प्रायश्चित्त: Difference between revisions
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== सिद्धांतकोष से == | | ||
<p class="HindiText">प्रतिसमय लगने वाले अंतरंग व बाह्य दोषों की निवृत्ति करके अंतर्शोधन करने के लिए किया गया पश्चात्ताप या दंड के रूप से उपवास आदि का ग्रहण प्रायश्चित कहलाता है, जो अनेक प्रकार का होता है । बाह्य दोषों का | == सिद्धांतकोष से == | ||
<ol> | <p class="HindiText">प्रतिसमय लगने वाले अंतरंग व बाह्य दोषों की निवृत्ति करके अंतर्शोधन करने के लिए किया गया पश्चात्ताप या दंड के रूप से उपवास आदि का ग्रहण प्रायश्चित कहलाता है, जो अनेक प्रकार का होता है । बाह्य दोषों का प्रायश्चित पश्चात्ताप मात्र से हो जाता है । पर अंतरंग दोषों का प्रायश्चित्त गुरु के समक्ष सरल मन से आलोचना पूर्वक दंड को स्वीकार किये बिना नहीं हो सकता है । परंतु इस प्रकार के प्रायश्चित्त अर्थात् दंड शास्त्र में अत्यंत निपुण व कुशल आचार्य ही शिष्य की शक्ति व योग्यता को देखकर देते हैं, अन्य नहीं ।</p> | ||
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<li class="HindiText"><strong> [[#1 | भेद व लक्षण]]</strong><br /> | |||
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<li class="HindiText"> निरुक्त्यर्थ | <li class="HindiText"> निरुक्त्यर्थ, </li> | ||
<li class="HindiText"> निश्चय की अपेक्षा | <li class="HindiText"> निश्चय की अपेक्षा, </li> | ||
<li class="HindiText"> व्यवहार की अपेक्षा ।<br /> | <li class="HindiText"> व्यवहार की अपेक्षा ।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> प्रायश्चित्त के भेद ।<br /> | <li class="HindiText">[[#1.2| प्रायश्चित्त के भेद ।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> प्रायश्चित्त के भेदों के लक्षण ।<br /> | <li class="HindiText"> [[#1.3| प्रायश्चित्त के भेदों के लक्षण ।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> देखें - [[आलोचना]], [[प्रतिक्रमण]], [[विवेक]], [[व्युत्सर्ग]], [[तप]] व [[परिहार प्रायश्चित्त]] संबंधी विषय ।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[#2| प्रायश्चित्त निर्देश]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> प्रायश्चित्त की व्याप्ति अंतरंग के साथ है ।<br /> | <li class="HindiText"> [[#2.1| प्रायश्चित्त की व्याप्ति अंतरंग के साथ है ।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> प्रायश्चित्त के अतिसार ।<br /> | <li class="HindiText"> [[#2.2| प्रायश्चित्त के अतिसार ।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> अपराध होते ही प्रायश्चित्त लेना चाहिए ।<br /> | <li class="HindiText"> [[#2.3| अपराध होते ही प्रायश्चित्त लेना चाहिए ।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> बाह्य दोष का प्रायश्चित्त स्वयं तथा अंतरंग दोष का गुरु के निकट लेना चाहिए ।<br /> | <li class="HindiText"> [[#2.4| बाह्य दोष का प्रायश्चित्त स्वयं तथा अंतरंग दोष का गुरु के निकट लेना चाहिए ।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> आत्म भावना से च्युत होने पर पश्चात्ताप ही प्रायश्चित्त है ।<br /> | <li class="HindiText"> [[#2.5| आत्म भावना से च्युत होने पर पश्चात्ताप ही प्रायश्चित्त है ।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> दोष लगने पर प्रायश्चित्त होता है सर्वदा नहीं ।<br /> | <li class="HindiText"> [[#2.6| दोष लगने पर प्रायश्चित्त होता है सर्वदा नहीं ।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> प्रायश्चित्त शास्त्र को जाने बिना प्रायश्चित्त देने का निषेध ।<br /> | <li class="HindiText"> [[#2.7| प्रायश्चित्त शास्त्र को जाने बिना प्रायश्चित्त देने का निषेध ।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> शक्ति आदि के सापेक्षा ही देना चाहिए ।<br /> | <li class="HindiText"> [[#2.8| शक्ति आदि के सापेक्षा ही देना चाहिए ।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> आलोचना पूर्वक ही लिया जाता है ।<br /> | <li class="HindiText"> [[#2.9|आलोचना पूर्वक ही लिया जाता है ।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> प्रायश्चित्त के योग्यायोग्य काल व क्षेत्र ।<br /> | <li class="HindiText"> [[#2.10|प्रायश्चित्त के योग्यायोग्य काल व क्षेत्र ।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> प्रायश्चित्त का प्रयोजन व माहात्म्य ।<br /> | <li class="HindiText"> [[#2.11|प्रायश्चित्त का प्रयोजन व माहात्म्य ।]]<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> [[#3| शंका समाधान]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> दूसरे के परिणाम कैसे जाने जा सकते हैं ।<br /> | <li class="HindiText"> [[#3.1| दूसरे के परिणाम कैसे जाने जा सकते हैं ।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> तदुभय प्रायश्चित्त के पृथक् निर्देश की क्या आवश्यकता ?<br /> | <li class="HindiText"> [[#3.2| तदुभय प्रायश्चित्त के पृथक् निर्देश की क्या आवश्यकता ?]]<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> [[#4| प्रायश्चित्त विधान]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> प्रायश्चित्त के योग्य कुछ अपराधों का परिचय ।<br /> | <li class="HindiText">[[#4.1| प्रायश्चित्त के योग्य कुछ अपराधों का परिचय ।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> अपराधों के अनुसार प्रायश्चित्त विधान ।<br /> | <li class="HindiText"> [[#4.2| अपराधों के अनुसार प्रायश्चित्त विधान ।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> शूद्रादि छूने के अवसर योग्य प्रायश्चित्त ।<br /> | <li class="HindiText"> [[#4.3|शूद्रादि छूने के अवसर योग्य प्रायश्चित्त ।]]<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="1" id="1"><strong>भेद | <li><span class="HindiText" name="1" id="1"><strong>भेद व लक्षण</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">प्रायश्चित्त सामान्य का लक्षण</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1.1" id="1.1.1">निरुक्ति अर्थ</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/22/1/620/28 </span><span class="SanskritText">प्रायः साधुलोकः, प्रायस्य यस्मिन्कर्मणि चित्तं तत्प्रायश्चित्तम् । ... अपराधो वा प्रायः, चित्तं शुद्धिः, प्रायस्य चित्तं प्रायश्चित्तम्, अपराधविशुद्धिरित्यर्थः ।</span> =<span class="HindiText"> प्रायः साधु लोक, जिस क्रिया में साधुओं का चित्त हो वह प्रायश्चित्त । अथवा प्राय- अपराध उसका शोधन जिससे हो वह प्रायश्चित्त </span>।<br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5,4,26/गाथा/9/59 </span><span class="SanskritGatha">प्राय इत्युच्यते लोकश्चित्तं तस्य मनो भवेत् । तच्चित्तग्राहकं कर्म प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् ।9।</span> <span class="HindiText">प्रायः यह पद लोकवाची है और चित्त से अभिप्राय उसके मन का है । इसलिए उस चित्त को ग्रहण करने वाला कर्म प्रायश्चित्त है, ऐसा समझना चाहिए ।9। <span class="GRef">( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/529/747 पर उद्धृत गाथा )</span></span><br /> | |||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/113,116 </span><span class="SanskritText">प्रायः प्राचुर्येण निर्विकारं चित्तं प्रायश्चित्तम् ।113। बोधो ज्ञानं चित्तमित्यनर्थांतरम् ।116।</span> = <span class="HindiText">प्रायश्चित अर्थात् प्रायः चित्त-प्रचुर रूप से निर्विकार चित्त ।113। बोध, ज्ञान और चित्त भिन्न पदार्थ नहीं हैं ।116।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/7/37 </span><span class="SanskritGatha">प्रायो लोकस्तस्य चित्तं मनस्तच्छुद्धिकृत्क्रिया । प्राये तपसि वा चित्तं निश्चयस्तन्निरुच्यते ।37।</span> = <span class="HindiText">प्रायः शब्द का अर्थ लोक और चित्त शब्द का अर्थ मन होता है । जिसके द्वारा साधर्मी और संघ में रहने वाले लोगों का मन अपनी तरफ से शुद्ध हो जाये उस क्रिया या अनुष्ठान को प्रायश्चित्त कहते हैं । <span class="GRef">( कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/451 )</span> </span><br /> | |||
पद्मचंद्र कोष/ | <span class="GRef"> पद्मचंद्र कोष/पृष्ठ 258 </span><span class="SanskritGatha">प्रायस् + चित्+ क्त ।</span><span class="HindiText">प्रायस्-तपस्या, चित्त निश्चय । अर्थात् निश्चय संयुक्त तपस्या को प्रायश्चित्त कहते हैं ।</span><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2">निश्चय की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार/ गाथा</span> <span class="PrakritGatha">कोहादिसब्व्भाववखयपहुदिभावणाए णिग्गहणं । पायच्छित्तं भणिदं णियगुणचिंता य णिच्छयदो ।114। उक्किट्ठो जो बोहो णाणं तस्सेव अप्पणो चित्तं । जो धरइ मुणी णिच्चं पायच्छित्तं हवे तस्स ।116। किं बहुणा भणिएण दु वरतवचरणं महेसिणं सव्वं । पायच्छित्तं जाणह अणेयकम्माण खयहेउ ।117। अप्पसरूवालंबणभावेण दु सव्वभावपरिहारं । सक्कदि काउ जीवो तम्हा झाणं हवे सव्वं ।119।</span> =<span class="HindiText"> क्रोधादि स्वकीय भावों के (अपने विभाव भावों के) क्षयादिकी भावना में रहना और निज गुणों का चिंतवन करना वह निश्चय से प्रायश्चित्त कहा है ।114। उसी (अनंत धर्म वाले) आत्मा का जो उत्कृष्ट ज्ञान अथवा चित्त उसे जो मुनि नित्य धारण करता है, उसे प्रायश्चित्त है ।116। बहुत कहने से क्या ? अनेक कर्मों के क्षय का हेतु ऐसा जो महर्षियों का उत्तम तपश्चरण वह सब प्रायश्चित्त जान ।117। आत्म स्वरूप जिसका अवलंबन है, ऐसे भावों से जीव सर्व भावों का परिहार कर सकता है, इसलिए ध्यान सर्वस्व है ।119। <span class="GRef">(विशेष विस्तार देखें नियमसार व तात्पर्यवृत्ति टीका/113-121)</span> ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/455 </span><span class="PrakritGatha">जो चिंतइ अप्पाणं णाण-सरूवं पुणो-पुणो णाणी । विकह-विरत्त चित्तो पायच्छित्तं वरं तस्स ।455।</span> = <span class="HindiText">जो ज्ञानी मुनि ज्ञान स्वरूप आत्मा का बारंबार चिंतवन करता है, और विकथादि प्रमादों से जिसका मन विरक्त रहता है, उसके उत्कृष्ट प्रायश्चित्त होता है ।455।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1.3" id="1.1.3">व्यवहार की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> मूलाचार/361,363 </span><span class="PrakritGatha">पायच्छित्तं ति तवो जेण विसुज्झदि हु पुव्वकयपावं । पायिच्छत्तं पत्तोति तेण वुत्तं ...।