पूजा-विधि: Difference between revisions
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<li class="HindiText" name="5.1" id="5.1"><strong>पूजा के पाँच अंग होते हैं </strong> <br /> | <li class="HindiText" name="5.1" id="5.1"><strong>पूजा के पाँच अंग होते हैं </strong> <br /> | ||
<span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार/ | <span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार/पं.सदासुखदास/119/173/15 </span><br> <span class="HindiText">व्यवहार में पूजन के पाँच अंगनि की प्रवृत्ति देखिये हैं - आह्वानन 1; स्थापना 2; संनिधिकरण 3; पूजन 4; विसर्जन 5।</span> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2">पूजा दिन में तीन बार करनी चाहिए</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/2/25 </span>...<span class="SanskritText">भक्त्या ग्रामगृहादिशासनविधा दानं त्रिसंध्याश्रया सेवा स्वेऽपि गृहेऽर्चनं च यमिनां, नित्यप्रदानानुगम्। 25।</span> = <span class="HindiText">शास्त्रोक्त विधि से गाँव, घर, दुकान आदि का दान देना, अपने घर में भी अरिहंत की तीनों संध्याओं में की जानेवाली तथा मुनियों को भी आहार दान देना है बाद में जिसके, ऐसी पूजा नित्यमह पूजा कही गयी है। 25। <br /> | <span class="GRef"> सागार धर्मामृत/2/25 </span>...<span class="SanskritText">भक्त्या ग्रामगृहादिशासनविधा दानं त्रिसंध्याश्रया सेवा स्वेऽपि गृहेऽर्चनं च यमिनां, नित्यप्रदानानुगम्। 25।</span> = <span class="HindiText">शास्त्रोक्त विधि से गाँव, घर, दुकान आदि का दान देना, अपने घर में भी अरिहंत की तीनों संध्याओं में की जानेवाली तथा मुनियों को भी आहार दान देना है बाद में जिसके, ऐसी पूजा नित्यमह पूजा कही गयी है। 25। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3">रात्रि को पूजा करने का निषेध</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">लाठी संहिता/6/187</span> <span class="SanskritGatha">तत्रार्द्ध रात्र के पूजां न कुर्यादर्हतामपि। हिंसाहेतोरवश्यं स्याद्रात्रौ पूजाविवर्जनम्। 187। </span>= <span class="HindiText">आधी रात के समय भगवान् अरहंत देव की पूजा नहीं करनी चाहिए क्योंकि आधी रात के समय पूजा करने से हिंसा अधिक होती है। रात्रि में जीवों का संचार अधिक होता है, तथा यथोचित रीति से जीव दिखाई नहीं पड़ते, इसलिए रात्रि में पूजा करने का निषेध किया है <span class="GRef">( रत्नकरंड श्रावकाचार/पं. सदासुख दास/119/171/1 )</span>। <br /> | |||
