प्रत्यक्ष: Difference between revisions
From जैनकोष
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
(Imported from text file) |
||
(11 intermediate revisions by 4 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
<p class="HindiText">विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं । वह दो प्रकार का है - सांव्यवहारिक व पारमार्थिक । इंद्रिय ज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है, और इंद्रिय आदि पर पदार्थों से निरपेक्ष केवल आत्मा में उत्पन्न होने वाला ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष है । यद्यपि न्याय के क्षेत्र में सांव्यवहारिक ज्ञान को प्रत्यक्ष मान लिया गया है, पर परमार्थ से जैन दर्शनकार उसे परोक्ष ही मानते हैं । पारमार्थिक प्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है - सकल व विकल । सर्वज्ञ भगवान् का त्रिलोक व त्रिकालवर्ती केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है, और सीमित द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव विषयक अवधि व मनःपर्ययज्ञान विकल या देश प्रत्यक्ष है ।</p> | <p class="HindiText">विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं । वह दो प्रकार का है - सांव्यवहारिक व पारमार्थिक । इंद्रिय ज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है, और इंद्रिय आदि पर पदार्थों से निरपेक्ष केवल आत्मा में उत्पन्न होने वाला ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष है । यद्यपि न्याय के क्षेत्र में सांव्यवहारिक ज्ञान को प्रत्यक्ष मान लिया गया है, पर परमार्थ से जैन दर्शनकार उसे परोक्ष ही मानते हैं । पारमार्थिक प्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है - सकल व विकल । सर्वज्ञ भगवान् का त्रिलोक व त्रिकालवर्ती केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है, और सीमित द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव विषयक अवधि व मनःपर्ययज्ञान विकल या देश प्रत्यक्ष है ।</p> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #1 | भेद व लक्षण]]</strong> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #1.1 | प्रत्यक्ष ज्ञान सामान्य का लक्षण ]]</strong> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText">[[ #1.1.1 | | <li class="HindiText">[[ #1.1.1 | आत्मा के अर्थ में ;]] </li> | ||
<li class="HindiText">[[ #1.1.2 | विशद ज्ञान के अर्थ में; ]]</li> | <li class="HindiText">[[ #1.1.2 | विशद ज्ञान के अर्थ में; ]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ #1.1.3 | परापेक्ष रहित के अर्थ में । ]]</li> | <li class="HindiText">[[ #1.1.3 | परापेक्ष रहित के अर्थ में । ]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #1.2 | प्रत्यक्ष ज्ञान के भेद ]]</strong> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
Line 19: | Line 19: | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #1.3 | प्रत्यक्ष ज्ञान के उत्तर भेद ]]</strong> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText">[[ #1.3.1 | सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के भेद; ]]</li> | <li class="HindiText">[[ #1.3.1 | सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के भेद; ]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ #1.3.2 | पारमार्थिक प्रत्यक्ष के भेद; ]]</li> | <li class="HindiText">[[ #1.3.2 | पारमार्थिक प्रत्यक्ष के भेद; ]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ #1.3.3 | | <li class="HindiText">[[ #1.3.3 | सकल और विकल प्रत्यक्ष के भेद । ]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
Line 36: | Line 36: | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText">देश प्रत्यक्ष ज्ञान की विशेषताएँ - देखें [[ अवधि | <li class="HindiText">देश प्रत्यक्ष ज्ञान की विशेषताएँ - देखें [[ अवधि ]] </li> [[ मन:पर्यय]]</li> | ||
<li class="HindiText">सकल प्रत्यक्ष ज्ञान की विशेषताएँ - देखें [[ केवलज्ञान ]]</li> | <li class="HindiText">सकल प्रत्यक्ष ज्ञान की विशेषताएँ - देखें [[ केवलज्ञान ]]</li> | ||
</ul> | </ul> | ||
Line 43: | Line 43: | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #2 | प्रत्यक्ष ज्ञान निर्देश तथा शंका समाधान]]</strong> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
Line 50: | Line 50: | ||
<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText">स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ज्ञान की विशेषताएँ - देखें [[ अनुभव ]]।4।</li> | <li class="HindiText">स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ज्ञान की विशेषताएँ - देखें [[ अनुभव ]]।4।</li> | ||
<li class="HindiText">मति व श्रुतज्ञान में भी कथंचित् प्रत्यक्षता परोक्षता - देखें [[ | <li class="HindiText">मति व श्रुतज्ञान में भी कथंचित् प्रत्यक्षता परोक्षता - देखें [[ श्रुतज्ञान_सामान्य_निर्देश#I.5 | श्रुतज्ञान - I .5 ]]।</li> | ||
<li class="HindiText">अवधि व मनःपर्यय की कथंचित् प्रत्यक्षता परोक्षता - देखें [[ अवधिज्ञान#3 | अवधिज्ञान - 3 ]]।</li> | <li class="HindiText">अवधि व मनःपर्यय की कथंचित् प्रत्यक्षता परोक्षता - देखें [[ अवधिज्ञान#3 | अवधिज्ञान - 3 ]]।</li> | ||
<li class="HindiText">अवधि व मतिज्ञान की प्रत्यक्षता में अंतर - देखें [[ अवधिज्ञान#3.5 | अवधिज्ञान - 3.5]]</li> | <li class="HindiText">अवधि व मतिज्ञान की प्रत्यक्षता में अंतर - देखें [[ अवधिज्ञान#3.5 | अवधिज्ञान - 3.5]]</li> | ||
Line 62: | Line 62: | ||
<li class="HindiText">सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की पारमार्थिक परोक्षता - देखें [[ श्रुतज्ञान#I.5 | श्रुतज्ञान - I.5 ]]।</li> | <li class="HindiText">सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की पारमार्थिक परोक्षता - देखें [[ श्रुतज्ञान#I.5 | श्रुतज्ञान - I.5 ]]।</li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #4 | इंद्रियों के बिना भी ज्ञान कैसे संभव है ।]]</strong> | ||
</span> | </span> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText">इंद्रिय निमित्तक ज्ञान प्रत्यक्ष और उससे विपरीत परोक्ष होना चाहिए - देखें [[ श्रुतज्ञान#I.5 | श्रुतज्ञान - I.5 ]]।</li> | <li class="HindiText">इंद्रिय निमित्तक ज्ञान प्रत्यक्ष और उससे विपरीत परोक्ष होना चाहिए - देखें [[ श्रुतज्ञान#I.5 | श्रुतज्ञान - I.5 ]]।</li> | ||
<li class="HindiText">सम्यग्दर्शनकी प्रत्यक्षता परोक्षता - देखें [[ | <li class="HindiText">सम्यग्दर्शनकी प्रत्यक्षता परोक्षता - देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.3 | सम्यग्दर्शन I.3 ]]।</li> | ||
</ul> | </ul> | ||
</li> | </li> | ||
Line 72: | Line 72: | ||
<p> </p> | <p> </p> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1">भेद व लक्षण</strong> <br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
Line 78: | Line 78: | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1.1" id="1.1.1">आत्मा के अर्थ में</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/58 </span><span class="PrakritText">जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पच्चक्खं /58।</span> = <span class="HindiText">यदि मात्र जीव के (आत्मा के) द्वारा ही जाना जाये तो वह ज्ञान प्रत्यक्ष है । </span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार/58 </span><span class="PrakritText">जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पच्चक्खं /58।</span> = <span class="HindiText">यदि मात्र जीव के (आत्मा के) द्वारा ही जाना जाये तो वह ज्ञान प्रत्यक्ष है । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/12/103/1 </span><span class="SanskritText">अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा । तमेव ... प्रतिनियतं प्रत्यक्षम् ।</span> = <span class="HindiText">अक्ष, ज्ञा और व्याप् धातुएँ एकार्थवाची होती हैं, इसलिए अक्षका अर्थ आत्मा होता है । ... केवल आत्मा से होता है वह प्रत्यक्षज्ञान कहलाता है । | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/12/103/1 </span><span class="SanskritText">अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा । तमेव ... प्रतिनियतं प्रत्यक्षम् ।</span> = <span class="HindiText">अक्ष, ज्ञा और व्याप् धातुएँ एकार्थवाची होती हैं, इसलिए अक्षका अर्थ आत्मा होता है । ... केवल आत्मा से होता है वह प्रत्यक्षज्ञान कहलाता है । <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/12/2/53/11 )</span> <span class="GRef">( धवला 9/4,1,45/45/4 )</span> <span class="GRef">( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/57 )</span> <span class="GRef">( समयसार / आत्मख्याति/13 कलश 8 के पश्चात् )</span> <span class="GRef">(स्याद्वाद मंजरी/28/321/8)</span> <span class="GRef">( न्यायदीपिका/2/19/39/1 )</span> <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/ जीवतत्व प्रदीपिका/369/795/7)</span> ।