361। पोराणकम्मखमणं खिवणं णिज्जरणं सोधणं धुमणं । पुच्छणमुच्छिवणं छिदणं ति पायचित्तस्स णामाइं ।363।</span> = <span class="HindiText">व्रत में लगे हुए दोषों को प्राप्त हुआ यति जिससे पूर्व किये पापों से निर्दोष हो जाय वह प्रायश्चित्त तप है ।361। पुराने कर्मों का नाम, क्षेपण, निर्जरा, शोधन, धावन, पुच्छन (निराकरण) उत्क्षेपण, छेदन (द्वैधीकरण) ये सब प्रायश्चित्त के नाम हैं ।363।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/20/439/6 </span><span class="SanskritText">प्रमाददोषपरिहारः प्रायश्चित्तम् ।</span> =<span class="HindiText"> प्रमाद जन्य दोष का परिहार करना प्रायश्चित्त तप है । <span class="GRef">( चारित्रसार/137/2 )</span> <span class="GRef">( अनगारधर्मामृत/7/34 )</span> । </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5,4,26/59/8 </span><span class="PrakritText"> कयावराहेण ससंवेयणिव्वेएण सगावराहणिरायरहणट्ठं जममुट्टाणं कीरदि तप्पायच्छित्तं णाम तवोकम्मं । </span>= <span class="HindiText">संवेग और निर्वेद से युक्त अपराध करने वाला साधु अपने अपराध का निराकरण करने के लिए जो अनुष्ठान करता है वह प्रायश्चित्त नाम का तपःकर्म है ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/451 </span><span class="PrakritGatha">दोसं ण करेदि सयं अण्णं पि ण कारएदि जो तिविहं । कुव्वाणं पि ण इच्छदि तस्स विसोही परा होदि ।451।</span> = <span class="HindiText">जो तपस्वी मुनि मन वचन काय से स्वयं दोष नहीं करता, अन्य से भी दोष नहीं कराता तथा कोई दोष करता हो तो उसे अच्छा नहीं मानता, उस मुनि के उत्कृष्ट विशुद्धि (प्रायश्चित्त) होती है ।451।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">प्रायश्चित्त के भेद</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> मूलाचार/362 </span> <span class="PrakritGatha">आलोयण पडिकमणं उभय विवेगो तहा विउस्सग्गो । तव छेदो मूलंविय परिहारो, चेव सद्दहणा ।362।</span> = <span class="HindiText">आलोचना,प्रतिक्रममण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान ये दश भेद प्रायश्चित्त के हैं ।362। <span class="GRef">( धवला 13/5,4,26/गाथा 11/60 )</span> <span class="GRef">( चारित्रसार/137/3 )</span> <span class="GRef">( अनगारधर्मामृत/7/37 की भाषा अथवा 37-57 )</span> ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र /9/22 </span> <span class="SanskritText">आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारो-पस्थापनाः ।22।</span> <span class="HindiText">आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना यह नव प्रकार का प्रायश्चित्त है ।22।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/7/59 </span><span class="SanskritGatha">व्यवहारनयादित्थं प्रायश्चित्तं दशात्मकम् । निश्चयात्तदसंख्येयलोकमात्रभिदिष्यते ।59।</span> = <span class="HindiText">व्यवहार नय से प्रायश्चित्त के दश भेद हैं । किंतु निश्चयनय से उसके असंख्यात लोक प्रमाण भेद होते हैं । <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3">प्रायश्चित्त के भेदों के लक्षण</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.1" id="1.3.1">तदुभय</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/22/440/7 </span>(तदुभय) <span class="SanskritText">संसर्गे सति विशोधनात्तदुभयम् । </span>= <span class="HindiText">आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनों का संसर्ग होने पर दोषों का शोधन होने से तदुभय प्रायश्चित्त है । <span class="GRef">( राजवार्तिक/9/22/4/621/20 )</span> <span class="GRef">( अनगारधर्मामृत/7/48 )</span> । </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5,4,26/60/10 </span><span class="PrakritText">सगावराहं गुरुणमालोचिय गुरुसक्खिया अवराहादो पडिणियत्ती उभयं णाम पायच्छित्तं ।</span> =<span class="HindiText"> अपने अपराध की गुरु के सामने आलोचना करके गुरु की साक्षिपूर्वक अपराध से निवृत्त होना उभय नाम का प्रायश्चित्त है ।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.2" id="1.3.2">उपस्थापना या मूल</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि 9/22/440/10 </span><span class="SanskritText">पुनर्दीक्षाप्रापणमुपस्थापना ।</span> = <span class="HindiText">पुनः दीक्षा देना उपस्थापना प्रायश्चित्त है । <span class="GRef">( राजवार्तिक/9/22/10/621/34 )</span> <span class="GRef">( धवला 13/5,4,26/62/2 )</span> <span class="GRef">( चारित्रसार/144/3 )</span> <span class="GRef">( अनगारधर्मामृत/7/55 )</span> ।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.3" id="1.3.3"> श्रद्धान</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 13/5,4,26/63/3 </span><span class="PrakritText">मिच्छत्तं गंतूण ट्ठियस्स महव्वयाणि घेत्तूण अत्तागम-पयत्थसद्दहणा चेव (सद्दहणं) पायच्छित्तं । </span>= <span class="HindiText">मिथ्यात्व को प्राप्त होकर स्थित हुए जीव के महाव्रतों को स्वीकार कर आप्त आगम और पदार्थों का श्रद्धान करने पर श्रद्धान नाम का प्रायश्चित्त होता है । <span class="GRef">( चारित्रसार/147/2 )</span> <span class="GRef">( अनगारधर्मामृत/7/57 )</span> ।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2">प्रायश्चित्त निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">प्रायश्चित्त की व्याप्ति अंतरंग के साथ है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/405/594 </span><span class="PrakritGatha">आलोचणापरिणदो सम्मं संपच्छिओ गुरुसयासं । जदि अंतरम्मि कालं करेज्ज आराहओ होई ।</span> = <span class="HindiText">मैं अपने अपराधों का स्वरूप गुरु के चरण समीप जाकर कहूँगा, ऐसा मन में विचाकर निकला मुनि यदि मार्ग में ही मरण करे तो भी वह आराधक होता है ।405। <span class="GRef">( भगवती आराधना/406-407/595 )</span> ।<br /> | |||
देखें [[ प्रतिक्रमण#1.2.2 | देखें [[प्रतिक्रमण#1.2.2 | प्रतिक्रमण 1.2.2]] निजात्म भावना से ही निंदन गर्हण आदि शुद्धि को प्राप्त होता है । <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">प्रायश्चित्त के अतिचार</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/487/707/20 </span><span class="SanskritText">प्रायश्चित्तातिचारनिरूपणा-तत्रातिचाराः । आकंपियअणुमाणियमित्यादिकाश्च । भूतातिचारेऽस्य मनसा अजुप्सा । अज्ञानतः, प्रामादात्कर्मगुरुत्वादालस्याच्चेदं अशुभकर्मबंधननिमित्तं अनुष्ठितं, दुष्टं कृतमिति एवमादिक:प्रतिक्रमणातिचार:। उक्तोभयातिचारसमवायस्तदुभयातिचारः ।</span> = <span class="HindiText">प्रायश्चित्त तप के अतिचार-आकंपित अनुमानित वगैरह दोष (देखें [[आलोचना#2.1 | आलोचना 2.1]]) इस तप के अतिचार हैं । ये अतिचार होने पर इसके विषय में मन में ग्लानि न करना अज्ञान से, प्रमाद से, तीव्र कर्म के उदय से और आलस्य से मैंने यह अशुभ कर्म का बंधन करने वाला कर्म किया है, मैंने यह दुष्टकर्म किया है, ऐसा उच्चारण करना प्रतिक्रण के अतिचार हैं । आलोचना और प्रतिक्रमण के अतिचार को उभयातिचार कहते हैं ।<br /> | |||
<strong>नोट </strong>- विवेक, आलोचना आदि तप के अतिचार - देखें [[ वह ]]वह नाम ।<br /> | <strong>नोट </strong>- विवेक, आलोचना आदि तप के अतिचार - देखें [[ वह ]]वह नाम ।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">अपराध होते ही प्रायश्चित लेना चाहिए</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना व.विजयोदया टीका/541/757</span><span class="SanskritText"> उत्थानिका-जाते अपराधे तदानीमेव कथितव्यं न कालक्षेपः कार्य इति शिक्षयति कल्ले परे व परदो काहं दंसणचरित्तसोधित्ति । इस संकप्पमदीया गयं पि कालं ण याणंति।541। ततः सशल्यं मरणं तेषां भवति इति । व्याधय:-, कर्माणि, शत्रवश्चोपेक्षितानि बद्धमूलानि पुनर्न सुखेन विनाश्यंते । अथवा अतिचारकालं गतं चिरातिक्रांतं नैव जानंति । ये हि अतिचाराः प्रतिदिनं जातास्तेषां कालं, संध्या रात्रिदिनं इत्यादिकं पश्चादालो-चनाकाले गुरुणा पृष्टास्तावन्न वक्तुं जानंति विस्मृतत्वाच्चिरातीतस्य । ... अपि शब्देन क्षेत्रभावौ वातिचारस्य हेतु न जानंति । ... इह स्मृतिज्ञानागोचर इति केषांचिद्व्याख्यानं ।</span> = <span class="HindiText">आराधना में अतिचार होने पर उसी क्षण में उनका गुरु के समक्ष कथन करना चाहिए, कालक्षेप करना योग्य नहीं, ऐसा उपदेश देते हैं । -</span> | |||
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<li | <li class="HindiText"> कल परसों अथवा नरसों मैं दर्शन-ज्ञान व चारित्र की शुद्धि करूँगा, ऐसा जिन्होंने अपने मन में संकल्प किया है, ऐसे मुनि अपना आयु कितना नष्ट हुआ है यह नहीं जानते अर्थात् उनका सशल्य मरण होता है ।541। रोग, शत्रु और अपराध इनकी उपेक्षा करने से ये दृढ़ मूल होते हैं . पुनः उनका नाश सुख से कर नहीं सकते । अथवा जो अतिचार होकर बहुत दिन व्यतीत हो चुके हैं, उनका स्मरण होता नहीं । जो अतिचार हुए हैं, उनके संध्या, दिन, रात्रि, इत्यादि रूप काल का स्मरण गुरु के पूछने पर शिष्यों को होता नहीं, क्योंकि अतिचार होकर बहुत दिन व्यतीत हो चुके हैं । ... इसी प्रकार क्षेत्र, भाव और अतिचार के कारण इनका भी स्मरण नहीं होता, वे अतिचार स्मृतिज्ञान के अगोचर हैं । ... ऐसा कोई आचार्य इस गाथा का व्याख्यान करते हैं ।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">बाह्य दोष का प्रायश्चित स्वयं तथा अंतरंग दोष का गुरु के निकट लेना चाहिए</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/211-212 </span><span class="PrakritGatha">पयदम्हि समारद्धे छेदो समणस्स कायचेट्ठम्हि । जायदि जदि तस्स पुणो आलोयणपुव्विया किरिया ।211। छेदुवजुत्ता समणो समणं ववहारिणं जिणमदम्हि । आसेज्जालोचित्ता उवदिट्ठं तेण कायव्वं ।212।</span> = <span class="HindiText">यदि श्रमण के प्रयत्न पूर्वक की जाने वाली कायचेष्टा में छेद होता है तो उसे आलोचना पूर्वक क्रिया करना चाहिए ।211. किंतु यदि श्रमण छेद में (अंतरंग छेद में) उपयुक्त हुआ हो तो उसे जैनमत में व्यवहार कुशल श्रमण के पास जाकर आलोचना करके (दोष का निवेदन करके) जैसा उपदेश दें वैसा करना चाहिए ।212। <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">आत्म भावना से च्युत होने पर पश्चात्ताप ही प्रायश्चित्त है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> इष्टोपदेश/ मूल/39 </span> <span class="SanskritGatha">निशामयति निःशेषमिंद्रजालोपमं जगत । स्पृहयत्यात्मलाभाय गत्वान्यत्रानुतप्यते ।39।