दीक्षा: Difference between revisions
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वैराग्य की उत्तम भूमिका को प्राप्त होकर मुमुक्षु व्यक्ति अपने सब सगे-संबंधियों से क्षमा माँगकर, गुरु की शरण में जा, संपूर्ण परिग्रह का त्याग कर देता है और ज्ञाता-द्रष्टा रहता हुआ साम्य जीवन बिताने की प्रतिज्ञा करता है । इसे ही प्रव्रज्या या जिनदीक्षा कहते हैं । | |||
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<div class="HindiText"> <p class="HindiText"> संसार से विरक्त होकर मुक्ति प्रदायक व्रतों को जिनेंद्र अथवा आचार्य के चरणों में पहुँचकर ग्रहण करना । उत्तम कुलोत्पन्न, विशुद्ध गोत्र, सच्चरित्र, प्रतिभावान् और सौम्य पुरुष ही दीक्षा के पात्र होते हैं । यह सूर्यग्रहण, चंद्रग्रहण, दुष्टग्रहोदय तथा ग्रह संयुक्ति के समय नहीं दी जाती तथा अधिक मास, क्षीणमास, अधिक तिथि और क्षीणतिथि में भी नहीं दी जाती । <span class="GRef"> महापुराण 39. 3-5, 158-160, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_59#119|हरिवंशपुराण - 59.119-120]] </span></p> | |||
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Latest revision as of 22:58, 18 December 2023
सिद्धांतकोष से
वैराग्य की उत्तम भूमिका को प्राप्त होकर मुमुक्षु व्यक्ति अपने सब सगे-संबंधियों से क्षमा माँगकर, गुरु की शरण में जा, संपूर्ण परिग्रह का त्याग कर देता है और ज्ञाता-द्रष्टा रहता हुआ साम्य जीवन बिताने की प्रतिज्ञा करता है । इसे ही प्रव्रज्या या जिनदीक्षा कहते हैं । अधिक जानकारी के लिए देखें प्रव्रज्या ।
पुराणकोष से
संसार से विरक्त होकर मुक्ति प्रदायक व्रतों को जिनेंद्र अथवा आचार्य के चरणों में पहुँचकर ग्रहण करना । उत्तम कुलोत्पन्न, विशुद्ध गोत्र, सच्चरित्र, प्रतिभावान् और सौम्य पुरुष ही दीक्षा के पात्र होते हैं । यह सूर्यग्रहण, चंद्रग्रहण, दुष्टग्रहोदय तथा ग्रह संयुक्ति के समय नहीं दी जाती तथा अधिक मास, क्षीणमास, अधिक तिथि और क्षीणतिथि में भी नहीं दी जाती । महापुराण 39. 3-5, 158-160, हरिवंशपुराण - 59.119-120