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/21 </span><span class="SanskritText">संवेदनालंबनभूताः सर्वद्रव्यपर्याया प्रत्यक्षा एव भवंति ।</span> = <span class="HindiText">संवेदन की (प्रत्यक्ष ज्ञान की) आलंबनभूत समस्त द्रव्य पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं । </span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/21 </span><span class="SanskritText">संवेदनालंबनभूताः सर्वद्रव्यपर्याया प्रत्यक्षा एव भवंति ।</span> = <span class="HindiText">संवेदन की (प्रत्यक्ष ज्ञान की) आलंबनभूत समस्त द्रव्य पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका 58 </span><span class="SanskritText">यत्पुनरंतकरणमिंद्रियं परोपदेश... आदिकं वा समस्तमपि परद्रव्यमनपेक्ष्यात्मस्वभावमेवैकं कारणत्वेनोपादाय सर्वद्रव्यपर्यायजातमेकपद एवाभिव्याप्य प्रवर्तमानं परिच्छेदनं तत् केवलादेवात्मनः संभूतत्वात् प्रत्यक्षमित्यालक्ष्यते ।</span> = <span class="HindiText">मन, इंद्रिय, परोपदेश आदिक सर्व परद्रव्यों की अपेक्षा रखे बिना एकमात्र आत्मस्वभाव को ही कारणरूप से ग्रहण करके सर्व द्रव्य पर्यायों के समूह में एक समय ही व्याप्त होकर प्रवर्तमान ज्ञान केवल आत्मा के द्वारा ही उत्पन्न होता है, इसलिए प्रत्यक्ष के रूप में जाना जाता है ।</span></li> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका 58 </span><span class="SanskritText">यत्पुनरंतकरणमिंद्रियं परोपदेश... आदिकं वा समस्तमपि परद्रव्यमनपेक्ष्यात्मस्वभावमेवैकं कारणत्वेनोपादाय सर्वद्रव्यपर्यायजातमेकपद एवाभिव्याप्य प्रवर्तमानं परिच्छेदनं तत् केवलादेवात्मनः संभूतत्वात् प्रत्यक्षमित्यालक्ष्यते ।</span> = <span class="HindiText">मन, इंद्रिय, परोपदेश आदिक सर्व परद्रव्यों की अपेक्षा रखे बिना एकमात्र आत्मस्वभाव को ही कारणरूप से ग्रहण करके सर्व द्रव्य पर्यायों के समूह में एक समय ही व्याप्त होकर प्रवर्तमान ज्ञान केवल आत्मा के द्वारा ही उत्पन्न होता है, इसलिए प्रत्यक्ष के रूप में जाना जाता है ।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2">विशद ज्ञान के अर्थ में</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/ | <span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/ मूल/1/3/57/15</span><span class="SanskritGatha"> प्रत्यक्षलक्षणं प्राहु स्पष्टं साकारमंजसा । द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थात्मवेदनम् ।3।</span> = <span class="HindiText">स्पष्ट और सविकल्प तथा व्यभिचार आदि दोष रहित होकर सामान्य रूप द्रव्य और विशेष रूप पर्याय अर्थों को तथा अपने स्वरूप को जानना ही प्रत्यक्ष का लक्षण है । 3। <span class="GRef">( श्लोकवार्तिक/3/1/12/4,17/174, 186 )</span> ।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> सिद्धि विनिश्चय/मूल/1/19/78/16</span><span class="SanskritText"> प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं ।</span> =<span class="HindiText">विशद ज्ञान (प्रतिभास) को प्रत्यक्ष कहते हैं । <span class="GRef">( परीक्षामुख /2/3 )</span> <span class="GRef">( न्यायदीपिका/2/1/23/4 )</span></span><br /> | |||
<span class="GRef"> सप्त भंगी तरंगिनी/47/10</span> <span class="SanskritText">प्रत्यक्षस्य वैशद्यं स्वरूपम् ।</span> = <span class="HindiText">वैशद्य अर्थात् निर्मलता वा स्वच्छता पूर्वक स्पष्ट रीति से भासना प्रत्यक्ष ज्ञान का स्वरूप है । <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1.3" id="1.1.3">परापेक्ष रहित के अर्थ में</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/12/1/53/4 </span><span class="SanskritText">इंद्रियानिंद्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणं प्रत्यक्षम् ।1।</span> = <span class="HindiText">इंद्रिय और | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/12/1/53/4 </span><span class="SanskritText">इंद्रियानिंद्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणं प्रत्यक्षम् ।1।</span> = <span class="HindiText">इंद्रिय और मन की अपेक्षा के बिना व्यभिचार रहित जो साकार ग्रहण होता है, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं । <span class="GRef">( तत्त्वसार/1/17/14 )</span> ।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/696 </span><span class="SanskritText">असहायं प्रत्यक्षं ... ।696।</span> = <span class="HindiText">असहाय ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं । <br /> | <span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/696 </span><span class="SanskritText">असहायं प्रत्यक्षं ... ।696।</span> = <span class="HindiText">असहाय ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं । <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">प्रत्यक्ष ज्ञान के भेद</strong> <br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.2.1" id="1.2.1">सांव्यहारिक व पारमार्थिक</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/28/321/6 </span><span class="SanskritText">प्रत्यक्षं द्विधा-सांव्यहारिकं पारमार्थिकं च । </span>= <span class="HindiText">सांव्यवहारिक और पारमार्थिक ये प्रत्यक्ष के दो भेद हैं । | <span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/28/321/6 </span><span class="SanskritText">प्रत्यक्षं द्विधा-सांव्यहारिकं पारमार्थिकं च । </span>= <span class="HindiText">सांव्यवहारिक और पारमार्थिक ये प्रत्यक्ष के दो भेद हैं । <span class="GRef">( न्यायदीपिका/2/21/31/6 )</span> । <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.2.2" id="1.2.2">दैवी, पदार्थ व आत्म-प्रत्यक्ष</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/ | <span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/ टीका/1/3/115/25</span> <span class="SanskritGatha">प्रत्यक्ष त्रिविध देवै दीप्यतामुपपादितम् । द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थात्मवेदनम् ।360।</span> =<span class="HindiText"> प्रत्यक्ष तीन प्रकार का होता है - </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"> देवों द्वारा प्राप्त दिव्य ज्ञान, द्रव्य व पर्यायों को अथवा सामान्य व विशेष पदार्थों को जानने वाला ज्ञान तथा आत्मा को प्रत्यक्ष करने वाला स्वसंवेदन ज्ञान ।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 109: | Line 109: | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3">प्रत्यक्ष ज्ञान के उत्तर भेद</strong> <br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.1" id="1.3.1">सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के भेद</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/28/321/6 </span><span class="SanskritText"> | <span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/28/321/6 </span><span class="SanskritText"> सांव्यवहारिक द्विविधम् इंद्रियानिंद्रियनिमित्तभेदात् । तद् द्वितयम् अवग्रहेहावायधारणाभेदाद् एकैकशश्चतुर्विकल्पम् ।</span> =<span class="HindiText"> सांव्यहारिक प्रत्यक्ष इंद्रिय और मन से पैदा होता है । इंद्रिय और मन से उत्पन्न होने वाले उस सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा चार चार भेद हैं । <span class="GRef">( न्यायदीपिका/2/11-12/31-33 )</span> ।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.2" id="1.3.2">पारमार्थिक प्रत्यक्ष के भेद</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/20/125/1 </span><span class="SanskritText"> तद् द्वेधा- | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/20/125/1 </span><span class="SanskritText"> तद् द्वेधा-देशप्रत्यक्ष सर्वप्रत्यक्ष च ।</span> = <span class="HindiText">वह प्रत्यक्ष (पारमार्थिक प्रत्यक्ष) दो प्रकार का है - देश प्रत्यक्ष और सर्व प्रत्यक्ष । <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/21 उत्थानिका/78/25)</span>, <span class="GRef">( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/46 )</span> <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/5/15/1 )</span>, <span class="GRef">( पंचाध्यायी x`/ मूल/697)</span> ।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 9/4,1,45/142/6 </span><span class="SanskritText">तत्र प्रत्यक्षं द्विविधं, सकलविकलप्रत्यक्षभेदात् ।</span> <span class="HindiText">प्रत्यक्ष सकल प्रत्यक्ष व विकल प्रत्यक्ष के भेद से दो प्रकार का है । | <span class="GRef"> धवला 9/4,1,45/142/6 </span><span class="SanskritText">तत्र प्रत्यक्षं द्विविधं, सकलविकलप्रत्यक्षभेदात् ।</span> <span class="HindiText">प्रत्यक्ष सकल प्रत्यक्ष व विकल प्रत्यक्ष के भेद से दो प्रकार का है । <span class="GRef">( न्यायदीपिका/2/13/34/10 )</span> ।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/28/321/8 </span><span class="SanskritText">तद्द्विविधम् क्षायोपशमिकं क्षायिकं च ।