<span class="GRef"> मोक्षमार्ग प्रकाशक/6/280/2 </span>पाप का अंश बहुत पुण्य समूह विषै दोष के अर्थ नाहीं, इस छलकरि पूजा प्रभावनादि कार्यनिविषैं रात्रिविषैं दीपकादिकरि वा अनंतकायादिक का संग्रह करि वा अयत्नाचार प्रवृत्तिकरि हिंसादिक रूप पाप तौ बहुत उपजावैं, अर स्तुति भक्ति आदि शुभ परिणामनिविषैं प्रवर्तै नाहीं, वा थोरे प्रवर्ते, सो टोटा घना नफा थोरा वा नफा किछू नाहीं। ऐसा कार्य करने में तो बुरा ही दीखना होय। <br /> | <span class="GRef"> मोक्षमार्ग प्रकाशक/6/280/2 </span><br><span class="HindiText">पाप का अंश बहुत पुण्य समूह विषै दोष के अर्थ नाहीं, इस छलकरि पूजा प्रभावनादि कार्यनिविषैं रात्रिविषैं दीपकादिकरि वा अनंतकायादिक का संग्रह करि वा अयत्नाचार प्रवृत्तिकरि हिंसादिक रूप पाप तौ बहुत उपजावैं, अर स्तुति भक्ति आदि शुभ परिणामनिविषैं प्रवर्तै नाहीं, वा थोरे प्रवर्ते, सो टोटा घना नफा थोरा वा नफा किछू नाहीं। ऐसा कार्य करने में तो बुरा ही दीखना होय।</span> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4">चावलों में स्थापना करने का निषेध</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/385 </span><span class="PrakritGatha">हुंडावसप्पिणोए विइया ठवणा ण होदि कायव्वा। लोए कुलिंगमइमोहिए जदो होइ संदेहो। 385। </span>=<span class="HindiText"> हुंडावसर्पिणी काल में दूसरी असद्भाव स्थापना पूजा नहीं करना चाहिए, क्योंकि, कुलिंग-मतियों से मोहित इस लोक में संदेह हो सकता है। | <span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/385 </span><span class="PrakritGatha">हुंडावसप्पिणोए विइया ठवणा ण होदि कायव्वा। लोए कुलिंगमइमोहिए जदो होइ संदेहो। 385। </span>=<span class="HindiText"> हुंडावसर्पिणी काल में दूसरी असद्भाव स्थापना पूजा नहीं करना चाहिए, क्योंकि, कुलिंग-मतियों से मोहित इस लोक में संदेह हो सकता है। <span class="GRef">( रत्नकरंड श्रावकाचार/ पं.सदासुखदास/119/173/7)</span>। <br /> | ||
<span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार/ | <span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार/ पं. सदासुख दास/119/172/21</span><br><span class="HindiText"> स्थापना के पक्षपाती स्थापना बिना प्रतिमा का पूजन नाहीं करें। ....बहुरि जो पीत तंदुलनिकी अतदाकार स्थापना ही पूज्य है तो तिन पक्षपातीनिके धातु पाषाण का तदाकार प्रतिबिंब स्थापन करना व्यर्थ है तथा अकृत्रिम चैत्यालय के प्रतिबिंब अनादि निधन है जिनमें हू पूज्यपना नाहीं रहा।</span> <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="5.5" id="5.5">स्थापना के विधि | <li class="HindiText"><strong name="5.5" id="5.5">स्थापना के विधि-निषेध का समन्वय</strong> <br /> | ||