</span> = <span class="HindiText">योगीजन इस समस्त जगत् को इंद्रजाल के समान देखते हैं, क्योंकि उनके आत्म स्वरूप की प्राप्ति की प्रबल अभिलाषा उदित रहती है । यदि कारणवश अन्य कार्य में प्रवृत्ति हो जाती है, तब उसे संताप होता है ।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6">दोष लगने पर प्रायश्चित्त होता है सर्वदा नहीं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/22/10/622/1 </span><span class="SanskritText">भयत्वरणविस्मरणानवबोधाशक्तिव्यसना-दिभिर्महाव्रतातिचारे सति प्राक् छेदात् षड्विधं प्रायश्चित्तं विधेयं । </span>= <span class="HindiText">डरकर भाग जाना, सामर्थ्य की हीनता, अज्ञान, विस्मरण, यवनादिकों का आतंक, इसी तरह के रोग अभिभव आदि और भी अनेक कारणों से महाव्रतों में अतिचार लग जाने पर तपस्वियों के छेद से पहले के छहों प्रायश्चित्त होते हैं । <span class="GRef">( चारित्रसार/142/5 )</span>; <span class="GRef">( अनगारधर्मामृत 7/53 )</span> ।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6">प्रायश्चित्त शास्त्र को जाने बिना प्रायश्चित्त देने का निषेध</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/451-453/678 </span><span class="PrakritGatha">मोत्तूण रागदोसे ववहारं पट्ठवेइ सो तस्स । ववहारकरणकुसलो जिणवयणविसारदो धीरो ।451। ववहारमयणंतो ववहरणिज्जं च ववहरंतो खु । उस्सीयदि भवपं के अयसं कम्मं च आदियदि ।452। जह ण करेदि तिगिंच्छं वाधिस्स तिरिच्छओ अणिम्मादो । ववहारमयणंतो ण सोधिकामो विसुज्झेइ ।453।</span> =<span class="HindiText">जिन प्रणीत आगम में निपुण, धैर्यवान्, प्रायश्चित्त शास्त्र के ज्ञाता ऐसे आचार्य राग-द्वेष भावना छोड़कर मध्यस्थ भाव धारण कर मुनि को प्रायश्चित्त देते हैं।451। ग्रंथ से, अर्थ से और कर्म से प्रायश्चित्त का स्वरूप जिसको मालूम नहीं है वह मुनि यदि नव प्रकार का प्रायश्चित्त देने लगेगा तो वह संसार के कीचड़ में फँसेगा और जगत् में उसकी अकीर्ति फैलेगी ।452। जैसे - अज्ञवैद्य रोग का स्वरूप न जानने के कारण रोग की चिकित्सा नहीं कर सकता । वैसे ही जो आचार्य प्रायश्चित्त ग्रंथ के जानकार नहीं हैं वे रत्नत्रय को निर्मल करने की इच्छा रखते हुए भी निर्मल नहीं कर सकते ।453।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8">शक्ति आदि के सापेक्ष ही देना चाहिए</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/22/10/622/8 </span><span class="SanskritText">तदेतन्नवविधं प्रायश्चित्तं देशकालशक्तिसंयमाद्यविरोधेनाल्पानल्पापराधानुरूपं दोषप्रशमनं चिकित्सितवद्वि-धेयं । जीवस्यासंख्येयलोकमात्रपरिमाणाः । परिणामविकल्पाः अपराधाश्च तावंत एव न तेषां तावद्विकल्पं प्रायश्चित्तमस्ति व्यवहार- नयापेक्षया पिंडीकृत्य प्रायश्चित्तविधानमुक्तं ।</span> = <span class="HindiText">देश, काल, शक्ति और संयम में किसी तरह का विरोध न आने पावे और छोटा बड़ा जैसा अपराध हो उसके अनुसार वैद्य के समान दोषों का शमन करना चाहिए । प्रत्येक जीव के परिणामों के भेदों की संख्या असंख्यात लोक मात्र है, और अपराधों की संख्या भी उतनी है, परंतु प्रायश्चित्त के उतने भेद नहीं कहे हैं । ऊपर के लिखे (9 वा 10) भेद तो केवल व्यवहार नय की अपेक्षा से समुदाय रूप से कहे गये हैं । <span class="GRef">( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/626/828/20 )</span>; <span class="GRef">( चारित्रसार/147/2 )</span>; <span class="GRef">( अनगारधर्मामृत/7/58 )</span> ।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.9" id="2.9">आलोचना पूर्वक ही लिया जाता है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/620-621 </span><span class="PrakritGatha">एत्थ दु उज्जगभवा ववहारिदव्वा भवंति ते पुरिसा संका परिहरिदव्वा सो से पट्टाहि जहि विसुद्धा ।620। पडिसेवणादिचारे जदि आजंपदि तहाकम्मं सव्वे । कुव्वंति तहो सोधिं आगमववहारिणो तस्स ।621।</span> = <span class="HindiText">जो ऋजु भाव से आलोचना करते हैं, ऐसे पुरुष प्रायश्चित्त देने योग्य हैं और जिनके विषय में शंका उत्पन्न हुई हो उनको प्रायश्चित्त आचार्य नहीं देते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि सर्वातिचार निवेदन करने वालों में ही ऋजुता होती है, उसको ही प्रायश्चित्त देना योग्य है ।620। यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रय से हुए संपूर्ण दोष क्षपक अनुक्रम से कहेगा तो प्रायश्चित्त दान कुशल आचार्य उसको प्रायश्चित्त देते हैं ।621।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.10" id="2.10">प्रायश्चित्त के योग्यायोग्य काल व क्षेत्र</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/554-559 </span><span class="PrakritGatha">आलोयणादिया पुण होइ पसत्थे य सुद्धभावस्स । पुव्वण्हे अवरण्हे व सोमतिहिरक्खवेलाए ।554। णिप्पत्तकंटइल्लं विज्जुहदं सुवखरुवखकडुदड्ढं । सुण्णघररुद्ददेउलपत्थररासिट्टि- यापुंजं ।555। तणपत्तकठ्ठछारिय असुइ सुसाणं च भग्गपडिदं वा । रूद्दाणं खुद्दाणं अधिउत्ताणं च ठाणाणि ।556। अण्णं व एवमादी य अप्पसत्थं हवेज्ज जं ठाणं । आलोचणं ण पडिच्छदि तत्थ गणी से अविग्घत्थ ।557। अरहंतसिद्धसागरपउमसरंखीरपुप्फफलभरियं । उज्जाणभवणतोरणपासादं णागजक्खधरं ।558। अण्णं च एवमादिया सुपसत्थं हवइ जं ठाणं । आलोयणं पडिच्छदि तत्थ गणी से अविग्घत्थं ।559।</span> = | |||
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<li class="HindiText"> विशुद्ध | <li class="HindiText"> विशुद्ध परिणाम वाले इस क्षपक की आलोचना-प्रतिक्रमणादिक क्रियाएं दिन में और प्रशस्त स्थान में होती हैं । दिवस के पूर्व भाग में अथवा उत्तर भाग में, सौम्य तिथि, शुभ नक्षत्र, जिस दिन में रहते हैं उस दिन होती है ।554। </li> | ||
<li class="HindiText"> जो क्षेत्र पत्तों से | <li class="HindiText"> जो क्षेत्र पत्तों से रहित है, काँटों से भरा हुआ है, बिजली गिरने से जहाँ जमीन फट गयी है, जहाँ शुष्क वृक्ष हैं, जिसमें कटुरससे वृक्ष भरे हैं, जो जल गया है, शून्य घर, रुद्र का मंदिर, पत्थरों का ढेर और ईंटों का ढेर है, ऐसा स्थान आलोचना के योग्य नहीं है ।555। जिसमें सूखे पान, तृण, काठके पुंज हैं, जहाँ भस्म पड़ा है, ऐसे स्थान तथा अपवित्र श्मशान, तथा फूटे हुए पात्र,गिरा हुआ घर जहाँ है वह स्थान भी वर्ज्य है । रूद्र देवताओं, और क्षुद्र देवताओं इनके स्थान भी वर्ज्य समझने चाहिए । 556। ऊपर के स्थान वर्ज्य है वैसे ही अन्य भी जो अयोग्य स्थान हैं, उनमें भी क्षपक की आलोचना आचार्य सुनते नहीं । क्योंकि ऐसे स्थानों में आलोचना करने से क्षपक की कार्य सिद्धि नहीं होगी । 557। </li> | ||
<li class="HindiText"> अर्हंत का मंदिर, सिद्धों का मंदिर, समुद्र के समीप का प्रदेश, जहाँ क्षीर वृक्ष है, जहाँ पुष्प व फलों से लदे वृक्ष हैं ऐसे स्थान,उद्यान, तोरण द्वार सहित मकान, नाग देवता का मंदिर, यक्ष मंदिर, ये सब स्थान क्षपक की आलोचना सुनने के योग्य हैं ।558। और भी अन्य प्रशस्त स्थान आलोचना के योग्य हैं, ऐसे प्रशस्त स्थानों में क्षपक का कार्य निर्विघ्न सिद्ध हो इस हेतु से आचार्य बैठकर आलोचना सुनते हैं ।559।<br /> | <li class="HindiText"> अर्हंत का मंदिर, सिद्धों का मंदिर, समुद्र के समीप का प्रदेश, जहाँ क्षीर वृक्ष है, जहाँ पुष्प व फलों से लदे वृक्ष हैं ऐसे स्थान,उद्यान, तोरण द्वार सहित मकान, नाग देवता का मंदिर, यक्ष मंदिर, ये सब स्थान क्षपक की आलोचना सुनने के योग्य हैं ।558। और भी अन्य प्रशस्त स्थान आलोचना के योग्य हैं, ऐसे प्रशस्त स्थानों में क्षपक का कार्य निर्विघ्न सिद्ध हो इस हेतु से आचार्य बैठकर आलोचना सुनते हैं ।559।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.11" id="2.11">प्रायश्चित्त का प्रयोजन व माहात्म्य</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/22/1/620/26 </span><span class="SanskritText"> प्रमाददोषव्युदासः भावप्रसादो नैःशल्यम् अनवस्थावृत्तिः मर्यादात्यागः संयमादाढर्यमाराधनमित्येवमादीनां सिद्धय्यर्थ प्रायश्चित्तं नवविधं विधीयते ।</span> =<span class="HindiText"> प्रमाद दोष व्युदास, भाव प्रसाद, निःशल्यत्व, अव्यवस्था निवारण, मर्यादा का पालन, संयम की दृढता, आराधना सिद्धि आदि के लिए प्रायश्चित्त से विशुद्ध होना आवश्यक है । <span class="GRef">( भावपाहुड़ टीका/78/224/9 )</span> ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला/13/5,4,26/गाथा 10/60 )</span> <span class="PrakritGatha">कृतानि कर्माण्यतिदारुणानि तनूभवंत्यत्मविगर्हणेन । प्रकाशनात्संवरणाच्च तेषामत्यंतमूलोद्धरणं वदामि ।10।</span> = <span class="HindiText">अपनी गर्हा करने से, दोषों का प्रकाशन करने से, और उनका संवर करने से किये गये अतिदारुण कर्म कृत हो जाते हैं । अब उनका समूल नाश कैसे हो जाता है, यह कहते हैं ।10। <span class="GRef">( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/451-452 )</span> ।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3">शंका का समाधान</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1">दूसरे के परिणाम कैसे जाने जाते हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/626/828/20 </span><span class="SanskritText">कथं परिणामो ज्ञायते इति चेत् सहवासेन तीव्रक्रोधस्तीव्रमान इत्यिादिकं सुज्ञातमेव । तत्कार्योपलंभात्, तमेव वा परिपृच्छय, कीदृग्भवतः परिणामोऽतिचारसमकालं वृत्तः । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> दूसरों के परिणाम कैसे जाने जा सकते हैं ? <br> | |||
<strong>उत्तर-</strong> | |||
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<li class="HindiText"><span class="HindiText"> सहवास से परिणाम जाने जा सकते हैं ।</span></li> | <li class="HindiText"><span class="HindiText"> सहवास से परिणाम जाने जा सकते हैं ।</span></li> | ||
<li class="HindiText"><span class="HindiText"> अथवा उसके कार्य देखने पर उसके तीव्र या मंद क्रोधादि का स्वरूप मालूम होता है । </span></li> | <li class="HindiText"><span class="HindiText"> अथवा उसके कार्य देखने पर उसके तीव्र या मंद क्रोधादि का स्वरूप मालूम होता है । </span></li> | ||
<li class="HindiText"><span class="HindiText"> अथवा जब तुमने अतिचार किये थे तब तुम्हारे परिणाम कैसे थे ऐसा उसको पूछकर भी परिणामों का निर्णय किया जा सकता है । (विशेष - देखें [[ विनय#5.1 | विनय | <li class="HindiText"><span class="HindiText"> अथवा जब तुमने अतिचार किये थे तब तुम्हारे परिणाम कैसे थे ऐसा उसको पूछकर भी परिणामों का निर्णय किया जा सकता है । (विशेष - देखें [[विनय#5.1 | विनय 5.1]]) ।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">तदुभय प्रायश्चित्त के पृथक् निर्देश की क्या आवश्यकता ?</strong> <br /> | ||
