शुभोपयोग: Difference between revisions
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देखें [[ उपयोग#II.4 | उपयोग - II.4]]। | <span class="GRef">प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 69-157</span><p class="PrakritText"> देवजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा मुसीलेसु। उववासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा ।69। जो जाणदि जिणिंदे पेच्छदि सिद्धे तहेव अणगारे। जीवेसु साणुकपो उवओगो सो सुहो तस्स ।157।</p> | ||
<p class="HindiText">= देव गुरु और यति की पूजा में तथा दान में एवं सुशीलों में और उपवासादिक में लीन आत्मा शुभोपयोगात्मक है ।69। जो जिनेंद्रों (अर्हंतों) को जानता है, सिद्धों तथा अनगारों की श्रद्धा करता है, (अर्थात् पंच परमेष्ठी में अनुरक्त है) और जीवों के प्रति अनुकंपा युक्त है, उसके वह शुभ उपयोग है। </p> | |||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 131,136</span><p class="PrakritText"> मोहो रागो दोसो चित्तपसादो य जस्स भावम्मि। विज्जदि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामो ।131। अरहंतसिद्धसाहुसु भत्तो धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा। अणुगमणं पि गुरूणं पसत्थरागो त्ति वुच्चति ।136।</p> | |||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 131</span><p class="SanskritText"> दर्शनमोहनीयविपाककलुषपरिणामता मोहः। विचित्रचारित्रमोहनीयविपाकप्रत्यये प्रीत्यप्रीति रागद्वेषौ। तस्यैव मंदोदये विशुद्धपरिणामता चित्तप्रसादपरिणामः। तत्र यत्र प्रशस्तरागाश्चित्तप्रसादश्च तत्र शुभः परिणामः।</p> | |||
<p class="HindiText">= दर्शनमोहनीय के विपाक से होनेवाली कलुषपरिणामता का नाम मोह है। विचित्र चारित्र मोहनीय के आश्रय से होनेवाली प्रीति अप्रीति राग द्वेष कहलाते हैं। उसी चारित्रमोह के मंद उदय से होनेवाला विशुद्ध परिणाम चित्तप्रसाद है। ये तीनों भाव जिसके होते हैं, उसके अशुभ अथवा शुभ परिणाम है। तहाँ प्रशस्त राग व चित्तप्रसाद जहाँ है वहाँ शुभ परिणाम है ।131। अर्हंत सिद्ध साधुओंके प्रति भक्ति, धर्ममें यथार्थतया चेष्टा और गुरुओंका अनुगमन प्रशस्त राग कहलाता है ।136।</p> | |||
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प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 69-157
देवजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा मुसीलेसु। उववासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा ।69। जो जाणदि जिणिंदे पेच्छदि सिद्धे तहेव अणगारे। जीवेसु साणुकपो उवओगो सो सुहो तस्स ।157।
= देव गुरु और यति की पूजा में तथा दान में एवं सुशीलों में और उपवासादिक में लीन आत्मा शुभोपयोगात्मक है ।69। जो जिनेंद्रों (अर्हंतों) को जानता है, सिद्धों तथा अनगारों की श्रद्धा करता है, (अर्थात् पंच परमेष्ठी में अनुरक्त है) और जीवों के प्रति अनुकंपा युक्त है, उसके वह शुभ उपयोग है।
पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 131,136
मोहो रागो दोसो चित्तपसादो य जस्स भावम्मि। विज्जदि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामो ।131। अरहंतसिद्धसाहुसु भत्तो धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा। अणुगमणं पि गुरूणं पसत्थरागो त्ति वुच्चति ।136।
पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 131
दर्शनमोहनीयविपाककलुषपरिणामता मोहः। विचित्रचारित्रमोहनीयविपाकप्रत्यये प्रीत्यप्रीति रागद्वेषौ। तस्यैव मंदोदये विशुद्धपरिणामता चित्तप्रसादपरिणामः। तत्र यत्र प्रशस्तरागाश्चित्तप्रसादश्च तत्र शुभः परिणामः।
= दर्शनमोहनीय के विपाक से होनेवाली कलुषपरिणामता का नाम मोह है। विचित्र चारित्र मोहनीय के आश्रय से होनेवाली प्रीति अप्रीति राग द्वेष कहलाते हैं। उसी चारित्रमोह के मंद उदय से होनेवाला विशुद्ध परिणाम चित्तप्रसाद है। ये तीनों भाव जिसके होते हैं, उसके अशुभ अथवा शुभ परिणाम है। तहाँ प्रशस्त राग व चित्तप्रसाद जहाँ है वहाँ शुभ परिणाम है ।131। अर्हंत सिद्ध साधुओंके प्रति भक्ति, धर्ममें यथार्थतया चेष्टा और गुरुओंका अनुगमन प्रशस्त राग कहलाता है ।136।
अधिक जानकारी के लिये देखें उपयोग - II.4।