पात्र: Difference between revisions
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<p class="HindiText">मोक्षमार्ग में दानादि देने योग्य पात्र सामान्य भिखारी लोग नहीं हो सकते। रत्नत्रय से परिणत अविरत सम्यग्दृष्टि से | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p class="HindiText">मोक्षमार्ग में दानादि देने योग्य पात्र सामान्य भिखारी लोग नहीं हो सकते। रत्नत्रय से परिणत अविरत सम्यग्दृष्टि से ध्यानारूढ़ योगी पर्यंत ही यहाँ अपनी भूमिकानुसार जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट भेदरूप पात्र समझे जाते हैं। महाव्रतधारी साधु भी यदि मिथ्यादृष्टि हैं तो कुपात्र हैं पात्र नहीं। सामान्य भिखारी जन तो यहाँ अपात्र की कोटि में गिने जाते हैं। तथा दान देते समय पात्र के अनुसार ही दातार की भावनाएँ होनी चाहिए। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="1" id="1"><strong>पात्र सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1" id="1"><strong>पात्र सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> रयणसार/125-126 </span><span class="PrakritText">दंसणसुद्धो धम्मज्झाणरदो संगवज्जिदो णिसल्लो। पत्तविसेसो भणियो ते गुणहीणो दु विवरीदो। 125। सम्माइ गुणविसेसं पत्तविसेसं जिणेहि णिद्दिट्ठं। 126। </span>= <span class="HindiText">जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध है, धर्मध्यान में लीन रहता है, सब तरह के परिग्रह व मायादि शल्यों से रहित है, उसको विशेष पात्र कहते हैं, उससे विपरीत अपात्र है। 125। जिसमें सम्यग्दर्शन की विशेषता है उसमें पात्रपने की विशेषता समझनी चाहिए। 126। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/7/39/373/8 </span><span class="SanskritText">मोक्षकारणगुणसंयोगः पात्रविशेषः। </span>= <span class="HindiText">मोक्ष के कारणभूत गुणों से संयुक्त रहना यह पात्र की विशेषता है। अर्थात् जो मोक्ष के कारणभूत गुणों से संयुक्त होता है, वह पात्र होता है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/7/39/5/559/31 )</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/5/43 </span><span class="SanskritGatha">यत्तारयति जन्माब्धेः, स्वाश्रितान्मानपात्रवत्। मुक्त्यर्थगुणसंयोग-भेदात्पात्रं त्रिधा मतम्। 43। </span>= <span class="HindiText">जो जहाज की तरह अपने आश्रित प्राणियों को संसाररूपी समुद्र से पार कर देता है वह पात्र कहलाता है, और वह पात्र मोक्ष के कारणभूत सम्यग्दर्शनादि गुणों के संबंध से तीन प्रकार का होता है। 43। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/260/352/15 </span><span class="SanskritText">शुद्धोपयोगशुभोपयोगपरिणतपुरुषाः पात्रं भवंतीति। </span>= <span class="HindiText">शुद्धोपयोग अथवा शुभोपयोग से परिणत जीव पात्र कहलाते हैं। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong>पात्र के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong>पात्र के भेद</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> रयणसार/123 </span><span class="PrakritGatha"> अविरददेसमहव्वयआगमरुइणं विचारतच्चण्हं। पत्तंतरं सहस्सं णिद्दिट्ठं जिणवरिंदेहिं। 123।</span> = <span class="HindiText">अविरत सम्यग्दृष्टि, देशव्रती, श्रावक, महाव्रतियों के भेद से, आगम में रुचि रखनेवालों तथा तत्त्व के विचार करनेवालों के भेद से जिनेंद्र भगवान ने हजारों प्रकार के पात्र बतलाये हैं। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/221 </span><span class="PrakritText">तिविहं मुणेह पत्तं उत्तम-मज्झिम-जहण्णभेएण।</span> = <span class="HindiText">उत्तम मध्यम व जघन्य के भेद से पात्र तीन प्रकार के जानने चाहिए। <span class="GRef">( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/171 )</span>; <span class="GRef">(पद्मनन्दि पंचविंशतिका/2/48)</span>; <span class="GRef">( अमितगति श्रावकाचार/10/2 )</span>। