प्रवचनसार - गाथा 33 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 13:55, 23 April 2024
अब केवलज्ञानी को और श्रुतज्ञानी को अविशेषरूप से दिखाकर विशेष आकांक्षा के क्षोभ का क्षय करते हैं (अर्थात् केवलज्ञानी में और श्रुतज्ञानी में अन्तर नहीं है ऐसा बतलाकर विशेष जानने की इच्छा के क्षोभ को नष्ट करते हैं ) :-
जैसे भगवान, युगपत् परिणमन करते हुए समस्त
- चैतन्य विशेषयुक्त केवल-ज्ञान के द्वारा,
- १अनादिनिधन- २निष्कारण- ३असाधारण- ४स्वसंवेद्यमान चैतन्य-सामान्य जिसकी महिमा है
१अनादिनिधन = अनादि- अनन्त (चैतन्यसामान्य आदि तथा अन्त रहित है)
२निष्कारण = जिसका कोई कारण नहीं हैं ऐसा; स्वयंसिद्ध; सहज
३असाधारण = जो अन्य किसी द्रव्यमें न हो, ऐसा
४स्वसंवेद्यमान = स्वत: ही अनुभवमें आनेवाला
५चेतक = चेतनेवाला; दर्शकज्ञायक
६आत्मा निश्चय से परद्रव्य के तथा राग-द्वेषादि के संयोगों तथा गुण-पर्याय के भेदों से रहित, मात्र चेतक-स्वभावरूप ही है, इसलिये वह परमार्थ से केवल (अकेला, शुद्ध, अखंड) है