जो पहिले बकरा का जीव था वह बोला कि हे विद्याधरो ! सुनिए मैं अपनी कथा स्पष्ट कहता हूँ।130।
महापुराण/9/172 महाबलभवेऽप्यासीत् स्वयंबुद्धो गुरो स न:। वितीर्थ दर्शनं सम्यक् अधुना तु विशेषत:।172।=महाबल के भव में भी वे मेरे स्वयंबुद्ध (मंत्री) नामक गुरु हुए थे और आज इस भव में भी सम्यग्दर्शन देकर (प्रीतंकर मुनिराज के रूप में) विशेष गुरु हुए हैं।172।
- अणुव्रती श्रावक भी गृहस्थाचार्य या गुरु संज्ञा को प्राप्त हो जाता है।–देखें आचार्य - 2।
- गुरु की विशेषता–देखें वक्ता - 4।
- अर्हंत भगवान् परम गुरु हैं
- गुरु शिष्य संबंध
- शिष्य के दोषों के प्रति उपेक्षित मृदु भी ‘गुरु’ गुरु नहीं
मूलाचार/168 जदि इदरो सोऽजोग्गो छेदमुवट्ठावणं च कादव्वं। जदि णेच्छदि छंडेज्जो अह गेह्णादि सोवि छेदरिहो।168।=आगंतुक साधु या चरणकरण से अशुद्ध हो तो संघ के आचार्य को उसे प्रायश्चित्तादि देकर छेदोपस्थापना करना योग्य है। यदि वह छेदोपस्थापना स्वीकार न करे तो उसका त्याग कर देना योग्य है। यदि अयोग्य साधु को भी मोह के कारण ग्रहण करे और उसे प्रायश्चित्त न दे तो वह आचार्य भी प्रायश्चित्त के योग्य है।
भगवती आराधना/481/703 जिब्भाए वि लिहंतो ण भद्दओ जत्थ सारणा णत्थि।=जो शिष्यों के दोष देखकर भी उन दोषों को निवारण नहीं करते और जिह्वा से मधुर भाषण बोलते हैं तो भी वे भद्र नहीं है अर्थात् उत्तम गुरु नहीं है।
आत्मानुशासन/142 दोषान् कश्चिन तान्प्रवर्तकतया प्रच्छाद्य गच्छत्ययं सार्धं तै: सहसा प्रियेद्यदि गुरु: पश्चात् करोत्येष किम् । तस्मान्मे न गुरुर्गुरुर्गुरुतरान् कृत्वा लघूंश्च स्फुटं, ब्रूतेय: सततं समीक्ष्य निपुणं सोऽयं खल: सद्गुरु।142।=जो गुरु शिष्यों के चारित्र में लगते हुए अनेक दोषों को देखकर भी उनकी तरफ दुर्लक्ष्य करता है व उनके महत्त्व को न समझकर उन्हें छिपाता चलता है वह गुरु हमारा गुरु नहीं है। वे दोष तो साफ न हो पाये हों और इतने में ही यदि शिष्य का मरण हो गया तो वह गुरु पीछे से उस शिष्य का सुधार कैसे करेगा ? किंतु जो दुष्ट होकर भी उसके दोष प्रगट करता है वह उसका परम कल्याण करता है। इसलिए उससे अधिक और कौन उपकारी गुरु हो सकता है।
- शिष्य के दोषों का निग्रह करने वाला कठोर भी ‘गुरु’ गुरु है
भगवती आराधना/479-483 पिल्लेदूण रडंत पि जहा बालस्स मुहं विदारित्ता। पज्जेइ घदं माया तस्सेव हिदं विचितंती।79। तह आयरिओ वि अणुज्जस्स खवयस्स दोसणीहरणं। कुणदि हिदं से पच्छा होहिदि कडुओसहं वत्ति।80।...। पाएण वि ताडिंतो स भद्दओ जत्थ सारणा अत्थि।81। आदट्ठमेव जे चिंतेदुमुटि्ठदा जे परट्ठमवि लोगे। कडुय फरुसेहिं ते हु अदिदुल्लहा लोए।483।=जो जिसका हित करना चाहता है वह उसको हित के कार्य में बलात्कार से प्रवृत्त करता है, जैसे हित करने वाली माता अपने रोते हुए भी बालक मुँह फाड़कर उसे घी पिलाती है।479। उसी प्रकार आचार्य भी मायाचार धारण करने वाले क्षपक को जबरदसती दोषों की आलोचना करने में बाध्य करते हैं तब वह दोष कहता है जिससे कि उसका कल्याण होता है जैसे कि कड़वी औषधी पीने के अनंतर रोगी का कल्याण होता है।480। लातों से शिष्यों को ताड़ते हुए भी जो शिष्य को दोषों से अलिप्त रखता है वही गुरु हित करने वाला समझना चाहिए।481। जो पुरुष आत्महित के साथ-साथ, कटु व कठोर शब्द बोलकर परहित भी साधते हैं वे जगत् में अतिशय दुर्लभ समझने चाहिए।483।
- कठोर व हितकारी उपदेश देनेवाला गुरु श्रेष्ठ है–देखें उपदेश - 3।
- गुरु शिष्य के दोषों को अन्य पर प्रगट न करे
भगवती आराधना/488 आयरियाणं वीसत्थदाए भिक्खू कहेदि सगदोसे। कोई पुण णिद्धम्मो अण्णेसिं कहेदि ते दोसे।488।=आचार्य पर विश्वास करके ही भिक्षु अपने दोष उससे कह देता है। परंतु यदि कोई आचार्य उन दोषों को किसी अन्य से कहता है तो उसे जिनधर्म बाह्य समझना चाहिए।
