यथाख्यात चारित्र: Difference between revisions
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<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/18/436/9 </span><span class="SanskritText"> मोहनीयस्य निरवशेषस्योपशमात्क्षयाच्च आत्मस्वभावावस्थापेक्षालक्षणं यथाख्यातचारित्रमित्याख्यायते।.... यथात्मस्वभावोऽवस्थितस्तथैवाख्यातत्वात्। </span>= <span class="HindiText">समस्त मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से जैसा आत्मा का स्वभाव है उस अवस्था रूप जो चारित्र होता है वह यथाख्यातचारित्र कहा जाता है।.....जिस प्रकार आत्मा का स्वभाव अवस्थित है उसी प्रकार यह कहा गया है, इसलिए इसे यथाख्यात कहते हैं। <span class="GRef">( राजवार्तिक/9/18/11/617/29 )</span>; <span class="GRef">( तत्त्वसार/6/49 )</span>; <span class="GRef">( चारित्रसार/84/4 ) | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/18/436/9 </span><span class="SanskritText"> मोहनीयस्य निरवशेषस्योपशमात्क्षयाच्च आत्मस्वभावावस्थापेक्षालक्षणं यथाख्यातचारित्रमित्याख्यायते।.... यथात्मस्वभावोऽवस्थितस्तथैवाख्यातत्वात्। </span>= <span class="HindiText">समस्त मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से जैसा आत्मा का स्वभाव है उस अवस्था रूप जो चारित्र होता है वह यथाख्यातचारित्र कहा जाता है।.....जिस प्रकार आत्मा का स्वभाव अवस्थित है उसी प्रकार यह कहा गया है, इसलिए इसे यथाख्यात कहते हैं। <span class="GRef">( राजवार्तिक/9/18/11/617/29 )</span>; <span class="GRef">( तत्त्वसार/6/49 )</span>; <span class="GRef">( चारित्रसार/84/4 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/547/714/8 )</span> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/133 </span><span class="PrakritGatha">उवसंते खीणे वा असुहे कम्मम्हि मोहणीयम्हि। छदुमत्थो व जिणो वा जहखाओ संजओ साहू।133। </span>=<span class="HindiText"> अशुभ रूप | <span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/133 </span><span class="PrakritGatha">उवसंते खीणे वा असुहे कम्मम्हि मोहणीयम्हि। छदुमत्थो व जिणो वा जहखाओ संजओ साहू।133। </span>=<span class="HindiText"> अशुभ रूप मोहनीय कर्म के उपशांत अथवा क्षीण हो जाने पर जो वीतराग संयम होता है, उसे यथाख्यातसंयम कहते हैं।....।133। <span class="GRef">( धवला 1/1, 1, 123/गाथा 191/123 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/475/883 ); ( पंचसंग्रह / प्राकृत/1/243 )</span> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 123/371/7 </span><span class="SanskritText"> यथाख्यातो यथाप्रतिपादितः विहारः कषायाभावरूपमनुष्ठानम्। यथाख्यातो विहारो येषां ते यथाख्यातविहाराः। यथाख्यातविहाराश्च ते शुद्धिसंयताश्च यथाख्यातविहारशुद्धिसंयताः। </span>=<span class="HindiText"> परमागम में विहार अर्थात् कषायों के अभाव रूप अनुष्ठान का जैसा प्रतिपादन किया गया है तदनुकूल विहार जिनके पाया जाता है, उन्हें यथाख्यात विहार कहते हैं। जो यथाख्यातविहार वाले होते हुए शुद्धि प्राप्त संयत हैं, वे यथाख्यातविहार शुद्धि - संयत | <span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 123/371/7 </span><span class="SanskritText"> यथाख्यातो यथाप्रतिपादितः विहारः कषायाभावरूपमनुष्ठानम्। यथाख्यातो विहारो येषां ते यथाख्यातविहाराः। यथाख्यातविहाराश्च ते शुद्धिसंयताश्च यथाख्यातविहारशुद्धिसंयताः। </span>=<span class="HindiText"> परमागम में विहार अर्थात् कषायों के अभाव रूप अनुष्ठान का जैसा प्रतिपादन किया गया है तदनुकूल विहार जिनके पाया जाता है, उन्हें यथाख्यात विहार कहते हैं। जो यथाख्यातविहार वाले होते हुए शुद्धि प्राप्त संयत हैं, वे यथाख्यातविहार शुद्धि - संयत कहलाते हैं। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/35/148/7 </span><span class="SanskritText">यथा सहजशुद्धस्वभावत्वेन निष्कंपत्वेन निष्कषायमात्मस्वरूपं तथैवाख्यातं कथितं यथाख्यातचारित्रमिति।</span> =<span class="HindiText"> जैसा निष्कंप सहज शुद्ध स्वभाव से कषाय रहित आत्मा का स्वरूप है, वैसा ही आख्यात अर्थात् कहा गया है, सो यथाख्यातचारित्र है। <br /> | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/35/148/7 </span><span class="SanskritText">यथा सहजशुद्धस्वभावत्वेन निष्कंपत्वेन निष्कषायमात्मस्वरूपं तथैवाख्यातं कथितं यथाख्यातचारित्रमिति।</span> =<span class="HindiText"> जैसा निष्कंप सहज शुद्ध स्वभाव से कषाय रहित आत्मा का स्वरूप है, वैसा ही आख्यात अर्थात् कहा गया है, सो यथाख्यातचारित्र है। <br /> | ||
जैन सिद्धांत | <span class="GRef">जैन सिद्धांत प्रवेशिका/226</span><br/><span class="HindiText"> कषायों के सर्वथा अभाव से प्रादुर्भूत आत्मा की शुद्धि विशेष को यथाख्यात चारित्र कहते हैं। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> यथाख्यात चारित्र का गुणस्थानों की अपेक्षा स्वामित्व</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम/1/1, 1/ </span> | <span class="GRef"> षट्खंडागम/1/1, 1/सूत्र 128/377 </span><span class="PrakritText">जहाक्खाद - विहार-सुद्धि-संजदा चदुसुट्ठाणेसु उवसंत-कसाय-वीयराय-छदुमत्था खीण-कसाय-वीयरायछदुमत्था सजोगिकेवली अजोगिकेवलि त्ति।128। </span>= <span class="HindiText">यथा - ख्यात-विहार-शुद्धि-संयत जीव उपशांत कषाय - वीतराग-छद्मस्थ, क्षीणकषायवीतरागछमस्थ; सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन चार गुणस्थानों में होते हैं।128। <span class="GRef">( पंचसंग्रह / प्राकृत/1/133 ); ( धवला 1/1, 1, 123/गाथा 191/123 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/475/883 ); (पं. सं./सं./1/243 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/35/149/1 )</span> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3">उसमें जघन्य उत्कृष्ट भेद नहीं होता</strong> </span><br /> | ||
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<div class="HindiText"> <p class="HindiText"> मोहनीय कर्म का उपशम अथवा क्षय होने पर प्राप्त आत्मा का शुद्ध स्वरूप । इसे मोक्ष का साधन कहा है यह कषाय रहित अवस्था में उत्पन्न होता है । <span class="GRef"> महापुराण 47.247, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_56#78|हरिवंशपुराण - 56.78]], [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_64#19|64.19]] </span></p> | |||
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Latest revision as of 10:07, 24 January 2024
सिद्धांतकोष से
- यथाख्यात चारित्र
