विद्या: Difference between revisions
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<li><strong name="1" id="1"><span class="HindiText">विद्या</span></strong> <br /> | <li><strong name="1" id="1"><span class="HindiText">विद्या</span></strong> <br /> | ||
<span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/ | <span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/वृ./1/38/282/9 </span> <span class="SanskritText">विद्यया यथावस्थितवस्तुरूपावलोकनशक्त्या। </span>= <span class="HindiText">विद्या का अर्थ है यथावस्थित वस्तु के स्वरूप का अवलोकन करने की शक्ति। <br /> | ||
<strong>नोट</strong>–(इसके अतिरिक्त मंत्र-तंत्रों आदि के अनुष्ठान विशेष से | <strong>नोट</strong>–(इसके अतिरिक्त मंत्र-तंत्रों आदि के अनुष्ठान विशेष से सिद्ध की गयी भी कुछ विद्याएँ होती हैं, जिनका निर्देश निम्न प्रकार है।) <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> विद्या के सामान्य भेदों का निर्देश</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/20/12/76/7 </span><span class="SanskritText">कथ्यते विद्यानुवादम्। तत्रांगुष्ठप्रसेनादीनामल्पविद्यानां सप्तशतानि महारोहिण्यादीनां महाविद्यानां पंच शतानि। अंतरिक्षभौमांगस्वरस्वप्नलक्षणव्यंजनछिंनानि अष्टौ महानिमित्तनि।</span> = <span class="HindiText">विद्यानुवादपूर्व में अंगुष्ठ, प्रसेन आदि 700 अल्प विद्याएँ और महारोगिणी आदि 500 महाविद्याएँ सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त अंतरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यंजन व छिन्न (चिह्न) ये आठ महानिमित्तज्ञान रूप विद्याएँ भी हैं। [अष्टांगनिमित्तज्ञान के लिए देखें [[ निमित्त#2 | निमित्त - 2]]] । </span><br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/20/12/76/7 </span><span class="SanskritText">कथ्यते विद्यानुवादम्। तत्रांगुष्ठप्रसेनादीनामल्पविद्यानां सप्तशतानि महारोहिण्यादीनां महाविद्यानां पंच शतानि। अंतरिक्षभौमांगस्वरस्वप्नलक्षणव्यंजनछिंनानि अष्टौ महानिमित्तनि।</span> = <span class="HindiText">विद्यानुवादपूर्व में अंगुष्ठ, प्रसेन आदि 700 अल्प विद्याएँ और महारोगिणी आदि 500 महाविद्याएँ सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त अंतरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यंजन व छिन्न (चिह्न) ये आठ महानिमित्तज्ञान रूप विद्याएँ भी हैं। [अष्टांगनिमित्तज्ञान के लिए देखें [[ निमित्त#2 | निमित्त - 2]]] । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 9/4, 1, 16/77/6 </span><span class="PrakritText"> तिविहाओ विज्जाओ जातिकुलतपविज्जभेएणं उत्तं च-जादीसु होइ विज्जा कुलविज्जा तह य होइ तवविज्जा। विज्जाहरेसु एदा तवविज्जा होइ साहूणं।