दर्शनविशुद्धि: Difference between revisions
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<p class="HindiText">तीर्थंकरत्व की कारणभूत षोडश भावनाओं में सर्व प्रथम व सर्व प्रधान भावना दर्शनविशुद्धि है। इसके बिना शेष 15 भावनाएँ निरर्थक हैं। क्योंकि दर्शनविशुद्धि ही आत्मस्वरूप संवेदन के प्रति एक मात्र कारण है। सम्यग्दर्शन का अत्यंत निर्मल व दृढ हो जाना ही दर्शनविशुद्धि है। </p> | <p class="HindiText">तीर्थंकरत्व की कारणभूत षोडश भावनाओं में सर्व प्रथम व सर्व प्रधान भावना दर्शनविशुद्धि है। इसके बिना शेष 15 भावनाएँ निरर्थक हैं। क्योंकि दर्शनविशुद्धि ही आत्मस्वरूप संवेदन के प्रति एक मात्र कारण है। सम्यग्दर्शन का अत्यंत निर्मल व दृढ हो जाना ही दर्शनविशुद्धि है। </p> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1"> दर्शनविशुद्धि भावना का लक्षण</strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> तत्त्वार्थ के श्रद्धान द्वारा शुद्ध सम्यग्दर्शन</strong> </span><br><span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/82/104/18 </span><span class="SanskritText"> निजशुद्धात्मरुचिरूपनिश्चयसम्यक्त्वसाधकेन मूढत्रयादिपंचविंशतिमलरहितेन तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणेन दर्शनेन शुद्धा दर्शनशुद्धा: पुरुषा:। </span>=<span class="HindiText">निज शुद्धात्म की रुचि रूप सम्यक्त्व का जो साधक है ऐसा तीन मूढताओं और 25 मल से रहित तत्त्वार्थ के श्रद्धान रूप लक्षण वाले दर्शन से जो शुद्ध हैं वे पुरुष दर्शनशुद्ध कहे जाते हैं।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> साष्टांग सम्यग्दर्शन</strong></span><br> <span class="GRef"> राजवार्तिक/6/24/1/5/29 </span><span class="SanskritText"> जिनोपदिष्टे निर्ग्रंथ मोक्षवर्त्मनि रुचि: नि:शंकितत्वाद्यष्टांगादर्शनविशुद्धि:।1। </span>=<span class="HindiText">जिनोपदिष्ट निर्ग्रंथ मोक्षमार्ग में रुचि तथा नि:शंकितादि आठ अंग सहित होना सो दर्शनविशुद्धि है <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/6/24/338/5 )</span>।</span><br> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/167/380/10 </span><span class="SanskritText">नि:शंकितत्वादिगुणपरिणतिदर्शनविशुद्धि: तस्यां सत्यां शंकाकांक्षाविचिकित्सादीनां अशुभपरिणामानां परिग्रहाणां त्यागो भवति।</span>=<span class="HindiText">नि:शंकित वगैरह गुणों की आत्मा में परिणति होना यह दर्शनशुद्धि है। यह शुद्धि होने से कांक्षा, विचिकित्सा वगैरह अशुभ परिणामरूपी परिग्रहों का त्याग होता है। </span></li> | |||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3">निर्दोष सम्यग्दर्शन </strong></span><br><span class="GRef"> धवला 8/3,41/79/9 </span><span class="PrakritText">दंसणं सम्मद्दंसणं, तस्स विसुज्झदा दंसणविसुज्झदा, तोए दंसणविसुंझदाए जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधंति। तिमूढावोढ-अट्ठ-मलवदिरित्तसम्मद्दंसणभावो दंसणविसुज्झदा णाम। </span>=<span class="HindiText">‘दर्शन’ का अर्थ सम्यग्दर्शन है। उसकी विशुद्धता का नाम दर्शनविशुद्धता है। ..