मेघनिनाद: Difference between revisions
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<p> चक्रपुर के राजा रत्नायुध का हाथी । इसे एक मुनिराज के दर्शन होने से जातिस्मरण हो गया था । फलस्वरूप इसने उनसे जलपान त्याग करके श्रावक के व्रत के लिये थे । पूर्वभव में यह भरतक्षेत्र के चित्रकारपुर में राजा प्रतिभद्र के मंत्री चित्रबुद्धि का पुत्र था । विचित्रमति इसका नाम था । इस पर्याय में यह श्रुतसागर मुनि से दीक्षित हो गया था । साकेतनगर में वेश्या बुद्धिसेना पर आकृष्ट होकर यह मुनि पद से च्युत हुआ । राजा गंधिमित्र का रसोइया बना । मांस पकाकर राजा को खिलाता रहा । राजा को प्रसन्न करके इसने वेश्या प्राप्त कर ली । भोगों में लिप्त रहा । अंत में मरकर नरक गया और नरक से निकलकर हाथी हुआ था । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 27.95-106 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> चक्रपुर के राजा रत्नायुध का हाथी । इसे एक मुनिराज के दर्शन होने से जातिस्मरण हो गया था । फलस्वरूप इसने उनसे जलपान त्याग करके श्रावक के व्रत के लिये थे । पूर्वभव में यह भरतक्षेत्र के चित्रकारपुर में राजा प्रतिभद्र के मंत्री चित्रबुद्धि का पुत्र था । विचित्रमति इसका नाम था । इस पर्याय में यह श्रुतसागर मुनि से दीक्षित हो गया था । साकेतनगर में वेश्या बुद्धिसेना पर आकृष्ट होकर यह मुनि पद से च्युत हुआ । राजा गंधिमित्र का रसोइया बना । मांस पकाकर राजा को खिलाता रहा । राजा को प्रसन्न करके इसने वेश्या प्राप्त कर ली । भोगों में लिप्त रहा । अंत में मरकर नरक गया और नरक से निकलकर हाथी हुआ था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_27#95|हरिवंशपुराण - 27.95-106]] </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:20, 27 November 2023
चक्रपुर के राजा रत्नायुध का हाथी । इसे एक मुनिराज के दर्शन होने से जातिस्मरण हो गया था । फलस्वरूप इसने उनसे जलपान त्याग करके श्रावक के व्रत के लिये थे । पूर्वभव में यह भरतक्षेत्र के चित्रकारपुर में राजा प्रतिभद्र के मंत्री चित्रबुद्धि का पुत्र था । विचित्रमति इसका नाम था । इस पर्याय में यह श्रुतसागर मुनि से दीक्षित हो गया था । साकेतनगर में वेश्या बुद्धिसेना पर आकृष्ट होकर यह मुनि पद से च्युत हुआ । राजा गंधिमित्र का रसोइया बना । मांस पकाकर राजा को खिलाता रहा । राजा को प्रसन्न करके इसने वेश्या प्राप्त कर ली । भोगों में लिप्त रहा । अंत में मरकर नरक गया और नरक से निकलकर हाथी हुआ था । हरिवंशपुराण - 27.95-106