मिथ्यात्व: Difference between revisions
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देखें [[ मिथ्यादर्शन ]]। | <p><span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/303-305 </span><p class=" PrakritText ">मिच्छत्तं पुण दुविहं मूढत्तं तह सहावणिरवेक्खं। तस्सोदयेण जीवो विवरीदं गेह्णए तच्चं।303। अत्थित्तं णो मण्णदि णत्थिसहावस्स जो हु सावेक्खं। जत्थी विय तह दव्वे मूढो मूढो दु सव्वत्थ।304। मूढो विय सुदहेदं सहावणिरवेक्खरूवदो होदि। अलहंतो खवणादी मिच्छापयडी खलु उदये।305। </p><p class="HindiText">= '''मिथ्यात्व''' दो प्रकार का है–मूढत्व और स्वभाव-निरपेक्ष। उसके उदय से जीव तत्त्वों को विपरीत रूप से ग्रहण करता है।303। जो नास्तित्व से सापेक्ष अस्तित्व को अथवा अस्तित्व से सापेक्ष नास्तित्व को नहीं मानता है वह द्रव्यमूढ़ होने के कारण सर्वत्र मूढ है।304। तथा श्रुत के हेतु से होने वाला मिथ्यात्व स्वभाव-निरपेक्ष होता है। मिथ्या प्रकृतियों के उदय के कारण वह क्षपण आदि भावों को प्राप्त नहीं होता है।305।</p> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<div class="HindiText"> <p>जीव आदि पदार्थों के विषय में विपरीत श्रद्धान । इससे जीव संसार में भटकता है । चौदह गुणस्थानों मैं इसका सर्व प्रथम कथन है । अभव्य जीवों के यही गुणस्थान होता है । भले ही वे मुनि होकर दीर्घकाल तक दीक्षित रहें और ग्यारह अंगधारी क्यों न हो जावें । कर्मास्रव के पाँच कारणों में यह प्रथम कारण है । अन्य चार कारण है― असंयम (अविरति), प्रमाद, कषाय और योगों का होना । इसके उदय से उत्पन्न परिणाम श्रद्धा और ज्ञान को भी विपरीत कर देता है । इसके पाँच भेद हैं― अज्ञान, संशय, एकांत, विपरीत और विनय । पाप से युक्त और धार्मिक ज्ञान से रहित जीवों के इसके उदय से उत्पन्न परिणाम अज्ञानमिथ्यात्व हैं । तत्त्व के स्वरूप में दोलायमानता संशयमिथ्यात्व है । द्रव्यपर्यायरूप पदार्थ में अथवा रत्नत्रय में किसी एक का ही निश्चय करना एकांत मिथ्यादर्शन है । ज्ञान, ज्ञायक और ज्ञेय के यथार्थ स्वरूप का विपरीत निर्णय विपरीत मिथ्यादर्शन है और मन, वचन, काय से सभी देवों को प्रणाम करना, समस्त पदार्थों को मोक्ष का उपाय मानना विनयमिथ्यात्व है । <span class="GRef"> महापुराण 54.151, 62. 296-302, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 4.40, 16. 58-62 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText">जीव आदि पदार्थों के विषय में विपरीत श्रद्धान । इससे जीव संसार में भटकता है । चौदह गुणस्थानों मैं इसका सर्व प्रथम कथन है । अभव्य जीवों के यही गुणस्थान होता है । भले ही वे मुनि होकर दीर्घकाल तक दीक्षित रहें और ग्यारह अंगधारी क्यों न हो जावें । कर्मास्रव के पाँच कारणों में यह प्रथम कारण है । अन्य चार कारण है― असंयम (अविरति), प्रमाद, कषाय और योगों का होना । इसके उदय से उत्पन्न परिणाम श्रद्धा