देखें [[ प्रतिक्रमण#2.2 | देखें [[ प्रतिक्रमण#2.2 | प्रतिक्रमण 2.2 ]] सभी प्रतिक्रमण नियम से आलोचना पूर्वक होते हैं । गुरु स्वयं अन्य किसी से आलोचना नहीं करता है । इसलिए गुरु से अतिरिक्त अन्य शिष्यों की अपेक्षा से तदुभय प्रायश्चित्त का पृथक् निर्देश किया गया है । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4" id="4">प्रायश्चित्त विधान</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1">प्रायश्चित्त के कुछ योग कुछ अपराधों का परिचय</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/450/676/8 </span><span class="SanskritText"> पृथिवी, आपस्तेजो वायुः ... सचित्त द्रव्य ... तृणफलकादिकं ... अचित्तम् । संसक्तं उपकरणं मिश्रम् । एवं त्रिविधा द्रव्यप्रतिसेवना । वर्षासु ... अर्धयोजनम् । ततोऽधिकक्षेत्रगमनं ... प्रति-षिद्धक्षेत्रगमनं, विरुद्धराजगमनं, छिन्नाध्वगमनं, ततो रक्षणीया गमनम् । ... उन्मार्गेण वा गमनम् । अंतःपुरप्रवेशः । अनुज्ञातगृहभूमि- गमनम् - इत्यादिना क्षेत्रप्रतिसेवना । आवश्यककालादन्यस्मिन्काले आवश्यककरणम् । वर्षावग्रहातिक्रमः- इत्यादिना कालप्रतिसेवना । दर्पः, प्रमादः, अनाभोग भयं, प्रदोषः इत्यादिकेषु परिणामेषु प्रवृत्ति- र्भावसेवा ।</span> = <span class="HindiText">पृथ्वी,जल,प्रकाश और वायु सचित्त द्रव्य, तृण का संस्तर फलक वगैरे अचित्त द्रव्य, जीव उत्पन्न हुए हैं ऐसे उपकरणरूप मिश्राद्रव्य, ऐसे तीन प्रकार के द्रव्यों का सेवन करने से दोष लगते हैं यह द्रव्य प्रति सेवना है । वर्षाकाल में (मुनि) आधा योजन से अधिक गमन करना,... निषिद्ध स्थान में जाना, विरुद्ध राज्य में जाना, जहाँ रास्ता टूट गया ऐसे प्रदेश में जाना, उन्मार्ग में जाना, अंतःपुर में प्रवेश करना, जहाँ प्रवेश करने की परवानगी नहीं है ऐसे गृह के जमीन में प्रवेश करना यह क्षेत्रप्रति-सेवना है । आवश्यकों के नियत काल को उल्लंघन कर अन्य समय में सामायिकादि करना, वर्षाकाल योग का उल्लंघन करना यह काल प्रतिसेवना है । दर्प, उन्मत्तता, असावधानता, साहस, भय इत्यादि रूप परिणामों में प्रवृत्त होना भाव प्रतिसेवना है ।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2">अपराधों के अनुसार प्रायश्चित्त विधान</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.2.1" id="4.2.1">आलोचन</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/22/10/621/36 </span><span class="SanskritText">विद्यायोगोपकरणग्रहणादिषु प्रश्नविनय-मंतरेण प्रवृत्तिरेव दोष, इति तस्य प्रायश्चित्तमालोचनमात्रम् ।</span> = <span class="HindiText">विद्या और ध्यान के साधनों के ग्रहण करने आदि में प्रश्न विनय के बिना प्रवृत्ति करना दोष है, उसका प्रायश्चित्त आलोचना मात्र है ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> भावपाहुड/टीका/78/223/14 </span> <span class="SanskritText">आचार्यमपृष्ट्वा आतापनादिकरणे पुस्तक-पिच्छादिपरोपकरणग्रहणे परपरोक्षे प्रमादतः आचार्यादिवचनाकरणे संघनामपृष्ट्वा स्वसंघगमने देशकालनियमेनावश्यकर्तव्यव्रतविशेषस्य धर्मकथादि व्यासंगेन विस्मरणे सति पुनः करणे अन्यत्रापि चैवंविधे आलोचनमेव प्रायश्चित्तम् ।</span> = <span class="HindiText">आचार्य के बिना पूछे आतापनादि करना, दूसरे साधु की अनुपस्थिति में उसकी पीछी आदि उपकरणों का ग्रहण करना, प्रमाद से आचार्यादि की आज्ञा का उल्लंघन करना, आचार्य से बिना पूछे संघ में प्रवेश करना, धर्म कथादि के प्रसंग से देश काल नियत आवश्यक कर्त्तव्य व व्रत विशेषों का विस्मरण होने पर उन्हें पुनः करना, तथा अन्य भी इसी प्रकार के दोषों का प्रायश्चित्त आलोचना मात्र है । <span class="GRef">( अनगारधर्मामृत/7/53 भाषा )</span> ।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.2.2" id="4.2.2">प्रतिक्रमण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/22/10/621/37 </span><span class="SanskritText"> देशकालनियमेनावश्यं कर्तव्यमित्यास्थितानां योगानां धर्मकथादिव्याक्षेपहेतुसन्निधानेन विस्मरणे सति पुनरनुष्ठाने प्रतिक्रमणं तस्य प्रायश्चित्तम् ।</span> = <span class="HindiText">देश और काल के नियम से अवश्य कर्तव्य विधानों को धर्म कथादि के कारण भूल जाने पर पुनः करने के समय प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है । </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5,4,26/60/9 </span><span class="PrakritText">एदं (पडिक्कमणं पायच्छित्तं) कत्थ होदि । अप्पावराहे गुरुहि विणा वट्टमाणम्हि होदि ।</span> = <span class="HindiText">जब अपराध छोटा सा हो, गुरु पास न हों तब यह प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त होता है ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> भावपाहुड़ टीका/78/223/18 </span><span class="SanskritText">षडिंद्रियवागादिदुष्परिणामे, आचार्यादिषु हस्तपादादिसंघट्टने, व्रतसमितिगुप्तिषु, स्वल्पातिचारे, पैशुन्यकलहादिकरणे, वैयावृत्यस्वाध्यायादिप्रमादे, गोचरगतस्य लिंगोत्थाने, अन्यसंक्लेशकरणादौ च प्रतिक्रमणप्रायश्चित्तं भवति । दिवसांते रात्र्यंते भोजनगमनादौ च प्रतिक्रमणंप्रायश्चित्तं ।</span> = <span class="HindiText">छहों इंद्रिय तथा वचनादि का दुष्प्रयोग, आचार्यादि के अपना हाथ-पाँव आदि का टकरा जाना, व्रत, समिति गुप्ति में छोटे-छोटे दोष लगा जाना, पैशुन्य तथा कलह आदि करना, वैयावृत्त्य तथा स्वाध्यायादि में प्रमाद करना, गोचरी को जाते हुए लिंगोत्थान हो जाना, अन्य के साथ संक्लेश करने वाली क्रियाओं के होने पर प्रतिक्रमण करना चाहिए । यह प्रायश्चित्त सायंकाल, और प्रातःकाल तथा भोजनादि के जाने के समय होता है । <span class="GRef">( अनगारधर्मामृत/7/53 भाषा )</span> ।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.2.3" id="4.2.3">तदुभय</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 13/5,4,26/60/11 </span><span class="SanskritText">उभयं णाम पायच्छित्तं । एदं कत्थ होदि ? दुस्सुमिणदंसणादिसु ।</span> = <span class="HindiText">दुःस्वप्न देखने आदि के अवसरों पर तदुभय प्रायश्चित्त होता है । <span class="GRef">( चारित्रसार/141/6 )</span> ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> भावपाहुड़ टीका/77/224/1 </span><span class="SanskritText">लोचनखच्छेदस्वप्नेंद्रियातिचाररात्रिभोजनेषु पक्षमाससंवत्सरादिदोषादौ च उभयं आलोचनप्रतिक्रमणप्रायश्चित्त ।</span> = <span class="HindiText">केश लोंच, नख का छेद, स्वप्नदोष, इंद्रियों का अतिचार, रात्रि भोजन, तथा पक्ष, मास व संवत्सरादि के दोषों में तदुभय प्रायश्चित्त होता है । <span class="GRef">( अनगारधर्मामृत/7/53 भाषा )</span> ।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.2.4" id="4.2.4">विवेक</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/22/10/622/2 </span><span class="SanskritText">शक्तयनिगूहनेन प्रयत्नेन परिहरतः कुतश्चित्कारणादप्रासुकग्रहणग्राहणयो: प्रासुकस्यापि प्रत्याख्यातस्य विस्मरणात् प्रतिग्रहे च स्मृत्वा पुनस्तदुत्सर्जनं प्रायश्चित्तम् ।</span> = <span class="HindiText">शक्ति को न छिपा कर प्रयत्न से परिहार करते हुए भी किसी कारणवश अप्रासुक के स्वयं ग्रहण करने या ग्रहण कराने में छोड़े हुए प्रासुक का विस्मरण हो जाये और ग्रहण करने पर उसका स्मरण आ जाये तो उसका पुनः उत्सर्ग करना ( ही विवेक) प्रायश्चित्त है । <span class="GRef">( चारित्रसार/142/2 )</span> । </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5,4,26/60/12 </span><span class="PrakritText">एदं (विवेगो णाम पायच्छित्तं) कत्थ होदि । जम्हि संते अणियत्तदोसो सो तम्हि होदि ।</span> =<span class="HindiText"> जिस दोष के होने पर उसका निराकरण नहीं किया जा सकता, उस दोष के होने पर यह विवेक नाम का प्रायश्चित्त होता है ।<br /> | |||
</span></li><br> | |||
<li class="HindiText"><strong name="4.2.5" id="4.2.5"> व्युत्सर्ग</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक/9/22/10/622/4</span><span class="SanskritText"> दुस्वप्नदुश्चिंतनमलोत्सर्जनमूत्रातिचारमहानदीमहाटवीतरणादिषु व्युत्सर्गप्रायश्चित्तम् ।</span> = <span class="HindiText">दुस्वप्न, दुश्चिंता, मलोत्सर्ग, मूत्र का अतिचार, महानदी और महाअटवी के पार करने आदि में व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है । <span class="GRef">( चारित्रसार/142/3 )</span> ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5,4,26/61/3 </span><span class="PrakritText"> विउस्सग्गो णाम पायच्छित्तं । ... सो कस्स होदि । कयावराहस्स माणेण दिट्ठणवट्ठस्स वज्जसंघडणस्स सीदवादादवसहस्स ओघसूरस्स साहूस्स होदि ।</span> = <span class="HindiText">यह व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त जिसने अपराध किया है, किंतु जो अपने विमल ज्ञान से नौ पदार्थों के स्वरूप को समझता है, वज्र संहननवाला है, शीत-वात और आतप को सहन करने में समर्थ है, तथा सामान्यरूप से शूर है, ऐसे साधु के होता है ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> भावपाहुड़ टीका/78/224/3 </span><span class="SanskritText">मौनादिना लोचकरणे, उदरकृमिनिर्गमे. हिममशकादिमहावातादिसघर्षातिचारे, स्निग्धभूहरिततृणपंकोपरिगमने, जानुमात्रजलप्रवेशकरणे, अन्यनिमित्तवस्तुस्वोपयोगकरणे, नावादिनदीतरणे, पुस्तकप्रतिमापातने, पंचस्थावरविघाते, अदृष्टदेशतनुमलविसर्गादौ, पक्षादिप्रतिक्रमणक्रियायां, अंतर्व्याख्यानप्रवृत्यंतादिषु कायोत्सर्ग एव प्रायश्चित्तम् । उच्चारप्रस्रवणादौ च कायोत्सर्गः प्रसिद्ध एव ।</span> = <span class="HindiText">मौनादिधारण किये बिना ही लौंच करने पर, <br> | |||
उदर में से कृमि निकलने पर, <br> | |||
हिम, दंश-मशक यद्वा महावातादि के संघर्ष से अतिचार लगने पर, <br> | |||
स्निग्ध भूमि, हरित तृण, यद्वा कर्दम आदि के ऊपर चलने पर, <br> | |||
घोटुओं तक जल में प्रवेश कर जाने पर; अन्य निमित्तक वस्तुको उपयोग में ले जाने पर, <br> | |||
नाव के द्वारा नदी पार होने पर, <br> | |||
पुस्तक या प्रतिमा आदि के गिरा देने पर, <br> | |||
पंचस्थावरों का विघात करने पर, <br> | |||
बिना देखे स्थान पर शारीरिक मल छोड़ने पर, <br> | |||
पक्ष से लेकर प्रतिक्रमण पर्यंत व्याख्यान प्रवृत्त्यंतादिकों में केवल कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त होता है । <br> | |||
