विचित्रमति: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
(3 intermediate revisions by 3 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
<p> भरतक्षेत्र में चित्रकारपुर नगर के राजा प्रीतिभद्र के मंत्री चित्रबुद्धि का पुत्र । कमला इसकी माँ थी । श्रुतसागर मुनि से तप का फल सुनकर यह तप करने लगा था । साकेतनगर में यह बुद्धिसेना को देखकर पथभ्रष्ट हो गया था यह उसे पाने के लिए गंधमित्र राजा का रसोइया बना । अपनी पाक कला से राजा को प्रसन्न करके इसने इस वेश्या को प्राप्त कर लिया था । अंत में भोग-भोगते हुए सातवें नरक गया । | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> भरतक्षेत्र में चित्रकारपुर नगर के राजा प्रीतिभद्र के मंत्री चित्रबुद्धि का पुत्र । कमला इसकी माँ थी । श्रुतसागर मुनि से तप का फल सुनकर यह तप करने लगा था । साकेतनगर में यह बुद्धिसेना को देखकर पथभ्रष्ट हो गया था यह उसे पाने के लिए गंधमित्र राजा का रसोइया बना । अपनी पाक कला से राजा को प्रसन्न करके इसने इस वेश्या को प्राप्त कर लिया था । अंत में भोग-भोगते हुए सातवें नरक गया । महापुराण में नगर का नाम छत्रपुर, मंत्री का नाम चित्रमति और मुनि का नाम धर्मरुचि तथा भरकर इसका हाथी की पर्याय में जन्म लेना बताया गया है । <span class="GRef"> महापुराण 59-254-257, 265-267</span>, <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_27#97|हरिवंशपुराण - 27.97-103]] </span></p> | ||
</div> | |||
<noinclude> | <noinclude> | ||
Line 10: | Line 10: | ||
[[Category: पुराण-कोष]] | [[Category: पुराण-कोष]] | ||
[[Category: व]] | [[Category: व]] | ||
[[Category: प्रथमानुयोग]] |
Latest revision as of 15:21, 27 November 2023
भरतक्षेत्र में चित्रकारपुर नगर के राजा प्रीतिभद्र के मंत्री चित्रबुद्धि का पुत्र । कमला इसकी माँ थी । श्रुतसागर मुनि से तप का फल सुनकर यह तप करने लगा था । साकेतनगर में यह बुद्धिसेना को देखकर पथभ्रष्ट हो गया था यह उसे पाने के लिए गंधमित्र राजा का रसोइया बना । अपनी पाक कला से राजा को प्रसन्न करके इसने इस वेश्या को प्राप्त कर लिया था । अंत में भोग-भोगते हुए सातवें नरक गया । महापुराण में नगर का नाम छत्रपुर, मंत्री का नाम चित्रमति और मुनि का नाम धर्मरुचि तथा भरकर इसका हाथी की पर्याय में जन्म लेना बताया गया है । महापुराण 59-254-257, 265-267, हरिवंशपुराण - 27.97-103