और ज्ञान को भी विपरीत कर देता है । इसके पाँच भेद हैं― अज्ञान, संशय, एकांत, विपरीत और विनय । पाप से युक्त और धार्मिक ज्ञान से रहित जीवों के इसके उदय से उत्पन्न परिणाम अज्ञानमिथ्यात्व हैं । तत्त्व के स्वरूप में दोलायमानता संशयमिथ्यात्व है । द्रव्यपर्यायरूप पदार्थ में अथवा रत्नत्रय में किसी एक का ही निश्चय करना एकांत मिथ्यादर्शन है । ज्ञान, ज्ञायक और ज्ञेय के यथार्थ स्वरूप का विपरीत निर्णय विपरीत मिथ्यादर्शन है और मन, वचन, काय से सभी देवों को प्रणाम करना, समस्त पदार्थों को मोक्ष का उपाय मानना विनयमिथ्यात्व है । <span class="GRef"> महापुराण 54.151, 62. 296-302, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 4.40, 16. 58-62 </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:20, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
नयचक्र बृहद्/303-305
मिच्छत्तं पुण दुविहं मूढत्तं तह सहावणिरवेक्खं। तस्सोदयेण जीवो विवरीदं गेह्णए तच्चं।303। अत्थित्तं णो मण्णदि णत्थिसहावस्स जो हु सावेक्खं। जत्थी विय तह दव्वे मूढो मूढो दु सव्वत्थ।304। मूढो विय सुदहेदं सहावणिरवेक्खरूवदो होदि। अलहंतो खवणादी मिच्छापयडी खलु उदये।305।
= मिथ्यात्व दो प्रकार का है–मूढत्व और स्वभाव-निरपेक्ष। उसके उदय से जीव तत्त्वों को विपरीत रूप से ग्रहण करता है।303। जो नास्तित्व से सापेक्ष अस्तित्व को अथवा अस्तित्व से सापेक्ष नास्तित्व को नहीं मानता है वह द्रव्यमूढ़ होने के कारण सर्वत्र मूढ है।304। तथा श्रुत के हेतु से होने वाला मिथ्यात्व स्वभाव-निरपेक्ष होता है। मिथ्या प्रकृतियों के उदय के कारण वह क्षपण आदि भावों को प्राप्त नहीं होता है।305।
अधिक जानकारी के लिये देखें मिथ्यादर्शन । पूर्व पृष्ठ अगला पृष्ठ
पुराणकोष से
जीव आदि पदार्थों के विषय में विपरीत श्रद्धान । इससे जीव संसार में भटकता है । चौदह गुणस्थानों मैं इसका सर्व प्रथम कथन है । अभव्य जीवों के यही गुणस्थान होता है । भले ही वे मुनि होकर दीर्घकाल तक दीक्षित रहें और ग्यारह अंगधारी क्यों न हो जावें । कर्मास्रव के पाँच कारणों में यह प्रथम कारण है । अन्य चार कारण है― असंयम (अविरति), प्रमाद, कषाय और योगों का होना । इसके उदय से उत्पन्न परिणाम श्रद्धा और ज्ञान को भी विपरीत कर देता है । इसके पाँच भेद हैं― अज्ञान, संशय, एकांत, विपरीत और विनय । पाप से युक्त और धार्मिक ज्ञान से रहित जीवों के इसके उदय से उत्पन्न परिणाम अज्ञानमिथ्यात्व हैं । तत्त्व के स्वरूप में दोलायमानता संशयमिथ्यात्व है । द्रव्यपर्यायरूप पदार्थ में अथवा रत्नत्रय में किसी एक का ही निश्चय करना एकांत मिथ्यादर्शन है । ज्ञान, ज्ञायक और ज्ञेय के यथार्थ स्वरूप का विपरीत निर्णय विपरीत मिथ्यादर्शन है और मन, वचन, काय से सभी देवों को प्रणाम करना, समस्त पदार्थों को मोक्ष का उपाय मानना विनयमिथ्यात्व है । महापुराण 54.151, 62. 296-302, वीरवर्द्धमान चरित्र 4.40, 16. 58-62