और थूकने और पेशाब आदि के करने पर कायोत्सर्ग करना प्रसिद्ध ही है । <span class="GRef">( अनगारधर्मामृत/7/53 भाषा )</span> ।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="4.2.6" id="4.2.6"> तप</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 13/5,4,26/61/6 </span><span class="PrakritText">एदं (तवो पायच्छित्तं) कस्स होदि । तिव्विंदियस्स जोव्वणभरत्थस्स बलवंतस्स सत्तसहायस्स कयावराहस्स होदि ।</span> =<span class="HindiText"> जिसकी इंद्रियाँ तीव्र हैं, जो जवान हैं, बलवान् हैं और सशक्त हैं, ऐसे अपराधी साधु को दिया जाता है । <span class="GRef">( चारित्रसार/142/5 )</span> ।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="4.2.7" id="4.2.7"> छेद</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 13/5,4,26/61/9 </span><span class="PrakritText">छेदो णाम पायच्छित्तं । एदं कस्स होदि । उववासादिखमस्स ओघबलस्स ओघसूरस्स गव्वियस्स कयावराहस्स साहुस्स होदि ।</span> =<span class="HindiText"> जिसने (बार-बार) अपराध किया है । <span class="GRef">( राजवार्तिक/9/22/0/622/5 )</span> । जो उपवास आदि करने में समर्थ हैं, सब प्रकार बलवान् है, सब प्रकार शूर और अभिमानी है, ऐसे साधु को दिया जाता है । <span class="GRef"> चारित्रसार/143/1 )</span>; <span class="GRef">( अनगारधर्मामृत/7/54 )</span> ।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="4.2.8" id="4.2.8"> मूल</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/292/506 </span><span class="PrakritGatha">पिंडं उवधिं सेज्जामविसोधिय जो खु भुंजमाणो हु । मूलट्ठाणं पत्तो बालोत्तिय णो समणबालो ।292। </span>= <span class="HindiText">उद्गमादि दोषों से युक्त आहार, उपकरण, वसतिका इनका जो साधु ग्रहण करता है वह मूलस्थान को प्राप्त होता है । वह अज्ञानी है, केवल नग्न है, न यति है न गणधर ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5,4,26/62/2 </span><span class="PrakritText">मूलं णाम पायच्छित्तं । एदं कस्स होदि । अवरिमिय अवराहस्स पासत्थोसण्ण-कुसीलसच्छंदादिउव्वट्टट्ठियस्स होदि । </span>= <span class="HindiText">अपरिमित अपराध करने करनेवाला जो साधु <span class="GRef">( राजवार्तिक/9/22/10/622/5 )</span> । पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, और स्वच्छंद आदि होकर कुमार्ग में स्थित है, उसे दिया जाता है । <span class="GRef">( चारित्रसार/142/3 )</span>; <span class="GRef">( अनगारधर्मामृत/7/55 )</span>; <span class="GRef">( आचारसार/पृष्ठ63 )</span> ।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.2.9" id="4.2.9"> अनवस्थाप्य परिहार</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> चारित्रसार/144/4 </span><span class="SanskritText">प्रमादादंयमुनिसंबंधिनमृषिं छात्रं गृहस्थं वा परपाखंडिप्रतिबद्धचेतनाचेतनद्रव्यं वा परस्त्रियं वा स्तेनयतां मुनीन् प्रहरतो वाऽन्यदप्येवमादिविरुद्धाचरितमाचरतो नवदशपूर्वधरस्यापि त्रिकसंहननस्य जितपरिषहस्य दृढधर्मिणो धीरस्य भवभीतस्य निजगुणानुपस्थापनं प्रायश्चित्तं भवति । ... दर्पादनंतरोक्तांदोषानाचारतः परगणोपस्थापनं प्रायश्चित्तं भवति । </span>= | |||
<ol><li class="HindiText">प्रमाद से अन्य मुनि संबंधी ऋषि, विद्यार्थी, गृहस्थ वा दूसरे पाखंडी के द्वारा रोके हुए चेतनात्मक वा अचेतनात्मक द्रव्य, अथवा परस्त्री आदि को चुरानेवाले, मुनियों को मारनेवाले, अथवा और भी ऐसे ही विरुद्ध आचरण करने वाले, परंतु नौ वा दस पूर्वों के जानकार, पहले तीन संहनन को धारण करने वाले परीषहों को जीतनेवाले, धर्म में दृढ़ रहने वाले, धीर, वीर और संसार से डरने वाले मुनियों के निजगणानुपस्थापन नाम का प्रायश्चित्त होता है । </span></li> | |||
<li class="HindiText"> जो अभिमान से उपरोक्त दोषों को करते हैं, उनके परगणानुपस्थापना प्रायश्चित्त होता है । <span class="GRef">( आचारसार/पृ.64 )</span>; <span class="GRef">( अनगारधर्मामृत/7/56 भाषा </span> ) ।<br /> | |||
देखें [[प्रायश्चित्त#4.2.10 | आगे पारंचिक]] में <span class="GRef"> धवला/13 </span>विरुद्ध आचरण करने वालों को दिया जाता है । <br /> | |||
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<li class="HindiText"> जो अभिमान से उपरोक्त दोषों को करते हैं, उनके परगणानुपस्थापना प्रायश्चित्त होता है । ( | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.2.10" id="4.2.10">पारंचिक परिहार</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/1637/1483 </span><span class="PrakritGatha"> तित्थयरपवयणसुदे आइरिए गणहरे महढ्ढीए । एदे आसादंतो पावइ पारंचियं ठाणं ।1637।</span> = <span class="HindiText">तीर्थंकर, रत्नत्रय, आगम, आचार्य, गणधर, और महर्द्धिक मुनिराज इनकी आसादना करने वाला पारंचिक नामक प्रायश्चित्त को प्राप्त होता है ।1637।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5,4,26/63/1 </span><span class="PrakritText"> एदाणि दो वि पायच्छित्ताणि णरिंदविरुद्धाचरिदे आइरियाणं णव-दसपुव्वहरणं होदि ।</span> = <span class="HindiText">ये दोनों (अनवस्थाप्य, तथा पारंचिक) दो प्रकार के प्रायश्चित्त राजा के विरुद्ध आचरण करने पर <span class="GRef">( राजवार्तिक/9/22/10/622/5 )</span> नौ और दश पूर्वों को धारण करने वाले आचार्य करते हैं ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> चारित्रसार/146/3 </span><span class="SanskritText">तीर्थंकरगणधरगणिप्रवचनसंघाद्यासादनकारकस्य नरेंद्रविरुद्धाचरितस्य राजानमभिमतामात्यादीनां दत्तदीक्षस्य नृपकुलवनितासेवितस्यैवमाद्यन्यैर्दोषैश्च धर्मदूषकस्य पारंचिकं प्रायश्चित्तं भवति ।</span> = <span class="HindiText">जो मुनि, तीर्थंकर, गणधर, आचार्य और शास्त्र व संघ आदि की झूठी निंदा करने वाले हैं, विरुद्ध आचरण करते हैं, जिन्होंने किसी राजा को अभिमत ऐसे मंत्री आदि को दीक्षा दी है, जिन्होंने राजकुल की स्त्रियों का सेवन किया है, अथवा ऐसे अन्य दोषों के द्वारा धर्म में दोष लगाया है, ऐसे मुनियों के पारंचिक प्रायश्चित्त होता है । <span class="GRef">( आचारसार/पृष्ठ 64 )</span>. <span class="GRef">( अनगारधर्मामृत/7/56 भाषा )</span> ।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.2.11" id="4.2.11"> श्रद्धान या उपस्थापन</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/7/57 </span><span class="SanskritGatha">गत्वा स्थितस्य मिथ्यात्वं यद्दीक्षाग्रहणं पुनः । तच्छद्धानमिति ख्यातमुपस्थापनमित्यपि ।57।</span> = <span class="HindiText">जो साधु सम्यग्दर्शन को छोड़कर मिथ्यात्व में (मिथ्यामार्ग में) प्रवेश कर गया है उसको पुनः दीक्षारूप यह प्रायश्चित्त दिया जाता है । इसका दूसरा नाम उपस्थापन है । कोई-कोई महाव्रतों का मूलोच्छेद होने पर पुनः दीक्षा देने को उपस्थापन कहते हैं । <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> शूद्रादि छूने के अवसर योग्य प्रायश्चित्त</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> शूद्रादि छूने के अवसर योग्य प्रायश्चित्त</strong> <br /> | ||
आराधनासार/2/70 कपाली, चांडाल, रजस्वला स्त्री को छूने पर सिर पर कमंडल से पानी की धार डाले जो पैरों तक आ जाये । उपवास करे तथा महामंत्र का जाप करे ।</li> | <span class="GRef"> आराधनासार/2/70 </span><br> | ||
कपाली, चांडाल, रजस्वला स्त्री को छूने पर सिर पर कमंडल से पानी की धार डाले जो पैरों तक आ जाये । उपवास करे तथा महामंत्र का जाप करे ।</li> | |||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p> आभ्यंतर छ: तपों में प्रथम तप । इसमें अज्ञानवश पूर्व में किये अपराधों की शांति के लिए पश्चात्ताप किया जाता है और मोहवश किये हुए पाप-कर्म से निवृत्ति पाने की भावना की जाती है । यह आलोचना, प्रतिक्रमण, तद्भय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापन के द्वारा किया जाता है । <span class="GRef"> महापुराण 2.22 18.69 20.189-190, 67. 1458-459, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 14.116-117, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 64. 28, 37, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 6.41-42 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> आभ्यंतर छ: तपों में प्रथम तप । इसमें अज्ञानवश पूर्व में किये अपराधों की शांति के लिए पश्चात्ताप किया जाता है और मोहवश किये हुए पाप-कर्म से निवृत्ति पाने की भावना की जाती है । यह आलोचना, प्रतिक्रमण, तद्भय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापन के द्वारा किया जाता है । <span class="GRef"> महापुराण 2.22 18.69 20.189-190, 67. 1458-459, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_14#116|पद्मपुराण - 14.116-117]], </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_64#28|हरिवंशपुराण - 64.28]], 37, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 6.41-42 </span></p> | ||
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Latest revision as of 10:27, 15 January 2024
सिद्धांतकोष से
प्रतिसमय लगने वाले अंतरंग व बाह्य दोषों की निवृत्ति करके अंतर्शोधन करने के लिए किया गया पश्चात्ताप या दंड के रूप से उपवास आदि का ग्रहण प्रायश्चित कहलाता है, जो अनेक प्रकार का होता है । बाह्य दोषों का प्रायश्चित पश्चात्ताप मात्र से हो जाता है । पर अंतरंग दोषों का प्रायश्चित्त गुरु के समक्ष सरल मन से आलोचना पूर्वक दंड को स्वीकार किये बिना नहीं हो सकता है । परंतु इस प्रकार के प्रायश्चित्त अर्थात् दंड शास्त्र में अत्यंत निपुण व कुशल आचार्य ही शिष्य की शक्ति व योग्यता को देखकर देते हैं, अन्य नहीं ।
- भेद व लक्षण
- प्रायश्चित्त सामान्य का लक्षण
- निरुक्त्यर्थ,
- निश्चय की अपेक्षा,
- व्यवहार की अपेक्षा ।
- प्रायश्चित्त के भेद ।
- प्रायश्चित्त के भेदों के लक्षण ।
- प्रायश्चित्त सामान्य का लक्षण
- देखें - आलोचना, प्रतिक्रमण, विवेक, व्युत्सर्ग, तप व परिहार प्रायश्चित्त संबंधी विषय ।
- प्रायश्चित्त निर्देश
- प्रायश्चित्त की व्याप्ति अंतरंग के साथ है ।
- प्रायश्चित्त के अतिसार ।
- अपराध होते ही प्रायश्चित्त लेना चाहिए ।
- बाह्य दोष का प्रायश्चित्त स्वयं तथा अंतरंग दोष का गुरु के निकट लेना चाहिए ।
- शिष्य के दोषों को गुरु अन्य पर प्रगट न करे ।- देखें गुरु - 2.3
- आत्म भावना से च्युत होने पर पश्चात्ताप ही प्रायश्चित्त है ।
- दोष लगने पर प्रायश्चित्त होता है सर्वदा नहीं ।
- प्रायश्चित्त शास्त्र को जाने बिना प्रायश्चित्त देने का निषेध ।
- प्रायश्चित्त ग्रंथ के अध्ययन का अधिकार सबको नहीं । - देखें श्रोता - 6
- प्रायश्चित्त की व्याप्ति अंतरंग के साथ है ।
- शंका समाधान
- प्रायश्चित्त विधान
- प्रायश्चित्त के योग्य कुछ अपराधों का परिचय ।
- अपराधों के अनुसार प्रायश्चित्त विधान ।
- शूद्रादि छूने के अवसर योग्य प्रायश्चित्त ।
- अयोग्य आहार ग्रहण संबंधी प्रायश्चित्त ।- देखें भक्ष्याभक्ष्य - 1.6
