परम: Difference between revisions
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<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/357-359 </span><span class="PrakritGatha">अत्थित्ताइसहावा सुसंठिया जत्थ सामणविसेसा। अवरुप्परमविरुद्धा तं णियतच्चं हवे परमं। 357। होऊण जत्थ णट्ठा होसंति पुणोऽवि जत्थपज्जाया। वट्टंता वट्टंति हु तं णियतच्चं हवे परमं। 358। णासंतो वि ण णट्ठो उप्पणो णेव संभवं जंतो। संतो तियालविसये तं णियतच्चं हवे परमं। 359। </span>= <span class="HindiText">जहाँ सामान्य और विशेषरूप अस्तित्वादि स्वभाव स्व व पर की अपेक्षा विधि निषेध रूप से अविरुद्ध स्थित रहते हैं, उसे निज परमतत्त्व या वस्तु का स्वभाव कहते हैं। 357। जहाँ पूर्व की पर्याय नष्ट हो गयी हैं तथा भावी पर्याय उत्पन्न होवेंगी, और वर्तमान पर्याय वर्त रही है, उसे परम निजतत्त्व कहते हैं। 358। जो नष्ट होते हुए भी नष्ट नहीं होता और उत्पन्न होते हुए भी उत्पन्न नहीं होता, ऐसा त्रिकाल विषयक जीव परम निजतत्त्व है।</span><br /> | |||
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<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/46/197/9 </span><span class="SanskritText"> ‘परमं’ परमोपेक्षालक्षणं... शुद्धोपयोगाविनाभूतं परमं ‘सम्मचारित’ सम्यक्चारित्रं ज्ञातव्यम्।</span> = <span class="HindiText">‘परमं’ परम उपेक्षा लक्षणवाला (संसार, शरीर असंयमादि में अनादर) तथा.... शुद्धोपयोग का अविनाभूत उत्कृष्ट ‘सम्मचारित्त’ सम्यग्चारित्र जानना चाहिए। <br /> | |||
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<span class="GRef"> तत्त्वानुशासन/139 </span><span class="SanskritGatha">माध्यस्थं समतोपेक्षा वैराग्यं साम्यमस्पृहा। वैतृष्ण्यं परमः शांतिरित्येकार्थोऽभिधीयते। 139।</span> =<span class="HindiText"> माध्यस्थ, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, अस्पृहा, वैतृष्ण्य, परम, और शांति ये सब एक ही अर्थ को लिये हुए हैं। 139। </span></li> | |||
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Latest revision as of 15:11, 27 November 2023
- पारिणामिकभाव के अर्थ में
नयचक्र बृहद्/357-359 अत्थित्ताइसहावा सुसंठिया जत्थ सामणविसेसा। अवरुप्परमविरुद्धा तं णियतच्चं हवे परमं। 357। होऊण जत्थ णट्ठा होसंति पुणोऽवि जत्थपज्जाया। वट्टंता वट्टंति हु तं णियतच्चं हवे परमं। 358। णासंतो वि ण णट्ठो उप्पणो णेव संभवं जंतो। संतो तियालविसये तं णियतच्चं हवे परमं। 359। = जहाँ सामान्य और विशेषरूप अस्तित्वादि स्वभाव स्व व पर की अपेक्षा विधि निषेध रूप से अविरुद्ध स्थित रहते हैं, उसे निज परमतत्त्व या वस्तु का स्वभाव कहते हैं। 357। जहाँ पूर्व की पर्याय नष्ट हो गयी हैं तथा भावी पर्याय उत्पन्न होवेंगी, और वर्तमान पर्याय वर्त रही है, उसे परम निजतत्त्व कहते हैं। 358। जो नष्ट होते हुए भी नष्ट नहीं होता और उत्पन्न होते हुए भी उत्पन्न नहीं होता, ऐसा त्रिकाल विषयक जीव परम निजतत्त्व है।
