स्वर: Difference between revisions
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<li><strong class="HindiText">स्वर नामकर्म निर्देश</strong> | <li id ="1"><strong class="HindiText">स्वर नामकर्म निर्देश</strong> | ||
<p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/11/391/12 </span><span class="SanskritText">यन्निमित्तं मनोज्ञस्वरनिर्वर्तनं तत्सुस्वरनाम। तद्विपरीतं दु:स्वरनाम।</span> =<span class="HindiText">जिसके निमित्त से मनोज्ञ स्वर की रचना होती है वह सुस्वर नामकर्म है। इससे विपरीत दु:स्वर नामकर्म है। | <p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/11/391/12 </span><span class="SanskritText">यन्निमित्तं मनोज्ञस्वरनिर्वर्तनं तत्सुस्वरनाम। तद्विपरीतं दु:स्वरनाम।</span> =<span class="HindiText">जिसके निमित्त से मनोज्ञ स्वर की रचना होती है वह सुस्वर नामकर्म है। इससे विपरीत दु:स्वर नामकर्म है। <span class="GRef">(राजवार्तिक/8/11/25-26/579/1); (धवला 6/1,9-1,28/65/3); (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/30/9)।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 13/5,5,101/366/1 </span><span class="PrakritText">जस्स कम्मस्सुदएण कण्णसुहो सरो होदि तं सुस्सरणामं। जस्स कम्मस्सुदएण खरोट्टाणं व कण्णसुहो सरो ण होदि तं दुस्सरणामं।</span> =<span class="HindiText">जिस कर्म के उदय से कानों को प्यारा लगने वाला स्वर होता है वह सुस्वर नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से गधा एवं ऊँट के समान कर्णों को प्रिय लगने वाला स्वर नहीं होता है वह दु:स्वर नामकर्म है।</span></p> </li> | <p><span class="GRef"> धवला 13/5,5,101/366/1 </span><span class="PrakritText">जस्स कम्मस्सुदएण कण्णसुहो सरो होदि तं सुस्सरणामं। जस्स कम्मस्सुदएण खरोट्टाणं व कण्णसुहो सरो ण होदि तं दुस्सरणामं।</span> =<span class="HindiText">जिस कर्म के उदय से कानों को प्यारा लगने वाला स्वर होता है वह सुस्वर नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से गधा एवं ऊँट के समान कर्णों को प्रिय लगने वाला स्वर नहीं होता है वह दु:स्वर नामकर्म है।</span></p> </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong>षड्ज आदि स्वर निर्देश</strong></span></p> | <li id = "2"><span class="HindiText"><strong>षड्ज आदि स्वर निर्देश</strong></span></p> | ||
<p><span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/186/123/1 </span><span class="SanskritText">निषादर्षभगांधारषड्जमध्यमधैवता:। पंचमश्चैति सप्तैते तंत्रीकंठोत्थिता: स्वरा:।1। कंठदेशे स्थित: षड्ज: शिर:स्थ ऋषभस्तथा। नासिकायां च गांधारो हृदये मध्यमो भवेत् ।2। पंचमश्च मुखे ज्ञेयस्तालुदेशे तु धैवत:। निषाद: सर्वगात्रे च ज्ञेया: सप्तस्वरा इति।3। निषादं कुंजरो वक्ति ब्रूते गौ ऋषभं तथा। अजा वदति गांधारं षड्जं ब्रूते भुजंगभुक् ।4। व्रवीति मध्यमं क्रौंचौ धैवतं च तुरंगम:। पुष्पसंधारणे काले पिक: कूजति पंचमम् ।5।</span> =<span class="HindiText">निषाद, ऋषभ, गांधार, षड्ज, मध्यम, धैवत और पंचम ये सात स्वर तंत्री रूप कंठ से उत्पन्न होते हैं।1। जो स्वर कंठ देश में स्थित होता है, उसे षड्ज कहते हैं। जो स्वर शिरोदेश में स्थित होता है उसे ऋषभ कहते हैं। जो स्वर नासिका देश में स्थित होता है उसे गांधार कहते हैं। जो स्वर हृदय देश में स्थित होता है उसे मध्यम कहते हैं।