<span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार/ | <span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार/ पं. सदासुख/119/173/24</span> <br><span class="HindiText">भावनिके जोड़ के अर्थि आह्वाननादिक में पुष्प क्षेपण करिये है, पुष्पनि कूँ प्रतिमा नहीं जानै। ए तो आह्वाननादिकनिका संकल्पतैं पुष्पांजलि क्षेपण करिये है। पूजन में पाठ रच्या होय तो स्थापना कर ले नहीं होय तो नाहीं करै। अनेकांतिनिकै सर्वथा पक्ष नाहीं।</span><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.6" id="5.6">पूजा के साथ अभिषेक व नृत्य गान आदि का विधान</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/584-587 </span><span class="PrakritGatha">खीरद्धिसलिलपूरिदकंचणकलसेहिं अट्ठ सहस्सेहिं। देवा जिणाभिसेयं महाविभूदीए कुव्वंति। 584। वज्जंतेसु मद्दलजयघंटापडहकालादीसुं दिव्वेसुं तूरेसुं ते तिणपूजं पकुव्वंति। 585। भिंगारकलसदप्पणछत्तत्तयचमर-पहुदिदव्वेहिं। पूजं कादूण तदो जलगंधादीहि अच्चंति। 586। तत्तो हरिसेण सुरा णाणाविहणाडयाइं दिव्वाइं। बहुरसभावजुदाइं णच्चंति विचित्त भंगीहिं। 587। </span>= <span class="HindiText">उक्त (वैमानिक) देव क्षीरसागर के जल से पूर्ण एक हजार आठ सुवर्ण कलशों के द्वारा महाविभूति के साथ जिनाभिषेक करते हैं। 584। मर्दल, जयघटा, पहट और काहल आदिक दिव्य वादित्रों के बजते रहते वे देव जिनपूजा को करते हैं। 585। उक्त देव भृंगार, कलश, दर्पण, तीन छत्र और चामरादि द्रव्यों से पूजा करके पश्चात् जल, गंधादिक से अर्चना करते हैं। 586। तत्पश्चात् हर्ष से देव विचित्र शैलियों से बहुत रस व भावों से युक्त दिव्य नाना प्रकार के नाटकों को करते हैं। उत्तम रत्नों से विभूषित दिव्य कन्याएँ विविध प्रकार के नृत्यों को करती हैं। अंत में जिनेंद्र भगवान् के चरितों का अभिनय करती हैं। (5/114); | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/584-587 </span><span class="PrakritGatha">खीरद्धिसलिलपूरिदकंचणकलसेहिं अट्ठ सहस्सेहिं। देवा जिणाभिसेयं महाविभूदीए कुव्वंति। 584। वज्जंतेसु मद्दलजयघंटापडहकालादीसुं दिव्वेसुं तूरेसुं ते तिणपूजं पकुव्वंति। 585। भिंगारकलसदप्पणछत्तत्तयचमर-पहुदिदव्वेहिं। पूजं कादूण तदो जलगंधादीहि अच्चंति। 586। तत्तो हरिसेण सुरा णाणाविहणाडयाइं दिव्वाइं। बहुरसभावजुदाइं णच्चंति विचित्त भंगीहिं। 587। </span>= <span class="HindiText">उक्त (वैमानिक) देव क्षीरसागर के जल से पूर्ण एक हजार आठ सुवर्ण कलशों के द्वारा महाविभूति के साथ जिनाभिषेक करते हैं। 584। मर्दल, जयघटा, पहट और काहल आदिक दिव्य वादित्रों के बजते रहते वे देव जिनपूजा को करते हैं। 585। उक्त देव भृंगार, कलश, दर्पण, तीन छत्र और चामरादि द्रव्यों से पूजा करके पश्चात् जल, गंधादिक से अर्चना करते हैं। 