चारित्रमोहनीय निर्देश: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3"> चारित्रमोहनीय निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> चारित्र मोहनीय सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/3/379/2 </span><span class="SanskritText">चारित्रमोहस्यासंयमः।</span> =<span class="HindiText"> असंयमभाव चारित्रमोह की प्रकृति है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/8/3/4/597/4 )</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 6/1, 9-1, 22/22/40/5 </span><span class="PrakritText"> पापक्रियानिवृत्तिश्चारित्रम्। घादिकम्माणि पावं। तेसिं किरिया मिच्छत्तसंजमकसाया। तेसिमभावो चारित्तं। तं मोहेइ आवारेदि त्ति चारित्तमोहणीयं।</span> = <span class="HindiText">पापरूप क्रियाओं की निवृत्ति को चारित्र कहते हैं। घातिया कर्मों को पाप कहते हैं। मिथ्यात्व असंयम और कषाय, ये पाप की क्रियाएँ हैं। इन पाप क्रियाओं के अभाव को चारित्र कहते हैं। उस चारित्र को जो मोहित करता है अर्थात् आच्छादित करता है, उसे चारित्रमोहनीय कहते हैं। <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1009 )</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5, 5, 92/358/1 </span><span class="PrakritText">रागभावो चरित्तं, तस्स मोहयं तप्पडिवक्खभावुप्याययं चारित्तमोहणीयं।</span> = <span class="HindiText">राग का न होना चारित्र है। उसे मोहित करने वाला अर्थात् उससे विपरीत भाव को उत्पन्न करने वाला कर्म चारित्रमोहनीय कहलाता है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/27/23 </span><span class="PrakritText">चरति चर्यतेऽनेनेति चरणमात्रं वा चारित्रं, तन्मोहयति मुह्यतेऽनेनेति चारित्रमोहनीयं।</span> = <span class="HindiText">जो आचरण करता अथवा जिसके द्वारा आचरण किया जाता है अथवा आचरणमात्र चारित्र है। उसको जो मोहित करता है अथवा जिसके द्वारा मोहित किया जाता है सो चारित्रमोहनीय है। <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> चारित्रमोहनीय के भेद-प्रभेद</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खण्डागम 6/1, 9-1/सूत्र 22-24/40-45</span> <span class="PrakritText">जं तं चारित्तमोहणीयं कम्मं तं दुविहं, कषायवेदणीयं चेव णोकसायवेदणीयं चेव।22। जं तं कसायवेदणीयं कम्मं तं सोडसविहं, अणंताणुबंधिकोहमाणमायालोहं, अपच्चक्खाणावरणीयकोह-माण-माया-लोहं, पच्चक्खाणावरणीयकोह-माण-माया-लोहं, कोहसंजलणं, माणसंजलणं, मायासंजलणं, लोहसंजलणं चेदि।23। जं तं णोकसायवेदणीयं कम्मं तं णवविहं, इत्थिवेदं, पुरिसवेदं, णवुंसयवेदं, हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा चेदि।24। </span>= <span class="HindiText">जो चारित्रमोहनीय कर्म है वह दो प्रकार का है−कषायवेदनीय ओर नोकषायवेदनीय।22। = जो कषायवेदनीय कर्म है वह 16 प्रकार का है−अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ; अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ; प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, माना, माया, लोभ; क्रोधसंज्वलन, मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और लोभसंज्वलन।