2। मुख देश में स्थित स्वर को पंचम कहते हैं। तालु देश में स्थित स्वर को धैवत कहते हैं और सर्व शरीर में स्थित स्वर को निषाद कहते हैं। इस तरह ये सात स्वर जानने चाहिए।3। हाथी का स्वर निषाद है। गौ का स्वर वृषभ है। बकरी का स्वर गांधार है और गरुड़ का स्वर षड्ज है। क्रौंच पक्षी का शब्द मध्यम है। अश्व का स्वर धैवत है और वसंत ऋतु में कोयल पंचम स्वर से कूजती है।</span></li></ol> | <p><span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/186/123/1 </span><span class="SanskritText">निषादर्षभगांधारषड्जमध्यमधैवता:। पंचमश्चैति सप्तैते तंत्रीकंठोत्थिता: स्वरा:।1। कंठदेशे स्थित: षड्ज: शिर:स्थ ऋषभस्तथा। नासिकायां च गांधारो हृदये मध्यमो भवेत् ।2। पंचमश्च मुखे ज्ञेयस्तालुदेशे तु धैवत:। निषाद: सर्वगात्रे च ज्ञेया: सप्तस्वरा इति।3। निषादं कुंजरो वक्ति ब्रूते गौ ऋषभं तथा। अजा वदति गांधारं षड्जं ब्रूते भुजंगभुक् ।4। व्रवीति मध्यमं क्रौंचौ धैवतं च तुरंगम:। पुष्पसंधारणे काले पिक: कूजति पंचमम् ।5।</span> =<span class="HindiText">निषाद, ऋषभ, गांधार, षड्ज, मध्यम, धैवत और पंचम ये सात स्वर तंत्री रूप कंठ से उत्पन्न होते हैं।1। जो स्वर कंठ देश में स्थित होता है, उसे षड्ज कहते हैं। जो स्वर शिरोदेश में स्थित होता है उसे ऋषभ कहते हैं। जो स्वर नासिका देश में स्थित होता है उसे गांधार कहते हैं। जो स्वर हृदय देश में स्थित होता है उसे मध्यम कहते हैं।2। मुख देश में स्थित स्वर को पंचम कहते हैं। तालु देश में स्थित स्वर को धैवत कहते हैं और सर्व शरीर में स्थित स्वर को निषाद कहते हैं। इस तरह ये सात स्वर जानने चाहिए।3। हाथी का स्वर निषाद है। गौ का स्वर वृषभ है। बकरी का स्वर गांधार है और गरुड़ का स्वर षड्ज है। क्रौंच पक्षी का शब्द मध्यम है। अश्व का स्वर धैवत है और वसंत ऋतु में कोयल पंचम स्वर से कूजती है।</span></li></ol> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<div class="HindiText"> <p id="1"> (1) संगीत कला से संबंधित सात स्वर—(1) मध्यम (2) ऋषभ (3) गांधार (4) षड्ज (5) पंचम (6) धैवत और (7) निषाद । ये आरोही और अवरोही दोनों होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 75.623 </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 17.277, 24.8 </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText"> (1) संगीत कला से संबंधित सात स्वर—(1) मध्यम (2) ऋषभ (3) गांधार (4) षड्ज (5) पंचम (6) धैवत और (7) निषाद । ये आरोही और अवरोही दोनों होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 75.623 </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_17#277|पद्मपुराण - 17.277]], 24.8 </span></p> | ||
<p id="2">(2) अष्टांग निमित्तज्ञान का एक भेद । यह दो प्रकार का होता है― दुस्वर और सुस्वर । इनमें मृदंग आदि अचेतन और हाथी आदि चेतन पदार्थों के सुस्वर से इष्ट और दुस्वर से अनिष्ट पदार्थ के प्राप्त होने का संकेत प्राप्त होता है । <span class="GRef"> महापुराण 62.181, 186 </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 10. 117 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) अष्टांग निमित्तज्ञान का एक भेद । यह दो प्रकार का होता है― दुस्वर और सुस्वर । इनमें मृदंग आदि अचेतन और हाथी आदि चेतन पदार्थों के सुस्वर से इष्ट और दुस्वर से अनिष्ट पदार्थ के प्राप्त होने का संकेत प्राप्त होता है । <span class="GRef"> महापुराण 62.181, 186 </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_10#117|हरिवंशपुराण - 10.117]] </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:31, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