सर्वार्थसिद्धि/9/18/436/9 मोहनीयस्य निरवशेषस्योपशमात्क्षयाच्च आत्मस्वभावावस्थापेक्षालक्षणं यथाख्यातचारित्रमित्याख्यायते।.... यथात्मस्वभावोऽवस्थितस्तथैवाख्यातत्वात्। = समस्त मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से जैसा आत्मा का स्वभाव है उस अवस्था रूप जो चारित्र होता है वह यथाख्यातचारित्र कहा जाता है।.....जिस प्रकार आत्मा का स्वभाव अवस्थित है उसी प्रकार यह कहा गया है, इसलिए इसे यथाख्यात कहते हैं। ( राजवार्तिक/9/18/11/617/29 ); ( तत्त्वसार/6/49 ); ( चारित्रसार/84/4 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/547/714/8 )
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/133 उवसंते खीणे वा असुहे कम्मम्हि मोहणीयम्हि। छदुमत्थो व जिणो वा जहखाओ संजओ साहू।133। = अशुभ रूप मोहनीय कर्म के उपशांत अथवा क्षीण हो जाने पर जो वीतराग संयम होता है, उसे यथाख्यातसंयम कहते हैं।....।133। ( धवला 1/1, 1, 123/गाथा 191/123 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/475/883 ); ( पंचसंग्रह / प्राकृत/1/243 )
धवला 1/1, 1, 123/371/7 यथाख्यातो यथाप्रतिपादितः विहारः कषायाभावरूपमनुष्ठानम्। यथाख्यातो विहारो येषां ते यथाख्यातविहाराः। यथाख्यातविहाराश्च ते शुद्धिसंयताश्च यथाख्यातविहारशुद्धिसंयताः। = परमागम में विहार अर्थात् कषायों के अभाव रूप अनुष्ठान का जैसा प्रतिपादन किया गया है तदनुकूल विहार जिनके पाया जाता है, उन्हें यथाख्यात विहार कहते हैं। जो यथाख्यातविहार वाले होते हुए शुद्धि प्राप्त संयत हैं, वे यथाख्यातविहार शुद्धि - संयत कहलाते हैं।
द्रव्यसंग्रह टीका/35/148/7 यथा सहजशुद्धस्वभावत्वेन निष्कंपत्वेन निष्कषायमात्मस्वरूपं तथैवाख्यातं कथितं यथाख्यातचारित्रमिति। = जैसा निष्कंप सहज शुद्ध स्वभाव से कषाय रहित आत्मा का स्वरूप है, वैसा ही आख्यात अर्थात् कहा गया है, सो यथाख्यातचारित्र है।
जैन सिद्धांत प्रवेशिका/226
कषायों के सर्वथा अभाव से प्रादुर्भूत आत्मा की शुद्धि विशेष को यथाख्यात चारित्र कहते हैं।
- यथाख्यात चारित्र का गुणस्थानों की अपेक्षा स्वामित्व
षट्खंडागम/1/1, 1/सूत्र 128/377 जहाक्खाद - विहार-सुद्धि-संजदा चदुसुट्ठाणेसु उवसंत-कसाय-वीयराय-छदुमत्था खीण-कसाय-वीयरायछदुमत्था सजोगिकेवली अजोगिकेवलि त्ति।128। = यथा - ख्यात-विहार-शुद्धि-संयत जीव उपशांत कषाय - वीतराग-छद्मस्थ, क्षीणकषायवीतरागछमस्थ; सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन चार गुणस्थानों में होते हैं।128। ( पंचसंग्रह / प्राकृत/1/133 ); ( धवला 1/1, 1, 123/गाथा 191/123 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/475/883 ); (पं. सं./सं./1/243 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/35/149/1 )
- उसमें जघन्य उत्कृष्ट भेद नहीं होता
षट्खंडागम 7/2, 11/सूत्र 174/567 जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदस्स अजहण्णअणुक्कस्सिया चरित्त लद्धी अणंतगुणा ।174। कसायाभावेण वड्ढिहाणिकारणभावादो। तेणेव कारणेण अजहण्णा अणुवकस्सा च। = यथाख्यात विहार शुद्धि संयत की अजघन्यानुत्कृष्ट चारित्र लब्धि अनंतगुणी है।174।.....कषाय का अभाव हो जाने से उसकी वृद्धि हानि के कारण का अभाव हो गया है इसी कारण वह अजघन्यानुत्कृष्ट भी है।
पुराणकोष से
मोहनीय कर्म का उपशम अथवा क्षय होने पर प्राप्त आत्मा का शुद्ध स्वरूप । इसे मोक्ष का साधन कहा है यह कषाय रहित अवस्था में उत्पन्न होता है । महापुराण 47.247, हरिवंशपुराण - 56.78, 64.19