</span> =<span class="HindiText"> वह (पारमार्थिक प्रत्यक्ष) क्षायोपशमिक और क्षायिक के भेद से दो प्रकार का है । <br /> | <span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/28/321/8 </span><span class="SanskritText">तद्द्विविधम् क्षायोपशमिकं क्षायिकं च ।</span> =<span class="HindiText"> वह (पारमार्थिक प्रत्यक्ष) क्षायोपशमिक और क्षायिक के भेद से दो प्रकार का है । <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.3" id="1.3.3">सकल और विकल प्रत्यक्ष के भेद</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/20/125/2 </span><span class="SanskritText">देशप्रत्यक्षमवधिमनःपर्ययज्ञाने । सर्वप्रत्यक्षं केवलम् ।</span> =<span class="HindiText"> देशप्रत्यक्ष अवधि और मनःपर्यय ज्ञान के भेद से दो प्रकार का है । सर्वप्रत्यक्ष केवलज्ञान है । (वह एक ही प्रकार का होता है ।) | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/20/125/2 </span><span class="SanskritText">देशप्रत्यक्षमवधिमनःपर्ययज्ञाने । सर्वप्रत्यक्षं केवलम् ।</span> =<span class="HindiText"> देशप्रत्यक्ष अवधि और मनःपर्यय ज्ञान के भेद से दो प्रकार का है । सर्वप्रत्यक्ष केवलज्ञान है । (वह एक ही प्रकार का होता है ।) <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/21/78/26 ) की उत्थानिका)</span> <span class="GRef">( धवला 9/4,1,45/142-143/7 )</span> <span class="GRef">( नयचक्र बृहद् 171 )</span>, <span class="GRef">( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/12 )</span>(त.प./13/47), <span class="GRef">( स्याद्वादमंजरी/28/321/9 )</span>, <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/5/15/1 )</span> <span class="GRef">( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/699 )</span> ।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.4" id="1.3.4"> सांव्यवहारिक व पारमार्थिक प्रत्यक्ष के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> परीक्षामुख/2/5 </span><span class="SanskritText">इंद्रियानिंद्रियनिमित्तं देशतः सांव्यवहारिकं ।</span> = <span class="HindiText">जो ज्ञान स्पर्शनादि इंद्रिय और मन की सहायता से होता हो उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं । </span><br /> | <span class="GRef"> परीक्षामुख/2/5 </span><span class="SanskritText">इंद्रियानिंद्रियनिमित्तं देशतः सांव्यवहारिकं ।</span> = <span class="HindiText">जो ज्ञान स्पर्शनादि इंद्रिय और मन की सहायता से होता हो उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/28/321/8 </span><span class="SanskritText"> | <span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/28/321/8 </span><span class="SanskritText"> पारमार्थिकं पुनरुत्पत्तौ आत्ममात्रापेक्षम् । </span>= <span class="HindiText">पारमार्थिक प्रत्यक्ष की उत्पत्ति में केवल आत्मा मात्र की सहायता रहती है । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/5/15/9 </span><span class="SanskritText"> समीचीनो व्यवहारः संव्यवहारः । प्रवृत्तिनिवृत्ति-लक्षणः संव्यवहारो भण्यते । संव्यवहारे भवं साव्यहारिकं प्रत्यक्षम् । यथा घटरूपमिदं मया दृष्टमित्यादि ।</span> = <span class="HindiText">समीचीन अर्थात् जो ठीक व्यवहार है वह संव्यवहार कहलाता है = संव्यवहार का लक्षण प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप है । संव्यवहार में जो हो सो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है । जैसे घटका रूप मैंने देखा इत्यादि । </span><br /> | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/5/15/9 </span><span class="SanskritText"> समीचीनो व्यवहारः संव्यवहारः । प्रवृत्तिनिवृत्ति-लक्षणः संव्यवहारो भण्यते । संव्यवहारे भवं साव्यहारिकं प्रत्यक्षम् । यथा घटरूपमिदं मया दृष्टमित्यादि ।</span> = <span class="HindiText">समीचीन अर्थात् जो ठीक व्यवहार है वह संव्यवहार कहलाता है = संव्यवहार का लक्षण प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप है । संव्यवहार में जो हो सो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है । जैसे घटका रूप मैंने देखा इत्यादि । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> न्यायदीपिका/2/11-13/31-34/7 </span><span class="SanskritText">यज्ज्ञानं देशतो विशदमीषन्निर्मलं तत्सांव्यवहारिकप्रत्यक्षमित्यर्थः ।11। लोकसंव्यवहारे प्रत्यक्षमिति प्रसिद्धत्वात्सांव्यवहारिकप्रत्यक्षमुच्यते । ... इदं चामुख्यप्रत्यक्षम्, उपचार सिद्धत्वात् । वस्तुतस्तु परोक्षमेव मतिज्ञानत्वात् ।12। सर्वतो विशदं पारमार्थिकप्रत्यक्षम् । यज्ज्ञानं साकल्येन स्पष्टं तत्पारमार्थिकप्रत्यक्षं मुख्यप्रत्यक्षमिति यावत् ।13।</span> = | <span class="GRef"> न्यायदीपिका/2/11-13/31-34/7 </span><span class="SanskritText">यज्ज्ञानं देशतो विशदमीषन्निर्मलं तत्सांव्यवहारिकप्रत्यक्षमित्यर्थः ।11। लोकसंव्यवहारे प्रत्यक्षमिति प्रसिद्धत्वात्सांव्यवहारिकप्रत्यक्षमुच्यते । ... इदं चामुख्यप्रत्यक्षम्, उपचार सिद्धत्वात् । वस्तुतस्तु परोक्षमेव मतिज्ञानत्वात् ।12। सर्वतो विशदं पारमार्थिकप्रत्यक्षम् । यज्ज्ञानं साकल्येन स्पष्टं तत्पारमार्थिकप्रत्यक्षं मुख्यप्रत्यक्षमिति यावत् ।13।</span> = | ||
Line 134: | Line 134: | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.5" id="1.3.5">देश व सकल प्रत्यक्ष के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 9/4,1,45/142/7 </span><span class="SanskritText">सकलप्रत्यक्षं केवलज्ञानम्, विषयीकृतत्रिकालगोचराशेषार्थत्वात् अतींद्रियत्वात् अक्रमवृत्तित्वात् निर्व्यवधानात् आत्मार्थ | <span class="GRef"> धवला 9/4,1,45/142/7 </span><span class="SanskritText">सकलप्रत्यक्षं केवलज्ञानम्, विषयीकृतत्रिकालगोचराशेषार्थत्वात् अतींद्रियत्वात् अक्रमवृत्तित्वात् निर्व्यवधानात् आत्मार्थ सनिधानमात्रप्रवर्तनात् । .... अवधिमनः पर्ययज्ञाने विकलप्रत्यक्षम्, तत्र साकल्येन प्रत्यक्षलक्षणाभावात् ।</span> = | ||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है, क्योंकि, वह त्रिकालविषयक समस्त पदार्थों को विषय करने वाला, अतींद्रिय, अक्रमवृत्ति, व्यवधान से रहित और आत्मा एवं पदार्थ की समीपता मात्र से प्रवृत्त होने वाला है । | <li class="HindiText"> केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है, क्योंकि, वह त्रिकालविषयक समस्त पदार्थों को विषय करने वाला, अतींद्रिय, अक्रमवृत्ति, व्यवधान से रहित और आत्मा एवं पदार्थ की समीपता मात्र से प्रवृत्त होने वाला है । <span class="GRef">( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/49 )</span> </li> | ||
<li | <li class="HindiText"> अवधि और मनःपर्यय ज्ञान विकल प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि उनमें सकल प्रत्यक्ष का लक्षण नहीं पाया जाता (यह ज्ञान विनश्वर है । तथा मूर्त पदार्थों में भी इसकी पूर्ण प्रवृत्ति नहीं देखी जाती । <span class="GRef">( कषायपाहुड़ 1/1,1/16/1 )</span> ।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/50 </span><span class="PrakritGatha">दव्वे खेत्ते काले भावे जो परिमिदो दु अवबोधो । बहुविधभेदपभिण्णो सो होदि य वियलपच्चक्खो ।50।</span> = <span class="HindiText">जो ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में परिमित तथा बहुत प्रकार के भेद प्रभेदों से युक्त है वह विकल प्रत्यक्ष है ।<br /> | <span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/50 </span><span class="PrakritGatha">दव्वे खेत्ते काले भावे जो परिमिदो दु अवबोधो । बहुविधभेदपभिण्णो सो होदि य वियलपच्चक्खो ।50।</span> = <span class="HindiText">जो ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में परिमित तथा बहुत प्रकार के भेद प्रभेदों से युक्त है वह विकल प्रत्यक्ष है ।<br /> | ||
<span class="GRef"> न्यायदीपिका/2/13-14/34-36 </span>तत्र कतिपयविषयं विकलं ।13। सर्वद्रव्य पर्यायविषयं सकलम् । = | <span class="GRef"> न्यायदीपिका/2/13-14/34-36 </span>तत्र कतिपयविषयं विकलं ।13। सर्वद्रव्य पर्यायविषयं सकलम् । = | ||
Line 144: | Line 144: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> कुछ पदार्थों को विषय करने वाला ज्ञान विकल पारमार्थिक है ।13। </li> | <li class="HindiText"> कुछ पदार्थों को विषय करने वाला ज्ञान विकल पारमार्थिक है ।13। </li> | ||
<li | <li class="HindiText"> समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों को जानने वाले ज्ञान को सकल प्रत्यक्ष कहते हैं ।14। <span class="GRef">( सप्तभंगीतरंगिणी/47/13 )</span> । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध//698-699</span> <span class="SanskritText">अयमर्थो यज्ज्ञानं समस्तकर्मक्षयोद्भवं साक्षात् । प्रत्यक्ष क्षायिकमिदमक्षातीतं सुखं तद्क्षायिकम् ।618। देशप्रत्क्षमिहाप्यवधिमनःपर्ययं च यज्ज्ञानम् । देशं नोइंदिय मनउत्थात् प्रत्यक्षमितरनिरपेक्षात् ।699।</span> = | |||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> जो ज्ञान संपूर्ण कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाला साक्षात् प्रत्यक्षरूप अतींद्रिय तथा क्षायिक सुखरूप है वह यह अनिवश्वर सकल प्रत्यक्ष है ।698। </li> | <li class="HindiText"> जो ज्ञान संपूर्ण कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाला साक्षात् प्रत्यक्षरूप अतींद्रिय तथा क्षायिक सुखरूप है वह यह अनिवश्वर सकल प्रत्यक्ष है ।698। </li> | ||