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong>नाममात्र का जैन भी पात्र है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong>नाममात्र का जैन भी पात्र है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/2/54 </span><span class="SanskritGatha">नामतः स्थापनातोऽपि, जैनः पात्रायतेतराम्। स लभ्यो द्रव्यतो धन्यैर्भावतस्तु महात्मभिः। 54।</span> =<span class="HindiText"> नामनिक्षेप से और स्थापनानिक्षेप से भी जैन विशेष पात्र के समान मालूम होता है। वह जैन द्रव्यनिक्षेप से पुण्यात्माओं के द्वारा तथा भावनिक्षेप से महात्माओं के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। 54। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong>उत्तम, मध्यम व जघन्य पात्र के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong>उत्तम, मध्यम व जघन्य पात्र के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">वारसअणुवेक्खा/17-18 </span> <span class="PrakritText">उत्तमपत्तं भणियं सम्मत्तगुणेण संजुदो साहू। सम्मादिट्ठी सावय मज्झिमपत्तोहु विण्णेयो। 17। णिद्दिट्ठो जिणसमये अविदरसम्मो जहण्णपत्तोत्ति। 18।</span> = <span class="HindiText">जो सम्यक्त्व गुण सहित मुनि हैं, उन्हें उत्तम पात्र कहा है, और सम्यक्त्वदृष्टि श्रावक हैं, उन्हें मध्यम पात्र समझना चाहिए। 17। तथा व्रतरहित सम्यग्दृष्टि को जघन्य पात्र कहा है। 18। <span class="GRef">( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/149-151 )</span>; <span class="GRef">(पद्मनन्दि पंचविंशतिका/2/48 )</span>; <span class="GRef">( वसुनंदी श्रावकाचार/221-222 )</span>; <span class="GRef">( गुणभद्र श्रावकाचार/148-149 )</span>; <span class="GRef">( अमितगति श्रावकाचार/10/4 )</span>; <span class="GRef">( सागार धर्मामृत/5/44 )</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef">रयणसार 124 </span><span class="PrakritGatha">उवसम णिरीह झाणज्झयणाइमहागुणाज्हादिट्ठा। जेसिं ते मुणिणाहा उत्तमपत्ता तहा भणिया। 124। </span>= <span class="HindiText">उपशम परिणामों को धारण करनेवाले, बिना किसी इच्छा के ध्यान करनेवाले तथा अध्ययन करनेवाले मुनिराज उत्तम पात्र कहे जाते हैं। 124। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong>कुपात्र का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong>कुपात्र का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/150 </span><span class="PrakritGatha">उअवाससोसियतणू णिस्संगो कामकोहपरिहीणो। मिच्छत्तसंसिदमणो णायव्वो सो अपत्तो त्ति। 150। </span>= <span class="HindiText">उपवासों से शरीर को कृश करनेवाले, परिग्रह से रहित, काम, क्रोध से विहीन परंतु मन में मिथ्यात्व भाव को धारण करनेवाले जीव को अपात्र (कुपात्र) जानना चाहिए। 150। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/223 </span><span class="PrakritText">वय-तव-सीलसमग्गो सम्मत्तविवज्जियो कुपत्तं तु। 223। </span>= <span class="HindiText">जो व्रत, तप और शील से संपन्न है, किंतु सम्यग्दर्शन से रहित है, वह कुपात्र है। <span class="GRef">( गुणभद्र श्रावकाचार/150 )</span>; <span class="GRef">( अमितगति श्रावकाचार/10/34-35 )</span>; <span class="GRef">(पद्मनन्दि पंचविंशतिका/2/48)</span>। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="6" id="6"><strong>अपात्र का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="6" id="6"><strong>अपात्र का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> बारस अणुवेक्खा/18 </span><span class="PrakritText">सम्मत्तरयणरहियो अपत्तमिदि संपरिक्खेज्जो।</span> = <span class="HindiText">सम्यक्त्वरूपी रत्न से रहित जीव को अपात्र समझना चाहिए। </span><br /> | |||
