प्रवचनसार - गाथा 64 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:55, 23 April 2024
अब, जहाँ तक इन्द्रियाँ हैं वहाँ तक स्वभाव से ही दुःख है, ऐसा न्याय से निश्चित करते हैं :-
जिनकी हत (निकृष्ट, निंद्य) इन्द्रियाँ जीवित (विद्यमान) हैं, उन्हें उपाधि के कारण (बाह्य संयोगों के कारण, औपाधिक) दुख नहीं है किन्तु स्वाभाविक ही है, क्योंकि उनकी विषयों में रति देखी जाती है । जैसे-
- हाथी हथिनी रूपी कुट्टनी के शरीर स्पर्श की ओर,
- मछली बंसी में फँसे हुए मांस के स्वाद की ओर,
- भ्रमर बन्द हो जाने वाले कमल के गंध की ओर,
- पतंगा दीपक की ज्योति के रूप की ओर और
- हिरन शिकारी के संगीत के स्वर की ओर दौड़ते हुए दिखाई देते हैं
- जिसका शीत-ज्वर उपशांत हो गया है, वह पसीना आने के लिये उपचार करता तथा जिसका दाह-ज्वर उतर गया है वह काँजी से शरीर के ताप को उतारता तथा
- जिसकी आखों का दुख दूर हो गया है वह वटाचूर्ण (शंख इत्यादि का चूर्ण) आँजता तथा
- जिसका कर्णशूल नष्ट हो गया हो वह कान में फिर बकरे का मूत्र डालता दिखाई नहीं देता और
- जिसका घाव भर जाता है वह फिर लेप करता दिखाई नहीं देता