सम्यक्त्व: Difference between revisions
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देखें [[ सम्यग्दर्शन ]]। | <span class="GRef"> धवला 1/1,1,144/ गाथा 212/395 </span><span class="PrakritText">छप्पंचणवविहाणं अत्थाणं जिणवरोवइट्ठाणं। आणाए अहिगमेण व सद्दहणं होइ सम्मत्तं।212। </span><span class="HindiText">जिनेंद्रदेव के द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, और नव पदार्थों की आज्ञा अथवा अधिगम से श्रद्धान करने को '''सम्यक्त्व''' कहते हैं।212। </span> | ||
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<div class="HindiText"> <p> प्रमाण के द्वारा जाने हुए तत्त्वों का ज्ञान । इसी से मिथ्यात्व का शमन होता है । यह औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का होता है । रुचि के भेद से इससे दस भेद भी होते है― आज्ञा, मार्ग, उपदेशोत्थ, सूत्रसमुद्भव, बीजसमुद्भव, संक्षेपज, विस्तारज, अर्थज, अवगाढ़ और परमावगाढ़ । यह निसर्गज और अधिगमज इन दो प्रकारों का भी होता है । यह दर्शनमोह के क्षय, उपशम तथा क्षयोपशम से होता है । इसकी प्राप्ति के लिए देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता और पाखंडिमूढ़ता का त्याग कर नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, वात्सल्य, स्थितिकरण और प्रभावना ये आठ अंग धारण किये जाते हैं । प्रशम, संवेग, आस्तिक्य और अनुकंपा ये चार इसके गुण तथा श्रद्धा रुचि, स्पर्श और प्रत्यय इसके पर्याय (अपरनाम) है । तीन मूढ़ता, आठ मद, छ: अनायतन और शंकादि आठ दोषों सहित इसमें पच्चीस दोषों का त्याग किया जाता है । प्रशम, संवेग, स्थिरता, अमूढ़ता, गर्व न करना, आस्तिक्य और अनुकंपा ये सात इसकी भावनाएँ है । इन भावनाओं से इसे शुद्ध रखा जाता है । शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टि-प्रशंसा और दोषारोपण करना ये पांच इसके अतिचार है । यह देशना, काललब्घि आदि बहिरंग कारण तथा कारणलब्धि रूप अंतरंग कारणों के होने पर ही भव्य प्राणियों को प्राप्त होता है । ज्ञान और चारित्र का यह बीज है । इसी से ज्ञान और चारित्र सम्यक् होते हैं । यह मोक्ष का प्रथम सोपान है । जो पाँचों अतिचारों से दूर हैं वे गृहस्थों में प्रधान पद पाते हैं । वे उत्कृष्टत: सात-आठ भवों में और जघन्य रूप से दो-तीन भवों में मुक्त हो जाते हैं । इस प्रकार सच्चे देव, शास्त्र और समीचीन पदार्थों का प्रसन्नतापूर्वक श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है । <span class="GRef"> महापुराण 9.116, 122-124, 131, 21. 97, 24.117, 47. 304-305, 74.339-340 </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 14.217-218, 18.49-50, 47.10, 58.20, | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> प्रमाण के द्वारा जाने हुए तत्त्वों का ज्ञान । इसी से मिथ्यात्व का शमन होता है । यह औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का होता है । रुचि के भेद से इससे दस भेद भी होते है― आज्ञा, मार्ग, उपदेशोत्थ, सूत्रसमुद्भव, बीजसमुद्भव, संक्षेपज, विस्तारज, अर्थज, अवगाढ़ और परमावगाढ़ । यह निसर्गज और अधिगमज इन दो प्रकारों का भी होता है । यह दर्शनमोह के क्षय, उपशम तथा क्षयोपशम से होता है । इसकी प्राप्ति के लिए देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता और पाखंडिमूढ़ता का त्याग कर नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, वात्सल्य, स्थितिकरण और प्रभावना ये आठ अंग धारण किये जाते हैं । प्रशम, संवेग, आस्तिक्य और अनुकंपा ये चार इसके गुण तथा श्रद्धा रुचि, स्पर्श और प्रत्यय इसके पर्याय (अपरनाम) है । तीन मूढ़ता, आठ मद, छ: अनायतन और शंकादि आठ दोषों सहित इसमें पच्चीस दोषों का त्याग किया जाता है । प्रशम, संवेग, स्थिरता, अमूढ़ता, गर्व न करना, आस्तिक्य और अनुकंपा ये सात इसकी भावनाएँ है । इन भावनाओं से इसे