23। = जो नोकषाय वेदनीय कर्म है वह नौ प्रकार का है−स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा।24। <span class="GRef">( षट्खंडागम 13/5, 5/ सूत्र 94-96/359-361)</span>; <span class="GRef">(मू. आ./1226-1229)</span>; <span class="GRef">( तत्त्वार्थसूत्र/8/9 )</span>; <span class="GRef">( पंचसंग्रह / प्राकृत/2/4 व उसकी व्याख्या)</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/26/19/3; 33/27/23 )</span>; <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1076-1077 )</span>। <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> कषाय व अकषायवेदनीय के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 13/5, 5, 94/359/7 </span><span class="PrakritText"> जस्स कम्मस्स उदएण जीवो कसायं वेदयदि तं कम्मं कसायवेदणीयं णाम। जस्स कम्मस्स उदएण जीवो णोकसायं वेदयदि तं णोकसायवेदणीयं णाम। </span>=<span class="HindiText"> जिस कर्म के उदय से जीव कषाय का वेदन करता है वह कषायवेदनीय कर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव नोकषाय का वेदन करता है, वह नोकषाय-वेदनीय कर्म है। <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> चारित्रमोह की सामर्थ्य कषायोत्पादन में है स्वरूपाचरण विच्छेद में नहीं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/श्लोक </span><span class="SanskritGatha"> नं कार्यं चारित्रमोहस्य चारित्राच्च्युतिरात्मनः। नात्मदृष्टेस्तु दृष्टित्वान्न्यायादितरदृष्टिवत्।690। कषायाणामनुद्रेकश्चारित्रं तावदेव हि। नानुद्रेकः कषायाणां चारित्राच्युतिरात्मनः।692। अस्ति चारित्रमोहेऽपि शक्तिद्वैतं निसर्गतः। एकं चासंयतत्वं स्यात् कषायत्वमथापरम्।1131। यौगपद्य द्वयोरेव कषायासंयतत्वयोः। समं शक्तिद्वयस्योच्चैः कर्मणोऽस्य तथोदयात्।1137। </span>= <span class="HindiText">न्यायानुसार आत्मा को चारित्र से च्युत करना ही चारित्रमोह का कार्य है, किंतु इतर की दृष्टि के समान दृष्टि होने से शुद्धात्मानुभव से च्युत करना चारित्रमोह का कार्य नहीं है।690। निश्चय से जितना कषायों का अभाव है, उतना ही चारित्र है और जो कषायों का उदय है वही आत्मा का चारित्र से च्युत होना है।692। चारित्र मोह में स्वभाव से दो प्रकार की शक्तियाँ हैं−एक असंयतत्वरूप और दूसरी कषायत्वरूप।1131। इन दोनों कषाय व असंयतपने में युगपतता है, क्योंकि वास्तव में युगपत् उक्त दोनों ही शक्ति वाले इस कर्म का ही उस रूप से उदय होता है।1137। <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5">कषायवेदनीय के बंधयोग्य परिणाम</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/6/14/332/8 </span><span class="SanskritText">स्वपरकषायोत्पादनं तपस्विजनवृत्तदूषणं संक्लिष्टलिंगव्रतधारणादिः कषायवेदनीयस्यास्रवः। </span>= <span class="HindiText">स्वयं कषाय करना, दूसरों में कषाय उत्पन्न करना, तपस्वीजनों के चारित्र में दूषण लगाना, संक्लेश को पैदा करने वाले लिंग (वेष) और व्रत को धारण करना आदि कषायवेदनीय के आस्रव हैं। