मद्य: Difference between revisions
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<span class="GRef"> पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/62-64 </span><span class="SanskritGatha">मद्यं मोहयति मनो मोहतिचित्तस्तु विस्मरति धर्मम्। विस्मृतधर्मा जीवो हिंसामविशंकमाचरति।62। रसजानां च वहनां जीवानां योनिरिष्यते मद्यम्। मद्यं भजतां तेषां हिंसा संजायतेऽवश्यम्।63। अभिमानभयजुगुप्साहास्यरतिशोककामकोपाद्या:। हिंसाया: पर्याया: सर्वेऽपि सरकसंनिहिता:।64। </span>= <span class="HindiText">मद्य मन को मोहित करता है, मोहितचित्त होकर धर्म को भूल जाता है और धर्म को भूला हुआ वह जीव नि:शंकपने हिंसारूप आचरण करने लगता है। 62। रस द्वारा उत्पन्न हुए अनेक एकेंद्रियादिक जीवों की वह मदिरा योनिभूत है। इसलिए मद्य सेवन करने वाले को हिंसा अवश्य होती है।63। अभिमान, भय, जुगुप्सा, रति, शोक, तथा काम-क्रोधादिक जितने हिंसा के भेद हैं वे सब मदिरा के निकटवर्ती हैं।64।</span><br /> | <span class="GRef"> पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/62-64 </span><span class="SanskritGatha">मद्यं मोहयति मनो मोहतिचित्तस्तु विस्मरति धर्मम्। विस्मृतधर्मा जीवो हिंसामविशंकमाचरति।62। रसजानां च वहनां जीवानां योनिरिष्यते मद्यम्। मद्यं भजतां तेषां हिंसा संजायतेऽवश्यम्।63। अभिमानभयजुगुप्साहास्यरतिशोककामकोपाद्या:। हिंसाया: पर्याया: सर्वेऽपि सरकसंनिहिता:।64। </span>= <span class="HindiText">मद्य मन को मोहित करता है, मोहितचित्त होकर धर्म को भूल जाता है और धर्म को भूला हुआ वह जीव नि:शंकपने हिंसारूप आचरण करने लगता है। 62। रस द्वारा उत्पन्न हुए अनेक एकेंद्रियादिक जीवों की वह मदिरा योनिभूत है। इसलिए मद्य सेवन करने वाले को हिंसा अवश्य होती है।63। अभिमान, भय, जुगुप्सा, रति, शोक, तथा काम-क्रोधादिक जितने हिंसा के भेद हैं वे सब मदिरा के निकटवर्ती हैं।64।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/2/4-5 </span><span class="SanskritText">यदेकबिंदो: प्रचरंति जीवाश्चैतत् त्रिलोकीमपि पूरयंति। यद्विक्लवाश्चेयममुं च लोकं यास्यंति तत्कश्यमवश्यमस्येत्।4। पीते यत्र रसांगजीवनिवहा: क्षिप्रं म्रियंतेऽखिला:, कामक्रोधभयभ्रमप्रभृतय: सावद्यमुद्यंति च। तन्मद्यं व्रतयन्न धूर्तिलपरास्कंदीव यात्यापदं, तत्पायी पुनरेकपादिव दुराचारं चरन्मज्जति।5।</span> =<span class="HindiText"> जिसकी एक बूँद के जीव यदि फैल जायें तो तीनों लोकों को भी पूर्ण कर देते हैं, और जिस मद्य के द्वारा मूर्च्छित हुए मनुष्य इस लोक और परलोक दोनों को नष्ट कर देते हैं। उस मद्य को कल्याणार्थी मनुष्य अवश्य ही | <span class="GRef"> सागार धर्मामृत/2/4-5 </span><span class="SanskritText">यदेकबिंदो: प्रचरंति जीवाश्चैतत् त्रिलोकीमपि पूरयंति। यद्विक्लवाश्चेयममुं च लोकं यास्यंति तत्कश्यमवश्यमस्येत्।