586। तत्पश्चात् हर्ष से देव विचित्र शैलियों से बहुत रस व भावों से युक्त दिव्य नाना प्रकार के नाटकों को करते हैं। उत्तम रत्नों से विभूषित दिव्य कन्याएँ विविध प्रकार के नृत्यों को करती हैं। अंत में जिनेंद्र भगवान् के चरितों का अभिनय करती हैं। (5/114); <span class="GRef">( तिलोयपण्णत्ति/3/218-227 )</span>; <span class="GRef">( तिलोयपण्णत्ति/5/104-116 )</span>; (और भी देखें [[ पूजा#4.3 | पूजा - 4.3]])। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.7" id="5.7">द्रव्य व भाव दोनों पूजा करनी योग्य हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> अमितगति श्रावकाचार/12/15 </span><span class="SanskritGatha">द्वेधापि कुर्वतः पूजां जिनानां जितजन्मनाम्। न विद्यते द्वये लोके दुर्लभं वस्तु पूजितम्। 15।</span> = <span class="HindiText">जीता है संसार जिनने ऐसे जिन देवनि की द्रव्य भावकरि दोऊ ही प्रकार पूजा कौं करता जो पुरुष ताकौं इसलोक परलोक विषैं उत्तम वस्तु दुर्लभ नाहीं। 15। <br /> | <span class="GRef"> अमितगति श्रावकाचार/12/15 </span><span class="SanskritGatha">द्वेधापि कुर्वतः पूजां जिनानां जितजन्मनाम्। न विद्यते द्वये लोके दुर्लभं वस्तु पूजितम्। 15।</span> = <span class="HindiText">जीता है संसार जिनने ऐसे जिन देवनि की द्रव्य भावकरि दोऊ ही प्रकार पूजा कौं करता जो पुरुष ताकौं इसलोक परलोक विषैं उत्तम वस्तु दुर्लभ नाहीं। 15। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.8" id="5.8">पूजा विधान में विशेष प्रकार का क्रियाकांड</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/38/71-75 </span><span class="SanskritGatha">तत्रार्चनाविधै चक्रत्रयं छत्रत्रयान्वितम्। जिनार्चा-मभितः स्थाप्य समं पुण्याग्निभिस्त्रिभिः। 71। त्रयोऽग्नयोऽर्हद्गण-भृच्छेषकेवलिनिर्वृतौ। ये हुतास्ते प्रणेतव्याः सिद्धार्चावेद्युपाश्रयाः। 72। तेष्वर्हदिज्याशेषांशैः आहुतिर्मंत्रपूर्विका। विधेया शुचिभि-र्द्रव्यैः पुंस्पुत्रीत्पत्तिकाम्यया। 73। तंमंत्रास्तु यथाम्नायं वक्ष्यंते-ऽन्यत्र पर्वणि। सप्तधा पीठिकाजातिमंत्रादिप्रविभागतः। 74। विनियोगस्तु सर्वासु क्रियास्वेषां मतो जिनैः। अव्यामोहादतस्तज्ज्ञैः प्रयोज्यास्त उपासकैः। 75।</span> = <span class="HindiText">इस आधान (गर्भाधान) क्रिया की पूजा में जिनेंद्र भगवान् की प्रतिमा के दाहिनी ओर तीन चक्र, बाँयीं ओर तीन छत्र और सामने तीन पवित्र अग्नि स्थापित करें। 71। अर्हंत भगवान् के ( | <span class="GRef"> महापुराण/38/71-75 </span><span class="SanskritGatha">तत्रार्चनाविधै चक्रत्रयं छत्रत्रयान्वितम्। जिनार्चा-मभितः स्थाप्य समं पुण्याग्निभिस्त्रिभिः। 71। त्रयोऽग्नयोऽर्हद्गण-भृच्छेषकेवलिनिर्वृतौ। ये हुतास्ते प्रणेतव्याः सिद्धार्चावेद्युपाश्रयाः। 72। तेष्वर्हदिज्याशेषांशैः आहुतिर्मंत्रपूर्विका। विधेया शुचिभि-र्द्रव्यैः पुंस्पुत्रीत्पत्तिकाम्यया। 