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/6/14/3/525/5 </span><span class="SanskritText"> जगदनुग्रहतंत्रशीलव्रतभावितात्मतपस्विजनगर्हण-धर्मावध्वंसन-तदंतरायकरणशीलगुणदेशसंयतविरति-प्रच्यावनमधुमद्यमांसविरतचित्तविभ्रमापादन-वृत्तसंदूषण-संक्लिष्टलिंगव्रत-धारणस्वपरकषायोत्पादनादिलक्षणः कषायवेदनीयस्यास्रवः।</span> = <span class="HindiText">जगदुपकारी शीलव्रती तपस्वियों की निंदा, धर्मध्वंस, धर्म में अंतराय करना, किसी को शीलगुण देशसंयम और सकलसंयम से च्युत करना, मद्य-मांस आदि से विरक्त जीवों को उससे बिचकाना, चरित्रदूषण, संक्लेशोत्पादक व्रत और वेषों का धारण, स्व और पर में कषायों का उत्पादन आदि कषायवेदनीय के आस्रव के कारण हैं। </span></li> | |||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6"> अकषायवेदनीय के बंधयोग्य परिणाम</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/6/14/3/525/8 </span><span class="SanskritText">उत्प्रहासादीनाभिहासित्व-कंदर्पोपहसन-बहुग्रलापोपहासशीलता हास्यवेदनीयस्य। विचित्रपरक्रीडनपरसौ-चित्यावर्जन-बहुविधपीडाभाव-देशाद्यनौत्सुक्यप्रीतिसंजननादिः रति-वेदनीयस्य। परारतिप्रादुर्भावनरतिविनाशनपापशीलसंसर्गताकुशल-क्रियाप्रोत्साहनादिः अरतिवेदनीयस्य। स्वशोकामोदशोचन-परदुःखाविष्करण-शोकप्लुताभिनंदनादिः शोकवेदनीयस्य। स्वयंभयपरिणाम-परभयोत्पादन-निर्दयत्व-त्रासनादिर्भयवेदनीयस्य। सद्धर्मापन्नचतुर्वर्णविशिष्टवर्गकुलक्रियाचारप्रवणजुगुप्सा-परिवाद-शीलत्वादिर्जुगुप्सावेदनीयस्य। प्रकृष्टक्रोधपरिणामातिमानितेर्ष्याव्यापारालीकाभिधायिता-तिसंधानपरत्व-प्रवृद्धराग-परांगनागमनादर-वामलोचनाभावाभिष्-वंगतादिः स्त्रीवेदस्य। स्तोकक्रोधजैह्य-निवृत्त्यनुत्सिक्तत्वा-लोभभावरंगनासमवायाल्परागत्व-स्वदार-संतोषेर्ष्याविशेषोपरमस्नानगंध-माल्याभरणानादरादिः पुंवेदनीयस्य। प्रचुरक्रोधमानमायालोभपरिणाम-गुह्येंद्रियव्यपरोपणस्त्रीपुंसानंगव्यसनित्व शीलव्रतगुणधारिप्रव्रज्या-श्रितप्रम(मै)थुन-परांग-नावस्कंदनरागतीव्रानाचारादिर्नपुंसकवेदनीयस्य।</span> = <span class="HindiText">उत्प्रहास, दीनतापूर्वक हँसी, कामविकार पूर्वक हँसी, बहु-प्रलाप तथा हर एक की हँसी मजाक करना <strong>हास्यवेदनीय</strong> के आस्रव के कारण हैं। विचित्र क्रीड़ा, दूसरे के चित्त को आकर्षण करना, बहुपीड़ा, देशादि के प्रति अनुत्सुकता, प्रीति उत्पन्न करना <strong>रतिवेदनीय</strong> के आस्रव के कारण हैं। रतिविनाश, पापशील व्यक्तियों की संगति, अकुशल क्रिया को प्रोत्साहन देना आदि <strong>अरतिवेदनीय</strong> के आस्रव के कारण हैं। स्वशोक, प्रीति के लिए पर का शोक करना, दूसरों को दुःख उत्पन्न करना, शोक से व्याप्त का अभिनंदन आदि <strong>शोकवेदनीय</strong> के आस्रव के कारण हैं। स्वयं भयभीत रहना, दूसरों को भय उत्पन्न करना, निर्दयता, त्रास, आदि<strong> भयवेदनीय</strong> के आस्रव के कारण हैं। धर्मात्मा चतुर्वर्ण विशिष्ट वर्ग कुल आदि की क्रिया और आचार