20। तत्थ सगमादुपक्खादो लद्धविज्जाओ जादिविज्जाओ णाम। पिदुपक्खुवलद्धादो कुलविज्जाओ। छट्ठट्ठमादिउववासविहाणेहि साहिदाओ तवविज्जाओ । </span>= <span class="HindiText">जातिविद्या, कुलविद्या और तपविद्या के भेद से विद्याएँ तीन प्रकार की हैं। कहा भी है–‘‘जातियों में विद्या अर्थात् जातिविद्या है, कुलविद्या तथा तपविद्या भी विद्या हैं। ये विद्याएँ विद्याधरों में होती हैं और तपविद्या साधुओं में होती है ।20।’’ इन विद्याओं में स्वकीय मातृपक्ष से प्राप्त हुई विद्याएँ जातिविद्याएँ और पितृपक्ष से प्राप्त हुई कुलविद्याएँ कहलाती हैं। षष्ठ और अष्टम आदि उपवासों (वेला तेला आदि) के करने से सिद्ध की गयीं विद्याएँ तपविद्याएँ हैं। <br /> | <span class="GRef"> धवला 9/4, 1, 16/77/6 </span><span class="PrakritText"> तिविहाओ विज्जाओ जातिकुलतपविज्जभेएणं उत्तं च-जादीसु होइ विज्जा कुलविज्जा तह य होइ तवविज्जा। विज्जाहरेसु एदा तवविज्जा होइ साहूणं।20। तत्थ सगमादुपक्खादो लद्धविज्जाओ जादिविज्जाओ णाम। पिदुपक्खुवलद्धादो कुलविज्जाओ। छट्ठट्ठमादिउववासविहाणेहि साहिदाओ तवविज्जाओ । </span>= <span class="HindiText">जातिविद्या, कुलविद्या और तपविद्या के भेद से विद्याएँ तीन प्रकार की हैं। कहा भी है–‘‘जातियों में विद्या अर्थात् जातिविद्या है, कुलविद्या तथा तपविद्या भी विद्या हैं। ये विद्याएँ विद्याधरों में होती हैं और तपविद्या साधुओं में होती है ।20।’’ इन विद्याओं में स्वकीय मातृपक्ष से प्राप्त हुई विद्याएँ जातिविद्याएँ और पितृपक्ष से प्राप्त हुई कुलविद्याएँ कहलाती हैं। षष्ठ और अष्टम आदि उपवासों (वेला तेला आदि) के करने से सिद्ध की गयीं विद्याएँ तपविद्याएँ हैं। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3">कुछ विद्यादेवियों के नाम निर्देश</strong> </span><br /> | ||
प्रतिष्ठासारोद्धार/3/34-35 <span class=" | <span class="GRef"> प्रतिष्ठासारोद्धार/3/34-35</span> <span class="SanskritText">भगवति रोहिणि महति प्रज्ञप्ते वज्रशृंखले स्खलिते। वज्रांकुशे कुशलि के जांबूनदिकेस्तदुर्मदिके।34। पुरुधाम्नि पुरुषदत्ते कालिकलादेय कले महाकालि। गौरि वरदे गुणर्द्धे गांधारि ज्वालिनि ज्वलज्ज्वाले।35। </span>=<span class="HindiText"> भगवती, रोहिणी, महती प्रज्ञप्ति, वज्रशृंखला, वज्रांकुशा, कुशलिका, जांबूनदा, दुर्मदिका, पुरुधाम्नि, काली, कला महाकाली, गौरी, गुणर्द्धे, गांधारी, ज्वालामालिनी, (मानसी, वैरोटी, अच्युता, मानसी, महामानसी)। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4" id="4">कुछ विशेष विद्याओं के नाम निर्देश</strong> <br /> | ||
<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/22/51-73 </span> | <span class="GRef"> हरिवंशपुराण/22/51-73 का भावार्थ</span><br> | ||
<span class="HindiText">–भगवान् ऋषभदेव से नमि और विनमि द्वारा राज्य की याचना करने पर धरणेंद्र ने अनेक देवों के संग आकर उन दोनों को अपनी देवियों से कुछ विद्याएँ दिलाकर संतुष्ट किया। तहाँ अदिति देवी ने विद्याओं के आठ निकाय तथा गंधर्वसेनक नामक विद्याकोष दिया। आठ विद्या निकायों के नाम–मनु, मानव, कौशिक, गौरिक, गांधार, भूमितुंड, मूलवीर्यक, शंकुक। ये निकाय आर्य, आदित्य, गंधर्व तथा व्योमचर भी कहलाते हैं। <br> | |||