73। तंमंत्रास्तु यथाम्नायं वक्ष्यंते-ऽन्यत्र पर्वणि। सप्तधा पीठिकाजातिमंत्रादिप्रविभागतः। 74। विनियोगस्तु सर्वासु क्रियास्वेषां मतो जिनैः। अव्यामोहादतस्तज्ज्ञैः प्रयोज्यास्त उपासकैः। 75।</span> = <span class="HindiText">इस आधान (गर्भाधान) क्रिया की पूजा में जिनेंद्र भगवान् की प्रतिमा के दाहिनी ओर तीन चक्र, बाँयीं ओर तीन छत्र और सामने तीन पवित्र अग्नि स्थापित करें। 71। अर्हंत भगवान् के (तीर्थंकर) निर्वाण के समय, गणधर देवों के निर्वाण के समय और सामान्य केवलियों के निर्वाण के समय जिन अग्नियों में होम किया गया था ऐसी तीन प्रकार की पवित्र अग्नियाँ सिद्ध प्रतिमा की वेदी के समीप तैयार करनी चाहिए। 72। प्रथम ही अर्हंतदेव की पूजा कर चुकने के बाद शेष बचे हुए द्रव्य से पुत्र उत्पन्न होने की इच्छा कर मंत्रपूर्वक उन तीन अग्नियों में आहुति करनी चाहिए। 73। उन आहुतियों के मंत्र पीठिका मंत्र, जातिमंत्र आदि के भेद से सात प्रकार के हैं। 74। श्री जिनेंद्र देव ने इन्हीं मंत्रों का प्रयोग समस्त क्रियाओं में (पूजा विधानादि में) बतलाया है। इसलिए उस विषय के जानकार श्रावकों को व्यामोह (प्रमाद) छोड़कर उन मंत्रों का प्रयोग करना चाहिए। 75। (और भी देखो यज्ञ में आर्ष यज्ञ); <span class="GRef">( महापुराण/47/347-354 )</span>। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/40/80-81 </span><span class="SanskritGatha">सिद्धार्च्चासंनिधौ मंत्रां जपेदष्टोत्तरं शतम्। गंधपुष्पाक्षतार्घादिनिवेदनपुरः सरम्। 80। सिद्धविद्यस्ततो मंत्रैरेभिः कर्म समाचरेत्। शुक्लवासाः शुचिर्यज्ञोपवीत्यव्यग्रमानसः। 81।</span> = <span class="HindiText">सिद्ध भगवान् की प्रतिमा के सामने पहले गंध, पुष्प, अक्षत और अर्घ आदि समर्पण कर एक सौ आठ बार उक्त मंत्रों का जप करना चाहिए। 8॥ तदनंतर जिसे विद्याएँ सिद्ध हो गयी हैं, जो सफेद वस्त्र पहने हैं, पवित्र है, यज्ञोपवीत धारण किये हुए है, जिसका चित्त आकुलता से रहित है ऐसा द्विज इन मंत्रों से समस्त क्रियाएँ करे। 81। <br /> | <span class="GRef"> महापुराण/40/80-81 </span><span class="SanskritGatha">सिद्धार्च्चासंनिधौ मंत्रां जपेदष्टोत्तरं शतम्। गंधपुष्पाक्षतार्घादिनिवेदनपुरः सरम्। 80। सिद्धविद्यस्ततो मंत्रैरेभिः कर्म समाचरेत्। शुक्लवासाः शुचिर्यज्ञोपवीत्यव्यग्रमानसः। 81।</span> = <span class="HindiText">सिद्ध भगवान् की प्रतिमा के सामने पहले गंध, पुष्प, अक्षत और अर्घ आदि समर्पण कर एक सौ आठ बार उक्त मंत्रों का जप करना चाहिए। 8॥ तदनंतर जिसे विद्याएँ सिद्ध हो गयी हैं, जो सफेद वस्त्र पहने हैं, पवित्र है, यज्ञोपवीत धारण किये हुए है, जिसका चित्त आकुलता से रहित है ऐसा द्विज इन मंत्रों से समस्त क्रियाएँ करे। 81। <br /> | ||