- यथा दोष प्रायश्चित्त में कायोत्सर्ग के काल का प्रमाण ।-देखें व्युत्सर्ग - 1.6
- प्रायश्चित्त के योग्य कुछ अपराधों का परिचय ।
- भेद व लक्षण
- प्रायश्चित्त सामान्य का लक्षण
- निरुक्ति अर्थ
राजवार्तिक/9/22/1/620/28 प्रायः साधुलोकः, प्रायस्य यस्मिन्कर्मणि चित्तं तत्प्रायश्चित्तम् । ... अपराधो वा प्रायः, चित्तं शुद्धिः, प्रायस्य चित्तं प्रायश्चित्तम्, अपराधविशुद्धिरित्यर्थः । = प्रायः साधु लोक, जिस क्रिया में साधुओं का चित्त हो वह प्रायश्चित्त । अथवा प्राय- अपराध उसका शोधन जिससे हो वह प्रायश्चित्त ।
धवला 13/5,4,26/गाथा/9/59 प्राय इत्युच्यते लोकश्चित्तं तस्य मनो भवेत् । तच्चित्तग्राहकं कर्म प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् ।9। प्रायः यह पद लोकवाची है और चित्त से अभिप्राय उसके मन का है । इसलिए उस चित्त को ग्रहण करने वाला कर्म प्रायश्चित्त है, ऐसा समझना चाहिए ।9। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/529/747 पर उद्धृत गाथा )
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/113,116 प्रायः प्राचुर्येण निर्विकारं चित्तं प्रायश्चित्तम् ।113। बोधो ज्ञानं चित्तमित्यनर्थांतरम् ।116। = प्रायश्चित अर्थात् प्रायः चित्त-प्रचुर रूप से निर्विकार चित्त ।113। बोध, ज्ञान और चित्त भिन्न पदार्थ नहीं हैं ।116।
अनगारधर्मामृत/7/37 प्रायो लोकस्तस्य चित्तं मनस्तच्छुद्धिकृत्क्रिया । प्राये तपसि वा चित्तं निश्चयस्तन्निरुच्यते ।37। = प्रायः शब्द का अर्थ लोक और चित्त शब्द का अर्थ मन होता है । जिसके द्वारा साधर्मी और संघ में रहने वाले लोगों का मन अपनी तरफ से शुद्ध हो जाये उस क्रिया या अनुष्ठान को प्रायश्चित्त कहते हैं । ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/451 )
पद्मचंद्र कोष/पृष्ठ 258 प्रायस् + चित्+ क्त ।प्रायस्-तपस्या, चित्त निश्चय । अर्थात् निश्चय संयुक्त तपस्या को प्रायश्चित्त कहते हैं ।
- निश्चय की अपेक्षा
नियमसार/ गाथा कोहादिसब्व्भाववखयपहुदिभावणाए णिग्गहणं । पायच्छित्तं भणिदं णियगुणचिंता य णिच्छयदो ।114। उक्किट्ठो जो बोहो णाणं तस्सेव अप्पणो चित्तं । जो धरइ मुणी णिच्चं पायच्छित्तं हवे तस्स ।116। किं बहुणा भणिएण दु वरतवचरणं महेसिणं सव्वं । पायच्छित्तं जाणह अणेयकम्माण खयहेउ ।117। अप्पसरूवालंबणभावेण दु सव्वभावपरिहारं । सक्कदि काउ जीवो तम्हा झाणं हवे सव्वं ।119। = क्रोधादि स्वकीय भावों के (अपने विभाव भावों के) क्षयादिकी भावना में रहना और निज गुणों का चिंतवन करना वह निश्चय से प्रायश्चित्त कहा है ।114। उसी (अनंत धर्म वाले) आत्मा का जो उत्कृष्ट ज्ञान अथवा चित्त उसे जो मुनि नित्य धारण करता है, उसे प्रायश्चित्त है ।116। बहुत कहने से क्या ? अनेक कर्मों के क्षय का हेतु ऐसा जो महर्षियों का उत्तम तपश्चरण वह सब प्रायश्चित्त जान ।117। आत्म स्वरूप जिसका अवलंबन है, ऐसे भावों से जीव सर्व भावों का परिहार कर सकता है, इसलिए ध्यान सर्वस्व है ।119। (विशेष विस्तार देखें नियमसार व तात्पर्यवृत्ति टीका/113-121) ।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/455 जो चिंतइ अप्पाणं णाण-सरूवं पुणो-पुणो णाणी । विकह-विरत्त चित्तो पायच्छित्तं वरं तस्स ।455। = जो ज्ञानी मुनि ज्ञान स्वरूप आत्मा का बारंबार चिंतवन करता है, और विकथादि प्रमादों से जिसका मन विरक्त रहता है, उसके उत्कृष्ट प्रायश्चित्त होता है ।455।
- व्यवहार की अपेक्षा
मूलाचार/361,363 पायच्छित्तं ति तवो जेण विसुज्झदि हु पुव्वकयपावं । पायिच्छत्तं पत्तोति तेण वुत्तं ...।361। पोराणकम्मखमणं खिवणं णिज्जरणं सोधणं धुमणं । पुच्छणमुच्छिवणं छिदणं ति पायचित्तस्स णामाइं ।363। = व्रत में लगे हुए दोषों को प्राप्त हुआ यति जिससे पूर्व किये पापों से निर्दोष हो जाय वह प्रायश्चित्त तप है ।361। पुराने कर्मों का नाम, क्षेपण, निर्जरा, शोधन, धावन, पुच्छन (निराकरण) उत्क्षेपण, छेदन (द्वैधीकरण) ये सब प्रायश्चित्त के नाम हैं ।363।
सर्वार्थसिद्धि/9/20/439/6 प्रमाददोषपरिहारः प्रायश्चित्तम् । = प्रमाद जन्य दोष का परिहार करना प्रायश्चित्त तप है । ( चारित्रसार/137/2 ) ( अनगारधर्मामृत/7/34 ) ।
धवला 13/5,4,26/59/8 कयावराहेण ससंवेयणिव्वेएण सगावराहणिरायरहणट्ठं जममुट्टाणं कीरदि तप्पायच्छित्तं णाम तवोकम्मं । = संवेग और निर्वेद से युक्त अपराध करने वाला साधु अपने अपराध का निराकरण करने के लिए जो अनुष्ठान करता है वह प्रायश्चित्त नाम का तपःकर्म है ।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/451 दोसं ण करेदि सयं अण्णं पि ण कारएदि जो तिविहं । कुव्वाणं पि ण इच्छदि तस्स विसोही परा होदि ।451। = जो तपस्वी मुनि मन वचन काय से स्वयं दोष नहीं करता, अन्य से भी दोष नहीं कराता तथा कोई दोष करता हो तो उसे अच्छा नहीं मानता, उस मुनि के उत्कृष्ट विशुद्धि (प्रायश्चित्त) होती है ।451।
- निरुक्ति अर्थ
- प्रायश्चित्त के भेद
मूलाचार/362 आलोयण पडिकमणं उभय विवेगो तहा विउस्सग्गो । तव छेदो मूलंविय परिहारो, चेव सद्दहणा ।362। = आलोचना,प्रतिक्रममण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान ये दश भेद प्रायश्चित्त के हैं ।362। ( धवला 13/5,4,26/गाथा 11/60 ) ( चारित्रसार/137/3 ) ( अनगारधर्मामृत/7/37 की भाषा अथवा 37-57 ) ।
तत्त्वार्थसूत्र /9/22 आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारो-पस्थापनाः ।22। आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना यह नव प्रकार का प्रायश्चित्त है ।22।
अनगारधर्मामृत/7/59 व्यवहारनयादित्थं प्रायश्चित्तं दशात्मकम् । निश्चयात्तदसंख्येयलोकमात्रभिदिष्यते ।59। = व्यवहार नय से प्रायश्चित्त के दश भेद हैं । किंतु निश्चयनय से उसके असंख्यात लोक प्रमाण भेद होते हैं ।
- प्रायश्चित्त के भेदों के लक्षण
- तदुभय
सर्वार्थसिद्धि/9/22/440/7 (तदुभय) संसर्गे सति विशोधनात्तदुभयम् । = आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनों का संसर्ग होने पर दोषों का शोधन होने से तदुभय प्रायश्चित्त है । ( राजवार्तिक/9/22/4/621/20 ) ( अनगारधर्मामृत/7/48 ) ।
धवला 13/5,4,26/60/10 सगावराहं गुरुणमालोचिय गुरुसक्खिया अवराहादो पडिणियत्ती उभयं णाम पायच्छित्तं । = अपने अपराध की गुरु के सामने आलोचना करके गुरु की साक्षिपूर्वक अपराध से निवृत्त होना उभय नाम का प्रायश्चित्त है ।
- उपस्थापना या मूल
सर्वार्थसिद्धि 9/22/440/10 पुनर्दीक्षाप्रापणमुपस्थापना । = पुनः दीक्षा देना उपस्थापना प्रायश्चित्त है । ( राजवार्तिक/9/22/10/621/34 ) ( धवला 13/5,4,26/62/2 ) ( चारित्रसार/144/3 ) ( अनगारधर्मामृत/7/55 ) ।
- श्रद्धान
धवला 13/5,4,26/63/3 मिच्छत्तं गंतूण ट्ठियस्स महव्वयाणि घेत्तूण अत्तागम-पयत्थसद्दहणा चेव (सद्दहणं) पायच्छित्तं । = मिथ्यात्व को प्राप्त होकर स्थित हुए जीव के महाव्रतों को स्वीकार कर आप्त आगम और पदार्थों का श्रद्धान करने पर श्रद्धान नाम का प्रायश्चित्त होता है । ( चारित्रसार/147/2 ) ( अनगारधर्मामृत/7/57 ) ।
- तदुभय
- प्रायश्चित्त सामान्य का लक्षण
- प्रायश्चित्त निर्देश
- प्रायश्चित्त की व्याप्ति अंतरंग के साथ है
भगवती आराधना/405/594 आलोचणापरिणदो सम्मं संपच्छिओ गुरुसयासं । जदि अंतरम्मि कालं करेज्ज आराहओ होई । = मैं अपने अपराधों का स्वरूप गुरु के चरण समीप जाकर कहूँगा, ऐसा मन में विचाकर निकला मुनि यदि मार्ग में ही मरण करे तो भी वह आराधक होता है ।405। ( भगवती आराधना/406-407/595 ) ।
देखें प्रतिक्रमण 1.2.2 निजात्म भावना से ही निंदन गर्हण आदि शुद्धि को प्राप्त होता है ।
- प्रायश्चित्त के अतिचार
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/487/707/20 प्रायश्चित्तातिचारनिरूपणा-तत्रातिचाराः । आकंपियअणुमाणियमित्यादिकाश्च । भूतातिचारेऽस्य मनसा अजुप्सा । अज्ञानतः, प्रामादात्कर्मगुरुत्वादालस्याच्चेदं अशुभकर्मबंधननिमित्तं अनुष्ठितं, दुष्टं कृतमिति एवमादिक:प्रतिक्रमणातिचार:। उक्तोभयातिचारसमवायस्तदुभयातिचारः । = प्रायश्चित्त तप के अतिचार-आकंपित अनुमानित वगैरह दोष (देखें आलोचना 2.1) इस तप के अतिचार हैं । ये अतिचार होने पर इसके विषय में मन में ग्लानि न करना अज्ञान से, प्रमाद से, तीव्र कर्म के उदय से और आलस्य से मैंने यह अशुभ कर्म का बंधन करने वाला कर्म किया है, मैंने यह दुष्टकर्म किया है, ऐसा उच्चारण करना प्रतिक्रण के अतिचार हैं । आलोचना और प्रतिक्रमण के अतिचार को उभयातिचार कहते हैं ।
नोट - विवेक, आलोचना आदि तप के अतिचार - देखें वह वह नाम ।
- अपराध होते ही प्रायश्चित लेना चाहिए
भगवती आराधना व.विजयोदया टीका/541/757 उत्थानिका-जाते अपराधे तदानीमेव कथितव्यं न कालक्षेपः कार्य इति शिक्षयति कल्ले परे व परदो काहं दंसणचरित्तसोधित्ति । इस संकप्पमदीया गयं पि कालं ण याणंति।541। ततः सशल्यं मरणं तेषां भवति इति । व्याधय:-, कर्माणि, शत्रवश्चोपेक्षितानि बद्धमूलानि पुनर्न सुखेन विनाश्यंते । अथवा अतिचारकालं गतं चिरातिक्रांतं नैव जानंति । ये हि अतिचाराः प्रतिदिनं जातास्तेषां कालं, संध्या रात्रिदिनं इत्यादिकं पश्चादालो-चनाकाले गुरुणा पृष्टास्तावन्न वक्तुं जानंति विस्मृतत्वाच्चिरातीतस्य । ... अपि शब्देन क्षेत्रभावौ वातिचारस्य हेतु न जानंति । ... इह स्मृतिज्ञानागोचर इति केषांचिद्व्याख्यानं । = आराधना में अतिचार होने पर उसी क्षण में उनका गुरु के समक्ष कथन करना चाहिए, कालक्षेप करना योग्य नहीं, ऐसा उपदेश देते हैं । -- कल परसों अथवा नरसों मैं दर्शन-ज्ञान व चारित्र की शुद्धि करूँगा, ऐसा जिन्होंने अपने मन में संकल्प किया है, ऐसे मुनि अपना आयु कितना नष्ट हुआ है यह नहीं जानते अर्थात् उनका सशल्य मरण होता है ।541। रोग, शत्रु और अपराध इनकी उपेक्षा करने से ये दृढ़ मूल होते हैं . पुनः उनका नाश सुख से कर नहीं सकते । अथवा जो अतिचार होकर बहुत दिन व्यतीत हो चुके हैं, उनका स्मरण होता नहीं । जो अतिचार हुए हैं, उनके संध्या, दिन, रात्रि, इत्यादि रूप काल का स्मरण गुरु के पूछने पर शिष्यों को होता नहीं, क्योंकि अतिचार होकर बहुत दिन व्यतीत हो चुके हैं । ... इसी प्रकार क्षेत्र, भाव और अतिचार के कारण इनका भी स्मरण नहीं होता, वे अतिचार स्मृतिज्ञान के अगोचर हैं । ... ऐसा कोई आचार्य इस गाथा का व्याख्यान करते हैं ।
- कल परसों अथवा नरसों मैं दर्शन-ज्ञान व चारित्र की शुद्धि करूँगा, ऐसा जिन्होंने अपने मन में संकल्प किया है, ऐसे मुनि अपना आयु कितना नष्ट हुआ है यह नहीं जानते अर्थात् उनका सशल्य मरण होता है ।541। रोग, शत्रु और अपराध इनकी उपेक्षा करने से ये दृढ़ मूल होते हैं . पुनः उनका नाश सुख से कर नहीं सकते । अथवा जो अतिचार होकर बहुत दिन व्यतीत हो चुके हैं, उनका स्मरण होता नहीं । जो अतिचार हुए हैं, उनके संध्या, दिन, रात्रि, इत्यादि रूप काल का स्मरण गुरु के पूछने पर शिष्यों को होता नहीं, क्योंकि अतिचार होकर बहुत दिन व्यतीत हो चुके हैं । ... इसी प्रकार क्षेत्र, भाव और अतिचार के कारण इनका भी स्मरण नहीं होता, वे अतिचार स्मृतिज्ञान के अगोचर हैं । ... ऐसा कोई आचार्य इस गाथा का व्याख्यान करते हैं ।
