दर्शन उपयोग 3: Difference between revisions
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<span class="GRef"> नियमसार 160 </span><span class="PrakritGatha">जुगवं वट्टइ णाणं केवलिणाणिस्स दंसणं च तहा। दिणयरपयासतापं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं।60।</span> =<span class="HindiText">केवलज्ञानी को ज्ञान तथा दर्शन युगपत् वर्तते हैं। सूर्य के प्रकाश व ताप जिस प्रकार वर्तते हों, उसी प्रकार जानना। </span><span class="GRef"> धवला 13/5,5,85/356/1 </span><span class="PrakritText">छदुमत्थणाणाणि दंसणपुव्वाणि केवलणाणं पुण केवलदंसणसमकालभाभी णिरावणत्तादो। </span>=<span class="HindiText">छद्मस्थों के ज्ञान दर्शनपूर्वक होते हैं परंतु केवलज्ञान केवलदर्शन के समान काल में होता है; क्योंकि, उनके ज्ञान और दर्शन ये दोनों निरावरण हैं। <span class="GRef">( राजवार्तिक/2/9/3/124/11 )</span>; <span class="GRef">( परमात्मप्रकाश/ </span>मू./2/35); <span class="GRef">( धवला 3/1,2,161/457/2 )</span>; <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह 44 )</span>।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="3.2" id="3.2"><strong> केवलदर्शन व केवलज्ञान की युगपत् प्रवृत्ति में हेतु</strong> </span><br> | <li><span class="HindiText" name="3.2" id="3.2"><strong> केवलदर्शन व केवलज्ञान की युगपत् प्रवृत्ति में हेतु</strong> </span><br><span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1-20/ </span>प्रकरण/पृष्ठ/पंक्ति–<span class="PrakritText">केवलणाणकेवलदंसणाणमुक्कस्स उवजोगकालो जेण ‘अंतोमुहुत्तमेत्तो’ त्ति भणिदो तेण णव्वदे जहा केवलणाणदंसणाणमक्कमेण उत्ती णहोदि त्ति। (319/351/2)। अथ परिहारो उच्चदे। तं जहा केवलणाणदंसणावरणाणं किमक्कमणक्खओ, आहो कमेणेत्ति।...अक्कमेण विणासे संते केवलणाणेण सह केवलदंसणेण वि उप्पज्जेयव्वं, अक्कमेण अविकलकारणे संते तेसिं कमुप्पत्तिविरोहादो। ...तम्हा अक्कमेण उप्पण्णत्तादो ण केवलणाणदंसणाणं कमउत्ती त्ति। (320/351/9) होउ णाम केवलणाणदंसणाणमक्कमेणुप्पत्ती; अक्कमेण विणट्ठावरणत्तादो, किंतु केवलणाणं दसणुवजोगो कमेण चेव होंति, सामण्णविसेसयत्तेण अव्वत्त वत्त-सरूवाणमक्कमेण पउत्तिविरोहादो त्ति।(321/352/7)। होदि एसो दोसो जदि केवलणाणं विसेसविसयं चेव केवलदंसणं पि सामण्णविसयं चेव। ण च एवं, दोण्हं पि विसयाभावेण अभावप्पसंगादो। (322/353/1)। तदो सामण्णविसेसविसयत्ते केवलणाण-दंसणाणमभावो होज्ज णिविसयत्तादो त्ति सिद्धं। उत्तं च–अद्दिट्ठं अण्णादं केवलि एसो हु भासइ सया वि। एएयसमयम्मि हंदि हु वयणविसेसी ण संभवइ।140। अण्णादं पासंतो अदिट्ठमराहा सया तो वियाणंतो। किं जाणइ किं पासइ कह सव्वणहो त्ति वा होइ।141। (324/356/3)। ण च दोण्हमुवजोगाणमक्कमेण वुत्ती विरुद्धा; कम्मकयस्स कम्मस्स तदभावेण अभावमुवगयस्स तत्थ सत्तविरोहादो।