देखें [[ अग्नि#3 | अग्नि - 3 ]]गार्हपत्य आदि तीन अग्नियों का निर्देश व उनका उपयोग। <br /> | देखें [[ अग्नि#3 | अग्नि - 3 ]]गार्हपत्य आदि तीन अग्नियों का निर्देश व उनका उपयोग। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.9" id="5.9">गृहस्थों को पूजा से पूर्व स्नान अवश्य करना चाहिए</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">यशस्तिलक चंपू/328</span><span class="SanskritText"> स्नानं विधाय विधिवत्कृतदेवकार्यः।</span> =<span class="HindiText"> विवेकी पुरुष को स्नान करने के पश्चात् शास्त्रोक्त विधि से ईश्वर-भक्ति (पूजा-अभिषेकादि) करनी चाहिए। <span class="GRef">( रत्नकरंड श्रावकाचार/पं. सदासुख दास/119/168/19 )</span>। <br /> | |||
<span class="GRef"> चर्चा समाधान/शंका नं. 73</span><br><span class="HindiText"> केवलज्ञान की साक्षात्पूजा विषैं न्होन नाहीं, प्रतिमा की पूजा न्हवन पूर्वक ही कही है। </span>(और भी देखें [[ स्नान ]])। </span></li> | |||
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Latest revision as of 15:15, 27 November 2023
- पूजा-विधि
- पूजा के पाँच अंग होते हैं
रत्नकरंड श्रावकाचार/पं.सदासुखदास/119/173/15
व्यवहार में पूजन के पाँच अंगनि की प्रवृत्ति देखिये हैं - आह्वानन 1; स्थापना 2; संनिधिकरण 3; पूजन 4; विसर्जन 5।
- पूजा दिन में तीन बार करनी चाहिए
सागार धर्मामृत/2/25 ...भक्त्या ग्रामगृहादिशासनविधा दानं त्रिसंध्याश्रया सेवा स्वेऽपि गृहेऽर्चनं च यमिनां, नित्यप्रदानानुगम्। 25। = शास्त्रोक्त विधि से गाँव, घर, दुकान आदि का दान देना, अपने घर में भी अरिहंत की तीनों संध्याओं में की जानेवाली तथा मुनियों को भी आहार दान देना है बाद में जिसके, ऐसी पूजा नित्यमह पूजा कही गयी है। 25।
- रात्रि को पूजा करने का निषेध
लाठी संहिता/6/187 तत्रार्द्ध रात्र के पूजां न कुर्यादर्हतामपि। हिंसाहेतोरवश्यं स्याद्रात्रौ पूजाविवर्जनम्। 187। = आधी रात के समय भगवान् अरहंत देव की पूजा नहीं करनी चाहिए क्योंकि आधी रात के समय पूजा करने से हिंसा अधिक होती है। रात्रि में जीवों का संचार अधिक होता है, तथा यथोचित रीति से जीव दिखाई नहीं पड़ते, इसलिए रात्रि में पूजा करने का निषेध किया है ( रत्नकरंड श्रावकाचार/पं. सदासुख दास/119/171/1 )।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/6/280/2
पाप का अंश बहुत पुण्य समूह विषै दोष के अर्थ नाहीं, इस छलकरि पूजा प्रभावनादि कार्यनिविषैं रात्रिविषैं दीपकादिकरि वा अनंतकायादिक का संग्रह करि वा अयत्नाचार प्रवृत्तिकरि हिंसादिक रूप पाप तौ बहुत उपजावैं, अर स्तुति भक्ति आदि शुभ परिणामनिविषैं प्रवर्तै नाहीं, वा थोरे प्रवर्ते, सो टोटा घना नफा थोरा वा नफा किछू नाहीं। ऐसा कार्य करने में तो बुरा ही दीखना होय।
