शुभ: Difference between revisions
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<li>अशुभ से निवृत्ति शुभ में प्रवृत्ति का नाम ही चारित्र है। - (देखें [[ चारित्र#1.12 | चारित्र - 1.12]])।</li> | <li>अशुभ से निवृत्ति शुभ में प्रवृत्ति का नाम ही चारित्र है। - (देखें [[ चारित्र#1.12 | चारित्र - 1.12]])।</li> | ||
<li>मन:शुद्धि ही वास्तविक शुद्धि है। - देखें [[ साधु#3 | साधु - 3]]।</li> | <li>मन:शुद्धि ही वास्तविक शुद्धि है। - देखें [[ साधु#3 | साधु - 3]]।</li> | ||
<li>शुभ-अशुभ प्रकृतियों की | <li>शुभ-अशुभ प्रकृतियों की बंध, उदय, सत्त्व प्ररूपणाएँ। - देखें [[बंध ]], [[ उदय ]], [[ सत्त्व ]]।</li> | ||
<li>पुण्य-पाप प्रकृति सामान्य। - देखें [[ प्रकृतिबंध#2 | प्रकृतिबंध - 2]]।</li> | <li>पुण्य-पाप प्रकृति सामान्य। - देखें [[ प्रकृतिबंध#2.1 | प्रकृतिबंध - 2.1]]।</li> | ||
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Latest revision as of 14:40, 2 March 2024
1. शुभ व अशुभ नामकर्म का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/11/392/1 यदुदयाद्रमणीयत्वं तच्छुभनाम। तद्विपरीतमशुभनाम। =जिसके उदय से रमणीय होता है वह शुभ नामकर्म है। इससे विपरीत अशुभ नामकर्म है। ( राजवार्तिक/8/11-27-28/579/5 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/30/9 )।
धवला 6/1,9,1,28/64/8 जस्स कम्मस्स उदएण अंगोवंगणामकम्मोदयजणिद अंगाणमुवंगाणं च सुहत्तं होदि तं सुहं णाम। अंगोवंगाणमसुहत्तणिव्वत्तयमसुहं णाम। =जिस कर्म के उदय से अंगोपांग नामकर्मोदय जनित अंगों और उपांगों के शुभ (रमणीय) पना होता है, वह शुभनामकर्म है। अंग और उपांगों के अशुभता को उत्पन्न करने वाला अशुभ नामकर्म है।
धवला 13/5,5,1/101/365/12 जस्स कम्मस्सुदएण चक्कवट्टि-बलदेव-वासुदेवत्तादिरिद्धीणं सूचया संखंकुसारविंदादओ अंग-पच्चंगेसु उप्पज्जंति तं सुहणामं। जस्स कम्मस्सुदएणं असुहलक्खणाणि उप्पज्जंति तमसुहणामं। =जिस कर्म के उदय से चक्रवर्तित्व, बलदेवत्व, और वासुदेवत्व आदि ऋद्धियों के सूचक शंख, अंकुश और कमल आदि चिह्न अंग-प्रत्यंगों में उत्पन्न होते हैं वह शुभ नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से अशुभ लक्षण उत्पन्न होते हैं वह अशुभ नामकर्म लक्षण है।
2. अन्य संबंधित विषय
- अशुभ से निवृत्ति शुभ में प्रवृत्ति का नाम ही चारित्र है। - (देखें चारित्र - 1.12)।
- मन:शुद्धि ही वास्तविक शुद्धि है। - देखें साधु - 3।
- शुभ-अशुभ प्रकृतियों की बंध, उदय, सत्त्व प्ररूपणाएँ। - देखें बंध , उदय , सत्त्व ।
- पुण्य-पाप प्रकृति सामान्य। - देखें प्रकृतिबंध - 2.1।