बाहुबली: Difference between revisions
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<li> बाहुबली जी के एक भी शल्य न थी - | <li> बाहुबली जी के एक भी शल्य न थी | शल्य विषय व् उसके प्रकार सम्बंधित अन्य जानकारी के लिए देखें - [[ शल्य#4 | शल्य - 4 ]]</li> | ||
<li> बाहुबली जी की प्रतिमा संबंधी दृष्टिभेद| विषय सम्बंधित अन्य जानकारी के लिए देखें- [[ पूजा_निर्देश_व_मूर्ति_पूजा | पूजा - 3.10]]।</li> | |||
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<p> भगवान् वृषभदेव और उनकी | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> भगवान् वृषभदेव और उनकी सुनंदा नामा द्वितीय रानी के पुत्र तथा सुंदरी के भाई । सुंदरता से कारण ये कामदेव कहलाते थे । चरमशरीरी थे और पोदनपुर राज्य के नरेश थे । महाबली और चंद्रवंश का संस्थापक सोमयश इसका पुत्र था । <span class="GRef"> महापुराण 16.4-25, 17.77, 34.68, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#10|पद्मपुराण - 5.10]] </span>—11, <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_9#22|हरिवंशपुराण - 9.22]] </span><p>स्वाभिमानी होने के कारण इन्होंने भरत की अधीनता स्वीकार न कर उन्हें जल, दृष्टि और बाहु युद्ध में पराजित किया था भरत ने कुपित होकर इन पर चक्र चलाया था, परंतु चक्र निष्प्रभावी हुआ था । राज्य के कारण अपने भाई के इस व्यवहार को देखकर इन्हें राज्य से विरक्ति हुई । अपने पुत्र महाबली को राज्य सौंपकर ये दीक्षित हो गये । इन्होंने प्रतिमायोग धारण करके एक वर्ष तक निराहार रहकर उग्र तप किया । सर्पों ने चरणों में वामियाँ बना ली, केश बढ़कर कंधों पर लटकने लगे और लताएँ इनके शरीर से लिपट गयी । तपश्चर्या के समाप्त होने पर भरत ने इनकी पूजा की और तभी इन्हें केवलज्ञान हो गया । इंद्र आदि देव आये और इनकी उन्होंने पूजा की । अंत में विहार कर ये तीर्थंकर आदिनाथ के निकट कैलास पर्वत पर गये । वहाँ शेष कर्मों का क्षय करके इन्होंने सिद्ध पद प्राप्त किया । अवसर्पिणी काल के ये प्रथम मुक्ति प्राप्त-कर्ता हैं । <span class="GRef"> महापुराण 36.51-203, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_4#77|पद्मपुराण - 4.77]], </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_11#98|हरिवंशपुराण - 11.98-102]] </span><p>इनकी भवावलि इस प्रकार है—पूर्व में ये सेनापति थे, पश्चात् क्रमश: भोग-भूमि में आर्य, प्रभंकरदेव, अकंपन, अहमिंद्र, महाबाहु, पुन: अहमिंद्र और तत्पश्चात् बाहुबली हुए थे । <span class="GRef"> महापुराण 47.365-366 </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:15, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
- नागकुमार चरित के रचयिता एक कन्नड़ कवि । समय - ई. 1560 । (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा/4/311)
- महापुराण/सर्ग/श्लोक नं. अपने पूर्व भव नं. 7 में पूर्व विदेह वत्सकावती देश के राजा प्रीतिवर्धन के मंत्री थे (8/211) फिर छठे भव में उत्तरकुरु में भोग भूमिज हुए (8/212), पाँचवें भव में कनकाभदेव (8/213) चौथे भव में वज्रजंघ (आदिनाथ भगवान् का पूर्व भव) के ‘आनंद’ नाम पुरोहित हुए (8/217) तीसरे भव में अधोग्रैवेयक में अहमिंद्र हुए (9/90) दूसरे भव में वज्रसेन के पुत्र महाबाहु हुए (11/12) पूर्व भव में अहमिंद्र हुए (47/365-366) वर्तमान भव में ऋषभ भगवान् के पुत्र बाहुबली हुए (16/6) बड़ा होने पर पोदनपुर का राज्य प्राप्त किया (17/77) । स्वाभिमानी होने पर भरत को नमस्कार न कर उनको जल, मल्ल व दृष्टि युद्ध में हरा दिया । (36/60) भरत ने क्रुद्ध होकर इन पर चक्र चला दिया, परंतु उसका इन पर कुछ प्रभाव न हुआ (36/66) इससे विरक्त हो इन्होंने दीक्षा ले ली (36/104) । एक वर्ष का प्रतिमा योग धारण किया (36/106) एक वर्ष पश्चात् भरत ने आकर भक्तिपूर्वक इनकी पूजा की तभी इनको केवललब्धिकी प्राप्ति हो गयी (36/185) । अंत में मुक्ति प्राप्त की ।
- बाहुबली जी के एक भी शल्य न थी | शल्य विषय व् उसके प्रकार सम्बंधित अन्य जानकारी के लिए देखें - शल्य - 4
- बाहुबली जी की प्रतिमा संबंधी दृष्टिभेद| विषय सम्बंधित अन्य जानकारी के लिए देखें- पूजा - 3.10।
पुराणकोष से
भगवान् वृषभदेव और उनकी सुनंदा नामा द्वितीय रानी के पुत्र तथा सुंदरी के भाई । सुंदरता से कारण ये कामदेव कहलाते थे । चरमशरीरी थे और पोदनपुर राज्य के नरेश थे । महाबली और चंद्रवंश का संस्थापक सोमयश इसका पुत्र था । महापुराण 16.4-25, 17.77, 34.68, पद्मपुराण - 5.10 —11, हरिवंशपुराण - 9.22
स्वाभिमानी होने के कारण इन्होंने भरत की अधीनता स्वीकार न कर उन्हें जल, दृष्टि और बाहु युद्ध में पराजित किया था भरत ने कुपित होकर इन पर चक्र चलाया था, परंतु चक्र निष्प्रभावी हुआ था । राज्य के कारण अपने भाई के इस व्यवहार को देखकर इन्हें राज्य से विरक्ति हुई । अपने पुत्र महाबली को राज्य सौंपकर ये दीक्षित हो गये । इन्होंने प्रतिमायोग धारण करके एक वर्ष तक निराहार रहकर उग्र तप किया । सर्पों ने चरणों में वामियाँ बना ली, केश बढ़कर कंधों पर लटकने लगे और लताएँ इनके शरीर से लिपट गयी । तपश्चर्या के समाप्त होने पर भरत ने इनकी पूजा की और तभी इन्हें केवलज्ञान हो गया । इंद्र आदि देव आये और इनकी उन्होंने पूजा की । अंत में विहार कर ये तीर्थंकर आदिनाथ के निकट कैलास पर्वत पर गये । वहाँ शेष कर्मों का क्षय करके इन्होंने सिद्ध पद प्राप्त किया । अवसर्पिणी काल के ये प्रथम मुक्ति प्राप्त-कर्ता हैं । महापुराण 36.51-203, पद्मपुराण - 4.77, हरिवंशपुराण - 11.98-102
इनकी भवावलि इस प्रकार है—पूर्व में ये सेनापति थे, पश्चात् क्रमश: भोग-भूमि में आर्य, प्रभंकरदेव, अकंपन, अहमिंद्र, महाबाहु, पुन: अहमिंद्र और तत्पश्चात् बाहुबली हुए थे । महापुराण 47.365-366