धर्मनाथ: Difference between revisions
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| <span class="GRef">( महापुराण/61/श्लोक )</span>‒पूर्वभव नं.2 में पूर्व धातकीखंड के पूर्वविदेह के वत्सदेश की सुसीमा नगरी के राजा दशरथ थे। (2-3)। पूर्वभव नं.1 में सर्वार्थसिद्धि में देव थे। (9)। वर्तमानभव में 15वें तीर्थंकर हुए।13-55। (विशेष देखें [[ तीर्थंकर#5 | तीर्थंकर - 5]])। | ||
== पुराणकोष से == | |||
<span class="HindiText"> अवसर्पिणी के दु:षमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न एक शलाकापुरुष एवं पंद्रहवें तीर्थंकर । ये जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में विद्यमान रत्नपुर नगर में कुरुवंशी-काश्यपगोत्री राजा भानु के घर जन्में थे । रानी सुप्रभा इनकी माता थी । वैशाख शुक्ल त्रयोदशी के दिन रेवती नक्षत्र में प्रात:काल के समय इनकी माता ने सोलह स्वप्न देखे थे । उसी समय अनुत्तर विमान से च्युत होकर ये सुप्रभा रानी के गर्भ में आये । माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन गुरुयोग मे अनंतनाथ भगवान् के बाद चार सागर प्रमाण समय बीत जाने पर इनका जन्म हुआ । जन्माभिषेक के पश्चात् इंद्र ने इनका यह नाम रखा था । इनकी आयु दस लाख वर्ष, शारीरिक कांति स्वर्ण के समान और अवगाहना एक सौ अस्सी हाथ थी । कुमारावस्था के अढ़ाई लाख वर्ष बीत जाने पर इन्हें राज्य मिला था । पाँच लाख वर्ष प्रमाण राज्यकाल बीत जाते पर उल्कापात देख इन्हें वैराग्य हो गया । अपने ज्येष्ठ पुत्र सुधर्म को इन्होंने राज्य दे दिया । नागदत्ता नाम की पालकी में बैठ ये शीलवन आये और वहाँ माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन सायंकाल के समय पुष्य नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हुए । इन्हें मन:पर्ययज्ञान प्राप्त हो गया । ये आहारार्थ पाटलिपुत्र आये, वहाँ धन्यषेण नृप ने इन्हें अहार देकर पाँच आश्चर्य प्राप्त किये । एक वर्ष पर्यंत छद्मस्थ अवस्था में रहने के बाद पौष शुक्ल पूर्णिमा के दिन सायंकाल पुष्य नक्षत्र में इन्होंने केवलज्ञान प्रांत किया । देवों ने महोत्सव किया । इनके संघ में अरिष्टसेन आदि तेंतालीस गणधर, नौ सौ ग्यारह पूर्वधारी, चालीस हजार सात सौ उपाध्याय, तीन हजार छ: सौ अवधिज्ञानी, चार हजार पाँच सौ केवलज्ञानी, सात हजार विक्रिया ऋद्धिधारी, चार हजार पाँच सौ मन:पर्ययज्ञानी, दो हजार आठ सौ वादी कुल, चौसठ हजार मुनि तथा सुव्रता आदि बासठ हजार चार सौ आर्यिकाएँ, दो लाख श्रावक, दो लाख श्राविकाएँ और असंख्यात देव-देवियां तथा संख्यात तिर्यंच थे । विहार करते हुए अंत में ये सम्मेदगिरि आये । यहाँ एक मास का योग-निरोध करके आठ सौ मुनियों के साथ ध्यानारूढ़ हो गये और ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्थी की रात्रि के अवाम में सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवर्ति नामक शुक्लध्यान को पूर्ण कर पुण्य नक्षत्र में इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया । देवों ने आकर परम उत्साह से निर्वाण-कल्याणक उत्सव मनाया । दूसरे पूर्वभव में ये सुसीमा नगरी के राजा दशरथ थे और प्रथम पूर्वभव से अहमिंद्र रहे । <span class="GRef"> महापुराण 2.131, 61.2-54, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#215|पद्मपुराण - 5.215]], 20.120, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_1#17|हरिवंशपुराण - 1.17]],[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_1#60|हरिवंशपुराण - 1.60]]. 153-196, 341-396, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101, 107 </span></span><br /> | |||
