सामान्य विनय निर्देश: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> सामान्य विनय निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">आचार व विनय में अंतर</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/7/ </span> | <span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/7/ श्लोक/पृष्ठ</span><span class="SanskritGatha">दोषोच्छेदे गुणाधाने यत्नो हि विनयो दृशि। दृगाचारस्तु तत्त्वार्थरुचौ यत्नो मलात्यये।66। यत्नो हि कालशुद्धयादौ स्याज्ज्ञानविनयोऽत्र तु। सति यत्नस्तदाचारः पाठे तत्साधनेषुच।68। समित्यादिषु यत्नो हि चारित्रविनयो यतः। तदाचारस्तु यस्तेषु सत्सु यत्नो व्रताश्रयः।70।</span> = <span class="HindiText">सम्यग्दर्शन में से दोषों को दूर करने तथा उसमें गुणों को उत्पन्न करने के लिए जो प्रयत्न किया जाता है, उसको दर्शन विनय तथा शंकादि मलों के दूर हो जाने पर तत्त्वार्थ श्रद्धान में प्रयत्न करने को दर्शनाचार कहते हैं। कालशुद्धि आदि ज्ञान के आठ अंगों के विषय में प्रयत्न करने को ज्ञान विनय और उन शुद्धि आदिकों के हो जाने पर श्रुत का अध्ययन करने के लिए प्रयत्न करने को अथवा अध्ययन की साधनभूत पुस्तकादि सामग्री के लिए प्रयत्न करने को ज्ञानाचार कहते हैं।68। व्रतों को निर्मल बनाने के लिए समिति आदि में प्रयत्न करने को <strong>चारित्र विनय</strong> और समिति आदिकों के सिद्ध हो जाने पर व्रतों की वृद्धि आदि के लिए प्रयत्न करने को चारित्राचार कहते हैं।70। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> ज्ञान के आठ अंगों को ज्ञानविनय कहने का कारण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/113/261/22 </span><span class="SanskritText"> अयमष्टप्रकारो ज्ञानाभ्यासपरिकरोऽष्टविधं कर्म विनयति व्यपनयति विनयशब्द वाच्यो भवतीति सूरेरभिप्रायः। </span>=<span class="HindiText"> ज्ञानाभ्यास के आठ प्रकार कर्मों को आत्मा से दूर करते हैं, इसलिए विनय शब्द से संबोधन करना सार्थक है, ऐसा आचार्यों का अभिप्राय है। <br /> | <span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/113/261/22 </span><span class="SanskritText"> अयमष्टप्रकारो ज्ञानाभ्यासपरिकरोऽष्टविधं कर्म विनयति व्यपनयति विनयशब्द वाच्यो भवतीति सूरेरभिप्रायः। </span>=<span class="HindiText"> ज्ञानाभ्यास के आठ प्रकार कर्मों को आत्मा से दूर करते हैं, इसलिए विनय शब्द से संबोधन करना सार्थक है, ऐसा आचार्यों का अभिप्राय है। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> एक विनयसंपन्नता में शेष 15 भावनाओं का समावेश</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 8/3, 41/80/8 </span><span class="PrakritText">विणयसंपण्णदाए चेव तित्थयरणामकम्मं बंधंति। तं जहा–विणओ तिविहो णाणदंसणचरित्तविणओ त्ति। तत्थ णाणविणओ णाम अभिक्खणभिक्खणं णाणेवजोगजुत्तदा बहुसुदभत्ती पवयणभत्ती च। दंसणविणओ णाम पवयणेसुवइट्ठसव्वभावसद्दहणं तिमूढादो ओसरणमट्ठमलच्छद्दणमरहंत-सिद्धभत्ती खणलवपडिबुज्झणदा लद्धिसंवेगसंपण्णदा च। चरित्तविणओ णाम सीलव्वदेसु णिरदिचारदा आवासएसु अपरिहीणदा जहायामे तहा तवो च। साहूणं पासुगपरिच्चाओ तेसिं समाहिसंधारणं तेसिं वेज्जावच्चजोगजुत्तदा पवयणवछल्लदा च णाणदंसणचरित्ताणं पि विणओ, तिरयणसमूहस्स साहू पवयण त्ति ववएसादो। तदो विणयसंपण्णदा एक्का वि होदूण सोलसावयवा। तेणेदीए विणयसंपण्णदाए एक्काए वि तित्थयरणामकम्मं मणुओ बंधंति। देव णेरइयाण कधमेसा संभवदि। ण, तत्थ वि णाणदंसणविणयाणं संभवदंसणादो।...जदि दोहि चेव तित्थयरणामकम्मं बज्झदि तो चरित्तविणओ किमिदि तक्कारणमिदि वुच्चदे ण एस दोसो, णाणदंसणविणयकज्जविरोहिचरणविणओ ण होदि त्तिपदुप्पायणफलत्तादो।