दिति देवी ने–मालंक, पांडु, काल, स्वपाक, पर्वत, वंशालय, पांशुमूल, वृक्षमूल ये आठ विद्यानिकाय दिये। दैत्य, पन्नग, मातंग इनके अपर नाम हैं। <br> | |||
इन सोलह निकायों में निम्न विद्याएँ हैं–प्रज्ञप्ति, रोहिणी, अंगारिणी, महागौरी, गौरी, सर्वविद्या, प्रकर्षिणी, महाश्वेता, मायूरी, हारी, निर्वज्ञशाङ्वला, तिरस्कारिणी, छायासंक्रामिणी, कुष्मांड-गणमाता, सर्वविद्याविराजिता, आर्यकूष्मांड देवी, अच्युता, आर्यवती, गांधारी, निर्वृत्ति, दंडाध्यक्षगण, दंडभूतसहस्रक, भद्रकाली, महाकाली, काली, कालमुखी, इनके अतिरिक्त–एकपर्वा, द्विपर्वा, त्रिपर्वा, दशपर्वा, शतपर्वा, सहस्रपर्वा, लक्षपर्वा, उत्पातिनी, त्रिपातिनी, धारिणी, अंतविचारिणी, जलगति और अग्निगति समस्त निकायों में नाना प्रकार की शक्तियों से सहित नाना पर्वतों पर निवास करने वाली एवं नाना औषधियों की जानकार हैं। <br> | |||
सर्वार्थसिद्धा, सिद्धार्था, जयंती, मंगला, जया, प्रहारसंक्रामिणी, अशय्याराधिनी, विशल्याकारिणी, व्रणसंरोहिणी, सवर्णकारिणी, मृतसंजीवनी, ये सब विद्याएँ कल्याणरूप तथा मंत्रों से परिष्कृत, विद्याबल से युक्त तथा लोगों का हित करने वाली हैं। <span class="GRef">( महापुराण/7/34-334 )</span>। <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"> मंत्र तंत्र विद्या।–देखें [[ मंत्र ]]। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"> साधुओं की कथंचित् विद्याओं के प्रयोग का निषेध।–देखें [[ मंत्र ]]। </span></li> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
< | <span class="HindiText"> (1) किन्नरगीतनगर के विद्याधर श्रीधर की स्त्री और रति की जननी । <span class="GRef"> <span class="GRef"> पद्मपुराण </span>5.366 </span></br><span class="HindiText">(2) विद्याधरों की विद्याएं । ये विद्याएँ शक्ति रूप होती हैं । <br> | ||
< | इन विद्याओं के नाम हैं― प्रज्ञप्ति, कामरूपिणी, अग्निस्तंभिनी, उदकस्तंभिनी, आकाशगामिनी, उत्पादिनी, वशीकरणी, दशमी, आवेशिनी, माननीय, प्रस्थापिनी, प्रमोहिनी, प्रहरणी, संक्रमणी, आवर्तनी, संग्रहणी, भंजनी, विपाटिनी, प्रावर्तनी, प्रमोदिनी, प्रहापणी, प्रभावती, प्रलापिनी, निक्षेपिणी, शर्बरी, चांडली, मातंगी, गौरी, षडंमिका, श्रीमत्कन्या, शतसंकुला, कुभांडी, विरलवेगिका, रोहिणी, मनोवेगा, महावेगा, चंडवेगा, चपलवेगा, मधुकरी, पर्णलघु, वेगावती, शीतदा, उष्णदा, वेताली, महाज्वाला, सर्वविद्याछेदिनी, युद्धवीर्या, बंधमोचिनी, प्रहरावरणी, भ्रामरी और अभोगिनी । <br> | ||
