पूजायोग्य द्रव्य विचार: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText" name="4.4.2" id="4.4.2"><strong>हरे पुष्प व फलों से पूजन</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4.4.2" id="4.4.2"><strong>हरे पुष्प व फलों से पूजन</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति /5/107, 111 </span><span class="PrakritGatha">सयवंतगा य चंपयमाला पुण्णायणायपहुदीहिं। अच्चंति ताओ देवा सुरहीहिं कुसुममालाहिं। 107। दक्खादाडिम-कदलीणारंगयमाहुलिंगचूदेहिं। अण्णेहिं वि पक्केहिं फलेहिं पूजंति जिणणाहं। 111।</span> = <span class="HindiText">वे देव सेवंती, चंपकमाला, पुंनाग और नाग प्रभृति सुगंधित पुष्पमालाओं से उन प्रतिमाओं की पूजा करते हैं। 107। <span class="GRef">( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/5/115 )</span>; <span class="GRef">( बोधपाहुड़/ टीका/9/78/ पर उद्धृत)</span>, (देखें [[ सावद्य#7 | सावद्य - 7]])। दाख, अनार, केला, नारंगी, मातुलिंग, आम तथा अन्य भी पके हुए फलों से वे जिननाथ की पूजा करते हैं। 111। <span class="GRef">( तिलोयपण्णत्ति/3/226 </span> | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति /5/107, 111 </span><span class="PrakritGatha">सयवंतगा य चंपयमाला पुण्णायणायपहुदीहिं। अच्चंति ताओ देवा सुरहीहिं कुसुममालाहिं। 107। दक्खादाडिम-कदलीणारंगयमाहुलिंगचूदेहिं। अण्णेहिं वि पक्केहिं फलेहिं पूजंति जिणणाहं। 111।</span> = <span class="HindiText">वे देव सेवंती, चंपकमाला, पुंनाग और नाग प्रभृति सुगंधित पुष्पमालाओं से उन प्रतिमाओं की पूजा करते हैं। 107। <span class="GRef">( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/5/115 )</span>; <span class="GRef">( बोधपाहुड़/ टीका/9/78/ पर उद्धृत)</span>, (देखें [[ सावद्य#7 | सावद्य - 7]])। दाख, अनार, केला, नारंगी, मातुलिंग, आम तथा अन्य भी पके हुए फलों से वे जिननाथ की पूजा करते हैं। 111। <span class="GRef">( तिलोयपण्णत्ति/3/226 </span>)</span><br /> | ||
<span class="GRef"> पद्मपुराण/11/345 </span><span class="SanskritGatha"> जिनेंद्रः प्रापितः पूजाममरैः कनकांबुजैः। द्रुमपुष्पा-दिभिः किं न पूज्यतेऽस्मद्विधैर्जनैः। 345।</span> = <span class="HindiText">देवों ने जिनेंद्र भगवान् की सुवर्ण कमल से पूजा की थी, तो क्या हमारे जैसे लोग उनकी साधारण वृक्षों के फूलों से पूजा नहीं करते हैं? अर्थात् अवश्य करते हैं। 345। </span><br /> | <span class="GRef"> पद्मपुराण/11/345 </span><span class="SanskritGatha"> जिनेंद्रः प्रापितः पूजाममरैः कनकांबुजैः। द्रुमपुष्पा-दिभिः किं न पूज्यतेऽस्मद्विधैर्जनैः। 345।</span> = <span class="HindiText">देवों ने जिनेंद्र भगवान् की सुवर्ण कमल से पूजा की थी, तो क्या हमारे जैसे लोग उनकी साधारण वृक्षों के फूलों से पूजा नहीं करते हैं? अर्थात् अवश्य करते हैं। 345। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/17/252 </span><span class="SanskritText">परिणतफलभेदैरांरजंबूककपित्थैः पनसलकुचमोचै-र्दाडिमैर्मातुल्ंगिैः। क्रमुकरुचिरगुच्छैर्नालिकेरैश्च | <span class="GRef"> महापुराण/17/252 </span><span class="SanskritText">परिणतफलभेदैरांरजंबूककपित्थैः पनसलकुचमोचै-र्दाडिमैर्मातुल्ंगिैः। क्रमुकरुचिरगुच्छैर्नालिकेरैश्च रम्यैः गुरुचरण-सपर्यामातनोदाततश्रीः। 252। </span> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/78/409 </span><span class="SanskritGatha"> तद्विलोक्य समुत्पन्नभक्तिः स्नानविशुद्धिभाक्। तत्सरो-वरसंभूतप्रसवैर्बहुभिर्जिनान्। 499।</span> (अभ्यर्च्य) = <span class="HindiText">जिनकी लक्ष्मी बहुत विस्तृत है ऐसे राजा भरत ने पके हुए मनोहर आम, जामुन, कैंथा, कटहल, बड़हल, केला, अनार, बिजौरा, सुपारियों के सुंदर गुच्छे और नारियलों से भगवान के चरणों की पूजा की थी। 252। (जिन मंदिर के स्वयमेव किवाड़ खुल गये) यह अतिशय देख, जीवंधर कुमार की भक्ति और भी बढ़ गयी, उन्होंने उसी सरोवर में स्नान कर विशुद्धता प्राप्त की और फिर उसी सरोवर में उत्पन्न हुए बहुत से फूल ले जिनेंद्र भगवान की पूजा की। 409। </span><br /> | <span class="GRef"> महापुराण/78/409 </span><span class="SanskritGatha"> तद्विलोक्य समुत्पन्नभक्तिः स्नानविशुद्धिभाक्। तत्सरो-वरसंभूतप्रसवैर्बहुभिर्जिनान्। 499।</span> (अभ्यर्च्य) = <span class="HindiText">जिनकी लक्ष्मी बहुत विस्तृत है ऐसे राजा भरत ने पके हुए मनोहर आम, जामुन, कैंथा, कटहल, बड़हल, केला, अनार, बिजौरा, सुपारियों के सुंदर गुच्छे और नारियलों से भगवान के चरणों की पूजा की थी। 252। (जिन मंदिर के स्वयमेव किवाड़ खुल गये) यह अतिशय देख, जीवंधर कुमार की भक्ति और भी बढ़ गयी, उन्होंने उसी सरोवर में स्नान कर विशुद्धता प्राप्त की और फिर उसी सरोवर में उत्पन्न हुए बहुत से फूल ले जिनेंद्र भगवान की पूजा की। 409। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/431-441 </span><span class="PrakritGatha"> मालइ कयंब-कणयारि-चंपयासोय-वउल-तिलएहिं। मंदार-णायचंपय-पउमुप्पल-सिंदुवारेहिं। 431। कणवीर-मल्लियाहिं कचणारमचकुंद-किंकराएहिं। सुरवणज जूहिया-पारिजातय-जासवण-टगरेहिं। 432। सोवण्ण-रुप्पि-मेहिय-मुत्तादामेहिं बहुवियप्पेहिं। जिणपय-पंकयजुयलं पुज्जिज्ज सुरिंदसममहियं। 433। जंबीर-मोच-दाडिम-कवित्थ-पणस-णालिएरेहिं। हिंताल-ताल-खज्जूर-णिंबु-नारंग-चारेहिं। 440। पूईफल-तिंदु-आमलय-जंबु-विल्लाइसुरहि-मिट्ठेहिं। जिणपयपुरओ रयणं फलेहि कुज्जा सुपक्केहिं। 441।</span> = <span class="HindiText">मालती, कदंब, कर्णकार (कनैर), चंपक, अशोक, बकुल, तिलक, मंदार, नागचंपक, पद्म (लाल कमल) उत्पल (नील कमल) सिंदूवार (वृक्ष विशेष या निर्गुंडी) कर्णवीर (कर्नेर), मल्किा, कचनार, मचकुंद, किंकरात (अशोक वृक्ष) देवों के नंदन वन में उत्पन्न होनेवाले कल्पवृक्ष, जुही, पारिजातक, जपाकुसुम और तगर (आदि उत्तम वृक्षों से उत्पन्न) पुष्पों से, तथा सुवर्ण चाँदी से निर्मित फलों से और नाना प्रकार के मुक्ताफलों की मालाओं के द्वारा, सौ जाति के इंद्रों से पूजित जिनेंद्र के पद-पंकज युगल को पूजे। 