- बाह्य दोष का प्रायश्चित स्वयं तथा अंतरंग दोष का गुरु के निकट लेना चाहिए
प्रवचनसार/211-212 पयदम्हि समारद्धे छेदो समणस्स कायचेट्ठम्हि । जायदि जदि तस्स पुणो आलोयणपुव्विया किरिया ।211। छेदुवजुत्ता समणो समणं ववहारिणं जिणमदम्हि । आसेज्जालोचित्ता उवदिट्ठं तेण कायव्वं ।212। = यदि श्रमण के प्रयत्न पूर्वक की जाने वाली कायचेष्टा में छेद होता है तो उसे आलोचना पूर्वक क्रिया करना चाहिए ।211. किंतु यदि श्रमण छेद में (अंतरंग छेद में) उपयुक्त हुआ हो तो उसे जैनमत में व्यवहार कुशल श्रमण के पास जाकर आलोचना करके (दोष का निवेदन करके) जैसा उपदेश दें वैसा करना चाहिए ।212।
- आत्म भावना से च्युत होने पर पश्चात्ताप ही प्रायश्चित्त है
इष्टोपदेश/ मूल/39 निशामयति निःशेषमिंद्रजालोपमं जगत । स्पृहयत्यात्मलाभाय गत्वान्यत्रानुतप्यते ।39। = योगीजन इस समस्त जगत् को इंद्रजाल के समान देखते हैं, क्योंकि उनके आत्म स्वरूप की प्राप्ति की प्रबल अभिलाषा उदित रहती है । यदि कारणवश अन्य कार्य में प्रवृत्ति हो जाती है, तब उसे संताप होता है ।
- दोष लगने पर प्रायश्चित्त होता है सर्वदा नहीं
राजवार्तिक/9/22/10/622/1 भयत्वरणविस्मरणानवबोधाशक्तिव्यसना-दिभिर्महाव्रतातिचारे सति प्राक् छेदात् षड्विधं प्रायश्चित्तं विधेयं । = डरकर भाग जाना, सामर्थ्य की हीनता, अज्ञान, विस्मरण, यवनादिकों का आतंक, इसी तरह के रोग अभिभव आदि और भी अनेक कारणों से महाव्रतों में अतिचार लग जाने पर तपस्वियों के छेद से पहले के छहों प्रायश्चित्त होते हैं । ( चारित्रसार/142/5 ); ( अनगारधर्मामृत 7/53 ) ।
- प्रायश्चित्त शास्त्र को जाने बिना प्रायश्चित्त देने का निषेध
भगवती आराधना/451-453/678 मोत्तूण रागदोसे ववहारं पट्ठवेइ सो तस्स । ववहारकरणकुसलो जिणवयणविसारदो धीरो ।451। ववहारमयणंतो ववहरणिज्जं च ववहरंतो खु । उस्सीयदि भवपं के अयसं कम्मं च आदियदि ।452। जह ण करेदि तिगिंच्छं वाधिस्स तिरिच्छओ अणिम्मादो । ववहारमयणंतो ण सोधिकामो विसुज्झेइ ।453। =जिन प्रणीत आगम में निपुण, धैर्यवान्, प्रायश्चित्त शास्त्र के ज्ञाता ऐसे आचार्य राग-द्वेष भावना छोड़कर मध्यस्थ भाव धारण कर मुनि को प्रायश्चित्त देते हैं।451। ग्रंथ से, अर्थ से और कर्म से प्रायश्चित्त का स्वरूप जिसको मालूम नहीं है वह मुनि यदि नव प्रकार का प्रायश्चित्त देने लगेगा तो वह संसार के कीचड़ में फँसेगा और जगत् में उसकी अकीर्ति फैलेगी ।452। जैसे - अज्ञवैद्य रोग का स्वरूप न जानने के कारण रोग की चिकित्सा नहीं कर सकता । वैसे ही जो आचार्य प्रायश्चित्त ग्रंथ के जानकार नहीं हैं वे रत्नत्रय को निर्मल करने की इच्छा रखते हुए भी निर्मल नहीं कर सकते ।453।
- शक्ति आदि के सापेक्ष ही देना चाहिए
राजवार्तिक/9/22/10/622/8 तदेतन्नवविधं प्रायश्चित्तं देशकालशक्तिसंयमाद्यविरोधेनाल्पानल्पापराधानुरूपं दोषप्रशमनं चिकित्सितवद्वि-धेयं । जीवस्यासंख्येयलोकमात्रपरिमाणाः । परिणामविकल्पाः अपराधाश्च तावंत एव न तेषां तावद्विकल्पं प्रायश्चित्तमस्ति व्यवहार- नयापेक्षया पिंडीकृत्य प्रायश्चित्तविधानमुक्तं । = देश, काल, शक्ति और संयम में किसी तरह का विरोध न आने पावे और छोटा बड़ा जैसा अपराध हो उसके अनुसार वैद्य के समान दोषों का शमन करना चाहिए । प्रत्येक जीव के परिणामों के भेदों की संख्या असंख्यात लोक मात्र है, और अपराधों की संख्या भी उतनी है, परंतु प्रायश्चित्त के उतने भेद नहीं कहे हैं । ऊपर के लिखे (9 वा 10) भेद तो केवल व्यवहार नय की अपेक्षा से समुदाय रूप से कहे गये हैं । ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/626/828/20 ); ( चारित्रसार/147/2 ); ( अनगारधर्मामृत/7/58 ) ।
- आलोचना पूर्वक ही लिया जाता है
भगवती आराधना/620-621 एत्थ दु उज्जगभवा ववहारिदव्वा भवंति ते पुरिसा संका परिहरिदव्वा सो से पट्टाहि जहि विसुद्धा ।620। पडिसेवणादिचारे जदि आजंपदि तहाकम्मं सव्वे । कुव्वंति तहो सोधिं आगमववहारिणो तस्स ।621। = जो ऋजु भाव से आलोचना करते हैं, ऐसे पुरुष प्रायश्चित्त देने योग्य हैं और जिनके विषय में शंका उत्पन्न हुई हो उनको प्रायश्चित्त आचार्य नहीं देते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि सर्वातिचार निवेदन करने वालों में ही ऋजुता होती है, उसको ही प्रायश्चित्त देना योग्य है ।620। यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रय से हुए संपूर्ण दोष क्षपक अनुक्रम से कहेगा तो प्रायश्चित्त दान कुशल आचार्य उसको प्रायश्चित्त देते हैं ।621।
- प्रायश्चित्त के योग्यायोग्य काल व क्षेत्र
भगवती आराधना/554-559 आलोयणादिया पुण होइ पसत्थे य सुद्धभावस्स । पुव्वण्हे अवरण्हे व सोमतिहिरक्खवेलाए ।554। णिप्पत्तकंटइल्लं विज्जुहदं सुवखरुवखकडुदड्ढं । सुण्णघररुद्ददेउलपत्थररासिट्टि- यापुंजं ।555। तणपत्तकठ्ठछारिय असुइ सुसाणं च भग्गपडिदं वा । रूद्दाणं खुद्दाणं अधिउत्ताणं च ठाणाणि ।556। अण्णं व एवमादी य अप्पसत्थं हवेज्ज जं ठाणं । आलोचणं ण पडिच्छदि तत्थ गणी से अविग्घत्थ ।557। अरहंतसिद्धसागरपउमसरंखीरपुप्फफलभरियं । उज्जाणभवणतोरणपासादं णागजक्खधरं ।558। अण्णं च एवमादिया सुपसत्थं हवइ जं ठाणं । आलोयणं पडिच्छदि तत्थ गणी से अविग्घत्थं ।559। =- विशुद्ध परिणाम वाले इस क्षपक की आलोचना-प्रतिक्रमणादिक क्रियाएं दिन में और प्रशस्त स्थान में होती हैं । दिवस के पूर्व भाग में अथवा उत्तर भाग में, सौम्य तिथि, शुभ नक्षत्र, जिस दिन में रहते हैं उस दिन होती है ।554।
- जो क्षेत्र पत्तों से रहित है, काँटों से भरा हुआ है, बिजली गिरने से जहाँ जमीन फट गयी है, जहाँ शुष्क वृक्ष हैं, जिसमें कटुरससे वृक्ष भरे हैं, जो जल गया है, शून्य घर, रुद्र का मंदिर, पत्थरों का ढेर और ईंटों का ढेर है, ऐसा स्थान आलोचना के योग्य नहीं है ।555। जिसमें सूखे पान, तृण, काठके पुंज हैं, जहाँ भस्म पड़ा है, ऐसे स्थान तथा अपवित्र श्मशान, तथा फूटे हुए पात्र,गिरा हुआ घर जहाँ है वह स्थान भी वर्ज्य है । रूद्र देवताओं, और क्षुद्र देवताओं इनके स्थान भी वर्ज्य समझने चाहिए । 556। ऊपर के स्थान वर्ज्य है वैसे ही अन्य भी जो अयोग्य स्थान हैं, उनमें भी क्षपक की आलोचना आचार्य सुनते नहीं । क्योंकि ऐसे स्थानों में आलोचना करने से क्षपक की कार्य सिद्धि नहीं होगी । 557।
- अर्हंत का मंदिर, सिद्धों का मंदिर, समुद्र के समीप का प्रदेश, जहाँ क्षीर वृक्ष है, जहाँ पुष्प व फलों से लदे वृक्ष हैं ऐसे स्थान,उद्यान, तोरण द्वार सहित मकान, नाग देवता का मंदिर, यक्ष मंदिर, ये सब स्थान क्षपक की आलोचना सुनने के योग्य हैं ।558। और भी अन्य प्रशस्त स्थान आलोचना के योग्य हैं, ऐसे प्रशस्त स्थानों में क्षपक का कार्य निर्विघ्न सिद्ध हो इस हेतु से आचार्य बैठकर आलोचना सुनते हैं ।559।
- प्रायश्चित्त का प्रयोजन व माहात्म्य
राजवार्तिक/9/22/1/620/26 प्रमाददोषव्युदासः भावप्रसादो नैःशल्यम् अनवस्थावृत्तिः मर्यादात्यागः संयमादाढर्यमाराधनमित्येवमादीनां सिद्धय्यर्थ प्रायश्चित्तं नवविधं विधीयते । = प्रमाद दोष व्युदास, भाव प्रसाद, निःशल्यत्व, अव्यवस्था निवारण, मर्यादा का पालन, संयम की दृढता, आराधना सिद्धि आदि के लिए प्रायश्चित्त से विशुद्ध होना आवश्यक है । ( भावपाहुड़ टीका/78/224/9 ) ।
धवला/13/5,4,26/गाथा 10/60 ) कृतानि कर्माण्यतिदारुणानि तनूभवंत्यत्मविगर्हणेन । प्रकाशनात्संवरणाच्च तेषामत्यंतमूलोद्धरणं वदामि ।10। = अपनी गर्हा करने से, दोषों का प्रकाशन करने से, और उनका संवर करने से किये गये अतिदारुण कर्म कृत हो जाते हैं । अब उनका समूल नाश कैसे हो जाता है, यह कहते हैं ।10। ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/451-452 ) ।
- प्रायश्चित्त की व्याप्ति अंतरंग के साथ है
- शंका का समाधान
- दूसरे के परिणाम कैसे जाने जाते हैं
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/626/828/20 कथं परिणामो ज्ञायते इति चेत् सहवासेन तीव्रक्रोधस्तीव्रमान इत्यिादिकं सुज्ञातमेव । तत्कार्योपलंभात्, तमेव वा परिपृच्छय, कीदृग्भवतः परिणामोऽतिचारसमकालं वृत्तः । = प्रश्न - दूसरों के परिणाम कैसे जाने जा सकते हैं ?
उत्तर-- सहवास से परिणाम जाने जा सकते हैं ।
- अथवा उसके कार्य देखने पर उसके तीव्र या मंद क्रोधादि का स्वरूप मालूम होता है ।
- अथवा जब तुमने अतिचार किये थे तब तुम्हारे परिणाम कैसे थे ऐसा उसको पूछकर भी परिणामों का निर्णय किया जा सकता है । (विशेष - देखें विनय 5.1) ।
- तदुभय प्रायश्चित्त के पृथक् निर्देश की क्या आवश्यकता ?
देखें प्रतिक्रमण 2.2 सभी प्रतिक्रमण नियम से आलोचना पूर्वक होते हैं । गुरु स्वयं अन्य किसी से आलोचना नहीं करता है । इसलिए गुरु से अतिरिक्त अन्य शिष्यों की अपेक्षा से तदुभय प्रायश्चित्त का पृथक् निर्देश किया गया है ।
- दूसरे के परिणाम कैसे जाने जाते हैं
- प्रायश्चित्त विधान
- प्रायश्चित्त के कुछ योग कुछ अपराधों का परिचय
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/450/676/8 पृथिवी, आपस्तेजो वायुः ... सचित्त द्रव्य ... तृणफलकादिकं ... अचित्तम् । संसक्तं उपकरणं मिश्रम् । एवं त्रिविधा द्रव्यप्रतिसेवना । वर्षासु ... अर्धयोजनम् । ततोऽधिकक्षेत्रगमनं ... प्रति-षिद्धक्षेत्रगमनं, विरुद्धराजगमनं, छिन्नाध्वगमनं, ततो रक्षणीया गमनम् । ... उन्मार्गेण वा गमनम् । अंतःपुरप्रवेशः । अनुज्ञातगृहभूमि- गमनम् - इत्यादिना क्षेत्रप्रतिसेवना । आवश्यककालादन्यस्मिन्काले आवश्यककरणम् । वर्षावग्रहातिक्रमः- इत्यादिना कालप्रतिसेवना । दर्पः, प्रमादः, अनाभोग भयं, प्रदोषः इत्यादिकेषु परिणामेषु प्रवृत्ति- र्भावसेवा । = पृथ्वी,जल,प्रकाश और वायु सचित्त द्रव्य, तृण का संस्तर फलक वगैरे अचित्त द्रव्य, जीव उत्पन्न हुए हैं ऐसे उपकरणरूप मिश्राद्रव्य, ऐसे तीन प्रकार के द्रव्यों का सेवन करने से दोष लगते हैं यह द्रव्य प्रति सेवना है । वर्षाकाल में (मुनि) आधा योजन से अधिक गमन करना,... निषिद्ध स्थान में जाना, विरुद्ध राज्य में जाना, जहाँ रास्ता टूट गया ऐसे प्रदेश में जाना, उन्मार्ग में जाना, अंतःपुर में प्रवेश करना, जहाँ प्रवेश करने की परवानगी नहीं है ऐसे गृह के जमीन में प्रवेश करना यह क्षेत्रप्रति-सेवना है । आवश्यकों के नियत काल को उल्लंघन कर अन्य समय में सामायिकादि करना, वर्षाकाल योग का उल्लंघन करना यह काल प्रतिसेवना है । दर्प, उन्मत्तता, असावधानता, साहस, भय इत्यादि रूप परिणामों में प्रवृत्त होना भाव प्रतिसेवना है ।
- अपराधों के अनुसार प्रायश्चित्त विधान
- आलोचन
राजवार्तिक/9/22/10/621/36 विद्यायोगोपकरणग्रहणादिषु प्रश्नविनय-मंतरेण प्रवृत्तिरेव दोष, इति तस्य प्रायश्चित्तमालोचनमात्रम् । = विद्या और ध्यान के साधनों के ग्रहण करने आदि में प्रश्न विनय के बिना प्रवृत्ति करना दोष है, उसका प्रायश्चित्त आलोचना मात्र है ।