<strong> वसुनंदी श्रावकाचार/223 <span class="PrakritText">सम्मत्त</span></strong><span class="PrakritText">-सील-वयवज्जिओ अपत्तं हवे जीओ। 223।</span> = <span class="HindiText">सम्यक्त्व, शील और व्रत से रहित जीव अपात्र है। ( | <strong><span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/223 </span><span class="PrakritText">सम्मत्त</span></strong><span class="PrakritText">-सील-वयवज्जिओ अपत्तं हवे जीओ। 223।</span> = <span class="HindiText">सम्यक्त्व, शील और व्रत से रहित जीव अपात्र है। <span class="GRef">(पद्मनन्दि पंचविंशतिका/2/48)</span>; <span class="GRef">( अमितगति श्रावकाचार/10/36-38 )</span>। <br /> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p> मोक्षमार्ग के पथिक तथा भव्य जीवों के हितोपदेशी मुनि । ये उत्तम, मध्यम और जघन्य भेद से तीन प्रकार के होते हैं । इनमें उत्तम पात्र वे हैं जो व्रतशील आदि से सहित रत्नत्रय के धारक होते हैं, मध्यम वे हैं जो व्रतशील आदि से यद्यपि रहित होते हैं किंतु सम्यग्दृष्टि होते हैं तथा जघन्य पात्र वे हैं जो शीलवान् तो है परंतु मिथ्यादृष्टि होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 20. 139-146, 63. 273-275, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 7.108-109 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> मोक्षमार्ग के पथिक तथा भव्य जीवों के हितोपदेशी मुनि । ये उत्तम, मध्यम और जघन्य भेद से तीन प्रकार के होते हैं । इनमें उत्तम पात्र वे हैं जो व्रतशील आदि से सहित रत्नत्रय के धारक होते हैं, मध्यम वे हैं जो व्रतशील आदि से यद्यपि रहित होते हैं किंतु सम्यग्दृष्टि होते हैं तथा जघन्य पात्र वे हैं जो शीलवान् तो है परंतु मिथ्यादृष्टि होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 20. 139-146, 63. 273-275, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_7#108|हरिवंशपुराण - 7.108-109]] </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:15, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
मोक्षमार्ग में दानादि देने योग्य पात्र सामान्य भिखारी लोग नहीं हो सकते। रत्नत्रय से परिणत अविरत सम्यग्दृष्टि से ध्यानारूढ़ योगी पर्यंत ही यहाँ अपनी भूमिकानुसार जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट भेदरूप पात्र समझे जाते हैं। महाव्रतधारी साधु भी यदि मिथ्यादृष्टि हैं तो कुपात्र हैं पात्र नहीं। सामान्य भिखारी जन तो यहाँ अपात्र की कोटि में गिने जाते हैं। तथा दान देते समय पात्र के अनुसार ही दातार की भावनाएँ होनी चाहिए।
- पात्र सामान्य का लक्षण
रयणसार/125-126 दंसणसुद्धो धम्मज्झाणरदो संगवज्जिदो णिसल्लो। पत्तविसेसो भणियो ते गुणहीणो दु विवरीदो। 125। सम्माइ गुणविसेसं पत्तविसेसं जिणेहि णिद्दिट्ठं। 126। = जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध है, धर्मध्यान में लीन रहता है, सब तरह के परिग्रह व मायादि शल्यों से रहित है, उसको विशेष पात्र कहते हैं, उससे विपरीत अपात्र है। 125। जिसमें सम्यग्दर्शन की विशेषता है उसमें पात्रपने की विशेषता समझनी चाहिए। 126।
सर्वार्थसिद्धि/7/39/373/8 मोक्षकारणगुणसंयोगः पात्रविशेषः। = मोक्ष के कारणभूत गुणों से संयुक्त रहना यह पात्र की विशेषता है। अर्थात् जो मोक्ष के कारणभूत गुणों से संयुक्त होता है, वह पात्र होता है। ( राजवार्तिक/7/39/5/559/31 )।