में तत्पर पुरुषों से ग्लानि करना, दूसरे की बदनामी करने का स्वभाव आदि <strong>जुगुप्सावेदनीय</strong> के आस्रव के कारण हैं। अत्यंत क्रोध के परिणाम, अतिमान, अत्यंत ईर्ष्या, मिथ्याभाषण, छल कपट, तीव्रराग, परांगनागमन, स्त्रीभावों में रुचि आदि <strong>स्त्रीवेद</strong> के आस्रव के कारण हैं। मंदक्रोध, कुटिलता न होना, अभिमान न होना, निर्लोभ भाव, अल्पराग, स्वदारसंतोष, ईर्ष्या-रहित भाव, स्नान, गंध, माला, आभरण आदि के प्रति आदर न होना आदि <strong>पुंवेद</strong> के आस्रव के कारण हैं। प्रचुर क्रोध मान माया लोभ, गुप्त इंद्रियों का विनाश, स्त्री पुरुषों में अनंगक्रीड़ा का व्यसन, शीलव्रत गुणधारी और दीक्षाधारी पुरुषों को बिचकाना, परस्त्री पर आक्रमण, तीव्र राग, अनाचार आदि <strong>नपुंसकवेद</strong> के आस्रव के कारण हैं। <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/6/24/332/9 )</span>। </span></li> | |||
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Latest revision as of 14:41, 27 November 2023
- चारित्रमोहनीय निर्देश
- चारित्र मोहनीय सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/3/379/2 चारित्रमोहस्यासंयमः। = असंयमभाव चारित्रमोह की प्रकृति है। ( राजवार्तिक/8/3/4/597/4 )।
धवला 6/1, 9-1, 22/22/40/5 पापक्रियानिवृत्तिश्चारित्रम्। घादिकम्माणि पावं। तेसिं किरिया मिच्छत्तसंजमकसाया। तेसिमभावो चारित्तं। तं मोहेइ आवारेदि त्ति चारित्तमोहणीयं। = पापरूप क्रियाओं की निवृत्ति को चारित्र कहते हैं। घातिया कर्मों को पाप कहते हैं। मिथ्यात्व असंयम और कषाय, ये पाप की क्रियाएँ हैं। इन पाप क्रियाओं के अभाव को चारित्र कहते हैं। उस चारित्र को जो मोहित करता है अर्थात् आच्छादित करता है, उसे चारित्रमोहनीय कहते हैं। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1009 )।
धवला 13/5, 5, 92/358/1 रागभावो चरित्तं, तस्स मोहयं तप्पडिवक्खभावुप्याययं चारित्तमोहणीयं। = राग का न होना चारित्र है। उसे मोहित करने वाला अर्थात् उससे विपरीत भाव को उत्पन्न करने वाला कर्म चारित्रमोहनीय कहलाता है।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/27/23 चरति चर्यतेऽनेनेति चरणमात्रं वा चारित्रं, तन्मोहयति मुह्यतेऽनेनेति चारित्रमोहनीयं। = जो आचरण करता अथवा जिसके द्वारा आचरण किया जाता है अथवा आचरणमात्र चारित्र है। उसको जो मोहित करता है अथवा जिसके द्वारा मोहित किया जाता है सो चारित्रमोहनीय है।
- चारित्रमोहनीय के भेद-प्रभेद
षट्खण्डागम 6/1, 9-1/सूत्र 22-24/40-45 जं तं चारित्तमोहणीयं कम्मं तं दुविहं, कषायवेदणीयं चेव णोकसायवेदणीयं चेव।22। जं तं कसायवेदणीयं कम्मं तं सोडसविहं, अणंताणुबंधिकोहमाणमायालोहं, अपच्चक्खाणावरणीयकोह-माण-माया-लोहं, पच्चक्खाणावरणीयकोह-माण-माया-लोहं, कोहसंजलणं, माणसंजलणं, मायासंजलणं, लोहसंजलणं चेदि।23। जं तं णोकसायवेदणीयं कम्मं तं णवविहं, इत्थिवेदं, पुरिसवेदं, णवुंसयवेदं, हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा चेदि।24। = जो चारित्रमोहनीय कर्म है वह दो प्रकार का है−कषायवेदनीय ओर नोकषायवेदनीय।