(325/356/10)। एवं संते केवलणाणदंसणाणमुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तमेत्तकालो कथं जुज्जदे। सहि वग्घ-छवल्ल-सिव-सियालाईहि खज्जमाणेसु उप्पण्ण केवलणाणदंसणुक्कस्सकालग्गहणादो जुज्जदे। (329/360/6)। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–चूँकि केवलज्ञान और केवलदर्शन का उत्कृष्ट उपयोगकाल अंतर्मुहूर्त कहा है, इससे जाना जाता है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्रवृत्ति एक साथ नहीं होती ? <strong>उत्तर</strong>–1. उक्त शंका का समाधान करते हैं। हम पूछते हैं कि केवलज्ञानावरण व केवलदर्शनावरण का क्षय एक साथ होता है या क्रम से होता है ? (क्रम से तो होता नहीं है, क्योंकि आगम में ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अंतराय इन तीनों कर्मों की सत्त्व व्युच्छित्ति 12वें गुणस्थान के अंत में युगपत् बतायी है (देखें [[ सत्त्व ]])। यदि अक्रम से क्षय माना जाये तो केवलज्ञान के साथ केवलदर्शन भी उत्पन्न होना चाहिए, क्योंकि केवलज्ञान और केवलदर्शन की उत्पत्ति के सभी अविकल कारणों के एक साथ मिल जाने पर उनकी क्रम से उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। और क्योंकि वे अक्रम से उत्पन्न होते हैं इसलिए उनकी प्रवृत्ति भी क्रम से नहीं बन सकती। 2. <strong>प्रश्न</strong>–केवलज्ञान व केवलदर्शन की उत्पत्ति एक साथ रही आओ क्योंकि उनके आवरणों का विनाश एक साथ होता है। किंतु केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग क्रम से ही होते हैं, क्योंकि केवलदर्शन सामान्य को विषय करने वाला होने से अव्यक्तरूप है और केवलज्ञान विशेष को विषय करने वाला होने से व्यक्तरूप है, इसलिए उनकी एक साथ प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है। <strong>उत्तर</strong>–यदि केवलज्ञान केवल विशेष को और केवलदर्शन केवल सामान्य को विषय करता, तो यह दोष संभव होता, पर ऐसा नहीं है, क्योंकि केवल सामान्य और केवल विशेषरूप विषय का अभाव होने से उन दोनों (ज्ञान व दर्शन) के भी अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। अत: जबकि सामान्य विशेषात्मक वस्तु है तो केवलदर्शन को केवल सामान्य को विषय करने वाला और केवलज्ञान को केवल विशेष को विषय करने वाला मानने पर दोनों उपयोगों का अभाव प्राप्त होता है, क्योंकि केवल सामान्य और केवल विशेष रूप पदार्थ नहीं पाये जाते। कहा भी है–यदि दर्शन का विषय केवल सामान्य और ज्ञान का विषय केवल विशेष माना जाये तो जिनमें जो अदृष्ट है ऐसे ज्ञात पदार्थ को तथा जो अज्ञात है ऐसे दृष्ट पदार्थ को ही सदा कहते हैं, ऐसी आपत्ति प्राप्त होगी। और इसलिए ‘एक समय में ज्ञात और दृष्ट पदार्थ को केवली जिन कहते हैं’ यह वचन विशेष नहीं बन सकता है।140। अज्ञात पदार्थ को देखते हुए और अदृष्ट पदार्थ को जानते हुए अरहंत देव क्या जानते हैं और क्या देखते हैं ? तथा उनके सर्वज्ञता भी कैसे बन सकती है ?।141। (और भी देखें [[ दर्शन#2.3 | दर्शन - 2.3]],4)। 