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<p id="1"> (1) हनुमान् के पिता पवनंजय का मित्र । <span class="GRef"> पद्मपुराण 15.119, 16.127 </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText"> (1) हनुमान् के पिता पवनंजय का मित्र । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_15#119|पद्मपुराण - 15.119]], 16.127 </span></p> | ||
<p id="2">(2) इक्कीसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के तीर्थ में मातंग वंश में उत्पन्न अमितपर्वत नगर का विद्याधर राजा । हिरण्यवती इसकी रानी थीं । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 22.111-112 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) इक्कीसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के तीर्थ में मातंग वंश में उत्पन्न अमितपर्वत नगर का विद्याधर राजा । हिरण्यवती इसकी रानी थीं । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_22#111|हरिवंशपुराण - 22.111-112]] </span></p> | ||
<p id="3">(3) जंबूद्वीप के पूर्व विदेहस्थ वत्सकावती देश के सुसीमा नगर का एक विद्वान् । यह इसी नगर के राजा अजितंजय के मंत्रि अमितमति और उसकी स्त्री सत्यभामा का पुत्र था । विकसित इसका मित्र था । इन दोनों ने मुनिराज मतिसागर से धर्मोपदेश सुना और संयम धारण करके तप किया । अंत में शरीर | <p id="3" class="HindiText">(3) जंबूद्वीप के पूर्व विदेहस्थ वत्सकावती देश के सुसीमा नगर का एक विद्वान् । यह इसी नगर के राजा अजितंजय के मंत्रि अमितमति और उसकी स्त्री सत्यभामा का पुत्र था । विकसित इसका मित्र था । इन दोनों ने मुनिराज मतिसागर से धर्मोपदेश सुना और संयम धारण करके तप किया । अंत में शरीर छोड़कर दोनों महाशुक्र स्वर्ग में इंद्र और प्रतींद्र हुए । <span class="GRef"> महापुराण 7.60-79 </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:15, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
- हनुमान् के पिता पवनंजय का मित्र (पद्मपुराण/16/127)
- मातंग वंश का एक राजा - देखें इतिहास - 9.9 ।
पुराणकोष से
(1) हनुमान् के पिता पवनंजय का मित्र । पद्मपुराण - 15.119, 16.127
(2) इक्कीसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के तीर्थ में मातंग वंश में उत्पन्न अमितपर्वत नगर का विद्याधर राजा । हिरण्यवती इसकी रानी थीं । हरिवंशपुराण - 22.111-112
(3) जंबूद्वीप के पूर्व विदेहस्थ वत्सकावती देश के सुसीमा नगर का एक विद्वान् । यह इसी नगर के राजा अजितंजय के मंत्रि अमितमति और उसकी स्त्री सत्यभामा का पुत्र था । विकसित इसका मित्र था । इन दोनों ने मुनिराज मतिसागर से धर्मोपदेश सुना और संयम धारण करके तप किया । अंत में शरीर छोड़कर दोनों महाशुक्र स्वर्ग में इंद्र और प्रतींद्र हुए । महापुराण 7.60-79