< | <span class="GRef"> पद्मपुराण </span>में इनके अतिरिक्त भी कुछ विद्याओं के नाम आये हैं । वे हैं― कामदायिनी, कामगामिनी, दुर्निवारा, जगत्कंपा, भानुमालिनी, अणिमा, लघिमा, क्षोम्या, मन:स्तंभनकारिणी संवाहिनी, सुरध्वंशी, कौमारी, वधकारिणी, सुविधाना, तपोरूपा दहनी, विपुलोदरी, शुभह्रदा, रजोरूपा, दिनरात्रि-विधायिनी, वज्रादरी, समाकृष्टि, अदर्शनी, अजरा, अमरा, गिरिदारणी, अवलोकिनी, अरिध्वंसी, धीरा, घोरा, भुजंगिनी, वारुणी, भुवना, अवध्या, दारुणा, मदनाशिनी, भास्करी, भयसंभूति, ऐशानी, विजया, जया, बंधनी, वाराही, कुटिलाकृति, चित्तोद्भवकरी, शांति, कौबेरी, वशकारिणी, योगेश्वरी, बलोत्सादी, चंडा, भीति और प्रवर्षिणी । <br> | ||
ये विद्याएँ दशानन को प्राप्त थी । सर्वाहा, इतिसंवृद्धि, जृंभिणी, व्योमगामिनी और निद्राणी विद्याएँ भानुकर्ण को तथा सिद्धार्था, शत्रुदमनी, निर्व्याघाता और आकाशगामिनी ये चार विद्याएँ विभीषण को प्राप्त थीं । तीर्थंकर वृषभदेव से नमि और विनमि द्वारा राज्य की याचना किये जाने पर धरणेंद्र ने उन दोनों को अपनी देवियों से कुछ विद्याएँ दिलवाकर संतुष्ट किया था । अदिति देवों ने विद्याओं के उन्हें जो आठ निकाय दिये थे वे इस प्रकार हैं― मनु, मानव, कौशिक, गौरिक, गांधार, भूमितुंड, मूलवीर्यक और शंकुक । <br> | |||
दूसरी देवी दिति ने भी उन्हें आठ निकाय निम्न प्रकार दिए थे― मातंग, पांडुक, काल, स्वपाक, पर्वत, वंशालय, पांशुमूल और वृक्षमूल । इन सोलह निकायों की निम्न विद्याएँ हैं― प्रतंप्ति, रोहिणी, अंगारिणी, महागौरी, गौरी, सर्वविद्याप्रकर्षिणी, महाश्वेता, मायूरी, हारी, निर्वज्ञशाड्वला, तिरस्कारिणी, छायासंक्रामिणी, कूष्मांडगणमाता, सर्वविद्या-विराजिता, आर्यकूष्मांडदेवी, अच्युता, आर्यवती, गांधारी, निर्वृति, दंडाध्यक्षगण, दंडभूतसहस्रक, भद्रकाली, महाकाली, काली और कालमुखी । इनके अतिरिक्त एकपर्वा, द्विपर्वा, त्रिपर्वा, दशपर्दा, शतपर्वा, सहस्रपर्वा, लक्षपर्वा, उत्पातिनी, त्रिपातिनी । धारिणी, अंतर्विचारिणी, जलगति और अग्निगति ये औषधियों से संबंध रखने वाली विद्याएँ थी । सर्वार्थसिद्धा, सिद्धार्था, जयंती, मंगला, जया, प्रहारसंक्रामिणी, अशय्याराधिनी, विशल्यकारिणी, व्रणसंरोहिणी, सवर्णकारिणी और मृतसंजीवनी ये सभी तथा ऊपर कथित समस्त विद्याएँ और दिव्य औषधियां धरणेंद्र ने नमि-विनमि दोनों को दी थी । पांडवपुराण में <span class="GRef"> महापुराण </span>की अपेक्षा कुछ नवीन विद्याओं के उल्लेख है । वे विद्याएँ हैं― प्रवर्तिनी, प्रहापनी, प्रमादिनी, पलायिनी, खट्वांगिका, श्रीमद्गुण्या, कूष्मांडी, वरवेगा, शीतवैतालिका और उष्णवैतालिका । <span class="GRef"> महापुराण </span>47.74, 62. 391-400, <span class="GRef"> पद्मपुराण </span>7.325-334, <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_22#57|हरिवंशपुराण - 22.57-73]], </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 4.229-236 </span></br><span class="HindiText">(3) शिक्षा । रूप लावण्य और शील से समन्वित होने पर भी जन्म की सफलता शिक्षित होने में ही मानी गयी है। लोक में विद्वान् सर्वत्र सम्मानित