शब्दाद्वैत: Difference between revisions
From जैनकोष
mNo edit summary |
(Imported from text file) |
||
Line 4: | Line 4: | ||
<span class="GRef">न्यायकुमुदचंद्र पृ. 139-140 </span><p class="SanskritText">यींगजमयोगजं वा प्रत्यक्षं शब्दब्रह्मोल्लेख्येवावभासते बाह्याध्यात्मिकार्थेषूत्पद्यमानस्यास्य शब्दानुविद्धत्वेनैवोत्पत्तेः, तत्संस्पर्शवैकल्ये प्रत्ययानां प्रकाशमानतया दुर्घटत्वात्। वाश्रूपतां हि शाश्वतो प्रत्यवमर्शिनी च, तदभावे तेषां नापरं रूपमव शिष्यते। </p> | <span class="GRef">न्यायकुमुदचंद्र पृ. 139-140 </span><p class="SanskritText">यींगजमयोगजं वा प्रत्यक्षं शब्दब्रह्मोल्लेख्येवावभासते बाह्याध्यात्मिकार्थेषूत्पद्यमानस्यास्य शब्दानुविद्धत्वेनैवोत्पत्तेः, तत्संस्पर्शवैकल्ये प्रत्ययानां प्रकाशमानतया दुर्घटत्वात्। वाश्रूपतां हि शाश्वतो प्रत्यवमर्शिनी च, तदभावे तेषां नापरं रूपमव शिष्यते। </p> | ||
<p class="HindiText">= समस्त योगज अथवा अयोगज प्रत्यक्ष शब्दब्रह्म का उल्लेख करनेवाले ही अवभासित होते हैं। क्योंकि बाह्य या आध्यात्मिक अर्थों में उत्पन्न होनेवाला यह प्रत्यक्ष शब्द से अनुविद्ध ही उत्पन्न होता है। शब्द के संस्पर्श के अभाव में ज्ञानों की प्रकाशमानता दुर्घट है, बन नहीं सकती। वाग्रूपता नित्य और प्रत्यवमर्शिनी है, उसके अभाव में ज्ञानों का कोई रूप शेष नहीं रहता।</p> | <p class="HindiText">= समस्त योगज अथवा अयोगज प्रत्यक्ष शब्दब्रह्म का उल्लेख करनेवाले ही अवभासित होते हैं। क्योंकि बाह्य या आध्यात्मिक अर्थों में उत्पन्न होनेवाला यह प्रत्यक्ष शब्द से अनुविद्ध ही उत्पन्न होता है। शब्द के संस्पर्श के अभाव में ज्ञानों की प्रकाशमानता दुर्घट है, बन नहीं सकती। वाग्रूपता नित्य और प्रत्यवमर्शिनी है, उसके अभाव में ज्ञानों का कोई रूप शेष नहीं रहता।</p> | ||
<li | <li class="HindiText">सभी अद्वैत दर्शन संग्रह नयाभासी हैं – देखें [[ अनेकांत#2.9 | अनेकांत - 2.9]]।</span></li><br> | ||
<ul><li | <ul><li class="HindiText">अधिक जानकारी के लिए देखें [[ अद्वैतवाद ]]।</ul></li></span> | ||
<noinclude> | <noinclude> |
Latest revision as of 15:25, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
शब्दाद्वैतवाद
न्यायकुमुदचंद्र पृ. 139-140
यींगजमयोगजं वा प्रत्यक्षं शब्दब्रह्मोल्लेख्येवावभासते बाह्याध्यात्मिकार्थेषूत्पद्यमानस्यास्य शब्दानुविद्धत्वेनैवोत्पत्तेः, तत्संस्पर्शवैकल्ये प्रत्ययानां प्रकाशमानतया दुर्घटत्वात्। वाश्रूपतां हि शाश्वतो प्रत्यवमर्शिनी च, तदभावे तेषां नापरं रूपमव शिष्यते।
= समस्त योगज अथवा अयोगज प्रत्यक्ष शब्दब्रह्म का उल्लेख करनेवाले ही अवभासित होते हैं। क्योंकि बाह्य या आध्यात्मिक अर्थों में उत्पन्न होनेवाला यह प्रत्यक्ष शब्द से अनुविद्ध ही उत्पन्न होता है। शब्द के संस्पर्श के अभाव में ज्ञानों की प्रकाशमानता दुर्घट है, बन नहीं सकती। वाग्रूपता नित्य और प्रत्यवमर्शिनी है, उसके अभाव में ज्ञानों का कोई रूप शेष नहीं रहता।
- अधिक जानकारी के लिए देखें अद्वैतवाद ।