काललब्धि: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
Trupti Jain (talk | contribs) No edit summary |
||
(4 intermediate revisions by 3 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
== सिद्धांतकोष से == | | ||
देखें [[ नियति#2 | नियति - 2]]। | == सिद्धांतकोष से == | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/3/10 </span><span class="SanskritText"> अनादिमिथ्यादृष्टेर्भव्यस्य कर्मोदयापादितकालुष्ये सति कुतस्तदुपशम:। काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात् । तत्र काललब्धिस्तावत् – कर्माविष्ट आत्मा भव्य: कालेऽर्द्धपुद्गलपरिवर्त्तनाख्येऽवशिष्टे प्रथमसम्यक्त्वग्रहणस्य योग्यो भवतिनाधिके इति। इयमेका काललब्धि:। अपरा कर्मस्थितिका काललब्धि:। उत्कृष्टस्थितिकेषु कर्मसु जघन्यस्थितिकेषु च प्रथमसमयक्त्वलाभो न भवति। क्व तर्हि भवति। अंत: कोटाकोटीसागरोपमस्थितिकेषुकर्मसु बंधमापद्यमानेषु विशुद्धपरिणामवशात्सकर्मसु च तत: संख्येयसागरोपमसहस्रोनायामंत:कोटाकोटीसागरोपमस्थितौ स्थापितेषु प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवति। अपरा काललब्धिर्भवापेक्षया। भव्य: पंचेंद्रिय: संज्ञी पर्याप्तक: सर्वविशुद्ध: प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयति।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य के कर्मों के उदय से प्राप्त कलुषता के रहते हुए इन (कर्म प्रकृतियों का) उपशम कैसे होता है ? | |||
<strong>उत्तर</strong>–काललब्धि आदि के निमित्त से इनका उपशम होता है। अब यहाँ '''काललब्धि''' को बतलाते हैं–कर्मयुक्त कोई भी भव्य आत्मा अर्धपुद्गलपरिवर्तन नाम के काल के शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व के ग्रहण करने के योग्य होता है, इससे अधिक काल के शेष रहने पर नहीं होता, (संसारस्थिति संबंधी) यह एक काललब्धि है। <span class="GRef">( कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/188/125/7 )</span> दूसरी '''काललब्धि''' का संबंध कर्मस्थिति से है। उत्कृष्ट स्थिति वाले कर्मों के शेष रहने पर या जघन्य स्थितिवाले कर्मों के शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व का लाभ नहीं होता। <strong> | |||
प्रश्न</strong>–तो फिर किस अवस्था में होता है? <strong> | |||
उत्तर</strong>–जब बँधने वाले कर्मों की स्थिति अंत:कोड़ाकोड़ी सागर पड़ती है, और विशुद्ध परिणामों के वश से सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति संख्यात हजार सागर कम अंत:कोड़ाकोड़ी सागर प्राप्त होती है। तब (अर्थात् प्रायोग्यलब्धि के होने पर) यह जीव प्रथम सम्यक्त्व के योग्य होता है। एक '''काललब्धि''' भव की अपेक्षा होती है–जो भव्य है, संज्ञी है, पर्याप्तक है और सर्वविशुद्ध है, वह प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/2/3/2/204/19 )</span>; (और भी देखें [[ नियति#2.3.2 | नियति - 2.3.2]]) देखें [[ नय#I.5.4 | नय - I.5.4 ]]नय नं.19 कालनय से आत्म द्रव्य की सिद्धि समय पर आधारित है, जैसे कि गर्मी के दिनों में आम्रफल अपने समय पर स्वयं पक जाता है।<br /></span> | |||
<span class="HindiText"> देखें [[ नियति#2 | नियति - 2]]। | |||
<noinclude> | <noinclude> | ||
Line 12: | Line 22: | ||
== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<span class="HindiText"> काल आदि पांच लब्धियों में एक लब्धि-कार्य संपन्न होने का समय । विशुद्ध सम्यग्दर्शन की उपलब्धि का बहिरंग कारण । इसके बिना जीवों को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती । भव्य जीव को भी इसके बिना संसार में भ्रमण करना पड़ता है । इसका निमित्त पाकर जीव अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप तीन परिणामों से मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों का उपशम करता है तथा संसार की परिपाटी का विच्छेद कर उपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है । <span class="GRef"> महापुराण 9.115-116, 15.53, 17.43, 47.386, 48.84, 63. 314-315 </span> | |||