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Latest revision as of 15:11, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
सामान्य परिचय
तीर्थंकर क्रमांक | 15 |
---|---|
चिह्न | वज्र |
पिता | भानु |
माता | सुप्रभा |
वंश | कुरु |
उत्सेध (ऊँचाई) | 45 धनुष |
वर्ण | स्वर्ण |
आयु | 10 लाख वर्ष |
पूर्व भव सम्बंधित तथ्य
पूर्व मनुष्य भव | दशरथ |
---|---|
पूर्व मनुष्य भव में क्या थे | मण्डलेश्वर |
पूर्व मनुष्य भव के पिता | गुप्तिमान |
पूर्व मनुष्य भव का देश, नगर | धात की खंड विदेह सुसीमा |
पूर्व भव की देव पर्याय | सर्वार्थसिद्धि |
गर्भ-जन्म कल्याणक सम्बंधित तथ्य
गर्भ-तिथि | वैशाख शुक्ल 13 |
---|---|
गर्भ-नक्षत्र | रेवती |
जन्म तिथि | माघ शुक्ल 13 |
जन्म नगरी | रत्नपुर |
जन्म नक्षत्र | पुष्य |
योग | गुरु |
दीक्षा कल्याणक सम्बंधित तथ्य
वैराग्य कारण | उल्कापात |
---|---|
दीक्षा तिथि | माघ शुक्ल 13 |
दीक्षा नक्षत्र | पुष्य |
दीक्षा काल | अपराह्न |
दीक्षोपवास | तृतीय भक्त |
दीक्षा वन | शालि |
दीक्षा वृक्ष | दधिपर्ण |
सह दीक्षित | 1000 |
ज्ञान कल्याणक सम्बंधित तथ्य
केवलज्ञान तिथि | पौष शुक्ल 15 |
---|---|
केवलज्ञान नक्षत्र | पुष्य |
केवलोत्पत्ति काल | अपराह्न |
केवल स्थान | रत्नपुर |
केवल वन | सहेतुक |
केवल वृक्ष | दधिपर्ण |
निर्वाण कल्याणक सम्बंधित तथ्य
योग निवृत्ति काल | 1 मास पूर्व |
---|---|
निर्वाण तिथि | ज्येष्ठ कृष्ण 14 |
निर्वाण नक्षत्र | पुष्य |
निर्वाण काल | प्रात: |
निर्वाण क्षेत्र | सम्मेद |
समवशरण सम्बंधित तथ्य
समवसरण का विस्तार | 5 योजन |
---|---|
सह मुक्त | 801 |
पूर्वधारी | 900 |
शिक्षक | 40700 |
अवधिज्ञानी | 3600 |
केवली | 4500 |
विक्रियाधारी | 7000 |
मन:पर्ययज्ञानी | 4500 |
वादी | 2800 |
सर्व ऋषि संख्या | 64000 |
गणधर संख्या | 43 |
मुख्य गणधर | सेन |
आर्यिका संख्या | 62400 |
मुख्य आर्यिका | सुव्रता |
श्रावक संख्या | 200000 |
मुख्य श्रोता | सत्यदत्त |
श्राविका संख्या | 400000 |
यक्ष | किंपुरुष |
यक्षिणी | सोलसा (अनंत.) |
आयु विभाग
आयु | 10 लाख वर्ष |
---|---|
कुमारकाल | 2.5 लाख वर्ष |
विशेषता | मण्डलीक |
राज्यकाल | 5 लाख वर्ष |
छद्मस्थ काल | 1 वर्ष* |
केवलिकाल | 249999 वर्ष* |
तीर्थ संबंधी तथ्य
जन्मान्तरालकाल | 4 सागर +20 लाख वर्ष |
---|---|
केवलोत्पत्ति अन्तराल | 3 सागर 225015 वर्ष–3/4 पल्य |
निर्वाण अन्तराल | 3 सागर –3/4 पल्य |
तीर्थकाल | 3 सागर +25000 वर्ष)–1 पल्य |
तीर्थ व्युच्छित्ति | 63/411 |
शासन काल में हुए अन्य शलाका पुरुष | |
चक्रवर्ती | मघवा, सनत्कुमार |
बलदेव | सुदर्शन |
नारायण | पुरुषसिंह |
प्रतिनारायण | निशुम्भ |
रुद्र | अजितनाभि |
