प्रवचनसार - गाथा 224.7 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:54, 23 April 2024
अब (उन लब्ध्यपर्याप्तक जीवों की) उत्पत्ति के स्थान कहते हैं -
[लिंगम्हि य ड़त्थीणं थणंतरे णाहिकक्खपदेसेसु] स्त्रियों के लिंग अर्थात् योनिप्रदेश में, स्तनों के मध्य भाग में, नाभि प्रदेश में और कक्ष (काँख) प्रदेश में, [भणिदो सुहुमुप्पादो] इन स्थानों में सूक्ष्म मनुष्यादि जीवों की उत्पत्ति कही गई है ।
ये पहले (२४७,२५० वीं गाथा मे) कहे गए मोहादि, जीवोत्पत्ति आदि दोष क्या पुरुषों के नहीं होते हैं ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते है- ऐसा नहीं कहना चाहिये, (पुरुषों में होते हैं परन्तु) स्त्रियों के बहुलता से होते हैं । होने मात्र से समानता नहीं होती है । एक के विष की कणिका मात्र है और दूसरे के विष के पर्वत हैं दोनों में क्या समानता है? बल्कि पुरुषों के प्रथम (वज्रवृषभनाराच) सहंनन के बल से दोषों को नष्ट करनेवाला, मुक्ति के योग्य, विशेष संयम है । [तासिं कह संजमो होदि] (उपर्युक्त दोषों के कारण) उनके (स्त्रियों के) संयम कैसे हो सकता है ॥२५०॥