- चावलों में स्थापना करने का निषेध
वसुनंदी श्रावकाचार/385 हुंडावसप्पिणोए विइया ठवणा ण होदि कायव्वा। लोए कुलिंगमइमोहिए जदो होइ संदेहो। 385। = हुंडावसर्पिणी काल में दूसरी असद्भाव स्थापना पूजा नहीं करना चाहिए, क्योंकि, कुलिंग-मतियों से मोहित इस लोक में संदेह हो सकता है। ( रत्नकरंड श्रावकाचार/ पं.सदासुखदास/119/173/7)।
रत्नकरंड श्रावकाचार/ पं. सदासुख दास/119/172/21
स्थापना के पक्षपाती स्थापना बिना प्रतिमा का पूजन नाहीं करें। ....बहुरि जो पीत तंदुलनिकी अतदाकार स्थापना ही पूज्य है तो तिन पक्षपातीनिके धातु पाषाण का तदाकार प्रतिबिंब स्थापन करना व्यर्थ है तथा अकृत्रिम चैत्यालय के प्रतिबिंब अनादि निधन है जिनमें हू पूज्यपना नाहीं रहा।
- स्थापना के विधि-निषेध का समन्वय
रत्नकरंड श्रावकाचार/ पं. सदासुख/119/173/24
भावनिके जोड़ के अर्थि आह्वाननादिक में पुष्प क्षेपण करिये है, पुष्पनि कूँ प्रतिमा नहीं जानै। ए तो आह्वाननादिकनिका संकल्पतैं पुष्पांजलि क्षेपण करिये है। पूजन में पाठ रच्या होय तो स्थापना कर ले नहीं होय तो नाहीं करै। अनेकांतिनिकै सर्वथा पक्ष नाहीं।
- पूजा के साथ अभिषेक व नृत्य गान आदि का विधान
तिलोयपण्णत्ति/8/584-587 खीरद्धिसलिलपूरिदकंचणकलसेहिं अट्ठ सहस्सेहिं। देवा जिणाभिसेयं महाविभूदीए कुव्वंति। 584। वज्जंतेसु मद्दलजयघंटापडहकालादीसुं दिव्वेसुं तूरेसुं ते तिणपूजं पकुव्वंति। 585। भिंगारकलसदप्पणछत्तत्तयचमर-पहुदिदव्वेहिं। पूजं कादूण तदो जलगंधादीहि अच्चंति। 586। तत्तो हरिसेण सुरा णाणाविहणाडयाइं दिव्वाइं। बहुरसभावजुदाइं णच्चंति विचित्त भंगीहिं। 587। = उक्त (वैमानिक) देव क्षीरसागर के जल से पूर्ण एक हजार आठ सुवर्ण कलशों के द्वारा महाविभूति के साथ जिनाभिषेक करते हैं। 584। मर्दल, जयघटा, पहट और काहल आदिक दिव्य वादित्रों के बजते रहते वे देव जिनपूजा को करते हैं। 585। उक्त देव भृंगार, कलश, दर्पण, तीन छत्र और चामरादि द्रव्यों से पूजा करके पश्चात् जल, गंधादिक से अर्चना करते हैं। 586। तत्पश्चात् हर्ष से देव विचित्र शैलियों से बहुत रस व भावों से युक्त दिव्य नाना प्रकार के नाटकों को करते हैं। उत्तम रत्नों से विभूषित दिव्य कन्याएँ विविध प्रकार के नृत्यों को करती हैं। अंत में जिनेंद्र भगवान् के चरितों का अभिनय करती हैं। (5/114); ( तिलोयपण्णत्ति/3/218-227 ); ( तिलोयपण्णत्ति/5/104-116 ); (और भी देखें पूजा - 4.3)।
- द्रव्य व भाव दोनों पूजा करनी योग्य हैं
अमितगति श्रावकाचार/12/15 द्वेधापि कुर्वतः पूजां जिनानां जितजन्मनाम्। न विद्यते द्वये लोके दुर्लभं वस्तु पूजितम्। 15। = जीता है संसार जिनने ऐसे जिन देवनि की द्रव्य भावकरि दोऊ ही प्रकार पूजा कौं करता जो पुरुष ताकौं इसलोक परलोक विषैं उत्तम वस्तु दुर्लभ नाहीं। 15।
- पूजा विधान में विशेष प्रकार का क्रियाकांड