भावपाहुड/टीका/78/223/14 आचार्यमपृष्ट्वा आतापनादिकरणे पुस्तक-पिच्छादिपरोपकरणग्रहणे परपरोक्षे प्रमादतः आचार्यादिवचनाकरणे संघनामपृष्ट्वा स्वसंघगमने देशकालनियमेनावश्यकर्तव्यव्रतविशेषस्य धर्मकथादि व्यासंगेन विस्मरणे सति पुनः करणे अन्यत्रापि चैवंविधे आलोचनमेव प्रायश्चित्तम् । = आचार्य के बिना पूछे आतापनादि करना, दूसरे साधु की अनुपस्थिति में उसकी पीछी आदि उपकरणों का ग्रहण करना, प्रमाद से आचार्यादि की आज्ञा का उल्लंघन करना, आचार्य से बिना पूछे संघ में प्रवेश करना, धर्म कथादि के प्रसंग से देश काल नियत आवश्यक कर्त्तव्य व व्रत विशेषों का विस्मरण होने पर उन्हें पुनः करना, तथा अन्य भी इसी प्रकार के दोषों का प्रायश्चित्त आलोचना मात्र है । ( अनगारधर्मामृत/7/53 भाषा ) ।
- प्रतिक्रमण
राजवार्तिक/9/22/10/621/37 देशकालनियमेनावश्यं कर्तव्यमित्यास्थितानां योगानां धर्मकथादिव्याक्षेपहेतुसन्निधानेन विस्मरणे सति पुनरनुष्ठाने प्रतिक्रमणं तस्य प्रायश्चित्तम् । = देश और काल के नियम से अवश्य कर्तव्य विधानों को धर्म कथादि के कारण भूल जाने पर पुनः करने के समय प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है ।
धवला 13/5,4,26/60/9 एदं (पडिक्कमणं पायच्छित्तं) कत्थ होदि । अप्पावराहे गुरुहि विणा वट्टमाणम्हि होदि । = जब अपराध छोटा सा हो, गुरु पास न हों तब यह प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त होता है ।
भावपाहुड़ टीका/78/223/18 षडिंद्रियवागादिदुष्परिणामे, आचार्यादिषु हस्तपादादिसंघट्टने, व्रतसमितिगुप्तिषु, स्वल्पातिचारे, पैशुन्यकलहादिकरणे, वैयावृत्यस्वाध्यायादिप्रमादे, गोचरगतस्य लिंगोत्थाने, अन्यसंक्लेशकरणादौ च प्रतिक्रमणप्रायश्चित्तं भवति । दिवसांते रात्र्यंते भोजनगमनादौ च प्रतिक्रमणंप्रायश्चित्तं । = छहों इंद्रिय तथा वचनादि का दुष्प्रयोग, आचार्यादि के अपना हाथ-पाँव आदि का टकरा जाना, व्रत, समिति गुप्ति में छोटे-छोटे दोष लगा जाना, पैशुन्य तथा कलह आदि करना, वैयावृत्त्य तथा स्वाध्यायादि में प्रमाद करना, गोचरी को जाते हुए लिंगोत्थान हो जाना, अन्य के साथ संक्लेश करने वाली क्रियाओं के होने पर प्रतिक्रमण करना चाहिए । यह प्रायश्चित्त सायंकाल, और प्रातःकाल तथा भोजनादि के जाने के समय होता है । ( अनगारधर्मामृत/7/53 भाषा ) ।
- तदुभय
धवला 13/5,4,26/60/11 उभयं णाम पायच्छित्तं । एदं कत्थ होदि ? दुस्सुमिणदंसणादिसु । = दुःस्वप्न देखने आदि के अवसरों पर तदुभय प्रायश्चित्त होता है । ( चारित्रसार/141/6 ) ।
भावपाहुड़ टीका/77/224/1 लोचनखच्छेदस्वप्नेंद्रियातिचाररात्रिभोजनेषु पक्षमाससंवत्सरादिदोषादौ च उभयं आलोचनप्रतिक्रमणप्रायश्चित्त । = केश लोंच, नख का छेद, स्वप्नदोष, इंद्रियों का अतिचार, रात्रि भोजन, तथा पक्ष, मास व संवत्सरादि के दोषों में तदुभय प्रायश्चित्त होता है । ( अनगारधर्मामृत/7/53 भाषा ) ।
- विवेक
राजवार्तिक/9/22/10/622/2 शक्तयनिगूहनेन प्रयत्नेन परिहरतः कुतश्चित्कारणादप्रासुकग्रहणग्राहणयो: प्रासुकस्यापि प्रत्याख्यातस्य विस्मरणात् प्रतिग्रहे च स्मृत्वा पुनस्तदुत्सर्जनं प्रायश्चित्तम् । = शक्ति को न छिपा कर प्रयत्न से परिहार करते हुए भी किसी कारणवश अप्रासुक के स्वयं ग्रहण करने या ग्रहण कराने में छोड़े हुए प्रासुक का विस्मरण हो जाये और ग्रहण करने पर उसका स्मरण आ जाये तो उसका पुनः उत्सर्ग करना ( ही विवेक) प्रायश्चित्त है । ( चारित्रसार/142/2 ) ।
धवला 13/5,4,26/60/12 एदं (विवेगो णाम पायच्छित्तं) कत्थ होदि । जम्हि संते अणियत्तदोसो सो तम्हि होदि । = जिस दोष के होने पर उसका निराकरण नहीं किया जा सकता, उस दोष के होने पर यह विवेक नाम का प्रायश्चित्त होता है ।
- व्युत्सर्ग
राजवार्तिक/9/22/10/622/4 दुस्वप्नदुश्चिंतनमलोत्सर्जनमूत्रातिचारमहानदीमहाटवीतरणादिषु व्युत्सर्गप्रायश्चित्तम् । = दुस्वप्न, दुश्चिंता, मलोत्सर्ग, मूत्र का अतिचार, महानदी और महाअटवी के पार करने आदि में व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है । ( चारित्रसार/142/3 ) ।
धवला 13/5,4,26/61/3 विउस्सग्गो णाम पायच्छित्तं । ... सो कस्स होदि । कयावराहस्स माणेण दिट्ठणवट्ठस्स वज्जसंघडणस्स सीदवादादवसहस्स ओघसूरस्स साहूस्स होदि । = यह व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त जिसने अपराध किया है, किंतु जो अपने विमल ज्ञान से नौ पदार्थों के स्वरूप को समझता है, वज्र संहननवाला है, शीत-वात और आतप को सहन करने में समर्थ है, तथा सामान्यरूप से शूर है, ऐसे साधु के होता है ।
भावपाहुड़ टीका/78/224/3 मौनादिना लोचकरणे, उदरकृमिनिर्गमे. हिममशकादिमहावातादिसघर्षातिचारे, स्निग्धभूहरिततृणपंकोपरिगमने, जानुमात्रजलप्रवेशकरणे, अन्यनिमित्तवस्तुस्वोपयोगकरणे, नावादिनदीतरणे, पुस्तकप्रतिमापातने, पंचस्थावरविघाते, अदृष्टदेशतनुमलविसर्गादौ, पक्षादिप्रतिक्रमणक्रियायां, अंतर्व्याख्यानप्रवृत्यंतादिषु कायोत्सर्ग एव प्रायश्चित्तम् । उच्चारप्रस्रवणादौ च कायोत्सर्गः प्रसिद्ध एव । = मौनादिधारण किये बिना ही लौंच करने पर,
उदर में से कृमि निकलने पर,
हिम, दंश-मशक यद्वा महावातादि के संघर्ष से अतिचार लगने पर,
स्निग्ध भूमि, हरित तृण, यद्वा कर्दम आदि के ऊपर चलने पर,
घोटुओं तक जल में प्रवेश कर जाने पर; अन्य निमित्तक वस्तुको उपयोग में ले जाने पर,
नाव के द्वारा नदी पार होने पर,
पुस्तक या प्रतिमा आदि के गिरा देने पर,
पंचस्थावरों का विघात करने पर,
बिना देखे स्थान पर शारीरिक मल छोड़ने पर,
पक्ष से लेकर प्रतिक्रमण पर्यंत व्याख्यान प्रवृत्त्यंतादिकों में केवल कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त होता है ।
और थूकने और पेशाब आदि के करने पर कायोत्सर्ग करना प्रसिद्ध ही है । ( अनगारधर्मामृत/7/53 भाषा ) ।
- तप
धवला 13/5,4,26/61/6 एदं (तवो पायच्छित्तं) कस्स होदि । तिव्विंदियस्स जोव्वणभरत्थस्स बलवंतस्स सत्तसहायस्स कयावराहस्स होदि । = जिसकी इंद्रियाँ तीव्र हैं, जो जवान हैं, बलवान् हैं और सशक्त हैं, ऐसे अपराधी साधु को दिया जाता है । ( चारित्रसार/142/5 ) ।
- छेद
धवला 13/5,4,26/61/9 छेदो णाम पायच्छित्तं । एदं कस्स होदि । उववासादिखमस्स ओघबलस्स ओघसूरस्स गव्वियस्स कयावराहस्स साहुस्स होदि । = जिसने (बार-बार) अपराध किया है । ( राजवार्तिक/9/22/0/622/5 ) । जो उपवास आदि करने में समर्थ हैं, सब प्रकार बलवान् है, सब प्रकार शूर और अभिमानी है, ऐसे साधु को दिया जाता है । चारित्रसार/143/1 ); ( अनगारधर्मामृत/7/54 ) ।
- मूल
भगवती आराधना/292/506 पिंडं उवधिं सेज्जामविसोधिय जो खु भुंजमाणो हु । मूलट्ठाणं पत्तो बालोत्तिय णो समणबालो ।292। = उद्गमादि दोषों से युक्त आहार, उपकरण, वसतिका इनका जो साधु ग्रहण करता है वह मूलस्थान को प्राप्त होता है । वह अज्ञानी है, केवल नग्न है, न यति है न गणधर ।
धवला 13/5,4,26/62/2 मूलं णाम पायच्छित्तं । एदं कस्स होदि । अवरिमिय अवराहस्स पासत्थोसण्ण-कुसीलसच्छंदादिउव्वट्टट्ठियस्स होदि । = अपरिमित अपराध करने करनेवाला जो साधु ( राजवार्तिक/9/22/10/622/5 ) । पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, और स्वच्छंद आदि होकर कुमार्ग में स्थित है, उसे दिया जाता है । ( चारित्रसार/142/3 ); ( अनगारधर्मामृत/7/55 ); ( आचारसार/पृष्ठ63 ) ।
- अनवस्थाप्य परिहार
चारित्रसार/144/4 प्रमादादंयमुनिसंबंधिनमृषिं छात्रं गृहस्थं वा परपाखंडिप्रतिबद्धचेतनाचेतनद्रव्यं वा परस्त्रियं वा स्तेनयतां मुनीन् प्रहरतो वाऽन्यदप्येवमादिविरुद्धाचरितमाचरतो नवदशपूर्वधरस्यापि त्रिकसंहननस्य जितपरिषहस्य दृढधर्मिणो धीरस्य भवभीतस्य निजगुणानुपस्थापनं प्रायश्चित्तं भवति । ... दर्पादनंतरोक्तांदोषानाचारतः परगणोपस्थापनं प्रायश्चित्तं भवति । =- प्रमाद से अन्य मुनि संबंधी ऋषि, विद्यार्थी, गृहस्थ वा दूसरे पाखंडी के द्वारा रोके हुए चेतनात्मक वा अचेतनात्मक द्रव्य, अथवा परस्त्री आदि को चुरानेवाले, मुनियों को मारनेवाले, अथवा और भी ऐसे ही विरुद्ध आचरण करने वाले, परंतु नौ वा दस पूर्वों के जानकार, पहले तीन संहनन को धारण करने वाले परीषहों को जीतनेवाले, धर्म में दृढ़ रहने वाले, धीर, वीर और संसार से डरने वाले मुनियों के निजगणानुपस्थापन नाम का प्रायश्चित्त होता है ।
- जो अभिमान से उपरोक्त दोषों को करते हैं, उनके परगणानुपस्थापना प्रायश्चित्त होता है । ( आचारसार/पृ.64 ); ( अनगारधर्मामृत/7/56 भाषा ) ।
देखें आगे पारंचिक में धवला/13 विरुद्ध आचरण करने वालों को दिया जाता है ।
- पारंचिक परिहार
भगवती आराधना/1637/1483 तित्थयरपवयणसुदे आइरिए गणहरे महढ्ढीए । एदे आसादंतो पावइ पारंचियं ठाणं ।1637। = तीर्थंकर, रत्नत्रय, आगम, आचार्य, गणधर, और महर्द्धिक मुनिराज इनकी आसादना करने वाला पारंचिक नामक प्रायश्चित्त को प्राप्त होता है ।1637।
धवला 13/5,4,26/63/1 एदाणि दो वि पायच्छित्ताणि णरिंदविरुद्धाचरिदे आइरियाणं णव-दसपुव्वहरणं होदि । = ये दोनों (अनवस्थाप्य, तथा पारंचिक) दो प्रकार के प्रायश्चित्त राजा के विरुद्ध आचरण करने पर ( राजवार्तिक/9/22/10/622/5 ) नौ और दश पूर्वों को धारण करने वाले आचार्य करते हैं ।
चारित्रसार/146/3 तीर्थंकरगणधरगणिप्रवचनसंघाद्यासादनकारकस्य नरेंद्रविरुद्धाचरितस्य राजानमभिमतामात्यादीनां दत्तदीक्षस्य नृपकुलवनितासेवितस्यैवमाद्यन्यैर्दोषैश्च धर्मदूषकस्य पारंचिकं प्रायश्चित्तं भवति । = जो मुनि, तीर्थंकर, गणधर, आचार्य और शास्त्र व संघ आदि की झूठी निंदा करने वाले हैं, विरुद्ध आचरण करते हैं, जिन्होंने किसी राजा को अभिमत ऐसे मंत्री आदि को दीक्षा दी है, जिन्होंने राजकुल की स्त्रियों का सेवन किया है, अथवा ऐसे अन्य दोषों के द्वारा धर्म में दोष लगाया है, ऐसे मुनियों के पारंचिक प्रायश्चित्त होता है । ( आचारसार/पृष्ठ 64 ). ( अनगारधर्मामृत/7/56 भाषा ) ।
- श्रद्धान या उपस्थापन
अनगारधर्मामृत/7/57 गत्वा स्थितस्य मिथ्यात्वं यद्दीक्षाग्रहणं पुनः । तच्छद्धानमिति ख्यातमुपस्थापनमित्यपि ।57। = जो साधु सम्यग्दर्शन को छोड़कर मिथ्यात्व में (मिथ्यामार्ग में) प्रवेश कर गया है उसको पुनः दीक्षारूप यह प्रायश्चित्त दिया जाता है । इसका दूसरा नाम उपस्थापन है । कोई-कोई महाव्रतों का मूलोच्छेद होने पर पुनः दीक्षा देने को उपस्थापन कहते हैं ।
- आलोचन
- शूद्रादि छूने के अवसर योग्य प्रायश्चित्त
आराधनासार/2/70
कपाली, चांडाल, रजस्वला स्त्री को छूने पर सिर पर कमंडल से पानी की धार डाले जो पैरों तक आ जाये । उपवास करे तथा महामंत्र का जाप करे ।
- प्रायश्चित्त के कुछ योग कुछ अपराधों का परिचय
पुराणकोष से
आभ्यंतर छ: तपों में प्रथम तप । इसमें अज्ञानवश पूर्व में किये अपराधों की शांति के लिए पश्चात्ताप किया जाता है और मोहवश किये हुए पाप-कर्म से निवृत्ति पाने की भावना की जाती है । यह आलोचना, प्रतिक्रमण, तद्भय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापन के द्वारा किया जाता है । महापुराण 2.22 18.69 20.189-190, 67. 1458-459, पद्मपुराण - 14.116-117, हरिवंशपुराण - 64.28, 37, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.41-42