Line 156: | Line 156: | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.6" id="1.3.6"> प्रत्यक्षाभास का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> परीक्षामुख/6/6 </span><span class="SanskritText">अवैशद्येप्रत्यक्षं तदाभासं बौद्धस्याकस्माद्दर्शनाद्वह्निविज्ञानवत् ।6। </span>= <span class="HindiText">प्रत्यक्ष ज्ञान को अविशद स्वीकार करना प्रत्यक्षाभास कहा जाता है । जिस प्रकार बौद्ध द्वारा प्रत्यक्ष रूप से अभिमत - आकस्मिक धूमदर्शन से उत्पन्न अग्निका ज्ञान अविशद होनेसे प्रत्यक्षाभास कहलाता है । <br /> | <span class="GRef"> परीक्षामुख/6/6 </span><span class="SanskritText">अवैशद्येप्रत्यक्षं तदाभासं बौद्धस्याकस्माद्दर्शनाद्वह्निविज्ञानवत् ।6। </span>= <span class="HindiText">प्रत्यक्ष ज्ञान को अविशद स्वीकार करना प्रत्यक्षाभास कहा जाता है । जिस प्रकार बौद्ध द्वारा प्रत्यक्ष रूप से अभिमत - आकस्मिक धूमदर्शन से उत्पन्न अग्निका ज्ञान अविशद होनेसे प्रत्यक्षाभास कहलाता है । <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
Line 167: | Line 167: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText" name="2.1" id="2.1"><strong>प्रत्यक्ष ज्ञान में संकल्पादि नहीं होते</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.1" id="2.1"><strong>प्रत्यक्ष ज्ञान में संकल्पादि नहीं होते</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/3/1/12/20/188/23 </span><span class=" | <span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/3/1/12/20/188/23 </span><span class="SanskritText"> संकेतस्मरणोपाया दृष्टसंकल्पात्मिका । नैषा व्यवसितिः स्पष्टा ततो युक्ताक्षजन्मनि ।20।</span> = <span class="HindiText">जो कल्पना संकेत-ग्रहण और उसके स्मरण आदि उपायों से उत्पन्न होती है, अथवा दृष्ट पदार्थ में अन्य संबंधियों का या इष्ट-अनिष्टपने का संकल्प करना रूप है, वह कल्पना श्रुत ज्ञान में संभवती है । प्रत्यक्ष में ऐसी कल्पना नहीं है । हाँ, स्वार्थ निर्णय रूप स्पष्ट कल्पना तो प्रत्यक्ष में है । जिस कारण इंद्रियजन्य प्रत्यक्ष में यह कल्पना करना समुचित है ।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">केवलज्ञान को सकल प्रत्यक्ष और अवधिज्ञान को विकल प्रत्यक्ष क्यों कहते हो ?</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> कषायपाहुड़/1,1/16/1 </span><span class="PrakritText">ओहिमणपज्जवणाणिवियलपच्चक्खाणि, अत्थेगदेसम्मि विसदसरूवेण तेसिं पउत्तिदंसणादो । केवलं सयलपच्चक्खं, पच्चक्खीकयतिकालविसयासेसदव्वपज्जयभावादो । </span>=<span class="HindiText">अवधि व मनःपर्ययज्ञान विकल प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि पदार्थों के एकदेश में अर्थात् मूर्तीक पदार्थों की कुछ व्यंजन पर्यायों में स्पष्ट रूप से उनकी प्रवृत्ति देखी जाती है । केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है, क्योंकि केवलज्ञान त्रिकाल के विषयभूत समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों को प्रत्यक्ष जानता है ।<br /> | <span class="GRef"> कषायपाहुड़/1,1/16/1 </span><span class="PrakritText">ओहिमणपज्जवणाणिवियलपच्चक्खाणि, अत्थेगदेसम्मि विसदसरूवेण तेसिं पउत्तिदंसणादो । केवलं सयलपच्चक्खं, पच्चक्खीकयतिकालविसयासेसदव्वपज्जयभावादो । </span>=<span class="HindiText">अवधि व मनःपर्ययज्ञान विकल प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि पदार्थों के एकदेश में अर्थात् मूर्तीक पदार्थों की कुछ व्यंजन पर्यायों में स्पष्ट रूप से उनकी प्रवृत्ति देखी जाती है । केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है, क्योंकि केवलज्ञान त्रिकाल के विषयभूत समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों को प्रत्यक्ष जानता है ।<br /> | ||
देखें [[ प्रत्यक्ष#1.5 | प्रत्यक्ष - 1.5 ]](परापेक्ष, अक्रम से समस्त द्रव्यों को जानता है वह केवलज्ञान है । कुछ ही पदार्थों को जानने के कारण अवधि व मनःपर्यय ज्ञान विकल प्रत्यक्ष हैं ।)<br /> | देखें [[ प्रत्यक्ष#1.5 | प्रत्यक्ष - 1.5 ]](परापेक्ष, अक्रम से समस्त द्रव्यों को जानता है वह केवलज्ञान है । कुछ ही पदार्थों को जानने के कारण अवधि व मनःपर्यय ज्ञान विकल प्रत्यक्ष हैं ।)<br /> | ||
Line 175: | Line 175: | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3"> सकल व विकल दोनों ही प्रत्यक्ष पारमार्थिक हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> न्यायदीपिका/2/16/37/1 </span><span class="SanskritText"> नन्वस्तु केवलस्य पारमार्थिकत्वम्, अवधिमनःपर्यययोस्तु न युक्तम्, विकलत्वादिति चेत् न; साकल्यवैकल्ययोरत्र विषयोपाधिकत्वात् । तथा हि - सर्वद्रव्यपर्यायविषयमिति केवलं सकलम् । अवधिमनःपर्ययौ तु कतिपयविषयत्वाद्विकलौ । नैतावता तयोः पारमार्थिकत्वच्युतिः । केवलवत्तयोरपि वैशद्य स्वविषये साकल्येन समस्तीति तावपि पारमार्थिकावेव । </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न -</strong> केवलज्ञान को पारमार्थिक कहना ठीक है, परंतु अवधि व मनःपर्ययको पारमार्थिक कहना ठीक नहीं है । कारण, वे दोनों विकल प्रत्यक्ष हैं । <strong>उत्तर-</strong> नहीं, सकलपना और विकलपना यहाँ विषय की अपेक्षा से है, स्वरूपतः नहीं । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - चूँकि केवलज्ञान समस्त द्रव्यों और पर्यायों को विषय करने वाला है, इसलिए वह सकल प्रत्यक्ष कहा जाता है । परंतु अवधि और मनःपर्यय कुछ पदार्थों को विषय करते हैं, इसलिए वे विकल कहे जाते हैं । लेकिन इतने से उनमें पारमार्थिकता की हानि नहीं होती क्योंकि पारमर्थिकता का कारण सकलार्थविषयता नहीं है - पूर्ण निर्मलता है और वह पूर्ण निर्मलता केवलज्ञान की तरह अवधि और मनःपर्यय में भी अपने विषय में विद्यमान है । इसलिए वे दोनों भी पारमार्थिक हैं ।<br /> | <span class="GRef"> न्यायदीपिका/2/16/37/1 </span><span class="SanskritText"> नन्वस्तु केवलस्य पारमार्थिकत्वम्, अवधिमनःपर्यययोस्तु न युक्तम्, विकलत्वादिति चेत् न; साकल्यवैकल्ययोरत्र विषयोपाधिकत्वात् । तथा हि - सर्वद्रव्यपर्यायविषयमिति केवलं सकलम् । अवधिमनःपर्ययौ तु कतिपयविषयत्वाद्विकलौ । नैतावता तयोः पारमार्थिकत्वच्युतिः । केवलवत्तयोरपि वैशद्य स्वविषये साकल्येन समस्तीति तावपि पारमार्थिकावेव । </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न -</strong> केवलज्ञान को पारमार्थिक कहना ठीक है, परंतु अवधि व मनःपर्ययको पारमार्थिक कहना ठीक नहीं है । कारण, वे दोनों विकल प्रत्यक्ष हैं । <strong>उत्तर-</strong> नहीं, सकलपना और विकलपना यहाँ विषय की अपेक्षा से है, स्वरूपतः नहीं । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - चूँकि केवलज्ञान समस्त द्रव्यों और पर्यायों को विषय करने वाला है, इसलिए वह सकल प्रत्यक्ष कहा जाता है । परंतु अवधि और मनःपर्यय कुछ पदार्थों को विषय करते हैं, इसलिए वे विकल कहे जाते हैं । लेकिन इतने से उनमें पारमार्थिकता की हानि नहीं होती क्योंकि पारमर्थिकता का कारण सकलार्थविषयता नहीं है - पूर्ण निर्मलता है और वह पूर्ण निर्मलता केवलज्ञान की तरह अवधि और मनःपर्यय में भी अपने विषय में विद्यमान है । इसलिए वे दोनों भी पारमार्थिक हैं ।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="4" id="4">इंद्रियों के बिना भी ज्ञान कैसे संभव है ?</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/12/4-5/53/16 </span><span class="SanskritText">करणात्यये अर्थस्य ग्रहणं न प्राप्नोति, न ह्यकरणस्य कस्यचित् ज्ञानं दृष्टिमितिः तन्न; किं कारणम् । दृष्टत्वात् । कथम् । ईशवत् । यथा रथस्य कर्ता अनीशः उपकरणापेक्षो रथं करोति, स तदभावे न शक्त:, यः पुनरीश: तपोविशेषात् परिप्राप्तर्द्धिविशेषः स बाह्योपकरणगुणानपेक्षः स्वशक्त्यैव रथं निर्वर्तयन् प्रतीतः, तथा कर्ममलीमस आत्मा क्षायोपशमिकेंद्रियानिंद्रियप्रकाशाद्युपकरणापेक्षोऽर्थां संवेत्ति, स एव पुनः क्षयोपशमविशेषे क्षये च सति करणानपेक्षः स्वशक्त्यैवार्थान् वेत्ति को विरोधः ।4। ज्ञानदर्शनस्वभावत्वाच्च भास्करादिवत् ।5। </span>=<strong>प्रश्न - </strong>इंद्रिय और मनरूप बाह्य और अभ्यंतर करणों के बिना ज्ञान का उत्पन्न होना ही असंभव है। बिना करण के तो कार्य होता ही नहीं है । <strong>उत्तर -</strong> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/12/4-5/53/16 </span><span class="SanskritText">करणात्यये अर्थस्य ग्रहणं न प्राप्नोति, न ह्यकरणस्य कस्यचित् ज्ञानं दृष्टिमितिः तन्न; किं कारणम् । दृष्टत्वात् । कथम् । ईशवत् । यथा रथस्य कर्ता अनीशः उपकरणापेक्षो रथं करोति, स तदभावे न शक्त:, यः पुनरीश: तपोविशेषात् परिप्राप्तर्द्धिविशेषः स बाह्योपकरणगुणानपेक्षः स्वशक्त्यैव रथं निर्वर्तयन् प्रतीतः, तथा कर्ममलीमस आत्मा क्षायोपशमिकेंद्रियानिंद्रियप्रकाशाद्युपकरणापेक्षोऽर्थां संवेत्ति, स एव पुनः क्षयोपशमविशेषे क्षये च सति करणानपेक्षः स्वशक्त्यैवार्थान् वेत्ति को विरोधः ।