दर्शनाराधना: Difference between revisions
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<p> निश्चय से निर्दोष सम्यग्दर्शन की आराधना । इस आराधना से जीव आदि तत्त्वों पर और उनके प्रतिपादक जिनेश्वर, | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> निश्चय से निर्दोष सम्यग्दर्शन की आराधना । इस आराधना से जीव आदि तत्त्वों पर और उनके प्रतिपादक जिनेश्वर, निर्ग्रंथ गुरू और जिनशास्त्रों पर श्रद्धान होता है । <span class="GRef"> पांडवपुराण 19. 263-264 </span>दर्शनावरण—श्रेष्ठ दर्शन का अवरोधक कर्म । चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण ये चार आवरण तथा निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि ये पांच निद्राएँ इस कर्म की नौ उत्तर प्रकृतियां है । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_3#95|हरिवंशपुराण - 3.95]],58, 215, 221, 226-229 </span>इसकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर तथा जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त होती है । <span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16.156-160 </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:10, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
देखें आराधना ।
पुराणकोष से
निश्चय से निर्दोष सम्यग्दर्शन की आराधना । इस आराधना से जीव आदि तत्त्वों पर और उनके प्रतिपादक जिनेश्वर, निर्ग्रंथ गुरू और जिनशास्त्रों पर श्रद्धान होता है । पांडवपुराण 19. 263-264 दर्शनावरण—श्रेष्ठ दर्शन का अवरोधक कर्म । चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण ये चार आवरण तथा निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि ये पांच निद्राएँ इस कर्म की नौ उत्तर प्रकृतियां है । हरिवंशपुराण - 3.95,58, 215, 221, 226-229 इसकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर तथा जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त होती है । वीरवर्द्धमान चरित्र 16.156-160