</span> = <span class="HindiText">विनय संपन्नता से ही तीर्थंकर नामकर्म को बाँधता है। वह इस प्रकार से कि-ज्ञानविनय, दर्शनविनय और चारित्र विनय के भेद से विनय तीन प्रकार है। उसमें बारंबार ज्ञानोपयोग से युक्त रहने के साथ बहुश्रुतभक्ति और प्रवचनभक्ति का नाम ज्ञानविनय है। आगमोपदिष्ट सर्वपदार्थों के श्रद्धान के साथ तीन मूढ़ताओं से रहित होना, आठ मलों को छोड़ना, अरहंतभक्ति, सिद्धभक्ति, क्षणलवप्रतिबुद्धता और लब्धिसंवेगसंपन्नता को दर्शन विनय कहते हैं। शीलव्रतों में निरतिचारता, आवश्यकों में अपरिहीनता अर्थात् परिपूर्णता और शक्त्यनुसार तप का नाम चारित्र विनय है। साधुओं के लिए प्रासुक आहारादिक का दान, उनकी समाधिका धारण करना, उनकी वैयावृत्ति में उपयोग लगाना और प्रवचनवत्सलता, ये ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों की ही विनय है; क्योंकि रत्नत्रय समूह को साधु व प्रवचन संज्ञा प्राप्त है। इसी कारण क्योंकि विनयसंपन्नता एक भी होकर सोलह अवयवों से सहित है, अतः उस एक ही विनयसंपन्नता से मनुष्य तीर्थंकर नामकर्म को बांधते हैं। <strong>प्रश्न–</strong>यह, विनय संपन्नता देव नारकियों के कैसे संभव है। <strong>उत्तर–</strong>उक्त शंका ठीक नहीं है, क्योंकि उनमें ज्ञान व दर्शन-विनय की संभावना देखी जाती है। <strong>प्रश्न–</strong>यदि (देव और नारकियों को) दो ही विनयों से तीर्थंकर नामकर्म बाँधा जा सकता है तो फिर चारित्रविनय को उसका कारण क्यों कहा गया है। <strong>उत्तर–</strong>यह कोई दोष नहीं, क्योंकि विरोधी चारित्रविनय नहीं होता, इस बात को सूचित करने के लिए चारित्रविनय को भी कारण मान लिया गया है। <br /> | <span class="GRef"> धवला 8/3, 41/80/8 </span><span class="PrakritText">विणयसंपण्णदाए चेव तित्थयरणामकम्मं बंधंति। तं जहा–विणओ तिविहो णाणदंसणचरित्तविणओ त्ति। तत्थ णाणविणओ णाम अभिक्खणभिक्खणं णाणेवजोगजुत्तदा बहुसुदभत्ती पवयणभत्ती च। दंसणविणओ णाम पवयणेसुवइट्ठसव्वभावसद्दहणं तिमूढादो ओसरणमट्ठमलच्छद्दणमरहंत-सिद्धभत्ती खणलवपडिबुज्झणदा लद्धिसंवेगसंपण्णदा च। चरित्तविणओ णाम सीलव्वदेसु णिरदिचारदा आवासएसु अपरिहीणदा जहायामे तहा तवो च। साहूणं पासुगपरिच्चाओ तेसिं समाहिसंधारणं तेसिं वेज्जावच्चजोगजुत्तदा पवयणवछल्लदा च णाणदंसणचरित्ताणं पि विणओ, तिरयणसमूहस्स साहू पवयण त्ति ववएसादो। तदो विणयसंपण्णदा एक्का वि होदूण सोलसावयवा। तेणेदीए विणयसंपण्णदाए एक्काए वि तित्थयरणामकम्मं मणुओ बंधंति। देव णेरइयाण कधमेसा संभवदि। ण, तत्थ वि णाणदंसणविणयाणं संभवदंसणादो।...जदि दोहि चेव तित्थयरणामकम्मं बज्झदि तो चरित्तविणओ किमिदि तक्कारणमिदि वुच्चदे ण एस दोसो, णाणदंसणविणयकज्जविरोहिचरणविणओ ण होदि त्तिपदुप्पायणफलत्तादो।</span> = <span class="HindiText">विनय संपन्नता से ही तीर्थंकर नामकर्म को बाँधता है। वह इस प्रकार से कि-ज्ञानविनय, दर्शनविनय और चारित्र विनय के भेद से विनय तीन प्रकार है। उसमें बारंबार ज्ञानोपयोग से युक्त रहने के साथ बहुश्रुतभक्ति और प्रवचनभक्ति का नाम ज्ञानविनय है। आगमोपदिष्ट सर्वपदार्थों के श्रद्धान के साथ तीन मूढ़ताओं से रहित होना, आठ मलों को छोड़ना, अरहंतभक्ति, सिद्धभक्ति, क्षणलवप्रतिबुद्धता और लब्धिसंवेगसंपन्नता को दर्शन विनय कहते हैं। शीलव्रतों में निरतिचारता, आवश्यकों में अपरिहीनता अर्थात् परिपूर्णता और शक्त्यनुसार तप का नाम चारित्र विनय है। साधुओं के लिए प्रासुक आहारादिक का दान, उनकी समाधिका धारण करना, उनकी वैयावृत्ति में उपयोग लगाना और प्रवचनवत्सलता, ये ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों की ही विनय है; क्योंकि रत्नत्रय समूह को साधु व प्रवचन संज्ञा प्राप्त है। इसी कारण क्योंकि विनयसंपन्नता एक भी होकर सोलह