उस दर्शनविशुद्धि से जीव तीर्थंकर नामकर्म का बंध करते हैं। तीन मूढताओं से रहित और आठ मलों से व्यतिरिक्त जो सम्यग्दर्शनभाव है उसे दर्शनविशुद्धता कहते हैं। <span class="GRef">( चारित्रसार/51/6 )</span>। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> अभक्ष्य भक्षण के त्याग सहित साष्टांग सम्यग्दर्शन </strong></span><br><span class="GRef"> भावपाहुड़ टीका/77/221/2 </span><span class="SanskritText">एतै: (निशंकितत्वादि) अष्टभिर्गुणैर्युक्तत्वं चर्मजलतैलघृतभूतनाशनाप्रयोगत्वं मूलकगर्जरसूरणकंदगृंजनपलांडुविशदौग्धिककलिंगपंचपुष्पसंधानककौसुंभपत्रपत्रशाकमांसादिभक्षकभाजनभोजनादिपरिहरणं च दर्शनविशुद्धि:।</span> =<span class="HindiText">सम्यग्दर्शन के आठ गुणों से युक्त होना। चर्म की वस्तु में रखे जल, तेल, घी आदि खाने की वस्तुओं का प्रयोग न करना। कंद, मूली, गाजर आदि जमीकंद, आलू, बड़फलादि तरबूज, पंच पुष्प, आचार, कौसुंभ पत्र और पत्ते के शाक तथा मांसादि के खाने वालों के बर्तनों में रखे हुए भोजन का त्यागना यह दर्शनविशुद्धि है। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> सम्यग्दर्शन की ओर अविचल झुकाव </strong></span><br><span class="GRef"> धवला 8/3,41/80/2 </span><span class="PrakritText">ण तिमूढा वोढत्तट्ठमलवदिरेगेहि चेव दंसणविसुज्झदा सुद्धणयाहिप्पाएण होदि, किंतु पुव्विल्लगुणेहिं सरूवं लद्धूण ट्ठिदसम्मदंसणस्स साहूणं पासु अपरिच्चागे...पयट्ठावणं विसुज्झदा णाम। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध नय के अभिप्राय से तीन मूढताओं और आठ मलों से रहित होने पर ही दर्शनविशुद्धता नहीं होती, किंतु पूर्वोक्त गुणों से अपने निज स्वरूप को प्राप्तकर स्थित सम्यग्दर्शन की साधुओं की प्रासुक परित्याग आदि ...की युक्तता में प्रवर्तने का नाम विशुद्धता है। </span></li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2">सम्यग्दर्शन की अपेक्षा दर्शनविशुद्धि निर्देश का कारण</strong></span><br><span class="GRef"> चारित्रसार/52/1 </span><span class="SanskritText">विशुद्धिं विना दर्शनमात्रादेव तीर्थंकरनामकर्मबंधों न भवति त्रिमूढापोढाष्टमदादिरहितत्वात् उपलब्धनिजस्वरूपस्य सम्यग्दर्शनस्य...शेषभावनानां तत्रैवांतर्भावादिति दर्शनविशुद्धता व्याख्याता। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–(सम्यग्दर्शन की अपेक्षा दर्शनविशुद्धि निर्देश क्यों किया?) <strong>उत्तर</strong>–क्योंकि, सम्यग्दर्शन की विशुद्धि के बिना केवल सम्यग्दर्शन होने मात्र से तीर्थंकर नामकर्म का बंध नहीं होता। वह विशुद्ध सम्यग्दर्शन में (चाहे तीन में से कोई सा भी हो) तीन मूढता और आठ मदों से रहित होने के कारण अपने आत्मा का निजस्वरूप प्रत्यक्ष होना चाहिए...