( महापुराण/61/श्लोक )‒पूर्वभव नं.2 में पूर्व धातकीखंड के पूर्वविदेह के वत्सदेश की सुसीमा नगरी के राजा दशरथ थे। (2-3)। पूर्वभव नं.1 में सर्वार्थसिद्धि में देव थे। (9)। वर्तमानभव में 15वें तीर्थंकर हुए।13-55। (विशेष देखें तीर्थंकर - 5)।
पुराणकोष से
अवसर्पिणी के दु:षमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न एक शलाकापुरुष एवं पंद्रहवें तीर्थंकर । ये जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में विद्यमान रत्नपुर नगर में कुरुवंशी-काश्यपगोत्री राजा भानु के घर जन्में थे । रानी सुप्रभा इनकी माता थी । वैशाख शुक्ल त्रयोदशी के दिन रेवती नक्षत्र में प्रात:काल के समय इनकी माता ने सोलह स्वप्न देखे थे । उसी समय अनुत्तर विमान से च्युत होकर ये सुप्रभा रानी के गर्भ में आये । माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन गुरुयोग मे अनंतनाथ भगवान् के बाद चार सागर प्रमाण समय बीत जाने पर इनका जन्म हुआ । जन्माभिषेक के पश्चात् इंद्र ने इनका यह नाम रखा था । इनकी आयु दस लाख वर्ष, शारीरिक कांति स्वर्ण के समान और अवगाहना एक सौ अस्सी हाथ थी । कुमारावस्था के अढ़ाई लाख वर्ष बीत जाने पर इन्हें राज्य मिला था । पाँच लाख वर्ष प्रमाण राज्यकाल बीत जाते पर उल्कापात देख इन्हें वैराग्य हो गया । अपने ज्येष्ठ पुत्र सुधर्म को इन्होंने राज्य दे दिया । नागदत्ता नाम की पालकी में बैठ ये शीलवन आये और वहाँ माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन सायंकाल के समय पुष्य नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हुए । इन्हें मन:पर्ययज्ञान प्राप्त हो गया । ये आहारार्थ पाटलिपुत्र आये, वहाँ धन्यषेण नृप ने इन्हें अहार देकर पाँच आश्चर्य प्राप्त किये । एक वर्ष पर्यंत छद्मस्थ अवस्था में रहने के बाद पौष शुक्ल पूर्णिमा के दिन सायंकाल पुष्य नक्षत्र में इन्होंने केवलज्ञान प्रांत किया । देवों ने महोत्सव किया । इनके संघ में अरिष्टसेन आदि तेंतालीस गणधर, नौ सौ ग्यारह पूर्वधारी, चालीस हजार सात सौ उपाध्याय, तीन हजार छ: सौ अवधिज्ञानी, चार हजार पाँच सौ केवलज्ञानी, सात हजार विक्रिया ऋद्धिधारी, चार हजार पाँच सौ मन:पर्ययज्ञानी, दो हजार आठ सौ वादी कुल, चौसठ हजार मुनि तथा सुव्रता आदि बासठ हजार चार सौ आर्यिकाएँ, दो लाख श्रावक, दो लाख श्राविकाएँ और असंख्यात देव-देवियां तथा संख्यात तिर्यंच थे । विहार करते हुए अंत में ये सम्मेदगिरि आये । यहाँ एक मास का योग-निरोध करके आठ सौ मुनियों के साथ ध्यानारूढ़ हो गये और ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्थी की रात्रि के अवाम में सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवर्ति नामक शुक्लध्यान को पूर्ण कर पुण्य नक्षत्र में इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया । देवों ने आकर परम उत्साह से निर्वाण-कल्याणक उत्सव मनाया । दूसरे पूर्वभव में ये सुसीमा नगरी के राजा दशरथ थे और प्रथम पूर्वभव से अहमिंद्र रहे । महापुराण 2.131, 61.2-54, पद्मपुराण - 5.215, 20.120, हरिवंशपुराण - 1.17,हरिवंशपुराण - 1.60. 153-196, 341-396, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101, 107