अवयवों से सहित है, अतः उस एक ही विनयसंपन्नता से मनुष्य तीर्थंकर नामकर्म को बांधते हैं। <strong>प्रश्न–</strong>यह, विनय संपन्नता देव नारकियों के कैसे संभव है। <strong>उत्तर–</strong>उक्त शंका ठीक नहीं है, क्योंकि उनमें ज्ञान व दर्शन-विनय की संभावना देखी जाती है। <strong>प्रश्न–</strong>यदि (देव और नारकियों को) दो ही विनयों से तीर्थंकर नामकर्म बाँधा जा सकता है तो फिर चारित्रविनय को उसका कारण क्यों कहा गया है। <strong>उत्तर–</strong>यह कोई दोष नहीं, क्योंकि विरोधी चारित्रविनय नहीं होता, इस बात को सूचित करने के लिए चारित्रविनय को भी कारण मान लिया गया है। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> विनय तप का माहात्म्य</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भावपाहुड़/ </span> | <span class="GRef"> भावपाहुड़/ मूल/102</span> <span class="PrakritGatha">विणयं पंचपयारं पालहि मणवयणकायजोएण अविणयणरा सुविहियं तत्तो मुत्तिंण पावंति।102। </span>= <span class="HindiText">हे मुने ! पाँच प्रकार की विनय को मन, वचन, काय तीनों योगों से पाल, क्योंकि, विनय रहित मनुष्य सुविहित मुक्ति को प्राप्त नहीं करते हैं। <span class="GRef">( वसुनंदी श्रावकाचार/335 )</span>। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/129-131 </span><span class="PrakritGatha">विणओ मोक्खद्दारं विणयादो संजमो तवो णाणं। णिगएणाराहिज्जइ आयरिओ सव्वसंघो य।129। आयारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तसोधिणिज्झंझा। अज्जव मद्दव लाघव भत्ती पल्हादकरणं च।130। कित्ती मेत्ती माणस्स भंजणं गुरुजणे य बहुमाणो। तित्थयराणं आणा गुणाणुमोदो य विणयगुणा।131।</span> = <span class="HindiText">विनय मोक्ष का द्वार है, विनय से संयम, तप और ज्ञान होता है और विनय से आचार्य व सर्वसंघ की सेवा हो सकती है।129। आचार के, जीदप्रायश्चित्त के और कल्पप्रायश्चित्त के गुणों का प्रगट होना, आत्मशुद्धि, कलह रहितता, आर्जव, मार्दव, निर्लोभता, गुरुसेवा, सबको सुखी करना–ये सब विनय के गुण हैं।130। सर्वत्र प्रसिद्धि, सर्व मैत्री गर्व का त्याग, आचार्यादिकों से बहुमान का पाना, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन, गुणों से प्रेम–इतने गुण विनय करने वाले के प्रगट होते हैं।131। ( | <span class="GRef"> भगवती आराधना/129-131 </span><span class="PrakritGatha">विणओ मोक्खद्दारं विणयादो संजमो तवो णाणं। णिगएणाराहिज्जइ आयरिओ सव्वसंघो य।129। आयारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तसोधिणिज्झंझा। अज्जव मद्दव लाघव भत्ती पल्हादकरणं च।130। कित्ती मेत्ती माणस्स भंजणं गुरुजणे य बहुमाणो। तित्थयराणं आणा गुणाणुमोदो य विणयगुणा।131।</span> = <span class="HindiText">विनय मोक्ष का द्वार है, विनय से संयम, तप और ज्ञान होता है और विनय से आचार्य व सर्वसंघ की सेवा हो सकती है।129। आचार के, जीदप्रायश्चित्त के और कल्पप्रायश्चित्त के गुणों का प्रगट होना, आत्मशुद्धि, कलह रहितता, आर्जव, मार्दव, निर्लोभता, गुरुसेवा, सबको सुखी करना–ये सब विनय के गुण हैं।130। सर्वत्र प्रसिद्धि, सर्व मैत्री गर्व का त्याग, आचार्यादिकों से बहुमान का पाना, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन, गुणों से प्रेम–इतने गुण विनय करने वाले के प्रगट होते हैं।131। <span class="GRef">(मूलाचार/386-388); ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/275/3 )</span>। </span><br /> | ||