4। ज्ञानदर्शनस्वभावत्वाच्च भास्करादिवत् ।5। </span>=<strong>प्रश्न - </strong>इंद्रिय और मनरूप बाह्य और अभ्यंतर करणों के बिना ज्ञान का उत्पन्न होना ही असंभव है। बिना करण के तो कार्य होता ही नहीं है । <strong>उत्तर -</strong> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li> <span class="HindiText">असमर्थ के लिए बसूला करौंत आदि बाह्य साधनों की आवश्यकता होती है । जैसे - रथ बनाने वाला साधारण रथकार उपकरणों से रथ बनाता है किंतु समर्थ तपस्वी अपने ऋद्धि बल से बाह्य बसूला आदि उपकरणों के बिना संकल्प मात्र से रथ को बना सकता है । इसी तरह कर्ममलीमस आत्मा साधारणतया इंद्रिय औरमन के बिना नहीं जान सकता पर वही आत्मा जब ज्ञानावरणका विशेष क्षयोपशमरूप शक्तिवाला हो जाता है, या ज्ञानावरण का पूर्ण क्षय कर देता है, तब उसे बाह्य उपकरणों के बिना भी ज्ञान हो जाता है ।4। </span></li> | <li> <span class="HindiText">असमर्थ के लिए बसूला करौंत आदि बाह्य साधनों की आवश्यकता होती है । जैसे - रथ बनाने वाला साधारण रथकार उपकरणों से रथ बनाता है किंतु समर्थ तपस्वी अपने ऋद्धि बल से बाह्य बसूला आदि उपकरणों के बिना संकल्प मात्र से रथ को बना सकता है । इसी तरह कर्ममलीमस आत्मा साधारणतया इंद्रिय औरमन के बिना नहीं जान सकता पर वही आत्मा जब ज्ञानावरणका विशेष क्षयोपशमरूप शक्तिवाला हो जाता है, या ज्ञानावरण का पूर्ण क्षय कर देता है, तब उसे बाह्य उपकरणों के बिना भी ज्ञान हो जाता है ।4। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> आत्मा तो सूर्य आदि की तरह स्वयं प्रकाशी है, इसे प्रकाशन में पर की अपेक्षा नहीं होती । आत्मा विशिष्ट क्षयोपशम होने पर या आवरण क्षय होने पर स्वशक्ति से ही पदार्थों को जानता है ।5।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1, 1,22/198/4 </span><span class="SanskritText">ज्ञानत्वान्मत्यादिज्ञानवत्कारकमपेक्षते केवलमिति चेन्न, क्षायिकक्षायोपशमिकयोः साधर्म्याभावात् ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> जिस प्रकार मति आदि ज्ञान, स्वयं ज्ञान होने से अपनी उत्पत्ति में कारक की अपेक्षा रखते हैं, उसी प्रकार केवलज्ञान भी ज्ञान है, अतएव उसे भी अपनी उत्पत्ति में कारक की अपेक्षा रखनी चाहिए । <strong>उत्तर - </strong>नहीं, क्योंकि क्षायिक और क्षायोपशमिक ज्ञान में साधर्म्य नहीं पाया जाता ।</span><br /> | <span class="GRef"> धवला 1/1, 1,22/198/4 </span><span class="SanskritText">ज्ञानत्वान्मत्यादिज्ञानवत्कारकमपेक्षते केवलमिति चेन्न, क्षायिकक्षायोपशमिकयोः साधर्म्याभावात् ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> जिस प्रकार मति आदि ज्ञान, स्वयं ज्ञान होने से अपनी उत्पत्ति में कारक की अपेक्षा रखते हैं, उसी प्रकार केवलज्ञान भी ज्ञान है, अतएव उसे भी अपनी उत्पत्ति में कारक की अपेक्षा रखनी चाहिए । <strong>उत्तर - </strong>नहीं, क्योंकि क्षायिक और क्षायोपशमिक ज्ञान में साधर्म्य नहीं पाया जाता ।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला/7/2,1,17/69/4 </span><span class="PrakritText">णाणसहकारिकारणइंदियाणामभावे कधं णाणस्स अत्थित्तमिदि चे ण, णाणसहावपोग्गलदव्वाणुप्पण्णउप्पाद-व्वयधुअत्तुवलक्खियजीवदव्स्स विणासाभावा । ण च एक्कं कज्जं एक्कादो चेव कारणादो सव्वत्थ उप्पज्जदि, ... इंदियाणि खीणावरणे भिण्णजादीए णाणुप्पत्तिम्हि सहकारिकारणं होंति त्ति णियमो, अइप्पसंगादो, अण्णहा मोक्खाभावप्पसंगा । ... तम्हा अणिंदिएसुकरणक्कमव्ववहणादीदं णाणमत्थि त्ति धेतव्वं । ण च तण्णिक्कारणं अप्पट्ठसण्णिहाणेण तदुप्पत्तीदो ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> ज्ञान के सहकारी कारणभूत इंद्रियों के अभाव में ज्ञान का अस्तित्व किस प्रकार हो सकता है | <span class="GRef"> धवला/7/2,1,17/69/4 </span><span class="PrakritText">णाणसहकारिकारणइंदियाणामभावे कधं णाणस्स अत्थित्तमिदि चे ण, णाणसहावपोग्गलदव्वाणुप्पण्णउप्पाद-व्वयधुअत्तुवलक्खियजीवदव्स्स विणासाभावा । ण च एक्कं कज्जं एक्कादो चेव कारणादो सव्वत्थ उप्पज्जदि, ... इंदियाणि खीणावरणे भिण्णजादीए णाणुप्पत्तिम्हि सहकारिकारणं होंति त्ति णियमो, अइप्पसंगादो, अण्णहा मोक्खाभावप्पसंगा । ... तम्हा अणिंदिएसुकरणक्कमव्ववहणादीदं णाणमत्थि त्ति धेतव्वं । ण च तण्णिक्कारणं अप्पट्ठसण्णिहाणेण तदुप्पत्तीदो ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> ज्ञान के सहकारी कारणभूत इंद्रियों के अभाव में ज्ञान का अस्तित्व किस प्रकार हो सकता है ? <strong>उत्तर-</strong> नहीं, क्योंकि ज्ञान स्वभाव और पुद्गल द्रव्य से अनुत्पन्न, तथा उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य से उपलक्षित जीव द्रव्य का विनाश न होने से इंद्रियों के अभाव में भी ज्ञान का अस्तित्व हो सकता है ? एक कार्य सर्वत्र एकही कारण से उत्पन्न नहीं होता ।... इंद्रियाँ क्षीणावरण जीव के भिन्न जातीय ज्ञान की उत्पत्ति में सहकारी कारण हों, ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अतिप्रसंग दोष आ जायेगा, या अन्यथा मोक्ष के अभाव का प्रसंग आ जायेगा ।... इस कारण अनिंद्रिय जीवों में करण, क्रम और व्यवधान से अतीत ज्ञान होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए । यह ज्ञान निष्कारण भी नहीं है, क्योंकि आत्मा और पदार्थ के सन्निधान अर्थात् सामीप्य से वह उत्पन्न होता है ।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 9/4,1,45/143/3 </span><span class="SanskritText">अतींद्रियाणामवधि-मनःपर्ययकेवलानां कथं प्रत्यक्षता । नैष दोषः, अक्ष आत्मा, अक्षमक्षं प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षमवधि-मनःपर्ययकेवलानीति तेषां प्रत्यक्षत्वसिद्धेः</span> =<span class="HindiText"><strong> प्रश्न -</strong> इंद्रियों की अपेक्षा से रहित अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान के प्रत्यक्षता कैसे संभव है | <span class="GRef"> धवला 9/4,1,45/143/3 </span><span class="SanskritText">अतींद्रियाणामवधि-मनःपर्ययकेवलानां कथं प्रत्यक्षता । नैष दोषः, अक्ष आत्मा, अक्षमक्षं प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षमवधि-मनःपर्ययकेवलानीति तेषां प्रत्यक्षत्वसिद्धेः</span> =<span class="HindiText"><strong> प्रश्न -</strong> इंद्रियों की अपेक्षा से रहित अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान के प्रत्यक्षता कैसे संभव है ? <strong>उत्तर- </strong>यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अक्ष शब्द का अर्थ आत्मा है; अतएव अक्ष अर्थात् आत्मा की अपेक्षा कर जो प्रवृत्त होता है वह प्रत्यक्ष है । इस निरुक्ति के अनुसार अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान प्रत्यक्ष हैं । अतएव उनके प्रत्यक्षता सिद्ध है । <span class="GRef">( न्यायदीपिका/2/18-19/38 )</span>, <span class="GRef">( न्यायदीपिका की टिप्पणी में उद्धत न्यायकुमुद चंद्रिका/पृष्ठ 26; न्याय विनिश्चय/पृष्ठ 11)</span> ।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/19/ </span><span class="SanskritText">उत्थानिका - कथमिंद्रियैबिना ज्ञानानंदाविति । अयं खल्वात्मा शुद्धोपयोगसामर्थ्यात् प्रक्षीणघातिकर्मा, ... स्वपरप्रकाशकत्वलक्षणं ज्ञानमनाकुलत्वलक्षणं सौख्यं च भूत्वा परिणमते । एवमात्मनौ ज्ञानानंदौ स्वभाव एव । स्वभावस्य तु परानपे त्वादिंद्रिर्यैविनाप्यात्मनो ज्ञानानंदौ संभवतः ।</span> =<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न -</strong>आत्मा के इंद्रियों के बिना ज्ञान और आनंद कैसे होता है ? <strong>उत्तर-</strong> शुद्धोपयोग की सामर्थ्य से जिसके घातीकर्म क्षय को प्राप्त हुए हैं , ... स्वयमेव, स्वपर प्रकाशकता लक्षण ज्ञान और अनाकुलता लक्षण सुख होकर परिणमित होता है । इस प्रकार आत्मा का ज्ञान और आनंद स्वभाव ही है और स्वभाव परसे अनपेक्ष हैं, इसलिए इंद्रियों के बिना भी आत्मा के ज्ञान आनंद होता है ।</span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/19/ </span><span class="SanskritText">उत्थानिका - कथमिंद्रियैबिना ज्ञानानंदाविति । अयं खल्वात्मा शुद्धोपयोगसामर्थ्यात् प्रक्षीणघातिकर्मा, ... स्वपरप्रकाशकत्वलक्षणं ज्ञानमनाकुलत्वलक्षणं सौख्यं च भूत्वा परिणमते । एवमात्मनौ ज्ञानानंदौ स्वभाव एव । स्वभावस्य तु परानपे त्वादिंद्रिर्यैविनाप्यात्मनो ज्ञानानंदौ संभवतः ।</span> =<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न -</strong>आत्मा के इंद्रियों के बिना ज्ञान और आनंद कैसे होता है ? <strong>उत्तर-</strong> शुद्धोपयोग की सामर्थ्य से जिसके घातीकर्म क्षय को प्राप्त हुए हैं , ... स्वयमेव, स्वपर प्रकाशकता लक्षण ज्ञान और अनाकुलता लक्षण सुख होकर परिणमित होता है । इस प्रकार आत्मा का ज्ञान और आनंद स्वभाव ही है और स्वभाव परसे अनपेक्ष हैं, इसलिए इंद्रियों के बिना भी आत्मा के ज्ञान आनंद होता है ।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> न्यायदीपिका/2/22,28/42-50/8 </span><span class="SanskritText">तत्पुनरतींद्रियमिति कथम् । इत्थम् - यदि तज्ज्ञानमैंद्रियिकं स्यात् अशेषविषयं न स्यात् इंद्रियाणां स्वयोग्यविषय एव ज्ञानजनकत्वशक्तेः सूक्ष्मादीनां च तदयोग्यत्वादिति । तस्मात्सिद्धं तदशेषविषयं ज्ञानमनैंद्रियकमेवेति ।