3. दोनों उपयोगों की एक साथ प्रवृत्ति मानने में विरोध भी नहीं आता है, क्योंकि, उपयोगों की क्रमवृत्ति कर्म का कार्य है, और कर्म का अभाव हो जाने से उपयोगों की क्रमवृत्ति का भी अभाव हो जाता है, इसलिए निरावरण केवलज्ञान और केवलदर्शन की क्रमवृत्ति के मानने में विरोध आता है। 4. <strong>प्रश्न</strong>–यदि ऐसा है तो इन दोनों का उत्कृष्टरूप से अंतर्मुहूर्तकाल कैसे बन सकता है ? <strong>उत्तर</strong>–चूँकि, यहाँ पर सिंह, व्याघ्र, छव्वल, शिवा और स्याल आदि के द्वारा खाये जाने वाले जीवों में उत्पन्न हुए केवलज्ञान दर्शन के उत्कृष्टकाल का ग्रहण किया है, इसलिए इनका अंतर्मुहूर्त प्रमाण काल बन जाता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3.3" id="3.3"><strong> | <li><span class="HindiText" name="3.3" id="3.3"><strong> छद्मस्थों के दर्शनज्ञान की क्रमवृत्ति में हेतु</strong></span><br> <span class="GRef"> धवला 1/1,1,133/384/3 </span><span class="SanskritText">भवतु छद्मस्थायामप्यक्रमेण क्षीणावरणे इव तयो: प्रवृत्तिरिति चेन्न, आवरणाविरुद्धाक्रमयोरक्रमप्रवृत्तिविरोधात् । अस्वसंविद्रूपो न कदाचिदप्यात्मोपलभ्यत इति चेन्न, बहिरंगोपयोगावस्थायामंतरंगोपयोगानुपलंभात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–आवरण कर्म से रहित जीवों में जिस प्रकार ज्ञान और दर्शन की युगपत् प्रवृत्ति पायी जाती है, उसी प्रकार छद्मस्थ अवस्था में भी उन दोनों की एक साथ प्रवृत्ति होओ ? <strong>उत्तर</strong>–1. नहीं क्योंकि आवरण कर्म के उदय से जिनकी युगपत् प्रवृत्ति करने की शक्ति रुक गयी है, ऐसे छद्मस्थ जीवों के ज्ञान और दर्शन में युगपत् प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है। <strong>प्रश्न</strong>–2. अपने आपके संवेदन से रहित आत्मा की तो कभी भी उपलब्धि नहीं होती है ? (अर्थात् निज संवेदन तो प्रत्येक जीव को हर समय रहता ही है) ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, बहिरंग पदार्थों के उपयोगरूप अवस्था में अंतरंग पदार्थ का उपयोग नहीं पाया जाता है।</span></li> | ||
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Latest revision as of 15:10, 27 November 2023
- दर्शन व ज्ञान की क्रम व अक्रम प्रवृत्ति
- छद्मस्थों के दर्शन व ज्ञान क्रमपूर्वक होते हैं और केवली को अक्रम
नियमसार 160 जुगवं वट्टइ णाणं केवलिणाणिस्स दंसणं च तहा। दिणयरपयासतापं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं।60। =केवलज्ञानी को ज्ञान तथा दर्शन युगपत् वर्तते हैं। सूर्य के प्रकाश व ताप जिस प्रकार वर्तते हों, उसी प्रकार जानना। धवला 13/5,5,85/356/1 छदुमत्थणाणाणि दंसणपुव्वाणि केवलणाणं पुण केवलदंसणसमकालभाभी णिरावणत्तादो। =छद्मस्थों के ज्ञान दर्शनपूर्वक होते हैं परंतु केवलज्ञान केवलदर्शन के समान काल में होता है; क्योंकि, उनके ज्ञान और दर्शन ये दोनों निरावरण हैं। ( राजवार्तिक/2/9/3/124/11 ); ( परमात्मप्रकाश/ मू./2/35); ( धवला 3/1,2,161/457/2 ); ( द्रव्यसंग्रह 44 )। - केवलदर्शन व केवलज्ञान की युगपत् प्रवृत्ति में हेतु