<span class="GRef">मूलाचार/364</span><span class="PrakritGatha"> दंसणणाणे विणओ चरित्ततव ओवचारिओ विणओ। पंचविहो खलु विणओ पंचमगइणापगो भणिओ।364।</span> = <span class="HindiText">दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप व उपचार ये पाँच प्रकार के विनय मोक्ष गति के नायक कहे गये हैं।364। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/332-336 </span><span class="PrakritGatha">विणएण ससंकुज्जलजसोहधवलियदियंतओ पुरिसो। सव्वत्थ हवइ सुहओ तहेव आदिज्जवयणो य।332। जे केइ वि उवएसा इह परलोए सुहावहा संति। विणएण गुरुजणाणं सव्वे पाउणइ ते पुरिसा।333। देविंद चक्कहरमंडलीयरायाइजं सुहं लोए। तं सव्वं विणयफलं णिव्वाणसुहं तहा चेव।334। सत्तू व मित्तभावं जम्हा उवयाइ विणयसीलस्स। विणओ तिविहेण तओ कायव्वो देसविरएण।336। </span><span class="HindiText">विनय से पुरुष चंद्रमा के समान उज्ज्वल वशसमूह से दिगंत को धवलित करता है, सर्वत्र सबका प्रिय हो जाता है, तथा उसके वचन सर्वत्र आदर योग्य होते हैं।332। जो कोई भी उपदेश इस लोक और पर लोक में जीवों को सुख के देने वाले होते हैं, उन सबकी मनुष्य गुरुजनों की विनय से प्राप्त करते हैं।333। संसार में देवेंद्र, चक्रवर्ती और मंडलीक राजा आदि के जो सुख प्राप्त होते हैं वह सब विनय का ही फल है और इसी प्रकार मोक्ष सुख भी विनय का ही फल है।334। चूँकि विनयशील मनुष्य का शत्रु भी मित्रभाव को प्राप्त हो जाता है इसलिए श्रावक को मन, वचन, काय से विनय करना चाहिए।336। </span><br /> | <span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/332-336 </span><span class="PrakritGatha">विणएण ससंकुज्जलजसोहधवलियदियंतओ पुरिसो। सव्वत्थ हवइ सुहओ तहेव आदिज्जवयणो य।332। जे केइ वि उवएसा इह परलोए सुहावहा संति। विणएण गुरुजणाणं सव्वे पाउणइ ते पुरिसा।333। देविंद चक्कहरमंडलीयरायाइजं सुहं लोए। तं सव्वं विणयफलं णिव्वाणसुहं तहा चेव।334। सत्तू व मित्तभावं जम्हा उवयाइ विणयसीलस्स। विणओ तिविहेण तओ कायव्वो देसविरएण।336। </span><span class="HindiText">विनय से पुरुष चंद्रमा के समान उज्ज्वल वशसमूह से दिगंत को धवलित करता है, सर्वत्र सबका प्रिय हो जाता है, तथा उसके वचन सर्वत्र आदर योग्य होते हैं।332। जो कोई भी उपदेश इस लोक और पर लोक में जीवों को सुख के देने वाले होते हैं, उन सबकी मनुष्य गुरुजनों की विनय से प्राप्त करते हैं।333। संसार में देवेंद्र, चक्रवर्ती और मंडलीक राजा आदि के जो सुख प्राप्त होते हैं वह सब विनय का ही फल है और इसी प्रकार मोक्ष सुख भी विनय का ही फल है।334। चूँकि विनयशील मनुष्य का शत्रु भी मित्रभाव को प्राप्त हो जाता है इसलिए श्रावक को मन, वचन, काय से विनय करना चाहिए।336। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/7/62/702 </span><span class="SanskritGatha">सारं सुमानुषत्वेऽर्हद्रूपसंपदिहार्हति। शिक्षास्यां विनयः सम्यगस्मिन् काम्याः सतां गुणाः।62। </span>= <span class="HindiText">मनुष्य भव का सार आर्यता कुलीनता आदि है। उनका भी सार जिनलिंग धारण है। उसका भी सार जिनागम की शिक्षा है और शिक्षा का भी सार यह विनय है, क्योंकि इसके होने पर ही सज्जन पुरुषों के गुण सम्यक् प्रकार स्फुरायमान होते हैं। <br /> | <span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/7/62/702 </span><span class="SanskritGatha">सारं सुमानुषत्वेऽर्हद्रूपसंपदिहार्हति। शिक्षास्यां विनयः सम्यगस्मिन् काम्याः सतां गुणाः।62। </span>= <span class="HindiText">मनुष्य भव का सार आर्यता कुलीनता आदि है। उनका भी सार जिनलिंग धारण है। उसका भी सार जिनागम की शिक्षा है और शिक्षा का भी सार यह विनय है, क्योंकि इसके होने पर ही सज्जन पुरुषों के गुण सम्यक् प्रकार स्फुरायमान होते हैं। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> मोक्षमार्ग में विनय का स्थान व प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/128/305 </span><span class="PrakritGatha">विणएण विप्पहूणस्स हवदि सिक्खा णिरत्थिया सव्वा। विणओ सिक्खाए फलं विणयफलं सव्वकल्लाणं।128। </span>= <span class="HindiText">विनयहीन पुरुष का शास्त्र पढ़ना निष्फल है, क्योंकि विद्या पढ़ने का फल विनय है और उसका फल स्वर्ग मोक्ष का मिलना है। | <span class="GRef"> भगवती आराधना/128/305 </span><span class="PrakritGatha">विणएण विप्पहूणस्स हवदि सिक्खा णिरत्थिया सव्वा। विणओ सिक्खाए फलं विणयफलं सव्वकल्लाणं।128। </span>= <span class="HindiText">विनयहीन पुरुष का शास्त्र पढ़ना निष्फल है, क्योंकि विद्या पढ़ने का फल विनय है और उसका फल स्वर्ग मोक्ष का मिलना है। <span class="GRef">(मूलाचार/385); ( अनगारधर्मामृत/7/63/703 )</span>। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> रयणसार/82 </span><span class="PrakritGatha">गुरुभक्तिविहीणाणं सिस्साणं सव्वसंगविरदाणं। ऊसरछेत्ते वविय सुवीयसमं जाण सव्वणुट्टाणं।82।</span> = <span class="HindiText">सर्वसंग रहित गुरुओं की भक्ति से विहीन शिष्यों की सर्व क्रियाएँ, ऊषर भूमि में पड़े बीज के समान व्यर्थ हैं। </span><br /> | <span class="GRef"> रयणसार/82 </span><span class="PrakritGatha">गुरुभक्तिविहीणाणं सिस्साणं सव्वसंगविरदाणं। ऊसरछेत्ते वविय सुवीयसमं जाण सव्वणुट्टाणं।82।</span> = <span class="HindiText">सर्वसंग रहित गुरुओं की भक्ति से विहीन शिष्यों की सर्व क्रियाएँ, ऊषर भूमि में पड़े बीज के समान व्यर्थ हैं। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/23/7/622/31 </span><span class="SanskritText">ज्ञानलाभाचारविशुद्धिसम्यगाराधनाद्यर्थं विनयभावनम्।7।.....ततश्च निवृत्तिसुखमिति विनयभावनं क्रियते।</span> =<span class="HindiText"> ज्ञानलाभ, आचारविशुद्धि और सम्यग आराधना आदि की सिद्धि विनय से होती है और अंत में मोक्षसुख भी इसी से मिलता है, अतः विनय भाव अवश्य ही रखना चाहिए। | <span class="GRef"> राजवार्तिक/9/23/7/622/31 </span><span class="SanskritText">ज्ञानलाभाचारविशुद्धिसम्यगाराधनाद्यर्थं विनयभावनम्।7।.....ततश्च निवृत्तिसुखमिति विनयभावनं क्रियते।</span> =<span class="HindiText"> ज्ञानलाभ, आचारविशुद्धि और सम्यग आराधना आदि की सिद्धि विनय से होती है और अंत में मोक्षसुख भी इसी से मिलता है, अतः विनय भाव अवश्य ही रखना चाहिए। <span class="GRef">( चारित्रसार/150/2 )</span>। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/300/511 </span><span class="SanskritText">शास्त्रोक्तवाचनास्वाध्यायकालयोरध्ययनं श्रुतस्स श्रुतं प्रयच्छतश्च भक्तिपूर्व कृत्वा, अवग्रहं परिगृह्य, बहुमाने कृत्वा, निह्नवं निराकृत्य, अर्थव्यंजनतदुभयशुद्धि संपाद्य एवं भाव्यमानं श्रुतज्ञानं संवरं निर्जरां च करोति। अन्यथा ज्ञानावरणस्य कारणं भवेत्। </span>= <span class="HindiText">शास्त्र में वाचना और स्वाध्याय का जो काल कहा हुआ है उसी काल में श्रुत का अध्ययन करो, श्रुतज्ञान को बताने वाले गुरु की भक्ति करो, कुछ नियम ग्रहण करके आदर से पढ़ो, गुरु व शास्त्र का नाम न छिपाओ, अर्थ-व्यंजन व तदुभयशुद्धि पूर्वक पढ़ो, इस प्रकार विनयपूर्वक अभ्यस्त हुआ श्रुतज्ञान कर्मों की संवर निर्जरा करता है, अन्यथा वही ज्ञानावरण कर्म के बंध का कारण है। (और भी देखें [[ विनय#1.6 | विनय - 1.6 ]]में ज्ञानविनय का लक्षण; ज्ञान/III/2/1 में सम्यग्ज्ञान के आठ अंग) </span><br /> | <span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/300/511 </span><span class="SanskritText">शास्त्रोक्तवाचनास्वाध्यायकालयोरध्ययनं श्रुतस्स श्रुतं प्रयच्छतश्च भक्तिपूर्व कृत्वा, अवग्रहं