महापुराण/38/71-75 तत्रार्चनाविधै चक्रत्रयं छत्रत्रयान्वितम्। जिनार्चा-मभितः स्थाप्य समं पुण्याग्निभिस्त्रिभिः। 71। त्रयोऽग्नयोऽर्हद्गण-भृच्छेषकेवलिनिर्वृतौ। ये हुतास्ते प्रणेतव्याः सिद्धार्चावेद्युपाश्रयाः। 72। तेष्वर्हदिज्याशेषांशैः आहुतिर्मंत्रपूर्विका। विधेया शुचिभि-र्द्रव्यैः पुंस्पुत्रीत्पत्तिकाम्यया। 73। तंमंत्रास्तु यथाम्नायं वक्ष्यंते-ऽन्यत्र पर्वणि। सप्तधा पीठिकाजातिमंत्रादिप्रविभागतः। 74। विनियोगस्तु सर्वासु क्रियास्वेषां मतो जिनैः। अव्यामोहादतस्तज्ज्ञैः प्रयोज्यास्त उपासकैः। 75। = इस आधान (गर्भाधान) क्रिया की पूजा में जिनेंद्र भगवान् की प्रतिमा के दाहिनी ओर तीन चक्र, बाँयीं ओर तीन छत्र और सामने तीन पवित्र अग्नि स्थापित करें। 71। अर्हंत भगवान् के (तीर्थंकर) निर्वाण के समय, गणधर देवों के निर्वाण के समय और सामान्य केवलियों के निर्वाण के समय जिन अग्नियों में होम किया गया था ऐसी तीन प्रकार की पवित्र अग्नियाँ सिद्ध प्रतिमा की वेदी के समीप तैयार करनी चाहिए। 72। प्रथम ही अर्हंतदेव की पूजा कर चुकने के बाद शेष बचे हुए द्रव्य से पुत्र उत्पन्न होने की इच्छा कर मंत्रपूर्वक उन तीन अग्नियों में आहुति करनी चाहिए। 73। उन आहुतियों के मंत्र पीठिका मंत्र, जातिमंत्र आदि के भेद से सात प्रकार के हैं। 74। श्री जिनेंद्र देव ने इन्हीं मंत्रों का प्रयोग समस्त क्रियाओं में (पूजा विधानादि में) बतलाया है। इसलिए उस विषय के जानकार श्रावकों को व्यामोह (प्रमाद) छोड़कर उन मंत्रों का प्रयोग करना चाहिए। 75। (और भी देखो यज्ञ में आर्ष यज्ञ); ( महापुराण/47/347-354 )।
महापुराण/40/80-81 सिद्धार्च्चासंनिधौ मंत्रां जपेदष्टोत्तरं शतम्। गंधपुष्पाक्षतार्घादिनिवेदनपुरः सरम्। 80। सिद्धविद्यस्ततो मंत्रैरेभिः कर्म समाचरेत्। शुक्लवासाः शुचिर्यज्ञोपवीत्यव्यग्रमानसः। 81। = सिद्ध भगवान् की प्रतिमा के सामने पहले गंध, पुष्प, अक्षत और अर्घ आदि समर्पण कर एक सौ आठ बार उक्त मंत्रों का जप करना चाहिए। 8॥ तदनंतर जिसे विद्याएँ सिद्ध हो गयी हैं, जो सफेद वस्त्र पहने हैं, पवित्र है, यज्ञोपवीत धारण किये हुए है, जिसका चित्त आकुलता से रहित है ऐसा द्विज इन मंत्रों से समस्त क्रियाएँ करे। 81।
देखें अग्नि - 3 गार्हपत्य आदि तीन अग्नियों का निर्देश व उनका उपयोग।
- गृहस्थों को पूजा से पूर्व स्नान अवश्य करना चाहिए
यशस्तिलक चंपू/328 स्नानं विधाय विधिवत्कृतदेवकार्यः। = विवेकी पुरुष को स्नान करने के पश्चात् शास्त्रोक्त विधि से ईश्वर-भक्ति (पूजा-अभिषेकादि) करनी चाहिए। ( रत्नकरंड श्रावकाचार/पं. सदासुख दास/119/168/19 )।
चर्चा समाधान/शंका नं. 73
केवलज्ञान की साक्षात्पूजा विषैं न्होन नाहीं, प्रतिमा की पूजा न्हवन पूर्वक ही कही है। (और भी देखें स्नान )।
- पूजा के पाँच अंग होते हैं