- स्वर नामकर्म निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/8/11/391/12 यन्निमित्तं मनोज्ञस्वरनिर्वर्तनं तत्सुस्वरनाम। तद्विपरीतं दु:स्वरनाम। =जिसके निमित्त से मनोज्ञ स्वर की रचना होती है वह सुस्वर नामकर्म है। इससे विपरीत दु:स्वर नामकर्म है। (राजवार्तिक/8/11/25-26/579/1); (धवला 6/1,9-1,28/65/3); (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/30/9)।
धवला 13/5,5,101/366/1 जस्स कम्मस्सुदएण कण्णसुहो सरो होदि तं सुस्सरणामं। जस्स कम्मस्सुदएण खरोट्टाणं व कण्णसुहो सरो ण होदि तं दुस्सरणामं। =जिस कर्म के उदय से कानों को प्यारा लगने वाला स्वर होता है वह सुस्वर नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से गधा एवं ऊँट के समान कर्णों को प्रिय लगने वाला स्वर नहीं होता है वह दु:स्वर नामकर्म है।
- षड्ज आदि स्वर निर्देश
कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/186/123/1 निषादर्षभगांधारषड्जमध्यमधैवता:। पंचमश्चैति सप्तैते तंत्रीकंठोत्थिता: स्वरा:।1। कंठदेशे स्थित: षड्ज: शिर:स्थ ऋषभस्तथा। नासिकायां च गांधारो हृदये मध्यमो भवेत् ।2। पंचमश्च मुखे ज्ञेयस्तालुदेशे तु धैवत:। निषाद: सर्वगात्रे च ज्ञेया: सप्तस्वरा इति।3। निषादं कुंजरो वक्ति ब्रूते गौ ऋषभं तथा। अजा वदति गांधारं षड्जं ब्रूते भुजंगभुक् ।4। व्रवीति मध्यमं क्रौंचौ धैवतं च तुरंगम:। पुष्पसंधारणे काले पिक: कूजति पंचमम् ।5। =निषाद, ऋषभ, गांधार, षड्ज, मध्यम, धैवत और पंचम ये सात स्वर तंत्री रूप कंठ से उत्पन्न होते हैं।1। जो स्वर कंठ देश में स्थित होता है, उसे षड्ज कहते हैं। जो स्वर शिरोदेश में स्थित होता है उसे ऋषभ कहते हैं। जो स्वर नासिका देश में स्थित होता है उसे गांधार कहते हैं। जो स्वर हृदय देश में स्थित होता है उसे मध्यम कहते हैं।2। मुख देश में स्थित स्वर को पंचम कहते हैं। तालु देश में स्थित स्वर को धैवत कहते हैं और सर्व शरीर में स्थित स्वर को निषाद कहते हैं। इस तरह ये सात स्वर जानने चाहिए।3। हाथी का स्वर निषाद है। गौ का स्वर वृषभ है। बकरी का स्वर गांधार है और गरुड़ का स्वर षड्ज है। क्रौंच पक्षी का शब्द मध्यम है। अश्व का स्वर धैवत है और वसंत ऋतु में कोयल पंचम स्वर से कूजती है।
* अन्य संबंधित विषय
- स्वरों की अपेक्षा अक्षर के भेद-प्रभेद।-देखें अक्षर ।
- सुस्वर दु:स्वर नामकर्म की प्रकृतियों की बंध उदय सत्त्व प्ररूपणाएँ व तत्संबंधी नियम व शंका-समाधानादि।-देखें वह वह नाम ।
- विकलेंद्रिय में दु:स्वर ही होता है तथा तत्संबंधी शंका-समाधान।-देखें उदय - 5.4।
पुराणकोष से
(1) संगीत कला से संबंधित सात स्वर—(1) मध्यम (2) ऋषभ (3) गांधार (4) षड्ज (5) पंचम (6) धैवत और (7) निषाद । ये आरोही और अवरोही दोनों होते हैं । महापुराण 75.623 पद्मपुराण - 17.277, 24.8
(2) अष्टांग निमित्तज्ञान का एक भेद । यह दो प्रकार का होता है― दुस्वर और सुस्वर । इनमें मृदंग आदि अचेतन और हाथी आदि चेतन पदार्थों के सुस्वर से इष्ट और दुस्वर से अनिष्ट पदार्थ के प्राप्त होने का संकेत प्राप्त होता है । महापुराण 62.181, 186 हरिवंशपुराण - 10.117