वैश्य: Difference between revisions
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<p><span class="GRef"> महापुराण /सर्ग/श्लोक</span>-<span class="SanskritText">‘‘वैश्याश्च कृषिवाणिज्यपाशुपाल्योपजीविताः । (16/104) । ऊरुभ्यां दर्शयन् यात्राम् अस्राक्षीद् वणिजः प्रभुः । जलस्थलादियात्राभिः तद्वृत्तिर्वार्त्तया यतः । (16/244) । वणिजोऽर्थार्जनान्न्याय्यात् । (38/46) । </span>= <span class="HindiText">जो खेती, व्यापार तथा पशुपालन आदि के द्वारा जीविका करते थे वे वैश्य कहलाते थे । (16/184) । भगवान् ने अपने ऊरुओं से यात्रा दिखलाकर अर्थात् परदेश जाना सिखलाकार वैश्यों की रचना की सो ठीक ही है, क्योंकि जल, स्थल आदि प्रदेशों में यात्रा कर व्यापार करना ही उनकी मुख्य आजीविका है । (16/244) । न्यायापूर्वक धन कमाने से वैश्य होता है । (38/46) । </span></p> | |||
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Latest revision as of 15:25, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
महापुराण /सर्ग/श्लोक-‘‘वैश्याश्च कृषिवाणिज्यपाशुपाल्योपजीविताः । (16/104) । ऊरुभ्यां दर्शयन् यात्राम् अस्राक्षीद् वणिजः प्रभुः । जलस्थलादियात्राभिः तद्वृत्तिर्वार्त्तया यतः । (16/244) । वणिजोऽर्थार्जनान्न्याय्यात् । (38/46) । = जो खेती, व्यापार तथा पशुपालन आदि के द्वारा जीविका करते थे वे वैश्य कहलाते थे । (16/184) । भगवान् ने अपने ऊरुओं से यात्रा दिखलाकर अर्थात् परदेश जाना सिखलाकार वैश्यों की रचना की सो ठीक ही है, क्योंकि जल, स्थल आदि प्रदेशों में यात्रा कर व्यापार करना ही उनकी मुख्य आजीविका है । (16/244) । न्यायापूर्वक धन कमाने से वैश्य होता है । (38/46) ।
पुराणकोष से
चार वर्णों में एक वर्ण । ये न्यायपूर्वक अर्थोपार्जन करते हैं । वृषभदेव ने यात्रा करना सिखाकर इस वर्ण की रचना की थी । जल, स्थल आदि प्रदेशों में व्यापार और पशुपालन करना इस वर्ण की आजीविका के साधन है । महापुराण 16. 104, 244, 38.46, हरिवंशपुराण - 9.39, 17.84, पांडवपुराण 2.161