शुद्ध रखा जाता है । शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टि-प्रशंसा और दोषारोपण करना ये पांच इसके अतिचार है । यह देशना, काललब्घि आदि बहिरंग कारण तथा कारणलब्धि रूप अंतरंग कारणों के होने पर ही भव्य प्राणियों को प्राप्त होता है । ज्ञान और चारित्र का यह बीज है । इसी से ज्ञान और चारित्र सम्यक् होते हैं । यह मोक्ष का प्रथम सोपान है । जो पाँचों अतिचारों से दूर हैं वे गृहस्थों में प्रधान पद पाते हैं । वे उत्कृष्टत: सात-आठ भवों में और जघन्य रूप से दो-तीन भवों में मुक्त हो जाते हैं । इस प्रकार सच्चे देव, शास्त्र और समीचीन पदार्थों का प्रसन्नतापूर्वक श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है । <span class="GRef"> महापुराण 9.116, 122-124, 131, 21. 97, 24.117, 47. 304-305, 74.339-340 </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_14#217|पद्मपुराण - 14.217-218]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_18#49|18.49-50]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_47#10|47.10]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_58#20|58.20]], पांडवपुराण 23.61, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.11-12, 19, 141-142 </span></p> | ||
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Latest revision as of 21:16, 14 February 2024
सिद्धांतकोष से
धवला 1/1,1,144/ गाथा 212/395 छप्पंचणवविहाणं अत्थाणं जिणवरोवइट्ठाणं। आणाए अहिगमेण व सद्दहणं होइ सम्मत्तं।212। जिनेंद्रदेव के द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, और नव पदार्थों की आज्ञा अथवा अधिगम से श्रद्धान करने को सम्यक्त्व कहते हैं।212।
अधिक जानकारी के लिये देखें सम्यग्दर्शन ।
पुराणकोष से
प्रमाण के द्वारा जाने हुए तत्त्वों का ज्ञान । इसी से मिथ्यात्व का शमन होता है । यह औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का होता है । रुचि के भेद से इससे दस भेद भी होते है― आज्ञा, मार्ग, उपदेशोत्थ, सूत्रसमुद्भव, बीजसमुद्भव, संक्षेपज, विस्तारज, अर्थज, अवगाढ़ और परमावगाढ़ । यह निसर्गज और अधिगमज इन दो प्रकारों का भी होता है । यह दर्शनमोह के क्षय, उपशम तथा क्षयोपशम से होता है । इसकी प्राप्ति के लिए देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता और पाखंडिमूढ़ता का त्याग कर नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, वात्सल्य, स्थितिकरण और प्रभावना ये आठ अंग धारण किये जाते हैं । प्रशम, संवेग, आस्तिक्य और अनुकंपा ये चार इसके गुण तथा श्रद्धा रुचि, स्पर्श और प्रत्यय इसके पर्याय (अपरनाम) है । तीन मूढ़ता, आठ मद, छ: अनायतन और शंकादि आठ दोषों सहित इसमें पच्चीस दोषों का त्याग किया जाता है । प्रशम, संवेग, स्थिरता, अमूढ़ता, गर्व न करना, आस्तिक्य और अनुकंपा ये सात इसकी भावनाएँ है । इन भावनाओं से इसे शुद्ध रखा जाता है । शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टि-प्रशंसा और दोषारोपण करना ये पांच इसके अतिचार है । यह देशना, काललब्घि आदि बहिरंग कारण तथा कारणलब्धि रूप अंतरंग कारणों के होने पर ही भव्य प्राणियों को प्राप्त होता है । ज्ञान और चारित्र का यह बीज है । इसी से ज्ञान और चारित्र सम्यक् होते हैं । यह मोक्ष का प्रथम सोपान है । जो पाँचों अतिचारों से दूर हैं वे गृहस्थों में प्रधान पद पाते हैं । वे उत्कृष्टत: सात-आठ भवों में और जघन्य रूप से दो-तीन भवों में मुक्त हो जाते हैं । इस प्रकार सच्चे देव, शास्त्र और समीचीन पदार्थों का प्रसन्नतापूर्वक श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है । महापुराण 9.116, 122-124, 131, 21. 97, 24.117, 47. 304-305, 74.339-340 पद्मपुराण - 14.217-218, 18.49-50, 47.10, 58.20, पांडवपुराण 23.61, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.11-12, 19, 141-142