बाकी की पंद्रह भावनाएँ भी उसी एक दर्शनविशुद्धि में ही शामिल हो जाती हैं, इसलिए दर्शनविशुद्धता का व्याख्यान किया। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3"> सोलह भावनाओं में दर्शनविशुद्धि की प्रधानता</strong></span><br><span class="GRef"> भगवती आराधना/740 </span><span class="PrakritGatha">सुद्धे सम्मत्ते अविरदो वि अज्जेदि तित्थयरणामं। जादो दु सेणिगो आगमेसिं अरुहो अविरदो वि।740। </span>=<span class="HindiText">शंका, कांक्षा वगैरह अतिचारों से रहित अविरत सम्यग्दृष्टि के भी तीर्थंकर नामकर्म का बंध होता है। केवल सम्यग्दर्शन की सहायता से ही श्रेणिक राजा भविष्यकाल में अरहंत हुआ। </span><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/38/159/4 </span><span class="SanskritText">षोडशभावनासु मध्ये परमागमभाषया पंचविंशतिमलरहिता तथाध्यात्मभाषया निजशुद्धात्मोपादेयरुचिरूपा सम्यक्त्वभावनैव मुख्येति विज्ञेय:। </span>=<span class="HindiText">इन सोलह भावनाओं में, परमागम भाषा से...25 दोषों से रहित तथा अध्यात्म भाषा से निजशुद्ध आत्मा में उपादेय रूप रुचि ऐसी सम्यक्त्व की भावना ही मुख्य है, ऐसा जानना चाहिए।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="4" id="4"> एक दर्शनविशुद्धि से ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध कैसे संभव है</strong></span><br> <span class="GRef"> धवला 8/3,41/80/1 </span><span class="PrakritText"> कधं ताए एक्काए चेव तित्थयरणामकम्मस्स बंधो, सव्वसम्माइट्ठीणं तित्थयरणामकम्मबंधपसंगादो त्ति। वुच्चदे–ण तिमूढावोढत्तट्ठमलवदिरेगेहि चेव दंसणविसुज्झदा सुद्धणयाहिप्पाएण होदि, किंतु पुव्विल्लगुणेहिं सरूवं लद्धणं टि्ठदसम्मद्दंसणस्स साहूणं पासुअपरिच्चागे साहूणं समाहिसंधारणे साहूणं वेज्जावच्चजोगे अरहंतभत्तीए बहुसू भत्तीए पवयणभत्तीए पवयणवच्छलदाए पवयणे पट्टावणे अभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तत्तणे पयट्ठावणं विसुज्झदा णाम। तीए दंसणविसुज्झदाए एक्काए वि तित्थयरकम्मं बंधंति।</span><span class="GRef"> धवला 8/3,41/86/5 </span><span class="PrakritText">अरहंतवुत्ताणुट्ठाणाणुवत्तणं तदणुट्ठाणपासो वा अरहंतभत्ती ण म। ण च एसा दंसणविसुज्झादादीहि विणा संभवइ, विरोहादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–केवल उस एक दर्शनविशुद्धता से ही तीर्थंकर नामकर्म का बंध कैसे संभव है, क्योंकि, ऐसा मानने से सब सम्यग्दृष्टियों के तीर्थंकर नामकर्म के बंध का प्रसंग आवेगा? <strong>उत्तर</strong>–इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि शुद्ध नय से अभिप्राय से तीन मूढ़ताओं और आठ मलों से रहित होने पर ही दर्शनविशुद्धता नहीं होती, किंतु पूर्वोक्त गुणों से (तीन मूढताओं व आठ मलों रहित) अपने निज स्वरूप को प्राप्तकर स्थित, सम्यग्दर्शन के, साधुओं को प्रासुक