22। तदेवमतींद्रियं केवलज्ञानमर्हत एवेति सिद्धम् । तद्वचनप्रामाण्याच्चावधिमनःपर्ययोरतींद्रिययो: सिद्धिरित्यतींद्रियप्रत्यक्षमनवद्यम् ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> (सूक्ष्म पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान) अतींद्रिय है यह कैसे ? <strong>उत्तर-</strong> इस प्रकार यह ज्ञान इंद्रियजंय हो तो संपूर्ण पदार्थों को जानने वाला नहीं हो सकता है; क्योंकि इंद्रियाँ अपने योग्य विषय में ही ज्ञान को उत्पन्न कर सकती हैं और सूक्ष्मादि पदार्थ इंद्रियों के योग्य विषय नहीं हैं । अतः वह संपूर्ण पदार्थ विषयक ज्ञान अनैंद्रियक ही है ।22। इस प्रकार अतींद्रिय केवलज्ञान अरहंत के ही है, यह सिद्ध हो गया । और उनके वचनों को प्रमाण होने से उनके द्वारा प्रतिपादित अतींद्रिय अवधि और मनःपर्यय ज्ञान भी सिद्ध हो गये । इस तरह अतींद्रिय प्रत्यक्ष है उसके मानने में कोई दोष या बाधा नहीं है । </span></li> | <span class="GRef"> न्यायदीपिका/2/22,28/42-50/8 </span><span class="SanskritText">तत्पुनरतींद्रियमिति कथम् । इत्थम् - यदि तज्ज्ञानमैंद्रियिकं स्यात् अशेषविषयं न स्यात् इंद्रियाणां स्वयोग्यविषय एव ज्ञानजनकत्वशक्तेः सूक्ष्मादीनां च तदयोग्यत्वादिति । तस्मात्सिद्धं तदशेषविषयं ज्ञानमनैंद्रियकमेवेति ।22। तदेवमतींद्रियं केवलज्ञानमर्हत एवेति सिद्धम् । तद्वचनप्रामाण्याच्चावधिमनःपर्ययोरतींद्रिययो: सिद्धिरित्यतींद्रियप्रत्यक्षमनवद्यम् ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> (सूक्ष्म पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान) अतींद्रिय है यह कैसे ? <strong>उत्तर-</strong> इस प्रकार यह ज्ञान इंद्रियजंय हो तो संपूर्ण पदार्थों को जानने वाला नहीं हो सकता है; क्योंकि इंद्रियाँ अपने योग्य विषय में ही ज्ञान को उत्पन्न कर सकती हैं और सूक्ष्मादि पदार्थ इंद्रियों के योग्य विषय नहीं हैं । अतः वह संपूर्ण पदार्थ विषयक ज्ञान अनैंद्रियक ही है ।22। इस प्रकार अतींद्रिय केवलज्ञान अरहंत के ही है, यह सिद्ध हो गया । और उनके वचनों को प्रमाण होने से उनके द्वारा प्रतिपादित अतींद्रिय अवधि और मनःपर्यय ज्ञान भी सिद्ध हो गये । इस तरह अतींद्रिय प्रत्यक्ष है उसके मानने में कोई दोष या बाधा नहीं है । </span></li> | ||
Line 200: | Line 200: | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: प]] | [[Category: प]] | ||
[[Category: द्रव्यानुयोग]] |
Latest revision as of 15:15, 27 November 2023
विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं । वह दो प्रकार का है - सांव्यवहारिक व पारमार्थिक । इंद्रिय ज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है, और इंद्रिय आदि पर पदार्थों से निरपेक्ष केवल आत्मा में उत्पन्न होने वाला ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष है । यद्यपि न्याय के क्षेत्र में सांव्यवहारिक ज्ञान को प्रत्यक्ष मान लिया गया है, पर परमार्थ से जैन दर्शनकार उसे परोक्ष ही मानते हैं । पारमार्थिक प्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है - सकल व विकल । सर्वज्ञ भगवान् का त्रिलोक व त्रिकालवर्ती केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है, और सीमित द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव विषयक अवधि व मनःपर्ययज्ञान विकल या देश प्रत्यक्ष है ।
- भेद व लक्षण
- प्रत्यक्ष ज्ञान सामान्य का लक्षण
- प्रत्यक्ष ज्ञान के भेद
- प्रत्यक्ष ज्ञान के उत्तर भेद
- सांव्यवहारिक व पारमार्थिक प्रत्यक्ष के लक्षण ।
- सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान की विशेषताएँ- देखें मतिज्ञान ।1।
- प्रत्यक्ष ज्ञान निर्देश तथा शंका समाधान
- स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ज्ञान की विशेषताएँ - देखें अनुभव ।4।
- मति व श्रुतज्ञान में भी कथंचित् प्रत्यक्षता परोक्षता - देखें श्रुतज्ञान - I .5 ।
- अवधि व मनःपर्यय की कथंचित् प्रत्यक्षता परोक्षता - देखें अवधिज्ञान - 3 ।
- अवधि व मतिज्ञान की प्रत्यक्षता में अंतर - देखें अवधिज्ञान - 3.5
- सकल व विकल दोनों ही प्रत्यक्ष पारमार्थिक हैं ।
- सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की पारमार्थिक परोक्षता - देखें श्रुतज्ञान - I.5 ।
- इंद्रियों के बिना भी ज्ञान कैसे संभव है ।
- इंद्रिय निमित्तक ज्ञान प्रत्यक्ष और उससे विपरीत परोक्ष होना चाहिए - देखें श्रुतज्ञान - I.5 ।
- सम्यग्दर्शनकी प्रत्यक्षता परोक्षता - देखें सम्यग्दर्शन I.3 ।
- भेद व लक्षण
- प्रत्यक्ष ज्ञान-सामान्य का लक्षण
- आत्मा के अर्थ में
प्रवचनसार/58 जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पच्चक्खं /58। = यदि मात्र जीव के (आत्मा के) द्वारा ही जाना जाये तो वह ज्ञान प्रत्यक्ष है ।
सर्वार्थसिद्धि/1/12/103/1 अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा । तमेव ... प्रतिनियतं प्रत्यक्षम् । = अक्ष, ज्ञा और व्याप् धातुएँ एकार्थवाची होती हैं, इसलिए अक्षका अर्थ आत्मा होता है । ... केवल आत्मा से होता है वह प्रत्यक्षज्ञान कहलाता है । ( राजवार्तिक/1/12/2/53/11 ) ( धवला 9/4,1,45/45/4 ) ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/57 ) ( समयसार / आत्मख्याति/13 कलश 8 के पश्चात् ) (स्याद्वाद मंजरी/28/321/8) ( न्यायदीपिका/2/19/39/1 ) ( गोम्मटसार जीवकांड/ जीवतत्व प्रदीपिका/369/795/7) ।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/21 संवेदनालंबनभूताः सर्वद्रव्यपर्याया प्रत्यक्षा एव भवंति । = संवेदन की (प्रत्यक्ष ज्ञान की) आलंबनभूत समस्त द्रव्य पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं ।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका 58 यत्पुनरंतकरणमिंद्रियं परोपदेश... आदिकं वा समस्तमपि परद्रव्यमनपेक्ष्यात्मस्वभावमेवैकं कारणत्वेनोपादाय सर्वद्रव्यपर्यायजातमेकपद एवाभिव्याप्य प्रवर्तमानं परिच्छेदनं तत् केवलादेवात्मनः संभूतत्वात् प्रत्यक्षमित्यालक्ष्यते । = मन, इंद्रिय, परोपदेश आदिक सर्व परद्रव्यों की अपेक्षा रखे बिना एकमात्र आत्मस्वभाव को ही कारणरूप से ग्रहण करके सर्व द्रव्य पर्यायों के समूह में एक समय ही व्याप्त होकर प्रवर्तमान ज्ञान केवल आत्मा के द्वारा ही उत्पन्न होता है, इसलिए प्रत्यक्ष के रूप में जाना जाता है । - विशद ज्ञान के अर्थ में
न्यायविनिश्चय/ मूल/1/3/57/15 प्रत्यक्षलक्षणं प्राहु स्पष्टं साकारमंजसा । द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थात्मवेदनम् ।3। = स्पष्ट और सविकल्प तथा व्यभिचार आदि दोष रहित होकर सामान्य रूप द्रव्य और विशेष रूप पर्याय अर्थों को तथा अपने स्वरूप को जानना ही प्रत्यक्ष का लक्षण है । 3। ( श्लोकवार्तिक/3/1/12/4,17/174, 186 ) ।
सिद्धि विनिश्चय/मूल/1/19/78/16 प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं । =विशद ज्ञान (प्रतिभास) को प्रत्यक्ष कहते हैं । ( परीक्षामुख /2/3 ) ( न्यायदीपिका/2/1/23/4 )
सप्त भंगी तरंगिनी/47/10 प्रत्यक्षस्य वैशद्यं स्वरूपम् । = वैशद्य अर्थात् निर्मलता वा स्वच्छता पूर्वक स्पष्ट रीति से भासना प्रत्यक्ष ज्ञान का स्वरूप है ।
- परापेक्ष रहित के अर्थ में
राजवार्तिक/1/12/1/53/4 इंद्रियानिंद्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणं प्रत्यक्षम् ।1। = इंद्रिय और मन की अपेक्षा के बिना व्यभिचार रहित जो साकार ग्रहण होता है, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं । ( तत्त्वसार/1/17/14 ) ।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/696 असहायं प्रत्यक्षं ... ।696। = असहाय ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं ।
- आत्मा के अर्थ में
- प्रत्यक्ष ज्ञान के भेद
- सांव्यहारिक व पारमार्थिक
स्याद्वादमंजरी/28/321/6 प्रत्यक्षं द्विधा-सांव्यहारिकं पारमार्थिकं च । = सांव्यवहारिक और पारमार्थिक ये प्रत्यक्ष के दो भेद हैं । ( न्यायदीपिका/2/21/31/6 ) ।
- दैवी, पदार्थ व आत्म-प्रत्यक्ष
न्यायविनिश्चय/ टीका/1/3/115/25 प्रत्यक्ष त्रिविध देवै दीप्यतामुपपादितम् । द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थात्मवेदनम् ।360। = प्रत्यक्ष तीन प्रकार का होता है -- देवों द्वारा प्राप्त दिव्य ज्ञान, द्रव्य व पर्यायों को अथवा सामान्य व विशेष पदार्थों को जानने वाला ज्ञान तथा आत्मा को प्रत्यक्ष करने वाला स्वसंवेदन ज्ञान ।
- देवों द्वारा प्राप्त दिव्य ज्ञान, द्रव्य व पर्यायों को अथवा सामान्य व विशेष पदार्थों को जानने वाला ज्ञान तथा आत्मा को प्रत्यक्ष करने वाला स्वसंवेदन ज्ञान ।
- सांव्यहारिक व पारमार्थिक
- प्रत्यक्ष ज्ञान के उत्तर भेद
- सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के भेद
स्याद्वादमंजरी/28/321/6 सांव्यवहारिक द्विविधम् इंद्रियानिंद्रियनिमित्तभेदात् । तद् द्वितयम् अवग्रहेहावायधारणाभेदाद् एकैकशश्चतुर्विकल्पम् । = सांव्यहारिक प्रत्यक्ष इंद्रिय और मन से पैदा होता है । इंद्रिय और मन से उत्पन्न होने वाले उस सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा चार चार भेद हैं । ( न्यायदीपिका/2/11-12/31-33 ) ।
- पारमार्थिक प्रत्यक्ष के भेद
