साधक श्रावक: Difference between revisions
From जैनकोष
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
||
(2 intermediate revisions by 2 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
<p | <p><span class="GRef"> महापुराण/39/149 </span><span class="SanskritText">...जीवितांते तु साधनम् । देहादेर्हितत्यागात् ध्यानशुद्धात्मशोधनम् ।149। | ||
</span> = <span class="HindiText">जो श्रावक आनंदित होता हुआ जीवन के अंत में अर्थात् मृत्यु समय शरीर, भोजन और मन, वचन काय के व्यापार के त्याग से पवित्र ध्यान के द्वारा आत्मा की शुद्धि की साधन करता है वह साधक कहा जाता है। <span class="GRef">( सागार धर्मामृत/1/19-20/8/1 )</span>।</span><br> | |||
<span class="GRef"> चारित्रसार/41/2 </span><span class="SanskritText">सकलगुणसंपूर्णस्य शरीरकंपनोच्छ्वासनोन्मीलनविधिं परिहरमाणस्य लोकाग्रमनस: शरीरपरित्याग: साधकत्वम् ।</span> = <span class="HindiText">इसी तरह जिसमें संपूर्ण गुण विद्यमान हैं, जो शरीर का कंपना, उच्छ्वास लेना, नेत्रों का खोलना आदि क्रियाओं का त्याग कर रहा है और जिसका चित्त लोक के ऊपर विराजमान सिद्धों में लगा हुआ है ऐसे समाधिमरण करने वाले का शरीर परित्याग करना साधकपना कहलाता है।</span><p> | |||
Latest revision as of 10:37, 22 February 2024
महापुराण/39/149 ...जीवितांते तु साधनम् । देहादेर्हितत्यागात् ध्यानशुद्धात्मशोधनम् ।149।
= जो श्रावक आनंदित होता हुआ जीवन के अंत में अर्थात् मृत्यु समय शरीर, भोजन और मन, वचन काय के व्यापार के त्याग से पवित्र ध्यान के द्वारा आत्मा की शुद्धि की साधन करता है वह साधक कहा जाता है। ( सागार धर्मामृत/1/19-20/8/1 )।
चारित्रसार/41/2 सकलगुणसंपूर्णस्य शरीरकंपनोच्छ्वासनोन्मीलनविधिं परिहरमाणस्य लोकाग्रमनस: शरीरपरित्याग: साधकत्वम् । = इसी तरह जिसमें संपूर्ण गुण विद्यमान हैं, जो शरीर का कंपना, उच्छ्वास लेना, नेत्रों का खोलना आदि क्रियाओं का त्याग कर रहा है और जिसका चित्त लोक के ऊपर विराजमान सिद्धों में लगा हुआ है ऐसे समाधिमरण करने वाले का शरीर परित्याग करना साधकपना कहलाता है।