कषायपाहुड़ 1/1-20/ प्रकरण/पृष्ठ/पंक्ति–केवलणाणकेवलदंसणाणमुक्कस्स उवजोगकालो जेण ‘अंतोमुहुत्तमेत्तो’ त्ति भणिदो तेण णव्वदे जहा केवलणाणदंसणाणमक्कमेण उत्ती णहोदि त्ति। (319/351/2)। अथ परिहारो उच्चदे। तं जहा केवलणाणदंसणावरणाणं किमक्कमणक्खओ, आहो कमेणेत्ति।...अक्कमेण विणासे संते केवलणाणेण सह केवलदंसणेण वि उप्पज्जेयव्वं, अक्कमेण अविकलकारणे संते तेसिं कमुप्पत्तिविरोहादो। ...तम्हा अक्कमेण उप्पण्णत्तादो ण केवलणाणदंसणाणं कमउत्ती त्ति। (320/351/9) होउ णाम केवलणाणदंसणाणमक्कमेणुप्पत्ती; अक्कमेण विणट्ठावरणत्तादो, किंतु केवलणाणं दसणुवजोगो कमेण चेव होंति, सामण्णविसेसयत्तेण अव्वत्त वत्त-सरूवाणमक्कमेण पउत्तिविरोहादो त्ति।(321/352/7)। होदि एसो दोसो जदि केवलणाणं विसेसविसयं चेव केवलदंसणं पि सामण्णविसयं चेव। ण च एवं, दोण्हं पि विसयाभावेण अभावप्पसंगादो। (322/353/1)। तदो सामण्णविसेसविसयत्ते केवलणाण-दंसणाणमभावो होज्ज णिविसयत्तादो त्ति सिद्धं। उत्तं च–अद्दिट्ठं अण्णादं केवलि एसो हु भासइ सया वि। एएयसमयम्मि हंदि हु वयणविसेसी ण संभवइ।140। अण्णादं पासंतो अदिट्ठमराहा सया तो वियाणंतो। किं जाणइ किं पासइ कह सव्वणहो त्ति वा होइ।141। (324/356/3)। ण च दोण्हमुवजोगाणमक्कमेण वुत्ती विरुद्धा; कम्मकयस्स कम्मस्स तदभावेण अभावमुवगयस्स तत्थ सत्तविरोहादो।(325/356/10)। एवं संते केवलणाणदंसणाणमुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तमेत्तकालो कथं जुज्जदे। सहि वग्घ-छवल्ल-सिव-सियालाईहि खज्जमाणेसु उप्पण्ण केवलणाणदंसणुक्कस्सकालग्गहणादो जुज्जदे। (329/360/6)। =प्रश्न–चूँकि केवलज्ञान और केवलदर्शन का उत्कृष्ट उपयोगकाल अंतर्मुहूर्त कहा है, इससे जाना जाता है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्रवृत्ति एक साथ नहीं होती ? उत्तर–1. उक्त शंका का समाधान करते हैं। हम पूछते हैं कि केवलज्ञानावरण व केवलदर्शनावरण का क्षय एक साथ होता है या क्रम से होता है ? (क्रम से तो होता नहीं है, क्योंकि आगम में ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अंतराय इन तीनों कर्मों की सत्त्व व्युच्छित्ति 12वें गुणस्थान के अंत में युगपत् बतायी है (देखें सत्त्व )। यदि अक्रम से क्षय माना जाये तो केवलज्ञान के साथ केवलदर्शन भी उत्पन्न होना चाहिए, क्योंकि केवलज्ञान और केवलदर्शन की उत्पत्ति के सभी अविकल कारणों के एक साथ मिल जाने पर उनकी क्रम से उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। और क्योंकि वे अक्रम से उत्पन्न होते हैं इसलिए उनकी प्रवृत्ति भी क्रम से नहीं बन सकती। 