आलापपद्धति/6 पारिणामिकभावप्रधानत्वेन परमस्वभावः। = वस्तु में पारिणामिक भाव प्रधान होने से वह परमस्वभाव कहलाता है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/110 पारिणामिकभावस्वभावेन परमस्वभावः.... स पच्चम भावः.... उदयोदीरणक्षयक्षयोपशमविविध-विकारविवर्जितः। अतः कारणादस्यैकस्य परमत्वम् इतरेषां चतुणा विभावानामपरमत्वम्। = (भव्य को) पारिणामिक भावरूप स्वभाव होने के कारण परमस्वभाव है। वह पंचमभाव उदय, उदीरणा, क्षय, क्षयोपशम ऐसे विविध विकारों से रहित है। इस कारण से इस एक को परमपना प्राप्त है, शेष चार विभावों को अपरमपना है।
- शुद्ध के अर्थ में
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/104/165/16 परमानंदज्ञानादिगुणाधारत्वात्परशब्देन मोक्षो भण्यते। = परम आनंद तथा ज्ञानादि गुणों का आधार होने से ‘पर’ शब्द के द्वारा मोक्ष कहा जाता है।
परमात्मप्रकाश टीका/1/13/21 परमो भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मरहितः। = परम अर्थात् भावकर्म, द्रव्यकर्म व नोकर्म से रहित।
द्रव्यसंग्रह टीका/46/197/9 ‘परमं’ परमोपेक्षालक्षणं... शुद्धोपयोगाविनाभूतं परमं ‘सम्मचारित’ सम्यक्चारित्रं ज्ञातव्यम्। = ‘परमं’ परम उपेक्षा लक्षणवाला (संसार, शरीर असंयमादि में अनादर) तथा.... शुद्धोपयोग का अविनाभूत उत्कृष्ट ‘सम्मचारित्त’ सम्यग्चारित्र जानना चाहिए।
- ज्येष्ठ व उत्कृष्ट के अर्थ में
धवला 9/4,1,3/41/6 परमो ज्येष्ठः। = परम शब्द का अर्थ ज्येष्ठ है।
धवला 13/5,5,59/323/3 किं परमम्। असंखेज्जलोगमेत्तसंयमवियप्पा। = यहाँ (परमावधि के प्रकरण में) परम शब्द से असंख्यात लोकमात्र संयम के विकल्प अभीष्ट है।
मोक्षपाहुड़/ टी./6/308/18 परा उत्कृष्टा प्रत्यक्षलक्षणोपलक्षिता मा प्रमाणं यस्येति परमः अथवा परेषां भव्यप्राणिनां उपकारिणी मा लक्ष्मीः समवशरणविभूतिर्यस्येति परमः। = ‘परा’ अर्थात् उत्कृष्ट और ‘मा’ अर्थात् प्रत्यक्ष लक्षण से उपलक्षित प्रमाण, ऐसा उत्कृष्ट प्रमाण (केवलज्ञान) जिसके पाया जाये सो परम है - वे अर्हंत हैं। अथवा ‘पर’ अर्थात् अन्य जो भव्यप्राणी ‘मा’ अर्थात् उनकी उपकार करनेवाली लक्ष्मी रूप समवसरण विभूति, यह जिसके पायी जाये ऐसे अर्हंत परम हैं।
- एकार्थवाची नाम
नयचक्र बृहद्/4 तच्चं तह परमट्ठं दव्वसहावं तहेव परमपरं। धेयं सुद्धं परमं एयट्ठा हुंति अभिहाणा। 4। = तत्त्व, परमार्थ, द्रव्यस्वभाव, पर, अपर, ध्येय, शुद्ध और परम ये सब एक अर्थ के वाचक हैं। 4।
तत्त्वानुशासन/139 माध्यस्थं समतोपेक्षा वैराग्यं साम्यमस्पृहा। वैतृष्ण्यं परमः शांतिरित्येकार्थोऽभिधीयते। 139। = माध्यस्थ, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, अस्पृहा, वैतृष्ण्य, परम, और शांति ये सब एक ही अर्थ को लिये हुए हैं। 139।