होता है। इससे यश मिलता है और आत्मकल्याण होता है अच्छी तरह अभ्यास की गयी विद्या समस्त मनोरथों को पूर्ण करती है। मरने पर भी इसका वियोग नहीं होता। यह बंधु, मित्र और धन है। कन्या या पुत्र यह समान रूप से दोनों को अर्जनीय है। इसके आरंभ में श्रुतदेवता की पूजा की जाती है । इसके पश्चात् लिपि और अंकों का ज्ञान कराया जाता है । वृषभदेव ने अपने पुत्र और पुत्रियों को विद्याभ्यास कराया था । <span class="GRef"> महापुराण </span>16.97-104, 125 | |||
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Latest revision as of 17:30, 16 February 2024
सिद्धांतकोष से
- विद्या
- विद्या के सामान्य भेदों का निर्देश
- कुछ विद्यादेवियों के नाम निर्देश
- कुछ विशेष विद्याओं के नाम निर्देश
न्यायविनिश्चय/वृ./1/38/282/9 विद्यया यथावस्थितवस्तुरूपावलोकनशक्त्या। = विद्या का अर्थ है यथावस्थित वस्तु के स्वरूप का अवलोकन करने की शक्ति।
नोट–(इसके अतिरिक्त मंत्र-तंत्रों आदि के अनुष्ठान विशेष से सिद्ध की गयी भी कुछ विद्याएँ होती हैं, जिनका निर्देश निम्न प्रकार है।)
राजवार्तिक/1/20/12/76/7 कथ्यते विद्यानुवादम्। तत्रांगुष्ठप्रसेनादीनामल्पविद्यानां सप्तशतानि महारोहिण्यादीनां महाविद्यानां पंच शतानि। अंतरिक्षभौमांगस्वरस्वप्नलक्षणव्यंजनछिंनानि अष्टौ महानिमित्तनि। = विद्यानुवादपूर्व में अंगुष्ठ, प्रसेन आदि 700 अल्प विद्याएँ और महारोगिणी आदि 500 महाविद्याएँ सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त अंतरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यंजन व छिन्न (चिह्न) ये आठ महानिमित्तज्ञान रूप विद्याएँ भी हैं। [अष्टांगनिमित्तज्ञान के लिए देखें निमित्त - 2] ।
धवला 9/4, 1, 16/77/6 तिविहाओ विज्जाओ जातिकुलतपविज्जभेएणं उत्तं च-जादीसु होइ विज्जा कुलविज्जा तह य होइ तवविज्जा। विज्जाहरेसु एदा तवविज्जा होइ साहूणं।20। तत्थ सगमादुपक्खादो लद्धविज्जाओ जादिविज्जाओ णाम। पिदुपक्खुवलद्धादो कुलविज्जाओ। छट्ठट्ठमादिउववासविहाणेहि साहिदाओ तवविज्जाओ । = जातिविद्या, कुलविद्या और तपविद्या के भेद से विद्याएँ तीन प्रकार की हैं। कहा भी है–‘‘जातियों में विद्या अर्थात् जातिविद्या है, कुलविद्या तथा तपविद्या भी विद्या हैं। ये विद्याएँ विद्याधरों में होती हैं और तपविद्या साधुओं में होती है ।20।’’ इन विद्याओं में स्वकीय मातृपक्ष से प्राप्त हुई विद्याएँ जातिविद्याएँ और पितृपक्ष से प्राप्त हुई कुलविद्याएँ कहलाती हैं। षष्ठ और अष्टम आदि उपवासों (वेला तेला आदि) के करने से सिद्ध की गयीं विद्याएँ तपविद्याएँ हैं।
प्रतिष्ठासारोद्धार/3/34-35 भगवति रोहिणि महति प्रज्ञप्ते वज्रशृंखले स्खलिते। वज्रांकुशे कुशलि के जांबूनदिकेस्तदुर्मदिके।34। पुरुधाम्नि पुरुषदत्ते कालिकलादेय कले महाकालि। गौरि वरदे गुणर्द्धे गांधारि ज्वालिनि ज्वलज्ज्वाले।35। = भगवती, रोहिणी, महती प्रज्ञप्ति, वज्रशृंखला, वज्रांकुशा, कुशलिका, जांबूनदा, दुर्मदिका, पुरुधाम्नि, काली, कला महाकाली, गौरी, गुणर्द्धे, गांधारी, ज्वालामालिनी, (मानसी, वैरोटी, अच्युता, मानसी, महामानसी)।