22। = जो कषायवेदनीय कर्म है वह 16 प्रकार का है−अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ; अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ; प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, माना, माया, लोभ; क्रोधसंज्वलन, मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और लोभसंज्वलन।23। = जो नोकषाय वेदनीय कर्म है वह नौ प्रकार का है−स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा।24। ( षट्खंडागम 13/5, 5/ सूत्र 94-96/359-361); (मू. आ./1226-1229); ( तत्त्वार्थसूत्र/8/9 ); ( पंचसंग्रह / प्राकृत/2/4 व उसकी व्याख्या); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/26/19/3; 33/27/23 ); ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1076-1077 )।
- कषाय व अकषायवेदनीय के लक्षण
धवला 13/5, 5, 94/359/7 जस्स कम्मस्स उदएण जीवो कसायं वेदयदि तं कम्मं कसायवेदणीयं णाम। जस्स कम्मस्स उदएण जीवो णोकसायं वेदयदि तं णोकसायवेदणीयं णाम। = जिस कर्म के उदय से जीव कषाय का वेदन करता है वह कषायवेदनीय कर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव नोकषाय का वेदन करता है, वह नोकषाय-वेदनीय कर्म है।
- चारित्रमोह की सामर्थ्य कषायोत्पादन में है स्वरूपाचरण विच्छेद में नहीं
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/श्लोक नं कार्यं चारित्रमोहस्य चारित्राच्च्युतिरात्मनः। नात्मदृष्टेस्तु दृष्टित्वान्न्यायादितरदृष्टिवत्।690। कषायाणामनुद्रेकश्चारित्रं तावदेव हि। नानुद्रेकः कषायाणां चारित्राच्युतिरात्मनः।692। अस्ति चारित्रमोहेऽपि शक्तिद्वैतं निसर्गतः। एकं चासंयतत्वं स्यात् कषायत्वमथापरम्।1131। यौगपद्य द्वयोरेव कषायासंयतत्वयोः। समं शक्तिद्वयस्योच्चैः कर्मणोऽस्य तथोदयात्।1137। = न्यायानुसार आत्मा को चारित्र से च्युत करना ही चारित्रमोह का कार्य है, किंतु इतर की दृष्टि के समान दृष्टि होने से शुद्धात्मानुभव से च्युत करना चारित्रमोह का कार्य नहीं है।690। निश्चय से जितना कषायों का अभाव है, उतना ही चारित्र है और जो कषायों का उदय है वही आत्मा का चारित्र से च्युत होना है।692। चारित्र मोह में स्वभाव से दो प्रकार की शक्तियाँ हैं−एक असंयतत्वरूप और दूसरी कषायत्वरूप।1131। इन दोनों कषाय व असंयतपने में युगपतता है, क्योंकि वास्तव में युगपत् उक्त दोनों ही शक्ति वाले इस कर्म का ही उस रूप से उदय होता है।1137।
- कषायवेदनीय के बंधयोग्य परिणाम
सर्वार्थसिद्धि/6/14/332/8 स्वपरकषायोत्पादनं तपस्विजनवृत्तदूषणं संक्लिष्टलिंगव्रतधारणादिः कषायवेदनीयस्यास्रवः। = स्वयं कषाय करना, दूसरों में कषाय उत्पन्न करना, तपस्वीजनों के चारित्र में दूषण लगाना, संक्लेश को पैदा करने वाले लिंग (वेष) और व्रत को धारण करना आदि कषायवेदनीय के आस्रव हैं।