सागार धर्मामृत/5/43 यत्तारयति जन्माब्धेः, स्वाश्रितान्मानपात्रवत्। मुक्त्यर्थगुणसंयोग-भेदात्पात्रं त्रिधा मतम्। 43। = जो जहाज की तरह अपने आश्रित प्राणियों को संसाररूपी समुद्र से पार कर देता है वह पात्र कहलाता है, और वह पात्र मोक्ष के कारणभूत सम्यग्दर्शनादि गुणों के संबंध से तीन प्रकार का होता है। 43।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/260/352/15 शुद्धोपयोगशुभोपयोगपरिणतपुरुषाः पात्रं भवंतीति। = शुद्धोपयोग अथवा शुभोपयोग से परिणत जीव पात्र कहलाते हैं।
- पात्र के भेद
रयणसार/123 अविरददेसमहव्वयआगमरुइणं विचारतच्चण्हं। पत्तंतरं सहस्सं णिद्दिट्ठं जिणवरिंदेहिं। 123। = अविरत सम्यग्दृष्टि, देशव्रती, श्रावक, महाव्रतियों के भेद से, आगम में रुचि रखनेवालों तथा तत्त्व के विचार करनेवालों के भेद से जिनेंद्र भगवान ने हजारों प्रकार के पात्र बतलाये हैं।
वसुनंदी श्रावकाचार/221 तिविहं मुणेह पत्तं उत्तम-मज्झिम-जहण्णभेएण। = उत्तम मध्यम व जघन्य के भेद से पात्र तीन प्रकार के जानने चाहिए। ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/171 ); (पद्मनन्दि पंचविंशतिका/2/48); ( अमितगति श्रावकाचार/10/2 )।
- नाममात्र का जैन भी पात्र है
सागार धर्मामृत/2/54 नामतः स्थापनातोऽपि, जैनः पात्रायतेतराम्। स लभ्यो द्रव्यतो धन्यैर्भावतस्तु महात्मभिः। 54। = नामनिक्षेप से और स्थापनानिक्षेप से भी जैन विशेष पात्र के समान मालूम होता है। वह जैन द्रव्यनिक्षेप से पुण्यात्माओं के द्वारा तथा भावनिक्षेप से महात्माओं के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। 54।
- उत्तम, मध्यम व जघन्य पात्र के लक्षण
वारसअणुवेक्खा/17-18 उत्तमपत्तं भणियं सम्मत्तगुणेण संजुदो साहू। सम्मादिट्ठी सावय मज्झिमपत्तोहु विण्णेयो। 17। णिद्दिट्ठो जिणसमये अविदरसम्मो जहण्णपत्तोत्ति। 18। = जो सम्यक्त्व गुण सहित मुनि हैं, उन्हें उत्तम पात्र कहा है, और सम्यक्त्वदृष्टि श्रावक हैं, उन्हें मध्यम पात्र समझना चाहिए। 17। तथा व्रतरहित सम्यग्दृष्टि को जघन्य पात्र कहा है। 18। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/149-151 ); (पद्मनन्दि पंचविंशतिका/2/48 ); ( वसुनंदी श्रावकाचार/221-222 ); ( गुणभद्र श्रावकाचार/148-149 ); ( अमितगति श्रावकाचार/10/4 ); ( सागार धर्मामृत/5/44 )।
रयणसार 124 उवसम णिरीह झाणज्झयणाइमहागुणाज्हादिट्ठा। जेसिं ते मुणिणाहा उत्तमपत्ता तहा भणिया। 124। = उपशम परिणामों को धारण करनेवाले, बिना किसी इच्छा के ध्यान करनेवाले तथा अध्ययन करनेवाले मुनिराज उत्तम पात्र कहे जाते हैं। 124।
- कुपात्र का लक्षण
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/150 उअवाससोसियतणू णिस्संगो कामकोहपरिहीणो। मिच्छत्तसंसिदमणो णायव्वो सो अपत्तो त्ति। 150। = उपवासों से शरीर को कृश करनेवाले, परिग्रह से रहित, काम, क्रोध से विहीन परंतु मन में मिथ्यात्व भाव को धारण करनेवाले जीव को अपात्र (कुपात्र) जानना चाहिए। 150।
वसुनंदी श्रावकाचार/223 वय-तव-सीलसमग्गो सम्मत्तविवज्जियो कुपत्तं तु। 223। = जो व्रत, तप और शील से संपन्न है, किंतु सम्यग्दर्शन से रहित है, वह कुपात्र है। ( गुणभद्र श्रावकाचार/150 ); ( अमितगति श्रावकाचार/10/34-35 ); (पद्मनन्दि पंचविंशतिका/2/48)।
- अपात्र का लक्षण
बारस अणुवेक्खा/18 सम्मत्तरयणरहियो अपत्तमिदि संपरिक्खेज्जो। = सम्यक्त्वरूपी रत्न से रहित जीव को अपात्र समझना चाहिए।
वसुनंदी श्रावकाचार/223 सम्मत्त-सील-वयवज्जिओ अपत्तं हवे जीओ। 223। = सम्यक्त्व, शील और व्रत से रहित जीव अपात्र है। (पद्मनन्दि पंचविंशतिका/2/48); ( अमितगति श्रावकाचार/10/36-38 )।
- अन्य संबंधित विषय
पुराणकोष से
मोक्षमार्ग के पथिक तथा भव्य जीवों के हितोपदेशी मुनि । ये उत्तम, मध्यम और जघन्य भेद से तीन प्रकार के होते हैं । इनमें उत्तम पात्र वे हैं जो व्रतशील आदि से सहित रत्नत्रय के धारक होते हैं, मध्यम वे हैं जो व्रतशील आदि से यद्यपि रहित होते हैं किंतु सम्यग्दृष्टि होते हैं तथा जघन्य पात्र वे हैं जो शीलवान् तो है परंतु मिथ्यादृष्टि होते हैं । महापुराण 20. 139-146, 63. 273-275, हरिवंशपुराण - 7.108-109