असत्: Difference between revisions
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<p>( सप्तभंग तरंंगिनी पृष्ठ 54/1)</p> | <span class="HindiText">= वह सत् भी सिद्ध हो जाता है। यथा-कोई जीव मेंढक था और वही जीव जब युवती की पर्याय को धारण करता है तो भूतपूर्व नय की अपेक्षा उस युवती को भी हम मेंढक कह ही सकते हैं। और उसके युवती पर्यायापन्न मंडूक की शिखा होने से मंडूक-शिखंड व्यवहार हो सकता है। इसी प्रकार वंध्यापुत्र व शशविषाणादि में भी लागू करना चाहिए। <b>प्रश्न</b> - आकाशपुष्प में कैसे लागू होता है? <b>उत्तर</b> - वनस्पति नामकर्म का जिस जीव के उदय है। वह जीव और पुद्गल का समुदाय पुष्प कहा जाता है। जिस प्रकार वृक्ष के द्वारा व्याप्त होने से वह पुष्प पुद्गल वृक्ष का कहा जाता है, उसी तरह आकाश के द्वारा व्याप्त होने के कारण आकाश का क्यों न कहा जाय? वृक्ष के द्वारा उपकृत होने के कारण यदि वह वृक्ष का कहा जाता है तो आकाशकृत अवगाहन रूप उपकार की अपेक्षा उसे आकाश का भी कहना चाहिए। वृक्ष से टूटकर फूल गिर भी जाय पर आकाश से तो कभी भी दूर नही हो सकता। सदा आकाश में ही रहता है। अथवा मंडूकशिंड विषयक ज्ञान का विषय होने से भी (ज्ञान नय की अपेक्षा) मंडूक शिखंड का सद्भाव सिद्ध मानना चाहिए।</span><br /> | ||
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<span class="HindiText">= कोई जीव जो पहिले खर था, मरकर गौ उत्पन्न हुआ और उसके सींग निकल आये। ऐसी दशा में एक जीव की अपेक्षा अर्थरूप से भी `खरविषाण' प्रयोग हो ही जाता है।</span></li></ol> | |||
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Latest revision as of 21:31, 8 December 2023
- अर्थ
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/32/138/7 असदविद्यमाननित्यर्थः। = असत् का अर्थ अविद्यमान है।
न.वि./वृ.1/4/121/7 न सदिति विजातीयविशेषव्यापक्त्वेन न गच्छतीत्यसत्। = जो विशेष व्यापक रूप से प्राप्त होता हो सो असत् है। - आकाशपुष्पादि असंभव वस्तुओं का कथंचित् सत्त्व
राजवार्तिक अध्याय 2/8/18/121/22 कर्मावेशवशात् नानाजातिसंबंधमापन्नवती जीवतो जीवस्य मंडूकभावावाप्तौ तत्व्यपदेशभाजः पुनर्युवतिजन्मन्यवाप्ते `यः शिखंडकः स एवायम्' इत्येकजीवसंबंधित्वात् मंडूकशिखंड इत्यस्ति। एवं बंध्यापुत्र-शशविषाणादिष्वपि योज्यम्। आकाशकुसुमे कथम्। तत्रापि यथा वनस्पतिनामकर्मोदयापादित विशेषस्य वृक्षस्य जीवपुद्गलसमुदायस्य पुष्पमिति व्यपदिश्यते, अन्यदपि पुद्गलद्रव्यं पुष्पभावेन परिणतं तेन व्याप्तव्यात्। एवमाकाशेनातिव्याप्तत्वं समानमिति तत्तस्यापीति व्यपदेशो युक्तः। अथ तत्कृतोपकारापेक्षया तस्येत्युच्यतेः आकाशकृतावगाहनोपकारापेक्षया कथ तस्य न स्यात्। वृक्षात् प्रच्युतमप्याकाशान्न प्रच्यवते इति नित्यं तत्संबंधि। अथ अर्थांतरभावात्तस्य न स्यादिति मतम्; वृक्षस्यापि न स्यात्। = वह सत् भी सिद्ध हो जाता है। यथा-कोई जीव मेंढक था और वही जीव जब युवती की पर्याय को धारण करता है तो भूतपूर्व नय की अपेक्षा उस युवती को भी हम मेंढक कह ही सकते हैं। और उसके युवती पर्यायापन्न मंडूक की शिखा होने से मंडूक-शिखंड व्यवहार हो सकता है। इसी प्रकार वंध्यापुत्र व शशविषाणादि में भी लागू करना चाहिए। प्रश्न - आकाशपुष्प में कैसे लागू होता है? उत्तर - वनस्पति नामकर्म का जिस जीव के उदय है। वह जीव और पुद्गल का समुदाय पुष्प कहा जाता है। जिस प्रकार वृक्ष के द्वारा व्याप्त होने से वह पुष्प पुद्गल वृक्ष का कहा जाता है, उसी तरह आकाश के द्वारा व्याप्त होने के कारण आकाश का क्यों न कहा जाय? वृक्ष के द्वारा उपकृत होने के कारण यदि वह वृक्ष का कहा जाता है तो आकाशकृत अवगाहन रूप उपकार की अपेक्षा उसे आकाश का भी कहना चाहिए। वृक्ष से टूटकर फूल गिर भी जाय पर आकाश से तो कभी भी दूर नही हो सकता। सदा आकाश में ही रहता है। अथवा मंडूकशिंड विषयक ज्ञान का विषय होने से भी (ज्ञान नय की अपेक्षा) मंडूक शिखंड का सद्भाव सिद्ध मानना चाहिए।
राजवार्तिक अध्याय 5/18/10/467/32 खरो मृतः गौर्जातः स एव जीव इत्येकजीवविवक्षायां खरव्यपदेशभाजो जीवस्य गोजातिसंक्रमे विषाणोपलब्धेः अर्थखरविषाणस्यापि जात्यस्तित्वसद्भावात् उभयधर्मासिद्धता। = कोई जीव जो पहिले खर था, मरकर गौ उत्पन्न हुआ और उसके सींग निकल आये। ऐसी दशा में एक जीव की अपेक्षा अर्थरूप से भी `खरविषाण' प्रयोग हो ही जाता है।
(सप्तभंग तरंंगिनी पृष्ठ 54/1)
• असत् का उत्पाद असंभव है - देखें सत् - 1.4