परिगृह्य, बहुमाने कृत्वा, निह्नवं निराकृत्य, अर्थव्यंजनतदुभयशुद्धि संपाद्य एवं भाव्यमानं श्रुतज्ञानं संवरं निर्जरां च करोति। अन्यथा ज्ञानावरणस्य कारणं भवेत्। </span>= <span class="HindiText">शास्त्र में वाचना और स्वाध्याय का जो काल कहा हुआ है उसी काल में श्रुत का अध्ययन करो, श्रुतज्ञान को बताने वाले गुरु की भक्ति करो, कुछ नियम ग्रहण करके आदर से पढ़ो, गुरु व शास्त्र का नाम न छिपाओ, अर्थ-व्यंजन व तदुभयशुद्धि पूर्वक पढ़ो, इस प्रकार विनयपूर्वक अभ्यस्त हुआ श्रुतज्ञान कर्मों की संवर निर्जरा करता है, अन्यथा वही ज्ञानावरण कर्म के बंध का कारण है। (और भी देखें [[ विनय#1.6 | विनय - 1.6 ]]में ज्ञानविनय का लक्षण; ज्ञान/III/2/1 में सम्यग्ज्ञान के आठ अंग) </span><br /> | ||
<span class="GRef">पद्मनन्दि पंचविंशतिका/6/19</span><span class="SanskritGatha"> ये गुरु नैव मंयंते तदुपास्तिं न कुर्वते। अंधकारो भवत्तेषामुदितेऽपि दिवाकरे।19।</span> = <span class="HindiText">जो न गुरु को मानते हैं, न उनकी उपासना ही करते हैं, उनके लिए सूर्य का उदय होने पर भी अंधकार जैसा ही है। <br /> | |||
देखें [[ विनय#4.3 | विनय - 4.3 ]](चारित्रवृद्ध के द्वारा भी ज्ञानवृद्ध वंदनीय है।) <br /> | देखें [[ विनय#4.3 | विनय - 4.3 ]](चारित्रवृद्ध के द्वारा भी ज्ञानवृद्ध वंदनीय है।) <br /> | ||
देखें [[ सल्लेखना#10 | सल्लेखना - 10 ]](क्षपक को निर्यापक का अन्वेषण अवश्य करना चाहिए।) </span></li> | देखें [[ सल्लेखना#10 | सल्लेखना - 10 ]](क्षपक को निर्यापक का अन्वेषण अवश्य करना चाहिए।) </span></li> |
Latest revision as of 14:53, 22 February 2024
- सामान्य विनय निर्देश
- आचार व विनय में अंतर
अनगारधर्मामृत/7/ श्लोक/पृष्ठदोषोच्छेदे गुणाधाने यत्नो हि विनयो दृशि। दृगाचारस्तु तत्त्वार्थरुचौ यत्नो मलात्यये।66। यत्नो हि कालशुद्धयादौ स्याज्ज्ञानविनयोऽत्र तु। सति यत्नस्तदाचारः पाठे तत्साधनेषुच।68। समित्यादिषु यत्नो हि चारित्रविनयो यतः। तदाचारस्तु यस्तेषु सत्सु यत्नो व्रताश्रयः।70। = सम्यग्दर्शन में से दोषों को दूर करने तथा उसमें गुणों को उत्पन्न करने के लिए जो प्रयत्न किया जाता है, उसको दर्शन विनय तथा शंकादि मलों के दूर हो जाने पर तत्त्वार्थ श्रद्धान में प्रयत्न करने को दर्शनाचार कहते हैं। कालशुद्धि आदि ज्ञान के आठ अंगों के विषय में प्रयत्न करने को ज्ञान विनय और उन शुद्धि आदिकों के हो जाने पर श्रुत का अध्ययन करने के लिए प्रयत्न करने को अथवा अध्ययन की साधनभूत पुस्तकादि सामग्री के लिए प्रयत्न करने को ज्ञानाचार कहते हैं।68। व्रतों को निर्मल बनाने के लिए समिति आदि में प्रयत्न करने को चारित्र विनय और समिति आदिकों के सिद्ध हो जाने पर व्रतों की वृद्धि आदि के लिए प्रयत्न करने को चारित्राचार कहते हैं।70।
- ज्ञान के आठ अंगों को ज्ञानविनय कहने का कारण
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/113/261/22 अयमष्टप्रकारो ज्ञानाभ्यासपरिकरोऽष्टविधं कर्म विनयति व्यपनयति विनयशब्द वाच्यो भवतीति सूरेरभिप्रायः। = ज्ञानाभ्यास के आठ प्रकार कर्मों को आत्मा से दूर करते हैं, इसलिए विनय शब्द से संबोधन करना सार्थक है, ऐसा आचार्यों का अभिप्राय है।
- एक विनयसंपन्नता में शेष 15 भावनाओं का समावेश