परित्याग, साधुओं की समाधिसंधारणा, साधुओं की वैयावृत्ति का संयोग, अरहंत भक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रवचन भक्ति, प्रवचन वत्सलता, प्रवचन प्रभावना और अभीक्ष्णज्ञानोपयोग युक्तता में प्रवर्तने का नाम विशुद्धता है। उस एक ही दर्शनविशुद्धता से ही तीर्थंकर कर्म को बाँधते हैं। <span class="GRef">( चारित्रसार/52/4 )</span> अरहंत के द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठान के अनुकूल प्रवृत्ति करने या उक्त अनुष्ठान के स्पर्श को अर्हंत भक्ति कहते हैं। और यह दर्शनविशुद्धतादिकों के बिना संभव नहीं है।</span></li> | ||
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<p>तीर्थंकर प्रकृति की कारणभूत षोडश भावनाओं में प्रथम भावना । इससे जिनेंद्र द्वारा कथित मोक्ष-मार्ग में समीचीन श्रद्धा होती है । इस श्रद्धा के अभाव में शेष भावनाएँ फलीभूत नहीं होती । <span class="GRef"> महापुराण 63. 312, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 34. 132 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText">तीर्थंकर प्रकृति की कारणभूत षोडश भावनाओं में प्रथम भावना । इससे जिनेंद्र द्वारा कथित मोक्ष-मार्ग में समीचीन श्रद्धा होती है । इस श्रद्धा के अभाव में शेष भावनाएँ फलीभूत नहीं होती । <span class="GRef"> महापुराण 63. 312, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_34#132|हरिवंशपुराण - 34.132]] </span></p> | ||
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Latest revision as of 19:56, 15 February 2024
सिद्धांतकोष से
तीर्थंकरत्व की कारणभूत षोडश भावनाओं में सर्व प्रथम व सर्व प्रधान भावना दर्शनविशुद्धि है। इसके बिना शेष 15 भावनाएँ निरर्थक हैं। क्योंकि दर्शनविशुद्धि ही आत्मस्वरूप संवेदन के प्रति एक मात्र कारण है। सम्यग्दर्शन का अत्यंत निर्मल व दृढ हो जाना ही दर्शनविशुद्धि है।
- दर्शनविशुद्धि भावना का लक्षण
- तत्त्वार्थ के श्रद्धान द्वारा शुद्ध सम्यग्दर्शन
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/82/104/18 निजशुद्धात्मरुचिरूपनिश्चयसम्यक्त्वसाधकेन मूढत्रयादिपंचविंशतिमलरहितेन तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणेन दर्शनेन शुद्धा दर्शनशुद्धा: पुरुषा:। =निज शुद्धात्म की रुचि रूप सम्यक्त्व का जो साधक है ऐसा तीन मूढताओं और 25 मल से रहित तत्त्वार्थ के श्रद्धान रूप लक्षण वाले दर्शन से जो शुद्ध हैं वे पुरुष दर्शनशुद्ध कहे जाते हैं। - साष्टांग सम्यग्दर्शन
राजवार्तिक/6/24/1/5/29 जिनोपदिष्टे निर्ग्रंथ मोक्षवर्त्मनि रुचि: नि:शंकितत्वाद्यष्टांगादर्शनविशुद्धि:।1। =जिनोपदिष्ट निर्ग्रंथ मोक्षमार्ग में रुचि तथा नि:शंकितादि आठ अंग सहित होना सो दर्शनविशुद्धि है ( सर्वार्थसिद्धि/6/24/338/5 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/167/380/10 नि:शंकितत्वादिगुणपरिणतिदर्शनविशुद्धि: तस्यां सत्यां शंकाकांक्षाविचिकित्सादीनां अशुभपरिणामानां परिग्रहाणां त्यागो भवति।=नि:शंकित वगैरह गुणों की आत्मा में परिणति होना यह दर्शनशुद्धि है। यह शुद्धि होने से कांक्षा, विचिकित्सा वगैरह अशुभ परिणामरूपी परिग्रहों का त्याग होता है। - निर्दोष सम्यग्दर्शन