राजवार्तिक/6/14/3/525/5 जगदनुग्रहतंत्रशीलव्रतभावितात्मतपस्विजनगर्हण-धर्मावध्वंसन-तदंतरायकरणशीलगुणदेशसंयतविरति-प्रच्यावनमधुमद्यमांसविरतचित्तविभ्रमापादन-वृत्तसंदूषण-संक्लिष्टलिंगव्रत-धारणस्वपरकषायोत्पादनादिलक्षणः कषायवेदनीयस्यास्रवः। = जगदुपकारी शीलव्रती तपस्वियों की निंदा, धर्मध्वंस, धर्म में अंतराय करना, किसी को शीलगुण देशसंयम और सकलसंयम से च्युत करना, मद्य-मांस आदि से विरक्त जीवों को उससे बिचकाना, चरित्रदूषण, संक्लेशोत्पादक व्रत और वेषों का धारण, स्व और पर में कषायों का उत्पादन आदि कषायवेदनीय के आस्रव के कारण हैं। - अकषायवेदनीय के बंधयोग्य परिणाम
राजवार्तिक/6/14/3/525/8 उत्प्रहासादीनाभिहासित्व-कंदर्पोपहसन-बहुग्रलापोपहासशीलता हास्यवेदनीयस्य। विचित्रपरक्रीडनपरसौ-चित्यावर्जन-बहुविधपीडाभाव-देशाद्यनौत्सुक्यप्रीतिसंजननादिः रति-वेदनीयस्य। परारतिप्रादुर्भावनरतिविनाशनपापशीलसंसर्गताकुशल-क्रियाप्रोत्साहनादिः अरतिवेदनीयस्य। स्वशोकामोदशोचन-परदुःखाविष्करण-शोकप्लुताभिनंदनादिः शोकवेदनीयस्य। स्वयंभयपरिणाम-परभयोत्पादन-निर्दयत्व-त्रासनादिर्भयवेदनीयस्य। सद्धर्मापन्नचतुर्वर्णविशिष्टवर्गकुलक्रियाचारप्रवणजुगुप्सा-परिवाद-शीलत्वादिर्जुगुप्सावेदनीयस्य। प्रकृष्टक्रोधपरिणामातिमानितेर्ष्याव्यापारालीकाभिधायिता-तिसंधानपरत्व-प्रवृद्धराग-परांगनागमनादर-वामलोचनाभावाभिष्-वंगतादिः स्त्रीवेदस्य। स्तोकक्रोधजैह्य-निवृत्त्यनुत्सिक्तत्वा-लोभभावरंगनासमवायाल्परागत्व-स्वदार-संतोषेर्ष्याविशेषोपरमस्नानगंध-माल्याभरणानादरादिः पुंवेदनीयस्य। प्रचुरक्रोधमानमायालोभपरिणाम-गुह्येंद्रियव्यपरोपणस्त्रीपुंसानंगव्यसनित्व शीलव्रतगुणधारिप्रव्रज्या-श्रितप्रम(मै)थुन-परांग-नावस्कंदनरागतीव्रानाचारादिर्नपुंसकवेदनीयस्य। = उत्प्रहास, दीनतापूर्वक हँसी, कामविकार पूर्वक हँसी, बहु-प्रलाप तथा हर एक की हँसी मजाक करना हास्यवेदनीय के आस्रव के कारण हैं। विचित्र क्रीड़ा, दूसरे के चित्त को आकर्षण करना, बहुपीड़ा, देशादि के प्रति अनुत्सुकता, प्रीति उत्पन्न करना रतिवेदनीय के आस्रव के कारण हैं। रतिविनाश, पापशील व्यक्तियों की संगति, अकुशल क्रिया को प्रोत्साहन देना आदि अरतिवेदनीय के आस्रव के कारण हैं। स्वशोक, प्रीति के लिए पर का शोक करना, दूसरों को दुःख उत्पन्न करना, शोक से व्याप्त का अभिनंदन आदि शोकवेदनीय के आस्रव के कारण हैं। स्वयं भयभीत रहना, दूसरों को भय उत्पन्न करना, निर्दयता, त्रास, आदि भयवेदनीय के आस्रव के कारण हैं। धर्मात्मा चतुर्वर्ण विशिष्ट वर्ग कुल आदि की क्रिया और आचार में तत्पर पुरुषों से ग्लानि करना, दूसरे की बदनामी करने का स्वभाव आदि जुगुप्सावेदनीय के आस्रव के कारण हैं। अत्यंत क्रोध के परिणाम, अतिमान, अत्यंत ईर्ष्या, मिथ्याभाषण, छल कपट, तीव्रराग, परांगनागमन, स्त्रीभावों में रुचि आदि स्त्रीवेद के आस्रव के कारण हैं। मंदक्रोध, कुटिलता न होना, अभिमान न होना, निर्लोभ भाव, अल्पराग, स्वदारसंतोष, ईर्ष्या-रहित भाव, स्नान, गंध, माला, आभरण आदि के प्रति आदर न होना आदि पुंवेद के आस्रव के कारण हैं। प्रचुर क्रोध मान माया लोभ, गुप्त इंद्रियों का विनाश, स्त्री पुरुषों में अनंगक्रीड़ा का व्यसन, शीलव्रत गुणधारी और दीक्षाधारी पुरुषों को बिचकाना, परस्त्री पर आक्रमण, तीव्र राग, अनाचार आदि नपुंसकवेद के आस्रव के कारण हैं। ( सर्वार्थसिद्धि/6/24/332/9 )।
- चारित्र मोहनीय सामान्य का लक्षण