4। पीते यत्र रसांगजीवनिवहा: क्षिप्रं म्रियंतेऽखिला:, कामक्रोधभयभ्रमप्रभृतय: सावद्यमुद्यंति च। तन्मद्यं व्रतयन्न धूर्तिलपरास्कंदीव यात्यापदं, तत्पायी पुनरेकपादिव दुराचारं चरन्मज्जति।5।</span> =<span class="HindiText"> जिसकी एक बूँद के जीव यदि फैल जायें तो तीनों लोकों को भी पूर्ण कर देते हैं, और जिस मद्य के द्वारा मूर्च्छित हुए मनुष्य इस लोक और परलोक दोनों को नष्ट कर देते हैं। उस मद्य को कल्याणार्थी मनुष्य अवश्य ही छोड़ें।4। जिसके पीने से मद्य में पैदा होने वाले उस समस्त जीव समूह की मृत्यु हो जाती है, और पाप अथवा निंदा के साथ-साथ काम, क्रोध, भय, तथा भ्रम आदि प्रधान दोष उदय को प्राप्त होते हैं, उस मद्य को छोड़नेवाला पुरुष धूर्तिल नामक चोर की तरह विपत्ति को प्राप्त नहीं होता है और उसको पीने वाला एकपात नामक संन्यासी की तरह निंद्य आचरण को करता हुआ दुर्गति के दु:खों को प्राप्त होता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> लाटी संहिता/2/70 </span><span class="SanskritGatha">दोषत्वं प्राङ्मतिभ्रंशस्ततो मिथ्यावबोधनम्। रागादयस्तत: कर्म ततो जन्मेह कलेशता।70।</span> = <span class="HindiText">इसके पीने से – पहले तो बुद्धि भ्रष्ट होती है, फिर ज्ञान मिथ्या हो जाता है, अर्थात् माता, बहन आदि को भी स्त्री समझने लगता है। उससे रागादिक उत्पन्न होते हैं, उनसे अन्यायरूप क्रियाएँ तथा उनसे अत्यंत क्लेशरूप जन्म-मरण होता है। <br /> | <span class="GRef"> लाटी संहिता/2/70 </span><span class="SanskritGatha">दोषत्वं प्राङ्मतिभ्रंशस्ततो मिथ्यावबोधनम्। रागादयस्तत: कर्म ततो जन्मेह कलेशता।70।</span> = <span class="HindiText">इसके पीने से – पहले तो बुद्धि भ्रष्ट होती है, फिर ज्ञान मिथ्या हो जाता है, अर्थात् माता, बहन आदि को भी स्त्री समझने लगता है। उससे रागादिक उत्पन्न होते हैं, उनसे अन्यायरूप क्रियाएँ तथा उनसे अत्यंत क्लेशरूप जन्म-मरण होता है। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> मद्यत्याग के अतिचार</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/3/11 </span><span class="SanskritGatha">संधानकं त्यजेत्सर्वं दधितक्रं द्वयहोषितम्। कांजिकं पुष्पितमपि मद्यव्रतमलोऽन्यथा।11। </span>= <span class="HindiText">दार्शनिक श्रावक अचारमुरब्बा आदि सर्व ही प्रकार के संधान को और जिसको दो दिन व दो रात बीत गये हैं ऐस दही व छाछ को, तथा जिस पर फूई आ गयी हो ऐसी कांजी को भी | <span class="GRef"> सागार धर्मामृत/3/11 </span><span class="SanskritGatha">संधानकं त्यजेत्सर्वं दधितक्रं द्वयहोषितम्। कांजिकं पुष्पितमपि मद्यव्रतमलोऽन्यथा।