संयत: Difference between revisions
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<span class="HindiText">बहिरंग और अंतरंग आस्रवों से विरत होने वाला महाव्रती श्रमण संयत कहलाता है। शुभोपयोगयुक्त होने पर वह प्रमत्त और आत्मसंवित्ति में रत होने पर अप्रमत्त कहलाता है। प्रमत्त संयत यद्यपि संज्वलन के तीव्रोदयवश धर्मोपदेश आदि कुछ शुभक्रिया करने में अपना समय गँवाता है, पर इससे उसका संयतपना घाता नहीं जाता, क्योंकि वह अपनी भूमिकानुसार ही वे क्रियाएँ करता है, उसको उल्लंघन करके नहीं।</span> | |||
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<li>प्रमत्त व अप्रमत्त दो गुणस्थानों के परिणाम अध:प्रवृत्तिकरणरूप होते हैं। - | <li>प्रमत्त व अप्रमत्त दो गुणस्थानों के परिणाम अध:प्रवृत्तिकरणरूप होते हैं। - देखें [[ करण#4 | करण - 4]]।</li> | ||
<li>संयतों में यथा | <li>संयतों में यथा संभव भावों का अस्तित्व। - देखें [[ भाव#2 | भाव - 2]]।</li> | ||
<li>संयतों में आत्मानुभव | <li>संयतों में आत्मानुभव संबंधी। - देखें [[ अनुभव#5 | अनुभव - 5]]।</li> | ||
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<ul>* सर्व गुणस्थानों में प्रमत्त अप्रमत्त विभाग। - | <ul>* सर्व गुणस्थानों में प्रमत्त अप्रमत्त विभाग। - देखें [[ गुणस्थान#1.4 | गुणस्थान - 1.4]]।</ul> | ||
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<li id="1.5">[[संयत सामान्य निर्देश#1.5 | दोनों ( | <li id="1.5">[[संयत सामान्य निर्देश#1.5 | दोनों (6-7) गुणस्थानों का आरोहण व अवरोहण क्रम।]]</li> | ||
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<li>चारित्रमोह का उपशम, क्षय, व क्षयोपशम विधान। - | <li>चारित्रमोह का उपशम, क्षय, व क्षयोपशम विधान। - देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | ||
<li>सर्व लघुकाल में संयम धारने की योग्यता | <li>सर्व लघुकाल में संयम धारने की योग्यता संबंधी। - देखें [[ संयम#2 | संयम - 2]]।</li> | ||
<li>पुन: पुन: संयतपने की प्राप्ति की सीमा। - | <li>पुन: पुन: संयतपने की प्राप्ति की सीमा। - देखें [[ संयम#2 | संयम - 2]]।</li> | ||
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<li>भोगभूमि में संयम न होने का कारण। - | <li>भोगभूमि में संयम न होने का कारण। - देखें [[ भूमि#9 | भूमि - 9]]।</li> | ||
<li>प्रत्येक मार्गणा में गुणस्थानों के स्वामित्व | <li>प्रत्येक मार्गणा में गुणस्थानों के स्वामित्व संबंधी शंका समाधान। - देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | ||
<li>दोनों गुणस्थानों में | <li>दोनों गुणस्थानों में संभव जीवसमास मार्गणास्थान आदि 20 प्ररूपणाएँ। - देखें [[ सत् ]]।</li> | ||
<li>दोनों गुणस्थानों | <li>दोनों गुणस्थानों संबंधी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ। - देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | ||
<li>सभी गुणस्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम। - देखें | <li>सभी गुणस्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम। - देखें [[ मार्गणा ]]।</li> | ||
<li>दोनों गुणस्थानों में कर्म प्रकृतियों का | <li>दोनों गुणस्थानों में कर्म प्रकृतियों का बंध, उदय, सत्त्व। - देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | ||
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<li>सामायिक स्थित भी गृहस्थ संयत नहीं। - | <li>सामायिक स्थित भी गृहस्थ संयत नहीं। - देखें [[ सामायिक#3 | सामायिक - 3]]।</li> | ||
<li>व्रती भी मिथ्यादृष्टि संयत नहीं है। - | <li>व्रती भी मिथ्यादृष्टि संयत नहीं है। - देखें [[ चारित्र#3.8 | चारित्र - 3.8]]।</li> | ||
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<li id="2.7">[[संयत निर्देश | <li id="2.7">[[संयत निर्देश संबंधी शंकाएँ#2.7 | सामायिक व छेदोपस्थापना संयत में तीनों भाव कैसे।]]</li> | ||
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<li id="3.2">[[प्रमादजनक दोष परिचय#3.2 | साधु योग्य शुभ कार्यों की सीमा।]]</li> | <li id="3.2">[[प्रमादजनक दोष परिचय#3.2 | साधु योग्य शुभ कार्यों की सीमा।]]</li> | ||
