श्रीमति: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
||
(3 intermediate revisions by 2 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
<ol class="HindiText"> | <ol class="HindiText"> | ||
<li> महापुराण/ सर्ग/श्लोक - पुंडरीकिणी नगरी के राजा वज्रदंत की पुत्री थी (6/60)। पूर्वभव का पति मरकर इसकी बुआ का लड़का हुआ। जातिस्मरण होने से उसको ढूँढने आयी (6/91)। जिस किस प्रकार खोज निकालकर उससे विवाह किया (6/105)। एक दिन मुनियों को आहार देकर भोगभूमि की आयु का बंध किया (8/173)। एक समय शयनागार में सुगंधित द्रव्य के घुटने से आकस्मिक मृत्यु हो गयी (9/27)। तथा भोगभूमि में जन्म लिया (8/33)। यह श्रेयांस राजा का पूर्व का सातवाँ भव है। - देखें [[ श्रेयांस ]];</li> | <li><span class="GRef"> महापुराण/सर्ग/श्लोक</span> <br>- पुंडरीकिणी नगरी के राजा वज्रदंत की पुत्री थी (6/60)। पूर्वभव का पति मरकर इसकी बुआ का लड़का हुआ। जातिस्मरण होने से उसको ढूँढने आयी (6/91)। जिस किस प्रकार खोज निकालकर उससे विवाह किया (6/105)। एक दिन मुनियों को आहार देकर भोगभूमि की आयु का बंध किया (8/173)। एक समय शयनागार में सुगंधित द्रव्य के घुटने से आकस्मिक मृत्यु हो गयी (9/27)। तथा भोगभूमि में जन्म लिया (8/33)। यह श्रेयांस राजा का पूर्व का सातवाँ भव है। - देखें [[ श्रेयांस ]];</li> | ||
<li>जिनदत्त चरित्र/सर्ग/श्लोक - सिंघल द्वीप के राजा घनवाहन की पुत्री थी। इसको ऐसा रोग था जो इसके पास रहता वह मर जाता था। इसी कारण इसके पिता ने इसे पृथक् महल दे दिया (4/8) एक दिन एक बुढ़िया के पुत्र की बारी आने पर जिनदत्त नामक एक लड़का स्वयं इसके पास गया। और रात्रि को इसके मुँह में से निकले सर्प को मारकर इसको विवाहा (8/15-26)। इस पर मोहित होकर सागरदत्त ने जिनदत्त को समुद्र में गिरा दिया। यह अपने शील पर दृढ़ रही और मंदिर में रहने लगी (5/8)। कुछ समय पश्चात् इसका पति आ गया (7/24) अंत में दीक्षा धारण कर ली। समाधि पूर्वक कापिष्ठ स्वर्ग में देव हुई (9/112)।</li> | <li><span class="GRef">जिनदत्त चरित्र/सर्ग/श्लोक</span><br> - सिंघल द्वीप के राजा घनवाहन की पुत्री थी। इसको ऐसा रोग था जो इसके पास रहता वह मर जाता था। इसी कारण इसके पिता ने इसे पृथक् महल दे दिया (4/8) एक दिन एक बुढ़िया के पुत्र की बारी आने पर जिनदत्त नामक एक लड़का स्वयं इसके पास गया। और रात्रि को इसके मुँह में से निकले सर्प को मारकर इसको विवाहा (8/15-26)। इस पर मोहित होकर सागरदत्त ने जिनदत्त को समुद्र में गिरा दिया। यह अपने शील पर दृढ़ रही और मंदिर में रहने लगी (5/8)। कुछ समय पश्चात् इसका पति आ गया (7/24) अंत में दीक्षा धारण कर ली। समाधि पूर्वक कापिष्ठ स्वर्ग में देव हुई (9/112)।</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 11: | Line 11: | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: श]] | [[Category: श]] | ||
[[Category: प्रथमानुयोग]] |
Latest revision as of 16:31, 3 March 2024
- महापुराण/सर्ग/श्लोक
- पुंडरीकिणी नगरी के राजा वज्रदंत की पुत्री थी (6/60)। पूर्वभव का पति मरकर इसकी बुआ का लड़का हुआ। जातिस्मरण होने से उसको ढूँढने आयी (6/91)। जिस किस प्रकार खोज निकालकर उससे विवाह किया (6/105)। एक दिन मुनियों को आहार देकर भोगभूमि की आयु का बंध किया (8/173)। एक समय शयनागार में सुगंधित द्रव्य के घुटने से आकस्मिक मृत्यु हो गयी (9/27)। तथा भोगभूमि में जन्म लिया (8/33)। यह श्रेयांस राजा का पूर्व का सातवाँ भव है। - देखें श्रेयांस ; - जिनदत्त चरित्र/सर्ग/श्लोक
- सिंघल द्वीप के राजा घनवाहन की पुत्री थी। इसको ऐसा रोग था जो इसके पास रहता वह मर जाता था। इसी कारण इसके पिता ने इसे पृथक् महल दे दिया (4/8) एक दिन एक बुढ़िया के पुत्र की बारी आने पर जिनदत्त नामक एक लड़का स्वयं इसके पास गया। और रात्रि को इसके मुँह में से निकले सर्प को मारकर इसको विवाहा (8/15-26)। इस पर मोहित होकर सागरदत्त ने जिनदत्त को समुद्र में गिरा दिया। यह अपने शील पर दृढ़ रही और मंदिर में रहने लगी (5/8)। कुछ समय पश्चात् इसका पति आ गया (7/24) अंत में दीक्षा धारण कर ली। समाधि पूर्वक कापिष्ठ स्वर्ग में देव हुई (9/112)।