सर्वार्थसिद्धि/1/20/125/1 तद् द्वेधा-देशप्रत्यक्ष सर्वप्रत्यक्ष च । = वह प्रत्यक्ष (पारमार्थिक प्रत्यक्ष) दो प्रकार का है - देश प्रत्यक्ष और सर्व प्रत्यक्ष । ( राजवार्तिक/1/21 उत्थानिका/78/25), ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/46 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/5/15/1 ), ( पंचाध्यायी x`/ मूल/697) ।
धवला 9/4,1,45/142/6 तत्र प्रत्यक्षं द्विविधं, सकलविकलप्रत्यक्षभेदात् । प्रत्यक्ष सकल प्रत्यक्ष व विकल प्रत्यक्ष के भेद से दो प्रकार का है । ( न्यायदीपिका/2/13/34/10 ) ।
स्याद्वादमंजरी/28/321/8 तद्द्विविधम् क्षायोपशमिकं क्षायिकं च । = वह (पारमार्थिक प्रत्यक्ष) क्षायोपशमिक और क्षायिक के भेद से दो प्रकार का है ।
- सकल और विकल प्रत्यक्ष के भेद
सर्वार्थसिद्धि/1/20/125/2 देशप्रत्यक्षमवधिमनःपर्ययज्ञाने । सर्वप्रत्यक्षं केवलम् । = देशप्रत्यक्ष अवधि और मनःपर्यय ज्ञान के भेद से दो प्रकार का है । सर्वप्रत्यक्ष केवलज्ञान है । (वह एक ही प्रकार का होता है ।) ( राजवार्तिक/1/21/78/26 ) की उत्थानिका) ( धवला 9/4,1,45/142-143/7 ) ( नयचक्र बृहद् 171 ), ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/12 )(त.प./13/47), ( स्याद्वादमंजरी/28/321/9 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/5/15/1 ) ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/699 ) ।
- सांव्यवहारिक व पारमार्थिक प्रत्यक्ष के लक्षण
परीक्षामुख/2/5 इंद्रियानिंद्रियनिमित्तं देशतः सांव्यवहारिकं । = जो ज्ञान स्पर्शनादि इंद्रिय और मन की सहायता से होता हो उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं ।
स्याद्वादमंजरी/28/321/8 पारमार्थिकं पुनरुत्पत्तौ आत्ममात्रापेक्षम् । = पारमार्थिक प्रत्यक्ष की उत्पत्ति में केवल आत्मा मात्र की सहायता रहती है ।
द्रव्यसंग्रह टीका/5/15/9 समीचीनो व्यवहारः संव्यवहारः । प्रवृत्तिनिवृत्ति-लक्षणः संव्यवहारो भण्यते । संव्यवहारे भवं साव्यहारिकं प्रत्यक्षम् । यथा घटरूपमिदं मया दृष्टमित्यादि । = समीचीन अर्थात् जो ठीक व्यवहार है वह संव्यवहार कहलाता है = संव्यवहार का लक्षण प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप है । संव्यवहार में जो हो सो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है । जैसे घटका रूप मैंने देखा इत्यादि ।
न्यायदीपिका/2/11-13/31-34/7 यज्ज्ञानं देशतो विशदमीषन्निर्मलं तत्सांव्यवहारिकप्रत्यक्षमित्यर्थः ।11। लोकसंव्यवहारे प्रत्यक्षमिति प्रसिद्धत्वात्सांव्यवहारिकप्रत्यक्षमुच्यते । ... इदं चामुख्यप्रत्यक्षम्, उपचार सिद्धत्वात् । वस्तुतस्तु परोक्षमेव मतिज्ञानत्वात् ।12। सर्वतो विशदं पारमार्थिकप्रत्यक्षम् । यज्ज्ञानं साकल्येन स्पष्टं तत्पारमार्थिकप्रत्यक्षं मुख्यप्रत्यक्षमिति यावत् ।13। =- जो ज्ञान एक देश स्पष्ट, कुछ निर्मल है वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है । 11। यह ज्ञान लोक व्यवहार में प्रत्यक्षप्रसिद्ध है, इसलिए सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा जाता है । यह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष अमुख्य अर्थात् गौणरूप से प्रत्यक्ष है, क्योंकि उपचार से सिद्ध होता है । वास्तव में परोक्ष ही है, क्योंकि मतिज्ञान है । 12।
- संपूर्णरूप से प्रत्यक्ष ज्ञान को पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं । जो ज्ञान संपूर्ण प्रकार से निर्मल है, वह पारमार्थिक प्रत्यक्ष है । उसी को मुख्य प्रत्यक्ष कहते हैं ।
- देश व सकल प्रत्यक्ष के लक्षण
धवला 9/4,1,45/142/7 सकलप्रत्यक्षं केवलज्ञानम्, विषयीकृतत्रिकालगोचराशेषार्थत्वात् अतींद्रियत्वात् अक्रमवृत्तित्वात् निर्व्यवधानात् आत्मार्थ सनिधानमात्रप्रवर्तनात् । .... अवधिमनः पर्ययज्ञाने विकलप्रत्यक्षम्, तत्र साकल्येन प्रत्यक्षलक्षणाभावात् । =- केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है, क्योंकि, वह त्रिकालविषयक समस्त पदार्थों को विषय करने वाला, अतींद्रिय, अक्रमवृत्ति, व्यवधान से रहित और आत्मा एवं पदार्थ की समीपता मात्र से प्रवृत्त होने वाला है । ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/49 )
- अवधि और मनःपर्यय ज्ञान विकल प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि उनमें सकल प्रत्यक्ष का लक्षण नहीं पाया जाता (यह ज्ञान विनश्वर है । तथा मूर्त पदार्थों में भी इसकी पूर्ण प्रवृत्ति नहीं देखी जाती । ( कषायपाहुड़ 1/1,1/16/1 ) ।
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/50 दव्वे खेत्ते काले भावे जो परिमिदो दु अवबोधो । बहुविधभेदपभिण्णो सो होदि य वियलपच्चक्खो ।50। = जो ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में परिमित तथा बहुत प्रकार के भेद प्रभेदों से युक्त है वह विकल प्रत्यक्ष है ।
न्यायदीपिका/2/13-14/34-36 तत्र कतिपयविषयं विकलं ।13। सर्वद्रव्य पर्यायविषयं सकलम् । =- कुछ पदार्थों को विषय करने वाला ज्ञान विकल पारमार्थिक है ।13।
- समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों को जानने वाले ज्ञान को सकल प्रत्यक्ष कहते हैं ।14। ( सप्तभंगीतरंगिणी/47/13 ) ।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध//698-699 अयमर्थो यज्ज्ञानं समस्तकर्मक्षयोद्भवं साक्षात् । प्रत्यक्ष क्षायिकमिदमक्षातीतं सुखं तद्क्षायिकम् ।618। देशप्रत्क्षमिहाप्यवधिमनःपर्ययं च यज्ज्ञानम् । देशं नोइंदिय मनउत्थात् प्रत्यक्षमितरनिरपेक्षात् ।699। =- जो ज्ञान संपूर्ण कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाला साक्षात् प्रत्यक्षरूप अतींद्रिय तथा क्षायिक सुखरूप है वह यह अनिवश्वर सकल प्रत्यक्ष है ।698।
- अवधि व मनःपर्ययरूप जो ज्ञान है वह देशप्रत्यक्ष है क्योंकि वह केवल अनिंद्रियरूप मन से उत्पन्न होने के कारण देश तथा अन्य बाह्य पदार्थों से निरपेक्ष होने के कारण प्रत्यक्ष कहलाता है ।699।
- प्रत्यक्षाभास का लक्षण
परीक्षामुख/6/6 अवैशद्येप्रत्यक्षं तदाभासं बौद्धस्याकस्माद्दर्शनाद्वह्निविज्ञानवत् ।6। = प्रत्यक्ष ज्ञान को अविशद स्वीकार करना प्रत्यक्षाभास कहा जाता है । जिस प्रकार बौद्ध द्वारा प्रत्यक्ष रूप से अभिमत - आकस्मिक धूमदर्शन से उत्पन्न अग्निका ज्ञान अविशद होनेसे प्रत्यक्षाभास कहलाता है ।
- सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के भेद
- प्रत्यक्ष ज्ञान-सामान्य का लक्षण
- प्रत्यक्ष ज्ञान निर्देश तथा शंका-समाधान
- प्रत्यक्ष ज्ञान में संकल्पादि नहीं होते
श्लोकवार्तिक/3/1/12/20/188/23 संकेतस्मरणोपाया दृष्टसंकल्पात्मिका । नैषा व्यवसितिः स्पष्टा ततो युक्ताक्षजन्मनि ।20। = जो कल्पना संकेत-ग्रहण और उसके स्मरण आदि उपायों से उत्पन्न होती है, अथवा दृष्ट पदार्थ में अन्य संबंधियों का या इष्ट-अनिष्टपने का संकल्प करना रूप है, वह कल्पना श्रुत ज्ञान में संभवती है । प्रत्यक्ष में ऐसी कल्पना नहीं है । हाँ, स्वार्थ निर्णय रूप स्पष्ट कल्पना तो प्रत्यक्ष में है । जिस कारण इंद्रियजन्य प्रत्यक्ष में यह कल्पना करना समुचित है ।
- केवलज्ञान को सकल प्रत्यक्ष और अवधिज्ञान को विकल प्रत्यक्ष क्यों कहते हो ?
कषायपाहुड़/1,1/16/1 ओहिमणपज्जवणाणिवियलपच्चक्खाणि, अत्थेगदेसम्मि विसदसरूवेण तेसिं पउत्तिदंसणादो । केवलं सयलपच्चक्खं, पच्चक्खीकयतिकालविसयासेसदव्वपज्जयभावादो । =अवधि व मनःपर्ययज्ञान विकल प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि पदार्थों के एकदेश में अर्थात् मूर्तीक पदार्थों की कुछ व्यंजन पर्यायों में स्पष्ट रूप से उनकी प्रवृत्ति देखी जाती है । केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है, क्योंकि केवलज्ञान त्रिकाल के विषयभूत समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों को प्रत्यक्ष जानता है ।
देखें प्रत्यक्ष - 1.5 (परापेक्ष, अक्रम से समस्त द्रव्यों को जानता है वह केवलज्ञान है । कुछ ही पदार्थों को जानने के कारण अवधि व मनःपर्यय ज्ञान विकल प्रत्यक्ष हैं ।)
- प्रत्यक्ष ज्ञान में संकल्पादि नहीं होते
- सकल व विकल दोनों ही प्रत्यक्ष पारमार्थिक हैं
न्यायदीपिका/2/16/37/1 नन्वस्तु केवलस्य पारमार्थिकत्वम्, अवधिमनःपर्यययोस्तु न युक्तम्, विकलत्वादिति चेत् न; साकल्यवैकल्ययोरत्र विषयोपाधिकत्वात् । तथा हि - सर्वद्रव्यपर्यायविषयमिति केवलं सकलम् । अवधिमनःपर्ययौ तु कतिपयविषयत्वाद्विकलौ । नैतावता तयोः पारमार्थिकत्वच्युतिः । केवलवत्तयोरपि वैशद्य स्वविषये साकल्येन समस्तीति तावपि पारमार्थिकावेव । = प्रश्न - केवलज्ञान को पारमार्थिक कहना ठीक है, परंतु अवधि व मनःपर्ययको पारमार्थिक कहना ठीक नहीं है । कारण, वे दोनों विकल प्रत्यक्ष हैं । उत्तर- नहीं, सकलपना और विकलपना यहाँ विषय की अपेक्षा से है, स्वरूपतः नहीं । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - चूँकि केवलज्ञान समस्त द्रव्यों और पर्यायों को विषय करने वाला है, इसलिए वह सकल प्रत्यक्ष कहा जाता है । परंतु अवधि और मनःपर्यय कुछ पदार्थों को विषय करते हैं, इसलिए वे विकल कहे जाते हैं । लेकिन इतने से उनमें पारमार्थिकता की हानि नहीं होती क्योंकि पारमर्थिकता का कारण सकलार्थविषयता नहीं है - पूर्ण निर्मलता है और वह पूर्ण निर्मलता केवलज्ञान की तरह अवधि और मनःपर्यय में भी अपने विषय में विद्यमान है । इसलिए वे दोनों भी पारमार्थिक हैं ।
- इंद्रियों के बिना भी ज्ञान कैसे संभव है ?
