प्रवचनसार - गाथा 173 - तत्त्व-प्रदीपिका: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:55, 23 April 2024
मुत्तो रूवादिगुणो बज्झदि फासेहिं अण्णमण्णेहिं । (173)
तव्विवरीदो अप्पा बज्झदि किध पोग्गलं कम्मं ॥185॥
अर्थ:
[मूर्त:] मूर्त (पुद्गल) तो [रूपादिगुण:] रूपादिगुणयुक्त होने से [अन्योन्यै: स्पर्शै:] परस्पर (बंधयोग्य) स्पर्शों से [बध्यते] बँधते हैं; (परन्तु) [तद्विपरीतः आत्मा] उससे विपरीत (अमूर्त) आत्मा [पौद्गलिकं कर्मं] पौद्गलिक कर्म को [कथं] कैसे [बध्नाति] बाँधता है?
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ कथममूर्तस्यात्मन: स्निग्धरूक्षत्वाभावाद्बन्धो भवतीति पूर्वपक्षयति -
मूर्तयोर्हि तावत्पुद्गलयो रूपादिगुणयुक्तत्वेन यथोदितस्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषादन्योन्य-बन्धोऽवधार्यते एव । आत्मकर्मपुद्गलयोस्तु स कथमवधार्यते, मूर्तस्य कर्मपुद्गलस्य रूपादिगुणयुक्तत्वेन यथोदितस्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषसंभवेऽप्यमूर्तस्यात्मनो रूपादिगुणयुक्तत्वाभावेन यथोदितस्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषासंभावनया चैकाङ्गविकलत्वात् ॥१७३॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
मूर्त ऐसे दो पुद्गल तो रूपादिगुणयुक्त होने से यथोक्त स्निग्धरूक्षत्वरूप स्पर्शविशेष (बंधयोग्य स्पर्श) के कारण उनका पारस्परिक बंध अवश्य समझा जा सकता है; किन्तु आत्मा और कर्मपुद्गल का बंध होना कैसे समझा जा सकता है? क्योंकि मूर्त ऐसा कर्मपुद्गल रूपादिगुणयुक्त है, इसलिये उसके यथोक्त स्निग्धरूक्षत्वरूप स्पर्शविशेष का संभव होने पर भी अमूर्त ऐसे आत्मा को रूपादिगुणयुक्तता नहीं है इसलिये उसके यथोक्त स्निग्धरूक्षत्वरूप स्पर्शविशेष का असंभव होने से एक अंग विकल है । (अर्थात् बंधयोग्य दो अंगो में से एक अंग अयोग्य है—स्पर्शगुणरहित होने से बंध की योग्यतावाला नहीं है ।) ॥१७३॥