2. प्रश्न–केवलज्ञान व केवलदर्शन की उत्पत्ति एक साथ रही आओ क्योंकि उनके आवरणों का विनाश एक साथ होता है। किंतु केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग क्रम से ही होते हैं, क्योंकि केवलदर्शन सामान्य को विषय करने वाला होने से अव्यक्तरूप है और केवलज्ञान विशेष को विषय करने वाला होने से व्यक्तरूप है, इसलिए उनकी एक साथ प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है। उत्तर–यदि केवलज्ञान केवल विशेष को और केवलदर्शन केवल सामान्य को विषय करता, तो यह दोष संभव होता, पर ऐसा नहीं है, क्योंकि केवल सामान्य और केवल विशेषरूप विषय का अभाव होने से उन दोनों (ज्ञान व दर्शन) के भी अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। अत: जबकि सामान्य विशेषात्मक वस्तु है तो केवलदर्शन को केवल सामान्य को विषय करने वाला और केवलज्ञान को केवल विशेष को विषय करने वाला मानने पर दोनों उपयोगों का अभाव प्राप्त होता है, क्योंकि केवल सामान्य और केवल विशेष रूप पदार्थ नहीं पाये जाते। कहा भी है–यदि दर्शन का विषय केवल सामान्य और ज्ञान का विषय केवल विशेष माना जाये तो जिनमें जो अदृष्ट है ऐसे ज्ञात पदार्थ को तथा जो अज्ञात है ऐसे दृष्ट पदार्थ को ही सदा कहते हैं, ऐसी आपत्ति प्राप्त होगी। और इसलिए ‘एक समय में ज्ञात और दृष्ट पदार्थ को केवली जिन कहते हैं’ यह वचन विशेष नहीं बन सकता है।140। अज्ञात पदार्थ को देखते हुए और अदृष्ट पदार्थ को जानते हुए अरहंत देव क्या जानते हैं और क्या देखते हैं ? तथा उनके सर्वज्ञता भी कैसे बन सकती है ?।141। (और भी देखें दर्शन - 2.3,4)। 3. दोनों उपयोगों की एक साथ प्रवृत्ति मानने में विरोध भी नहीं आता है, क्योंकि, उपयोगों की क्रमवृत्ति कर्म का कार्य है, और कर्म का अभाव हो जाने से उपयोगों की क्रमवृत्ति का भी अभाव हो जाता है, इसलिए निरावरण केवलज्ञान और केवलदर्शन की क्रमवृत्ति के मानने में विरोध आता है। 4. प्रश्न–यदि ऐसा है तो इन दोनों का उत्कृष्टरूप से अंतर्मुहूर्तकाल कैसे बन सकता है ? उत्तर–चूँकि, यहाँ पर सिंह, व्याघ्र, छव्वल, शिवा और स्याल आदि के द्वारा खाये जाने वाले जीवों में उत्पन्न हुए केवलज्ञान दर्शन के उत्कृष्टकाल का ग्रहण किया है, इसलिए इनका अंतर्मुहूर्त प्रमाण काल बन जाता है। - छद्मस्थों के दर्शनज्ञान की क्रमवृत्ति में हेतु
धवला 1/1,1,133/384/3 भवतु छद्मस्थायामप्यक्रमेण क्षीणावरणे इव तयो: प्रवृत्तिरिति चेन्न, आवरणाविरुद्धाक्रमयोरक्रमप्रवृत्तिविरोधात् । अस्वसंविद्रूपो न कदाचिदप्यात्मोपलभ्यत इति चेन्न, बहिरंगोपयोगावस्थायामंतरंगोपयोगानुपलंभात् ।=प्रश्न–आवरण कर्म से रहित जीवों में जिस प्रकार ज्ञान और दर्शन की युगपत् प्रवृत्ति पायी जाती है, उसी प्रकार छद्मस्थ अवस्था में भी उन दोनों की एक साथ प्रवृत्ति होओ ? उत्तर–1. नहीं क्योंकि आवरण कर्म के उदय से जिनकी युगपत् प्रवृत्ति करने की शक्ति रुक गयी है, ऐसे छद्मस्थ जीवों के ज्ञान और दर्शन में युगपत् प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है। प्रश्न–2. अपने आपके संवेदन से रहित आत्मा की तो कभी भी उपलब्धि नहीं होती है ? (अर्थात् निज संवेदन तो प्रत्येक जीव को हर समय रहता ही है) ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, बहिरंग पदार्थों के उपयोगरूप अवस्था में अंतरंग पदार्थ का उपयोग नहीं पाया जाता है।
- छद्मस्थों के दर्शन व ज्ञान क्रमपूर्वक होते हैं और केवली को अक्रम