धवला 8/3,41/79/9 दंसणं सम्मद्दंसणं, तस्स विसुज्झदा दंसणविसुज्झदा, तोए दंसणविसुंझदाए जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधंति। तिमूढावोढ-अट्ठ-मलवदिरित्तसम्मद्दंसणभावो दंसणविसुज्झदा णाम। =‘दर्शन’ का अर्थ सम्यग्दर्शन है। उसकी विशुद्धता का नाम दर्शनविशुद्धता है। ..उस दर्शनविशुद्धि से जीव तीर्थंकर नामकर्म का बंध करते हैं। तीन मूढताओं से रहित और आठ मलों से व्यतिरिक्त जो सम्यग्दर्शनभाव है उसे दर्शनविशुद्धता कहते हैं। ( चारित्रसार/51/6 )। - अभक्ष्य भक्षण के त्याग सहित साष्टांग सम्यग्दर्शन
भावपाहुड़ टीका/77/221/2 एतै: (निशंकितत्वादि) अष्टभिर्गुणैर्युक्तत्वं चर्मजलतैलघृतभूतनाशनाप्रयोगत्वं मूलकगर्जरसूरणकंदगृंजनपलांडुविशदौग्धिककलिंगपंचपुष्पसंधानककौसुंभपत्रपत्रशाकमांसादिभक्षकभाजनभोजनादिपरिहरणं च दर्शनविशुद्धि:। =सम्यग्दर्शन के आठ गुणों से युक्त होना। चर्म की वस्तु में रखे जल, तेल, घी आदि खाने की वस्तुओं का प्रयोग न करना। कंद, मूली, गाजर आदि जमीकंद, आलू, बड़फलादि तरबूज, पंच पुष्प, आचार, कौसुंभ पत्र और पत्ते के शाक तथा मांसादि के खाने वालों के बर्तनों में रखे हुए भोजन का त्यागना यह दर्शनविशुद्धि है। - सम्यग्दर्शन की ओर अविचल झुकाव
धवला 8/3,41/80/2 ण तिमूढा वोढत्तट्ठमलवदिरेगेहि चेव दंसणविसुज्झदा सुद्धणयाहिप्पाएण होदि, किंतु पुव्विल्लगुणेहिं सरूवं लद्धूण ट्ठिदसम्मदंसणस्स साहूणं पासु अपरिच्चागे...पयट्ठावणं विसुज्झदा णाम। =शुद्ध नय के अभिप्राय से तीन मूढताओं और आठ मलों से रहित होने पर ही दर्शनविशुद्धता नहीं होती, किंतु पूर्वोक्त गुणों से अपने निज स्वरूप को प्राप्तकर स्थित सम्यग्दर्शन की साधुओं की प्रासुक परित्याग आदि ...की युक्तता में प्रवर्तने का नाम विशुद्धता है।
- तत्त्वार्थ के श्रद्धान द्वारा शुद्ध सम्यग्दर्शन
- सम्यग्दर्शन की अपेक्षा दर्शनविशुद्धि निर्देश का कारण
चारित्रसार/52/1 विशुद्धिं विना दर्शनमात्रादेव तीर्थंकरनामकर्मबंधों न भवति त्रिमूढापोढाष्टमदादिरहितत्वात् उपलब्धनिजस्वरूपस्य सम्यग्दर्शनस्य...शेषभावनानां तत्रैवांतर्भावादिति दर्शनविशुद्धता व्याख्याता। =प्रश्न–(सम्यग्दर्शन की अपेक्षा दर्शनविशुद्धि निर्देश क्यों किया?) उत्तर–क्योंकि, सम्यग्दर्शन की विशुद्धि के बिना केवल सम्यग्दर्शन होने मात्र से तीर्थंकर नामकर्म का बंध नहीं होता। वह विशुद्ध सम्यग्दर्शन में (चाहे तीन में से कोई सा भी हो) तीन मूढता और आठ मदों से रहित होने के कारण अपने आत्मा का निजस्वरूप प्रत्यक्ष होना चाहिए...बाकी की पंद्रह भावनाएँ भी उसी एक दर्शनविशुद्धि में ही शामिल हो जाती हैं, इसलिए दर्शनविशुद्धता का व्याख्यान किया। - सोलह भावनाओं में दर्शनविशुद्धि की प्रधानता