- शिष्य के दोषों के प्रति उपेक्षित मृदु भी ‘गुरु’ गुरु नहीं
- गुरु विनय का महात्म्य–देखें विनय - 2।
- दीक्षागुरु निर्देश
- दीक्षा गुरु का लक्षण
प्रवचनसार/210 लिंगग्गहणे तेसिं गुरु त्ति पव्वज्जदायगो होदि।....। प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/210 लिंगग्रहणकाले निर्विकल्पसामायिकसंयमप्रतिपादकत्वेन य: किलाचार्य: प्रव्रज्यादायक: स गुरु:।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/210/284/12 योऽसौ प्रव्रज्यादायक: स एव दीक्षागुरु:।=लिंग धारण करते समय जो निर्विकल्प सामायिक चारित्र का प्रतिपादन करके शिष्य को प्रव्रज्या देते हैं वे आचार्य दीक्षा गुरु हैं।
- दीक्षा गुरु ज्ञानी व वीतरागी होना चाहिए
प्रवचनसार/256 छदुमत्थविहिदवत्थुसु वदणियमज्झयणझाणदाणरदो। ण लहदि अपुणब्भावं सादप्पगं लहदि।256। प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/256/349/15 ये केचन निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गं न जानंति पुण्यमेव मुक्तिकारणं भणंति ते छद्मस्थशब्देन गृह्यंते न च गणधरदेवादय:। तैश्छद्मस्थैरज्ञानिभि: शुद्धात्मोपदेशशून्यैर्ये दीक्षितास्तानि छद्मस्थविहितवस्तूनि भण्यंते।=जो कोई निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग को तो नहीं जानते और पुण्य को ही मोक्ष का कारण बताते हैं वे यहाँ ‘छद्मस्थ’ शब्द के द्वारा ग्रहण किये गये हैं। (यहाँ सिद्धांत ग्रंथों में प्ररूपित 12वें गुणस्थान पर्यंत छद्मस्थ संज्ञा को प्राप्त) गणधरदेवादि से प्रयोजन नहीं हैं। ऐसे शुद्धात्मा के उपदेश से शून्य अज्ञानी छद्मस्थों द्वारा दीक्षा को प्राप्त जो साधु हैं उन्हें छद्मस्थविहित वस्तु कहा गया है। ऐसी छद्मस्थ विहित वस्तुओं में जो पुरुष व्रत, नियम, पठन, ध्यान, दानादि क्रियाओं युक्त है वह पुरुष मोक्ष को नहीं पाता किंतु पुण्यरूप उत्तम देवमुनष्य पदवी को पाता है।
- दीक्षा गुरु का लक्षण
- व्रत धारण में गुरु साक्षी की प्रधानता–देखें व्रत - 1.6।
- स्त्री को दीक्षा देने वाले गुरु की विशेषता
मूलाचार/183-185 पियधम्मो दढधम्मो संविग्गोऽवज्जभीरु परिसुद्धो। संगहणुग्गहकुसलो सददं सारक्खणाजुत्तो।183। गंभीरों दुद्धरिसो मिदवादी अप्पकोदुहल्लो य । चिरपव्वइ गिहिदत्थो अज्जाणं गणधरो होदि।184। एवं गुणवदिरित्तो जदि गणधारित्तं करेदि अज्जाणं । चत्तारि कालगा से गच्छादिविराहणा होज्ज ।। 185।=आर्यिकाओं का गणधर ऐसा होना चाहिए, कि उत्तम क्षमादि धर्म जिसको प्रिय हों, दृढ़ धर्मवाला हो, धर्म में हर्ष करने वाला हो, पाप से डरता हो, सब तरह से शुद्ध हो अर्थात् अखंडित आचरणवाला हो, दीक्षा-शिक्षादि उपकार कर नया शिष्य बनाने व उसका उपकार करने में चतुर हो, और सदा शुभ क्रियायुक्त हो हितोपदेशी हो।183। गुणों कर अगाध हो, परवादियों से दबने वाला न हो, थोड़ा बोलने वाला हो, अल्प विस्मय जिसके हो, बहुत काल का दीक्षित हो, और आचार प्रायश्चित्तादि ग्रंथों का जानने वाला हो, ऐसा आचार्य आर्यिकाओं को उपदेश दे सकता है।184। इन पूर्वकथित गुणों से रहित मुनि जो आर्यिकाओं का गणधरपना करता है उसके गणपोषण आदि चारकाल तथा गच्छ आदि की विराधना होती है।185।
पुराणकोष से
(1)निर्ग्रंथ साथु-पंचपरमेष्ठी गुरु होते है। ये अंतरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित होते हैं और आत्म-कल्याण में लीन रहते हैं । इनके उपदेश से सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है― जीवन सन्मार्ग में प्रवृत्त होता है जिससे इहलौकिक और पारलौकिक कल्याण होता है । महापुराण 5.230, 7-53-54, 9. 172-177, हरिवंशपुराण - 1.28, वीरवर्द्धमान चरित्र 8.52(2) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25. 160, 36.203