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<ul>* शुभोपयोगी साधु भव्यजनों को तार देते हैं। - | <ul>* शुभोपयोगी साधु भव्यजनों को तार देते हैं। - देखें [[ धर्म#5.2 | धर्म - 5.2]]।</ul> | ||
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<li id="3.3">[[प्रमादजनक दोष परिचय#3.3 | | <li id="3.3">[[प्रमादजनक दोष परिचय#3.3 | परंतु फिर भी संयतपना घाता नहीं जाता।]]</li> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText"> (1) एक महामुनि । बाली के पूर्वभव के जीव सुप्रभ ने इन्हीं मुनि से संयम लिया था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_106#185|पद्मपुराण - 106.185]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_106#192|पद्मपुराण - 106.192]]-197 </span></p> | |||
<p id="2" class="HindiText">(2) व्रती जीव । संसारी जीव असंयत, संयतासंयत और संयत तीन प्रकार के होते हैं । इनमें संयत जीव छठे गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक नौ गुणस्थानों में पाये जाते हैं । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_3#78|हरिवंशपुराण - 3.78]] </span></p> | |||
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[[ संयत निर्देश संबंधी शंकाएँ | अगला पृष्ठ ]] | |||
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[[Category: पुराण-कोष]] | |||
[[Category: स]] | |||
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Latest revision as of 10:21, 22 February 2024
सिद्धांतकोष से
बहिरंग और अंतरंग आस्रवों से विरत होने वाला महाव्रती श्रमण संयत कहलाता है। शुभोपयोगयुक्त होने पर वह प्रमत्त और आत्मसंवित्ति में रत होने पर अप्रमत्त कहलाता है। प्रमत्त संयत यद्यपि संज्वलन के तीव्रोदयवश धर्मोपदेश आदि कुछ शुभक्रिया करने में अपना समय गँवाता है, पर इससे उसका संयतपना घाता नहीं जाता, क्योंकि वह अपनी भूमिकानुसार ही वे क्रियाएँ करता है, उसको उल्लंघन करके नहीं।
- संयत सामान्य निर्देश
- अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के चार आवश्यक। - देखें करण - 4।
- एकांतानुवृद्धि आदि संयत। - देखें लब्धि - 5।
- प्रमत्त व अप्रमत्त दो गुणस्थानों के परिणाम अध:प्रवृत्तिकरणरूप होते हैं। - देखें करण - 4।
- संयतों में यथा संभव भावों का अस्तित्व। - देखें भाव - 2।
- संयतों में आत्मानुभव संबंधी। - देखें अनुभव - 5।
- * सर्व गुणस्थानों में प्रमत्त अप्रमत्त विभाग। - देखें गुणस्थान - 1.4।
- चारित्रमोह का उपशम, क्षय, व क्षयोपशम विधान। - देखें वह वह नाम ।
- सर्व लघुकाल में संयम धारने की योग्यता संबंधी। - देखें संयम - 2।
- पुन: पुन: संयतपने की प्राप्ति की सीमा। - देखें संयम - 2।
- मरकर देव ही होते हैं। - देखें जन्म - 5,6।
- भोगभूमि में संयम न होने का कारण। - देखें भूमि - 9।
- प्रत्येक मार्गणा में गुणस्थानों के स्वामित्व संबंधी शंका समाधान। - देखें वह वह नाम ।
- दोनों गुणस्थानों में संभव जीवसमास मार्गणास्थान आदि 20 प्ररूपणाएँ। - देखें सत् ।
- दोनों गुणस्थानों संबंधी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ। - देखें वह वह नाम ।
- सभी गुणस्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम। - देखें मार्गणा ।
- दोनों गुणस्थानों में कर्म प्रकृतियों का बंध, उदय, सत्त्व। - देखें वह वह नाम ।
- संयत निर्देश संबंधी शंकाएँ
- सामायिक स्थित भी गृहस्थ संयत नहीं। - देखें सामायिक - 3।
- व्रती भी मिथ्यादृष्टि संयत नहीं है। - देखें चारित्र - 3.8।
- अप्रमत्त से पृथक् अपूर्वकरण आदि गुणस्थान क्या हैं।
- संयतों में क्षायोपशमिक भाव कैसे।
- संज्वलन के उदय के कारण औदयिक क्यों नहीं।
- इन्हें उदयोपशमिक क्यों नहीं कहते। - देखें क्षयोपशम - 2.3।
- प्रमादजनक दोष परिचय
- * शुभोपयोगी साधु भव्यजनों को तार देते हैं। - देखें धर्म - 5.2।
पुराणकोष से
(1) एक महामुनि । बाली के पूर्वभव के जीव सुप्रभ ने इन्हीं मुनि से संयम लिया था । पद्मपुराण - 106.185,पद्मपुराण - 106.192-197
(2) व्रती जीव । संसारी जीव असंयत, संयतासंयत और संयत तीन प्रकार के होते हैं । इनमें संयत जीव छठे गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक नौ गुणस्थानों में पाये जाते हैं । हरिवंशपुराण - 3.78