हरिवंशपुराण/22/51-73 का भावार्थ
–भगवान् ऋषभदेव से नमि और विनमि द्वारा राज्य की याचना करने पर धरणेंद्र ने अनेक देवों के संग आकर उन दोनों को अपनी देवियों से कुछ विद्याएँ दिलाकर संतुष्ट किया। तहाँ अदिति देवी ने विद्याओं के आठ निकाय तथा गंधर्वसेनक नामक विद्याकोष दिया। आठ विद्या निकायों के नाम–मनु, मानव, कौशिक, गौरिक, गांधार, भूमितुंड, मूलवीर्यक, शंकुक। ये निकाय आर्य, आदित्य, गंधर्व तथा व्योमचर भी कहलाते हैं।
दिति देवी ने–मालंक, पांडु, काल, स्वपाक, पर्वत, वंशालय, पांशुमूल, वृक्षमूल ये आठ विद्यानिकाय दिये। दैत्य, पन्नग, मातंग इनके अपर नाम हैं।
इन सोलह निकायों में निम्न विद्याएँ हैं–प्रज्ञप्ति, रोहिणी, अंगारिणी, महागौरी, गौरी, सर्वविद्या, प्रकर्षिणी, महाश्वेता, मायूरी, हारी, निर्वज्ञशाङ्वला, तिरस्कारिणी, छायासंक्रामिणी, कुष्मांड-गणमाता, सर्वविद्याविराजिता, आर्यकूष्मांड देवी, अच्युता, आर्यवती, गांधारी, निर्वृत्ति, दंडाध्यक्षगण, दंडभूतसहस्रक, भद्रकाली, महाकाली, काली, कालमुखी, इनके अतिरिक्त–एकपर्वा, द्विपर्वा, त्रिपर्वा, दशपर्वा, शतपर्वा, सहस्रपर्वा, लक्षपर्वा, उत्पातिनी, त्रिपातिनी, धारिणी, अंतविचारिणी, जलगति और अग्निगति समस्त निकायों में नाना प्रकार की शक्तियों से सहित नाना पर्वतों पर निवास करने वाली एवं नाना औषधियों की जानकार हैं।
सर्वार्थसिद्धा, सिद्धार्था, जयंती, मंगला, जया, प्रहारसंक्रामिणी, अशय्याराधिनी, विशल्याकारिणी, व्रणसंरोहिणी, सवर्णकारिणी, मृतसंजीवनी, ये सब विद्याएँ कल्याणरूप तथा मंत्रों से परिष्कृत, विद्याबल से युक्त तथा लोगों का हित करने वाली हैं। ( महापुराण/7/34-334 )।
- अन्य संबंधी विषय
पुराणकोष से
(1) किन्नरगीतनगर के विद्याधर श्रीधर की स्त्री और रति की जननी । पद्मपुराण 5.366
(2) विद्याधरों की विद्याएं । ये विद्याएँ शक्ति रूप होती हैं ।
इन विद्याओं के नाम हैं― प्रज्ञप्ति, कामरूपिणी, अग्निस्तंभिनी, उदकस्तंभिनी, आकाशगामिनी, उत्पादिनी, वशीकरणी, दशमी, आवेशिनी, माननीय, प्रस्थापिनी, प्रमोहिनी, प्रहरणी, संक्रमणी, आवर्तनी, संग्रहणी, भंजनी, विपाटिनी, प्रावर्तनी, प्रमोदिनी, प्रहापणी, प्रभावती, प्रलापिनी, निक्षेपिणी, शर्बरी, चांडली, मातंगी, गौरी, षडंमिका, श्रीमत्कन्या, शतसंकुला, कुभांडी, विरलवेगिका, रोहिणी, मनोवेगा, महावेगा, चंडवेगा, चपलवेगा, मधुकरी, पर्णलघु, वेगावती, शीतदा, उष्णदा, वेताली, महाज्वाला, सर्वविद्याछेदिनी, युद्धवीर्या, बंधमोचिनी, प्रहरावरणी, भ्रामरी और अभोगिनी ।