धवला 8/3, 41/80/8 विणयसंपण्णदाए चेव तित्थयरणामकम्मं बंधंति। तं जहा–विणओ तिविहो णाणदंसणचरित्तविणओ त्ति। तत्थ णाणविणओ णाम अभिक्खणभिक्खणं णाणेवजोगजुत्तदा बहुसुदभत्ती पवयणभत्ती च। दंसणविणओ णाम पवयणेसुवइट्ठसव्वभावसद्दहणं तिमूढादो ओसरणमट्ठमलच्छद्दणमरहंत-सिद्धभत्ती खणलवपडिबुज्झणदा लद्धिसंवेगसंपण्णदा च। चरित्तविणओ णाम सीलव्वदेसु णिरदिचारदा आवासएसु अपरिहीणदा जहायामे तहा तवो च। साहूणं पासुगपरिच्चाओ तेसिं समाहिसंधारणं तेसिं वेज्जावच्चजोगजुत्तदा पवयणवछल्लदा च णाणदंसणचरित्ताणं पि विणओ, तिरयणसमूहस्स साहू पवयण त्ति ववएसादो। तदो विणयसंपण्णदा एक्का वि होदूण सोलसावयवा। तेणेदीए विणयसंपण्णदाए एक्काए वि तित्थयरणामकम्मं मणुओ बंधंति। देव णेरइयाण कधमेसा संभवदि। ण, तत्थ वि णाणदंसणविणयाणं संभवदंसणादो।...जदि दोहि चेव तित्थयरणामकम्मं बज्झदि तो चरित्तविणओ किमिदि तक्कारणमिदि वुच्चदे ण एस दोसो, णाणदंसणविणयकज्जविरोहिचरणविणओ ण होदि त्तिपदुप्पायणफलत्तादो। = विनय संपन्नता से ही तीर्थंकर नामकर्म को बाँधता है। वह इस प्रकार से कि-ज्ञानविनय, दर्शनविनय और चारित्र विनय के भेद से विनय तीन प्रकार है। उसमें बारंबार ज्ञानोपयोग से युक्त रहने के साथ बहुश्रुतभक्ति और प्रवचनभक्ति का नाम ज्ञानविनय है। आगमोपदिष्ट सर्वपदार्थों के श्रद्धान के साथ तीन मूढ़ताओं से रहित होना, आठ मलों को छोड़ना, अरहंतभक्ति, सिद्धभक्ति, क्षणलवप्रतिबुद्धता और लब्धिसंवेगसंपन्नता को दर्शन विनय कहते हैं। शीलव्रतों में निरतिचारता, आवश्यकों में अपरिहीनता अर्थात् परिपूर्णता और शक्त्यनुसार तप का नाम चारित्र विनय है। साधुओं के लिए प्रासुक आहारादिक का दान, उनकी समाधिका धारण करना, उनकी वैयावृत्ति में उपयोग लगाना और प्रवचनवत्सलता, ये ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों की ही विनय है; क्योंकि रत्नत्रय समूह को साधु व प्रवचन संज्ञा प्राप्त है। इसी कारण क्योंकि विनयसंपन्नता एक भी होकर सोलह अवयवों से सहित है, अतः उस एक ही विनयसंपन्नता से मनुष्य तीर्थंकर नामकर्म को बांधते हैं। प्रश्न–यह, विनय संपन्नता देव नारकियों के कैसे संभव है। उत्तर–उक्त शंका ठीक नहीं है, क्योंकि उनमें ज्ञान व दर्शन-विनय की संभावना देखी जाती है। प्रश्न–यदि (देव और नारकियों को) दो ही विनयों से तीर्थंकर नामकर्म बाँधा जा सकता है तो फिर चारित्रविनय को उसका कारण क्यों कहा गया है। उत्तर–यह कोई दोष नहीं, क्योंकि विरोधी चारित्रविनय नहीं होता, इस बात को सूचित करने के लिए चारित्रविनय को भी कारण मान लिया गया है।
- विनय तप का माहात्म्य
भावपाहुड़/ मूल/102 विणयं पंचपयारं पालहि मणवयणकायजोएण अविणयणरा सुविहियं तत्तो मुत्तिंण पावंति।102। = हे मुने ! पाँच प्रकार की विनय को मन, वचन, काय तीनों योगों से पाल, क्योंकि, विनय रहित मनुष्य सुविहित मुक्ति को प्राप्त नहीं करते हैं। ( वसुनंदी श्रावकाचार/335 )।
भगवती आराधना/129-131 विणओ मोक्खद्दारं विणयादो संजमो तवो णाणं। णिगएणाराहिज्जइ आयरिओ सव्वसंघो य।129। आयारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तसोधिणिज्झंझा। अज्जव मद्दव लाघव भत्ती पल्हादकरणं च।130। कित्ती मेत्ती माणस्स भंजणं गुरुजणे य बहुमाणो। तित्थयराणं आणा गुणाणुमोदो य विणयगुणा।131। = विनय मोक्ष का द्वार है, विनय से संयम, तप और ज्ञान होता है और विनय से आचार्य व सर्वसंघ की सेवा हो सकती है।129। आचार के, जीदप्रायश्चित्त के और कल्पप्रायश्चित्त के गुणों का प्रगट होना, आत्मशुद्धि, कलह रहितता, आर्जव, मार्दव, निर्लोभता, गुरुसेवा, सबको सुखी करना–ये सब विनय के गुण हैं।130। सर्वत्र प्रसिद्धि, सर्व मैत्री गर्व का त्याग, आचार्यादिकों से बहुमान का पाना, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन, गुणों से प्रेम–इतने गुण विनय करने वाले के प्रगट होते हैं।131। (मूलाचार/386-388); ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/275/3 )।
मूलाचार/364 दंसणणाणे विणओ चरित्ततव ओवचारिओ विणओ। पंचविहो खलु विणओ पंचमगइणापगो भणिओ।364। = दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप व उपचार ये पाँच प्रकार के विनय मोक्ष गति के नायक कहे गये हैं।364।