<noinclude> | <noinclude> | ||
Line 23: | Line 33: | ||
[[Category: पुराण-कोष]] | [[Category: पुराण-कोष]] | ||
[[Category: क]] | [[Category: क]] | ||
[[Category: करणानुयोग]] |
Latest revision as of 18:49, 14 December 2023
सिद्धांतकोष से
सर्वार्थसिद्धि/2/3/10 अनादिमिथ्यादृष्टेर्भव्यस्य कर्मोदयापादितकालुष्ये सति कुतस्तदुपशम:। काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात् । तत्र काललब्धिस्तावत् – कर्माविष्ट आत्मा भव्य: कालेऽर्द्धपुद्गलपरिवर्त्तनाख्येऽवशिष्टे प्रथमसम्यक्त्वग्रहणस्य योग्यो भवतिनाधिके इति। इयमेका काललब्धि:। अपरा कर्मस्थितिका काललब्धि:। उत्कृष्टस्थितिकेषु कर्मसु जघन्यस्थितिकेषु च प्रथमसमयक्त्वलाभो न भवति। क्व तर्हि भवति। अंत: कोटाकोटीसागरोपमस्थितिकेषुकर्मसु बंधमापद्यमानेषु विशुद्धपरिणामवशात्सकर्मसु च तत: संख्येयसागरोपमसहस्रोनायामंत:कोटाकोटीसागरोपमस्थितौ स्थापितेषु प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवति। अपरा काललब्धिर्भवापेक्षया। भव्य: पंचेंद्रिय: संज्ञी पर्याप्तक: सर्वविशुद्ध: प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयति। =प्रश्न–अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य के कर्मों के उदय से प्राप्त कलुषता के रहते हुए इन (कर्म प्रकृतियों का) उपशम कैसे होता है ?
उत्तर–काललब्धि आदि के निमित्त से इनका उपशम होता है। अब यहाँ काललब्धि को बतलाते हैं–कर्मयुक्त कोई भी भव्य आत्मा अर्धपुद्गलपरिवर्तन नाम के काल के शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व के ग्रहण करने के योग्य होता है, इससे अधिक काल के शेष रहने पर नहीं होता, (संसारस्थिति संबंधी) यह एक काललब्धि है। ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/188/125/7 ) दूसरी काललब्धि का संबंध कर्मस्थिति से है। उत्कृष्ट स्थिति वाले कर्मों के शेष रहने पर या जघन्य स्थितिवाले कर्मों के शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व का लाभ नहीं होता।
प्रश्न–तो फिर किस अवस्था में होता है?
उत्तर–जब बँधने वाले कर्मों की स्थिति अंत:कोड़ाकोड़ी सागर पड़ती है, और विशुद्ध परिणामों के वश से सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति संख्यात हजार सागर कम अंत:कोड़ाकोड़ी सागर प्राप्त होती है। तब (अर्थात् प्रायोग्यलब्धि के होने पर) यह जीव प्रथम सम्यक्त्व के योग्य होता है। एक काललब्धि भव की अपेक्षा होती है–जो भव्य है, संज्ञी है, पर्याप्तक है और सर्वविशुद्ध है, वह प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है। ( राजवार्तिक/2/3/2/204/19 ); (और भी देखें नियति - 2.3.2) देखें नय - I.5.4 नय नं.19 कालनय से आत्म द्रव्य की सिद्धि समय पर आधारित है, जैसे कि गर्मी के दिनों में आम्रफल अपने समय पर स्वयं पक जाता है।
देखें नियति - 2।
पुराणकोष से
काल आदि पांच लब्धियों में एक लब्धि-कार्य संपन्न होने का समय । विशुद्ध सम्यग्दर्शन की उपलब्धि का बहिरंग कारण । इसके बिना जीवों को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती । भव्य जीव को भी इसके बिना संसार में भ्रमण करना पड़ता है । इसका निमित्त पाकर जीव अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप तीन परिणामों से मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों का उपशम करता है तथा संसार की परिपाटी का विच्छेद कर उपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है । महापुराण 9.115-116, 15.53, 17.43, 47.386, 48.84, 63. 314-315