पद्मपुराण में इनके अतिरिक्त भी कुछ विद्याओं के नाम आये हैं । वे हैं― कामदायिनी, कामगामिनी, दुर्निवारा, जगत्कंपा, भानुमालिनी, अणिमा, लघिमा, क्षोम्या, मन:स्तंभनकारिणी संवाहिनी, सुरध्वंशी, कौमारी, वधकारिणी, सुविधाना, तपोरूपा दहनी, विपुलोदरी, शुभह्रदा, रजोरूपा, दिनरात्रि-विधायिनी, वज्रादरी, समाकृष्टि, अदर्शनी, अजरा, अमरा, गिरिदारणी, अवलोकिनी, अरिध्वंसी, धीरा, घोरा, भुजंगिनी, वारुणी, भुवना, अवध्या, दारुणा, मदनाशिनी, भास्करी, भयसंभूति, ऐशानी, विजया, जया, बंधनी, वाराही, कुटिलाकृति, चित्तोद्भवकरी, शांति, कौबेरी, वशकारिणी, योगेश्वरी, बलोत्सादी, चंडा, भीति और प्रवर्षिणी ।
ये विद्याएँ दशानन को प्राप्त थी । सर्वाहा, इतिसंवृद्धि, जृंभिणी, व्योमगामिनी और निद्राणी विद्याएँ भानुकर्ण को तथा सिद्धार्था, शत्रुदमनी, निर्व्याघाता और आकाशगामिनी ये चार विद्याएँ विभीषण को प्राप्त थीं । तीर्थंकर वृषभदेव से नमि और विनमि द्वारा राज्य की याचना किये जाने पर धरणेंद्र ने उन दोनों को अपनी देवियों से कुछ विद्याएँ दिलवाकर संतुष्ट किया था । अदिति देवों ने विद्याओं के उन्हें जो आठ निकाय दिये थे वे इस प्रकार हैं― मनु, मानव, कौशिक, गौरिक, गांधार, भूमितुंड, मूलवीर्यक और शंकुक ।
दूसरी देवी दिति ने भी उन्हें आठ निकाय निम्न प्रकार दिए थे― मातंग, पांडुक, काल, स्वपाक, पर्वत, वंशालय, पांशुमूल और वृक्षमूल । इन सोलह निकायों की निम्न विद्याएँ हैं― प्रतंप्ति, रोहिणी, अंगारिणी, महागौरी, गौरी, सर्वविद्याप्रकर्षिणी, महाश्वेता, मायूरी, हारी, निर्वज्ञशाड्वला, तिरस्कारिणी, छायासंक्रामिणी, कूष्मांडगणमाता, सर्वविद्या-विराजिता, आर्यकूष्मांडदेवी, अच्युता, आर्यवती, गांधारी, निर्वृति, दंडाध्यक्षगण, दंडभूतसहस्रक, भद्रकाली, महाकाली, काली और कालमुखी । इनके अतिरिक्त एकपर्वा, द्विपर्वा, त्रिपर्वा, दशपर्दा, शतपर्वा, सहस्रपर्वा, लक्षपर्वा, उत्पातिनी, त्रिपातिनी । धारिणी, अंतर्विचारिणी, जलगति और अग्निगति ये औषधियों से संबंध रखने वाली विद्याएँ थी । सर्वार्थसिद्धा, सिद्धार्था, जयंती, मंगला, जया, प्रहारसंक्रामिणी, अशय्याराधिनी, विशल्यकारिणी, व्रणसंरोहिणी, सवर्णकारिणी और मृतसंजीवनी ये सभी तथा ऊपर कथित समस्त विद्याएँ और दिव्य औषधियां धरणेंद्र ने नमि-विनमि दोनों को दी थी । पांडवपुराण में महापुराण की अपेक्षा कुछ नवीन विद्याओं के उल्लेख है । वे विद्याएँ हैं― प्रवर्तिनी, प्रहापनी, प्रमादिनी, पलायिनी, खट्वांगिका, श्रीमद्गुण्या, कूष्मांडी, वरवेगा, शीतवैतालिका और उष्णवैतालिका । महापुराण 47.74, 62. 391-400, पद्मपुराण 7.325-334, हरिवंशपुराण - 22.57-73, पांडवपुराण 4.229-236
(3) शिक्षा । रूप लावण्य और शील से समन्वित होने पर भी जन्म की सफलता शिक्षित होने में ही मानी गयी है। लोक में विद्वान् सर्वत्र सम्मानित होता है। इससे यश मिलता है और आत्मकल्याण होता है अच्छी तरह अभ्यास की गयी विद्या समस्त मनोरथों को पूर्ण करती है। मरने पर भी इसका वियोग नहीं होता। यह बंधु, मित्र और धन है। कन्या या पुत्र यह समान रूप से दोनों को अर्जनीय है। इसके आरंभ में श्रुतदेवता की पूजा की जाती है । इसके पश्चात् लिपि और अंकों का ज्ञान कराया जाता है । वृषभदेव ने अपने पुत्र और पुत्रियों को विद्याभ्यास कराया था । महापुराण 16.97-104, 125