वसुनंदी श्रावकाचार/332-336 विणएण ससंकुज्जलजसोहधवलियदियंतओ पुरिसो। सव्वत्थ हवइ सुहओ तहेव आदिज्जवयणो य।332। जे केइ वि उवएसा इह परलोए सुहावहा संति। विणएण गुरुजणाणं सव्वे पाउणइ ते पुरिसा।333। देविंद चक्कहरमंडलीयरायाइजं सुहं लोए। तं सव्वं विणयफलं णिव्वाणसुहं तहा चेव।334। सत्तू व मित्तभावं जम्हा उवयाइ विणयसीलस्स। विणओ तिविहेण तओ कायव्वो देसविरएण।336। विनय से पुरुष चंद्रमा के समान उज्ज्वल वशसमूह से दिगंत को धवलित करता है, सर्वत्र सबका प्रिय हो जाता है, तथा उसके वचन सर्वत्र आदर योग्य होते हैं।332। जो कोई भी उपदेश इस लोक और पर लोक में जीवों को सुख के देने वाले होते हैं, उन सबकी मनुष्य गुरुजनों की विनय से प्राप्त करते हैं।333। संसार में देवेंद्र, चक्रवर्ती और मंडलीक राजा आदि के जो सुख प्राप्त होते हैं वह सब विनय का ही फल है और इसी प्रकार मोक्ष सुख भी विनय का ही फल है।334। चूँकि विनयशील मनुष्य का शत्रु भी मित्रभाव को प्राप्त हो जाता है इसलिए श्रावक को मन, वचन, काय से विनय करना चाहिए।336।
अनगारधर्मामृत/7/62/702 सारं सुमानुषत्वेऽर्हद्रूपसंपदिहार्हति। शिक्षास्यां विनयः सम्यगस्मिन् काम्याः सतां गुणाः।62। = मनुष्य भव का सार आर्यता कुलीनता आदि है। उनका भी सार जिनलिंग धारण है। उसका भी सार जिनागम की शिक्षा है और शिक्षा का भी सार यह विनय है, क्योंकि इसके होने पर ही सज्जन पुरुषों के गुण सम्यक् प्रकार स्फुरायमान होते हैं।
- मोक्षमार्ग में विनय का स्थान व प्रयोजन
भगवती आराधना/128/305 विणएण विप्पहूणस्स हवदि सिक्खा णिरत्थिया सव्वा। विणओ सिक्खाए फलं विणयफलं सव्वकल्लाणं।128। = विनयहीन पुरुष का शास्त्र पढ़ना निष्फल है, क्योंकि विद्या पढ़ने का फल विनय है और उसका फल स्वर्ग मोक्ष का मिलना है। (मूलाचार/385); ( अनगारधर्मामृत/7/63/703 )।
रयणसार/82 गुरुभक्तिविहीणाणं सिस्साणं सव्वसंगविरदाणं। ऊसरछेत्ते वविय सुवीयसमं जाण सव्वणुट्टाणं।82। = सर्वसंग रहित गुरुओं की भक्ति से विहीन शिष्यों की सर्व क्रियाएँ, ऊषर भूमि में पड़े बीज के समान व्यर्थ हैं।
राजवार्तिक/9/23/7/622/31 ज्ञानलाभाचारविशुद्धिसम्यगाराधनाद्यर्थं विनयभावनम्।7।.....ततश्च निवृत्तिसुखमिति विनयभावनं क्रियते। = ज्ञानलाभ, आचारविशुद्धि और सम्यग आराधना आदि की सिद्धि विनय से होती है और अंत में मोक्षसुख भी इसी से मिलता है, अतः विनय भाव अवश्य ही रखना चाहिए। ( चारित्रसार/150/2 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/300/511 शास्त्रोक्तवाचनास्वाध्यायकालयोरध्ययनं श्रुतस्स श्रुतं प्रयच्छतश्च भक्तिपूर्व कृत्वा, अवग्रहं परिगृह्य, बहुमाने कृत्वा, निह्नवं निराकृत्य, अर्थव्यंजनतदुभयशुद्धि संपाद्य एवं भाव्यमानं श्रुतज्ञानं संवरं निर्जरां च करोति। अन्यथा ज्ञानावरणस्य कारणं भवेत्। = शास्त्र में वाचना और स्वाध्याय का जो काल कहा हुआ है उसी काल में श्रुत का अध्ययन करो, श्रुतज्ञान को बताने वाले गुरु की भक्ति करो, कुछ नियम ग्रहण करके आदर से पढ़ो, गुरु व शास्त्र का नाम न छिपाओ, अर्थ-व्यंजन व तदुभयशुद्धि पूर्वक पढ़ो, इस प्रकार विनयपूर्वक अभ्यस्त हुआ श्रुतज्ञान कर्मों की संवर निर्जरा करता है, अन्यथा वही ज्ञानावरण कर्म के बंध का कारण है। (और भी देखें विनय - 1.6 में ज्ञानविनय का लक्षण; ज्ञान/III/2/1 में सम्यग्ज्ञान के आठ अंग)
पद्मनन्दि पंचविंशतिका/6/19 ये गुरु नैव मंयंते तदुपास्तिं न कुर्वते। अंधकारो भवत्तेषामुदितेऽपि दिवाकरे।19। = जो न गुरु को मानते हैं, न उनकी उपासना ही करते हैं, उनके लिए सूर्य का उदय होने पर भी अंधकार जैसा ही है।
देखें विनय - 4.3 (चारित्रवृद्ध के द्वारा भी ज्ञानवृद्ध वंदनीय है।)
देखें सल्लेखना - 10 (क्षपक को निर्यापक का अन्वेषण अवश्य करना चाहिए।)
- आचार व विनय में अंतर