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<p | <p><span class="GRef"> न्यायदीपिका/3/19/69 </span><span class="SanskritText">निश्चितसाध्यान्यथानुपपत्तिकं साधनम् । यस्य साध्याभावासंभवनियमरूपा व्याप्त्यविनाभावाद्यपरपर्याया साध्यान्यथानुपपत्तिस्तर्काख्येन प्रमाणेन निर्णीता तत्साधनमित्यर्थ:। तदुक्तं कुमारनंदिभट्टारकै:-''अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं लिंगमंगयते'' [वादन्याय] इति।</span> = <span class="HindiText">जिसकी साध्य के साथ अन्यथानुपपत्ति निश्चित है उसे साधन कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जिसकी साध्य के अभाव में नहीं होने रूप व्याप्ति, अविनाभाव आदि नामों वाली साध्यानुपपत्ति-साध्य के होने पर ही होना और साध्य के अभाव में नहीं होना-तर्क नाम के प्रमाण द्वारा निर्णीत है वह साधन है। श्री कुमारनंदि भट्टारक ने भी कहा है - ''अन्यथानुपपत्तिमात्र जिसका लक्षण है उसे लिंग कहा गया है।'' - (और भी देखें [[ हेतु#1.1 | हेतु - 1.1]])।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>2. चारित्र के अर्थ में</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>2. चारित्र के अर्थ में</strong></p> | ||
<p | <p><span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/2/14/21 </span><span class="SanskritText">उपयोगांतरेणांतर्हितानां दर्शनादिपरिणामानां निष्पादनं साधनं।</span>=<span class="HindiText">अन्य कार्य के प्रति ज्ञानोपयोग लगने से तिरोहित हुए दर्शनादि परिणामों को उत्पन्न करना, अर्थात् नित्य व नैमित्तिक कार्य करने में चित्त लगने से तिरोहित हुए सम्यग्दर्शनादिकों में से, किसी एक को पुन: उपायों के प्रयोग से संपूर्ण करना साधन कहलाता है।</span></p> | ||
<p><span class="HindiText">देखें [[ श्रावक_भेद_व_लक्षण#1.3.4 | श्रावक - 1.3.4 ]][मरण समय आहार व मन वचन काय के व्यापार का त्याग करके आत्मशुद्धि करना साधन है। उसको करने वाला श्रावक साधक श्रावक कहलाता है।]</span></p> | <p><span class="HindiText">देखें [[ श्रावक_भेद_व_लक्षण#1.3.4 | श्रावक - 1.3.4 ]][मरण समय आहार व मन वचन काय के व्यापार का त्याग करके आत्मशुद्धि करना साधन है। उसको करने वाला श्रावक साधक श्रावक कहलाता है।]</span></p> | ||
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<div class="HindiText"> <p> हिंसा आदि दोषों की शुद्धि के श्रावकाचार के तीन अंगों में तीसरा अंग-आयु के अंत में शरीर, आहार और अन्य व्यापारों का परित्याग कर ध्यानशुद्धि से आत्मशोधन करना । <span class="GRef"> महापुराण 39. 143-145, 149 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> हिंसा आदि दोषों की शुद्धि के श्रावकाचार के तीन अंगों में तीसरा अंग-आयु के अंत में शरीर, आहार और अन्य व्यापारों का परित्याग कर ध्यानशुद्धि से आत्मशोधन करना । <span class="GRef"> महापुराण 39. 143-145, 149 </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:30, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
1. लक्षण
1. हेतु के अर्थ में
श्लोकवार्तिक/3/1/13/ श्लोक 122/269 अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं तत्र साधनं। = अन्यथा अनुपपत्ति ही एक जिसका लक्षण है, वह साधन है। ( सिद्धि विनिश्चय/ वृत्ति/5/22/359/7); (और भी देखें हेतु - 1.1)।
न्यायदीपिका/3/19/69 निश्चितसाध्यान्यथानुपपत्तिकं साधनम् । यस्य साध्याभावासंभवनियमरूपा व्याप्त्यविनाभावाद्यपरपर्याया साध्यान्यथानुपपत्तिस्तर्काख्येन प्रमाणेन निर्णीता तत्साधनमित्यर्थ:। तदुक्तं कुमारनंदिभट्टारकै:-अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं लिंगमंगयते [वादन्याय] इति। = जिसकी साध्य के साथ अन्यथानुपपत्ति निश्चित है उसे साधन कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जिसकी साध्य के अभाव में नहीं होने रूप व्याप्ति, अविनाभाव आदि नामों वाली साध्यानुपपत्ति-साध्य के होने पर ही होना और साध्य के अभाव में नहीं होना-तर्क नाम के प्रमाण द्वारा निर्णीत है वह साधन है। श्री कुमारनंदि भट्टारक ने भी कहा है - अन्यथानुपपत्तिमात्र जिसका लक्षण है उसे लिंग कहा गया है। - (और भी देखें हेतु - 1.1)।
2. चारित्र के अर्थ में
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/2/14/21 उपयोगांतरेणांतर्हितानां दर्शनादिपरिणामानां निष्पादनं साधनं।=अन्य कार्य के प्रति ज्ञानोपयोग लगने से तिरोहित हुए दर्शनादि परिणामों को उत्पन्न करना, अर्थात् नित्य व नैमित्तिक कार्य करने में चित्त लगने से तिरोहित हुए सम्यग्दर्शनादिकों में से, किसी एक को पुन: उपायों के प्रयोग से संपूर्ण करना साधन कहलाता है।
देखें श्रावक - 1.3.4 [मरण समय आहार व मन वचन काय के व्यापार का त्याग करके आत्मशुद्धि करना साधन है। उसको करने वाला श्रावक साधक श्रावक कहलाता है।]
* अन्य संबंधित विषय
- कारण के अर्थ में साधन-देखें करण - I.1.1।
- साधन साध्य संबंध-देखें संबंध ।
- निश्चय व्यवहार में साध्य साधन भाव-देखें सम्यग्दर्शन II.1.2 ; ।
पुराणकोष से
हिंसा आदि दोषों की शुद्धि के श्रावकाचार के तीन अंगों में तीसरा अंग-आयु के अंत में शरीर, आहार और अन्य व्यापारों का परित्याग कर ध्यानशुद्धि से आत्मशोधन करना । महापुराण 39. 143-145, 149