राजवार्तिक/1/12/4-5/53/16 करणात्यये अर्थस्य ग्रहणं न प्राप्नोति, न ह्यकरणस्य कस्यचित् ज्ञानं दृष्टिमितिः तन्न; किं कारणम् । दृष्टत्वात् । कथम् । ईशवत् । यथा रथस्य कर्ता अनीशः उपकरणापेक्षो रथं करोति, स तदभावे न शक्त:, यः पुनरीश: तपोविशेषात् परिप्राप्तर्द्धिविशेषः स बाह्योपकरणगुणानपेक्षः स्वशक्त्यैव रथं निर्वर्तयन् प्रतीतः, तथा कर्ममलीमस आत्मा क्षायोपशमिकेंद्रियानिंद्रियप्रकाशाद्युपकरणापेक्षोऽर्थां संवेत्ति, स एव पुनः क्षयोपशमविशेषे क्षये च सति करणानपेक्षः स्वशक्त्यैवार्थान् वेत्ति को विरोधः ।4। ज्ञानदर्शनस्वभावत्वाच्च भास्करादिवत् ।5। =प्रश्न - इंद्रिय और मनरूप बाह्य और अभ्यंतर करणों के बिना ज्ञान का उत्पन्न होना ही असंभव है। बिना करण के तो कार्य होता ही नहीं है । उत्तर -- असमर्थ के लिए बसूला करौंत आदि बाह्य साधनों की आवश्यकता होती है । जैसे - रथ बनाने वाला साधारण रथकार उपकरणों से रथ बनाता है किंतु समर्थ तपस्वी अपने ऋद्धि बल से बाह्य बसूला आदि उपकरणों के बिना संकल्प मात्र से रथ को बना सकता है । इसी तरह कर्ममलीमस आत्मा साधारणतया इंद्रिय औरमन के बिना नहीं जान सकता पर वही आत्मा जब ज्ञानावरणका विशेष क्षयोपशमरूप शक्तिवाला हो जाता है, या ज्ञानावरण का पूर्ण क्षय कर देता है, तब उसे बाह्य उपकरणों के बिना भी ज्ञान हो जाता है ।4।
- आत्मा तो सूर्य आदि की तरह स्वयं प्रकाशी है, इसे प्रकाशन में पर की अपेक्षा नहीं होती । आत्मा विशिष्ट क्षयोपशम होने पर या आवरण क्षय होने पर स्वशक्ति से ही पदार्थों को जानता है ।5।
धवला 1/1, 1,22/198/4 ज्ञानत्वान्मत्यादिज्ञानवत्कारकमपेक्षते केवलमिति चेन्न, क्षायिकक्षायोपशमिकयोः साधर्म्याभावात् । = प्रश्न - जिस प्रकार मति आदि ज्ञान, स्वयं ज्ञान होने से अपनी उत्पत्ति में कारक की अपेक्षा रखते हैं, उसी प्रकार केवलज्ञान भी ज्ञान है, अतएव उसे भी अपनी उत्पत्ति में कारक की अपेक्षा रखनी चाहिए । उत्तर - नहीं, क्योंकि क्षायिक और क्षायोपशमिक ज्ञान में साधर्म्य नहीं पाया जाता ।
धवला/7/2,1,17/69/4 णाणसहकारिकारणइंदियाणामभावे कधं णाणस्स अत्थित्तमिदि चे ण, णाणसहावपोग्गलदव्वाणुप्पण्णउप्पाद-व्वयधुअत्तुवलक्खियजीवदव्स्स विणासाभावा । ण च एक्कं कज्जं एक्कादो चेव कारणादो सव्वत्थ उप्पज्जदि, ... इंदियाणि खीणावरणे भिण्णजादीए णाणुप्पत्तिम्हि सहकारिकारणं होंति त्ति णियमो, अइप्पसंगादो, अण्णहा मोक्खाभावप्पसंगा । ... तम्हा अणिंदिएसुकरणक्कमव्ववहणादीदं णाणमत्थि त्ति धेतव्वं । ण च तण्णिक्कारणं अप्पट्ठसण्णिहाणेण तदुप्पत्तीदो । = प्रश्न - ज्ञान के सहकारी कारणभूत इंद्रियों के अभाव में ज्ञान का अस्तित्व किस प्रकार हो सकता है ? उत्तर- नहीं, क्योंकि ज्ञान स्वभाव और पुद्गल द्रव्य से अनुत्पन्न, तथा उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य से उपलक्षित जीव द्रव्य का विनाश न होने से इंद्रियों के अभाव में भी ज्ञान का अस्तित्व हो सकता है ? एक कार्य सर्वत्र एकही कारण से उत्पन्न नहीं होता ।... इंद्रियाँ क्षीणावरण जीव के भिन्न जातीय ज्ञान की उत्पत्ति में सहकारी कारण हों, ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अतिप्रसंग दोष आ जायेगा, या अन्यथा मोक्ष के अभाव का प्रसंग आ जायेगा ।... इस कारण अनिंद्रिय जीवों में करण, क्रम और व्यवधान से अतीत ज्ञान होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए । यह ज्ञान निष्कारण भी नहीं है, क्योंकि आत्मा और पदार्थ के सन्निधान अर्थात् सामीप्य से वह उत्पन्न होता है ।
धवला 9/4,1,45/143/3 अतींद्रियाणामवधि-मनःपर्ययकेवलानां कथं प्रत्यक्षता । नैष दोषः, अक्ष आत्मा, अक्षमक्षं प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षमवधि-मनःपर्ययकेवलानीति तेषां प्रत्यक्षत्वसिद्धेः = प्रश्न - इंद्रियों की अपेक्षा से रहित अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान के प्रत्यक्षता कैसे संभव है ? उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अक्ष शब्द का अर्थ आत्मा है; अतएव अक्ष अर्थात् आत्मा की अपेक्षा कर जो प्रवृत्त होता है वह प्रत्यक्ष है । इस निरुक्ति के अनुसार अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान प्रत्यक्ष हैं । अतएव उनके प्रत्यक्षता सिद्ध है । ( न्यायदीपिका/2/18-19/38 ), ( न्यायदीपिका की टिप्पणी में उद्धत न्यायकुमुद चंद्रिका/पृष्ठ 26; न्याय विनिश्चय/पृष्ठ 11) ।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/19/ उत्थानिका - कथमिंद्रियैबिना ज्ञानानंदाविति । अयं खल्वात्मा शुद्धोपयोगसामर्थ्यात् प्रक्षीणघातिकर्मा, ... स्वपरप्रकाशकत्वलक्षणं ज्ञानमनाकुलत्वलक्षणं सौख्यं च भूत्वा परिणमते । एवमात्मनौ ज्ञानानंदौ स्वभाव एव । स्वभावस्य तु परानपे त्वादिंद्रिर्यैविनाप्यात्मनो ज्ञानानंदौ संभवतः । = प्रश्न -आत्मा के इंद्रियों के बिना ज्ञान और आनंद कैसे होता है ? उत्तर- शुद्धोपयोग की सामर्थ्य से जिसके घातीकर्म क्षय को प्राप्त हुए हैं , ... स्वयमेव, स्वपर प्रकाशकता लक्षण ज्ञान और अनाकुलता लक्षण सुख होकर परिणमित होता है । इस प्रकार आत्मा का ज्ञान और आनंद स्वभाव ही है और स्वभाव परसे अनपेक्ष हैं, इसलिए इंद्रियों के बिना भी आत्मा के ज्ञान आनंद होता है ।
न्यायदीपिका/2/22,28/42-50/8 तत्पुनरतींद्रियमिति कथम् । इत्थम् - यदि तज्ज्ञानमैंद्रियिकं स्यात् अशेषविषयं न स्यात् इंद्रियाणां स्वयोग्यविषय एव ज्ञानजनकत्वशक्तेः सूक्ष्मादीनां च तदयोग्यत्वादिति । तस्मात्सिद्धं तदशेषविषयं ज्ञानमनैंद्रियकमेवेति ।22। तदेवमतींद्रियं केवलज्ञानमर्हत एवेति सिद्धम् । तद्वचनप्रामाण्याच्चावधिमनःपर्ययोरतींद्रिययो: सिद्धिरित्यतींद्रियप्रत्यक्षमनवद्यम् । = प्रश्न - (सूक्ष्म पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान) अतींद्रिय है यह कैसे ? उत्तर- इस प्रकार यह ज्ञान इंद्रियजंय हो तो संपूर्ण पदार्थों को जानने वाला नहीं हो सकता है; क्योंकि इंद्रियाँ अपने योग्य विषय में ही ज्ञान को उत्पन्न कर सकती हैं और सूक्ष्मादि पदार्थ इंद्रियों के योग्य विषय नहीं हैं । अतः वह संपूर्ण पदार्थ विषयक ज्ञान अनैंद्रियक ही है ।22। इस प्रकार अतींद्रिय केवलज्ञान अरहंत के ही है, यह सिद्ध हो गया । और उनके वचनों को प्रमाण होने से उनके द्वारा प्रतिपादित अतींद्रिय अवधि और मनःपर्यय ज्ञान भी सिद्ध हो गये । इस तरह अतींद्रिय प्रत्यक्ष है उसके मानने में कोई दोष या बाधा नहीं है ।