द्विज: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
(4 intermediate revisions by 2 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
== सिद्धांतकोष से == | | ||
देखें [[ ब्राह्मण ]]। | == सिद्धांतकोष से == | ||
<span class="GRef"> महापुराण/38/43-48 </span><span class="SanskritGatha">तपःश्रुतं च जातिश्च त्रयं ब्राह्मण्यकारणम् । तपःश्रुताभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव सः ।43। ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् ... ।46। तपःश्रुताभ्यामेवातो जातिसंस्कार इष्यते । असंस्कृतस्तु यस्ताभ्यां जातिमात्रेण स द्विजः ।47। द्विर्जातो हि द्विजन्मेष्ट: क्रियातो गर्भतश्च यः । क्रियामंत्रविहीनस्तु केवलं नामधारकः ।48।</span> | |||
<ol> | |||
<li> <span class="HindiText">तप, शास्त्रज्ञान और जाति ये तीन ब्राह्मण होने के कारण हैं । जो मनुष्य तप और शास्त्रज्ञान से रहित है वह केवल जाति से ही ब्राह्मण है।43। अथवा व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण होता है ।46। </span></li> | |||
<li class="HindiText"> '''द्विज''' जाति का संस्कार तपश्चरण और शास्त्राभ्यास से ही माना जाता है, परंतु तपश्चरण और शास्त्राभ्यास से जिसका संस्कार नहीं हुआ है वह जातिमात्र से द्विज कहलाता है ।47। जो एक बार गर्भ से और दूसरी बार क्रिया से इस प्रकार दो बार उत्पन्न हुआ हो उसको दो बार जन्मा अर्थात् '''द्विज''' कहते हैं । <span class="GRef">( महापुराण/39/93 )</span> । परंतु जो क्रिया और मंत्र दोनों से रहित है वह केवल नाम को धारण करने वाला द्विज है ।48।<br /> | |||
<span> class="HindiText">अधिक जानकारी के लिये देखें [[ ब्राह्मण ]]।</span> | |||
<noinclude> | <noinclude> | ||
Line 12: | Line 18: | ||
== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p> इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप― इन छ: विशुद्ध वृत्तियों का धारक व्यक्ति । एक बार गर्भ से और दूसरी बार संस्कारों से जन्म होने के कारण ऐसे व्यक्ति द्विज कहलाते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 38.24,42, 47-48, 40.149 </span>द्विजत्व के ज्ञान और विकास के लिए इनके दस कर्त्तव्य होते हैं― अतिबाल-विद्या, कुलावधि, वर्णोत्तमत्व, पात्रत्व, सृष्ट्यधिकारिता, व्यवहारेशिता, अवध्यता, | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप― इन छ: विशुद्ध वृत्तियों का धारक व्यक्ति । एक बार गर्भ से और दूसरी बार संस्कारों से जन्म होने के कारण ऐसे व्यक्ति द्विज कहलाते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 38.24,42, 47-48, 40.149 </span>द्विजत्व के ज्ञान और विकास के लिए इनके दस कर्त्तव्य होते हैं― अतिबाल-विद्या, कुलावधि, वर्णोत्तमत्व, पात्रत्व, सृष्ट्यधिकारिता, व्यवहारेशिता, अवध्यता, अदंड्यता, मानर्हिता और प्रजासंबंधांतर । उपासकाध्ययन में इन्हीं दस कर्तव्यों को दस अधिकारों के रूप में वर्णित किया गया है । <span class="GRef"> महापुराण 40. 174-177 </span></p> | ||
</div> | |||
<noinclude> | <noinclude> | ||
Line 23: | Line 29: | ||
[[Category: पुराण-कोष]] | [[Category: पुराण-कोष]] | ||
[[Category: द]] | [[Category: द]] | ||
[[Category: चरणानुयोग]] |
Latest revision as of 15:11, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
महापुराण/38/43-48 तपःश्रुतं च जातिश्च त्रयं ब्राह्मण्यकारणम् । तपःश्रुताभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव सः ।43। ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् ... ।46। तपःश्रुताभ्यामेवातो जातिसंस्कार इष्यते । असंस्कृतस्तु यस्ताभ्यां जातिमात्रेण स द्विजः ।47। द्विर्जातो हि द्विजन्मेष्ट: क्रियातो गर्भतश्च यः । क्रियामंत्रविहीनस्तु केवलं नामधारकः ।48।
- तप, शास्त्रज्ञान और जाति ये तीन ब्राह्मण होने के कारण हैं । जो मनुष्य तप और शास्त्रज्ञान से रहित है वह केवल जाति से ही ब्राह्मण है।43। अथवा व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण होता है ।46।
- द्विज जाति का संस्कार तपश्चरण और शास्त्राभ्यास से ही माना जाता है, परंतु तपश्चरण और शास्त्राभ्यास से जिसका संस्कार नहीं हुआ है वह जातिमात्र से द्विज कहलाता है ।47। जो एक बार गर्भ से और दूसरी बार क्रिया से इस प्रकार दो बार उत्पन्न हुआ हो उसको दो बार जन्मा अर्थात् द्विज कहते हैं । ( महापुराण/39/93 ) । परंतु जो क्रिया और मंत्र दोनों से रहित है वह केवल नाम को धारण करने वाला द्विज है ।48।
class="HindiText">अधिक जानकारी के लिये देखें ब्राह्मण । पूर्व पृष्ठ अगला पृष्ठपुराणकोष से
इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप― इन छ: विशुद्ध वृत्तियों का धारक व्यक्ति । एक बार गर्भ से और दूसरी बार संस्कारों से जन्म होने के कारण ऐसे व्यक्ति द्विज कहलाते हैं । महापुराण 38.24,42, 47-48, 40.149 द्विजत्व के ज्ञान और विकास के लिए इनके दस कर्त्तव्य होते हैं― अतिबाल-विद्या, कुलावधि, वर्णोत्तमत्व, पात्रत्व, सृष्ट्यधिकारिता, व्यवहारेशिता, अवध्यता, अदंड्यता, मानर्हिता और प्रजासंबंधांतर । उपासकाध्ययन में इन्हीं दस कर्तव्यों को दस अधिकारों के रूप में वर्णित किया गया है । महापुराण 40. 174-177