भगवती आराधना/740 सुद्धे सम्मत्ते अविरदो वि अज्जेदि तित्थयरणामं। जादो दु सेणिगो आगमेसिं अरुहो अविरदो वि।740। =शंका, कांक्षा वगैरह अतिचारों से रहित अविरत सम्यग्दृष्टि के भी तीर्थंकर नामकर्म का बंध होता है। केवल सम्यग्दर्शन की सहायता से ही श्रेणिक राजा भविष्यकाल में अरहंत हुआ। द्रव्यसंग्रह टीका/38/159/4 षोडशभावनासु मध्ये परमागमभाषया पंचविंशतिमलरहिता तथाध्यात्मभाषया निजशुद्धात्मोपादेयरुचिरूपा सम्यक्त्वभावनैव मुख्येति विज्ञेय:। =इन सोलह भावनाओं में, परमागम भाषा से...25 दोषों से रहित तथा अध्यात्म भाषा से निजशुद्ध आत्मा में उपादेय रूप रुचि ऐसी सम्यक्त्व की भावना ही मुख्य है, ऐसा जानना चाहिए। - एक दर्शनविशुद्धि से ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध कैसे संभव है
धवला 8/3,41/80/1 कधं ताए एक्काए चेव तित्थयरणामकम्मस्स बंधो, सव्वसम्माइट्ठीणं तित्थयरणामकम्मबंधपसंगादो त्ति। वुच्चदे–ण तिमूढावोढत्तट्ठमलवदिरेगेहि चेव दंसणविसुज्झदा सुद्धणयाहिप्पाएण होदि, किंतु पुव्विल्लगुणेहिं सरूवं लद्धणं टि्ठदसम्मद्दंसणस्स साहूणं पासुअपरिच्चागे साहूणं समाहिसंधारणे साहूणं वेज्जावच्चजोगे अरहंतभत्तीए बहुसू भत्तीए पवयणभत्तीए पवयणवच्छलदाए पवयणे पट्टावणे अभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तत्तणे पयट्ठावणं विसुज्झदा णाम। तीए दंसणविसुज्झदाए एक्काए वि तित्थयरकम्मं बंधंति। धवला 8/3,41/86/5 अरहंतवुत्ताणुट्ठाणाणुवत्तणं तदणुट्ठाणपासो वा अरहंतभत्ती ण म। ण च एसा दंसणविसुज्झादादीहि विणा संभवइ, विरोहादो।=प्रश्न–केवल उस एक दर्शनविशुद्धता से ही तीर्थंकर नामकर्म का बंध कैसे संभव है, क्योंकि, ऐसा मानने से सब सम्यग्दृष्टियों के तीर्थंकर नामकर्म के बंध का प्रसंग आवेगा? उत्तर–इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि शुद्ध नय से अभिप्राय से तीन मूढ़ताओं और आठ मलों से रहित होने पर ही दर्शनविशुद्धता नहीं होती, किंतु पूर्वोक्त गुणों से (तीन मूढताओं व आठ मलों रहित) अपने निज स्वरूप को प्राप्तकर स्थित, सम्यग्दर्शन के, साधुओं को प्रासुक परित्याग, साधुओं की समाधिसंधारणा, साधुओं की वैयावृत्ति का संयोग, अरहंत भक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रवचन भक्ति, प्रवचन वत्सलता, प्रवचन प्रभावना और अभीक्ष्णज्ञानोपयोग युक्तता में प्रवर्तने का नाम विशुद्धता है। उस एक ही दर्शनविशुद्धता से ही तीर्थंकर कर्म को बाँधते हैं। ( चारित्रसार/52/4 ) अरहंत के द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठान के अनुकूल प्रवृत्ति करने या उक्त अनुष्ठान के स्पर्श को अर्हंत भक्ति कहते हैं। और यह दर्शनविशुद्धतादिकों के बिना संभव नहीं है।
पुराणकोष से
तीर्थंकर प्रकृति की कारणभूत षोडश भावनाओं में प्रथम भावना । इससे जिनेंद्र द्वारा कथित मोक्ष-मार्ग में समीचीन श्रद्धा होती है । इस श्रद्धा के अभाव में शेष भावनाएँ फलीभूत नहीं होती । महापुराण 63. 312, हरिवंशपुराण - 34.132