11। </span>= <span class="HindiText">दार्शनिक श्रावक अचारमुरब्बा आदि सर्व ही प्रकार के संधान को और जिसको दो दिन व दो रात बीत गये हैं ऐस दही व छाछ को, तथा जिस पर फूई आ गयी हो ऐसी कांजी को भी छोड़े, नहीं तो मद्यत्याग व्रत में अतिचार होता है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> लाटी संहिता/2/68-69 </span><span class="SanskritGatha"> भंगाहिफेनधत्तूरखस्खसादिफलं च यत्। माद्यताहेतुरन्यद्वा सर्व मद्यवदीरितम्।68। एवमित्यादि यद्वस्तु सुरेव मदकारकम्। तन्निखिलं त्यजेद्धीमान् श्रेयसे ह्यात्मनो गृही।69।</span> = <span class="HindiText">भाँग, नागफेन, धतूरा, खसखस (चरस, गाँजा) आदि जो-जो पदार्थ नशा उत्पन्न करने वाले हैं, वे सब मद्य के समान ही कहे जाते हैं।68। ये सब तथा इनके समान अन्य भी ऐसे ही नशीले पदार्थ कल्याणार्थी बुद्धिमान व्यक्ति को | <span class="GRef"> लाटी संहिता/2/68-69 </span><span class="SanskritGatha"> भंगाहिफेनधत्तूरखस्खसादिफलं च यत्। माद्यताहेतुरन्यद्वा सर्व मद्यवदीरितम्।68। एवमित्यादि यद्वस्तु सुरेव मदकारकम्। तन्निखिलं त्यजेद्धीमान् श्रेयसे ह्यात्मनो गृही।69।</span> = <span class="HindiText">भाँग, नागफेन, धतूरा, खसखस (चरस, गाँजा) आदि जो-जो पदार्थ नशा उत्पन्न करने वाले हैं, वे सब मद्य के समान ही कहे जाते हैं।68। ये सब तथा इनके समान अन्य भी ऐसे ही नशीले पदार्थ कल्याणार्थी बुद्धिमान व्यक्ति को छोड़ देने चाहिए।69।</span></li> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p> मादक पेय । अपर नाम मदिरा । यह नरक का कारण होता है । इसके त्याग से उत्तम कुल तथा रूप की प्राप्ति होती है । <span class="GRef"> महापुराण 9. 39, 10.22, 56.261 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> मादक पेय । अपर नाम मदिरा । यह नरक का कारण होता है । इसके त्याग से उत्तम कुल तथा रूप की प्राप्ति होती है । <span class="GRef"> महापुराण 9. 39, 10.22, 56.261 </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:20, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
- मद्य की अभक्ष्यता का निर्देश–देखें भक्ष्याभक्ष्य - 2।
- मद्य के निषेध का कारण
देखें मांस - 2 (नवनीत, मद्य, मांस व मधु ये चार महाविकृति हैं।)
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/62-64 मद्यं मोहयति मनो मोहतिचित्तस्तु विस्मरति धर्मम्। विस्मृतधर्मा जीवो हिंसामविशंकमाचरति।62। रसजानां च वहनां जीवानां योनिरिष्यते मद्यम्। मद्यं भजतां तेषां हिंसा संजायतेऽवश्यम्।63। अभिमानभयजुगुप्साहास्यरतिशोककामकोपाद्या:। हिंसाया: पर्याया: सर्वेऽपि सरकसंनिहिता:।64। = मद्य मन को मोहित करता है, मोहितचित्त होकर धर्म को भूल जाता है और धर्म को भूला हुआ वह जीव नि:शंकपने हिंसारूप आचरण करने लगता है। 62। रस द्वारा उत्पन्न हुए अनेक एकेंद्रियादिक जीवों की वह मदिरा योनिभूत है। इसलिए मद्य सेवन करने वाले को हिंसा अवश्य होती है।63। अभिमान, भय, जुगुप्सा, रति, शोक, तथा काम-क्रोधादिक जितने हिंसा के भेद हैं वे सब मदिरा के निकटवर्ती हैं।64।
सागार धर्मामृत/2/4-5 यदेकबिंदो: प्रचरंति जीवाश्चैतत् त्रिलोकीमपि पूरयंति। यद्विक्लवाश्चेयममुं च लोकं यास्यंति तत्कश्यमवश्यमस्येत्।4। पीते यत्र रसांगजीवनिवहा: क्षिप्रं म्रियंतेऽखिला:, कामक्रोधभयभ्रमप्रभृतय: सावद्यमुद्यंति च। तन्मद्यं व्रतयन्न धूर्तिलपरास्कंदीव यात्यापदं, तत्पायी पुनरेकपादिव दुराचारं चरन्मज्जति।5। = जिसकी एक बूँद के जीव यदि फैल जायें तो तीनों लोकों को भी पूर्ण कर देते हैं, और जिस मद्य के द्वारा मूर्च्छित हुए मनुष्य इस लोक और परलोक दोनों को नष्ट कर देते हैं। उस मद्य को कल्याणार्थी मनुष्य अवश्य ही छोड़ें।4। जिसके पीने से मद्य में पैदा होने वाले उस समस्त जीव समूह की मृत्यु हो जाती है, और पाप अथवा निंदा के साथ-साथ काम, क्रोध, भय, तथा भ्रम आदि प्रधान दोष उदय को प्राप्त होते हैं, उस मद्य को छोड़नेवाला पुरुष धूर्तिल नामक चोर की तरह विपत्ति को प्राप्त नहीं होता है और उसको पीने वाला एकपात नामक संन्यासी की तरह निंद्य आचरण को करता हुआ दुर्गति के दु:खों को प्राप्त होता है।
लाटी संहिता/2/70 दोषत्वं प्राङ्मतिभ्रंशस्ततो मिथ्यावबोधनम्। रागादयस्तत: कर्म ततो जन्मेह कलेशता।70। = इसके पीने से – पहले तो बुद्धि भ्रष्ट होती है, फिर ज्ञान मिथ्या हो जाता है, अर्थात् माता, बहन आदि को भी स्त्री समझने लगता है। उससे रागादिक उत्पन्न होते हैं, उनसे अन्यायरूप क्रियाएँ तथा उनसे अत्यंत क्लेशरूप जन्म-मरण होता है।
- मद्यत्याग के अतिचार
सागार धर्मामृत/3/11 संधानकं त्यजेत्सर्वं दधितक्रं द्वयहोषितम्। कांजिकं पुष्पितमपि मद्यव्रतमलोऽन्यथा।11। = दार्शनिक श्रावक अचारमुरब्बा आदि सर्व ही प्रकार के संधान को और जिसको दो दिन व दो रात बीत गये हैं ऐस दही व छाछ को, तथा जिस पर फूई आ गयी हो ऐसी कांजी को भी छोड़े, नहीं तो मद्यत्याग व्रत में अतिचार होता है।
लाटी संहिता/2/68-69 भंगाहिफेनधत्तूरखस्खसादिफलं च यत्। माद्यताहेतुरन्यद्वा सर्व मद्यवदीरितम्।68। एवमित्यादि यद्वस्तु सुरेव मदकारकम्। तन्निखिलं त्यजेद्धीमान् श्रेयसे ह्यात्मनो गृही।69। = भाँग, नागफेन, धतूरा, खसखस (चरस, गाँजा) आदि जो-जो पदार्थ नशा उत्पन्न करने वाले हैं, वे सब मद्य के समान ही कहे जाते हैं।68। ये सब तथा इनके समान अन्य भी ऐसे ही नशीले पदार्थ कल्याणार्थी बुद्धिमान व्यक्ति को छोड़ देने चाहिए।69।
पुराणकोष से
मादक पेय । अपर नाम मदिरा । यह नरक का कारण होता है । इसके त्याग से उत्तम कुल तथा रूप की प्राप्ति होती है । महापुराण 9. 39, 10.22, 56.261