431-433। जंबीर (नींबू विशेष), मोच (केला), अनार, कपित्थ (कवीट या कैंथ), पनस, नारियल, हिंताल, ताल, खजूर, निंबू, नारंगी, अचार (चिरौंजी), पूगीफल (सुपारी), तेंदु, आँवला, जामुन, विल्वफल आदि अनेक प्रकार के सुगंधित मिष्ट और सुपक्व फलों से जिन चरणों की पूजा करे। 440-441। <span class="GRef">( रत्नकरंड श्रावकाचार/- पं.सदासुख दास/119/170/9)</span>। <br /> | <span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/431-441 </span><span class="PrakritGatha"> मालइ कयंब-कणयारि-चंपयासोय-वउल-तिलएहिं। मंदार-णायचंपय-पउमुप्पल-सिंदुवारेहिं। 431। कणवीर-मल्लियाहिं कचणारमचकुंद-किंकराएहिं। सुरवणज जूहिया-पारिजातय-जासवण-टगरेहिं। 432। सोवण्ण-रुप्पि-मेहिय-मुत्तादामेहिं बहुवियप्पेहिं। जिणपय-पंकयजुयलं पुज्जिज्ज सुरिंदसममहियं। 433। जंबीर-मोच-दाडिम-कवित्थ-पणस-णालिएरेहिं। हिंताल-ताल-खज्जूर-णिंबु-नारंग-चारेहिं। 440। पूईफल-तिंदु-आमलय-जंबु-विल्लाइसुरहि-मिट्ठेहिं। जिणपयपुरओ रयणं फलेहि कुज्जा सुपक्केहिं। 441।</span> = <span class="HindiText">मालती, कदंब, कर्णकार (कनैर), चंपक, अशोक, बकुल, तिलक, मंदार, नागचंपक, पद्म (लाल कमल) उत्पल (नील कमल) सिंदूवार (वृक्ष विशेष या निर्गुंडी) कर्णवीर (कर्नेर), मल्किा, कचनार, मचकुंद, किंकरात (अशोक वृक्ष) देवों के नंदन वन में उत्पन्न होनेवाले कल्पवृक्ष, जुही, पारिजातक, जपाकुसुम और तगर (आदि उत्तम वृक्षों से उत्पन्न) पुष्पों से, तथा सुवर्ण चाँदी से निर्मित फलों से और नाना प्रकार के मुक्ताफलों की मालाओं के द्वारा, सौ जाति के इंद्रों से पूजित जिनेंद्र के पद-पंकज युगल को पूजे। 431-433। जंबीर (नींबू विशेष), मोच (केला), अनार, कपित्थ (कवीट या कैंथ), पनस, नारियल, हिंताल, ताल, खजूर, निंबू, नारंगी, अचार (चिरौंजी), पूगीफल (सुपारी), तेंदु, आँवला, जामुन, विल्वफल आदि अनेक प्रकार के सुगंधित मिष्ट और सुपक्व फलों से जिन चरणों की पूजा करे। 440-441। <span class="GRef">( रत्नकरंड श्रावकाचार/- पं.सदासुख दास/119/170/9)</span>। <br /> | ||
<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/2/40/116 पर फुटनोट</span><br> | |||
-पूजा के लिए पुष्पों की आवश्यकता पड़ती है। इससे मंदिर में वाटिकाएँ होनी चाहिए। <br /> | -पूजा के लिए पुष्पों की आवश्यकता पड़ती है। इससे मंदिर में वाटिकाएँ होनी चाहिए। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="4.6" id="4.6"><strong>निर्माल्य द्रव्य के ग्रहण का निषेध</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4.6" id="4.6"><strong>निर्माल्य द्रव्य के ग्रहण का निषेध</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार/32 </span><span class="PrakritGatha">जिणुद्धारपत्तिट्ठा जिणपूजातित्थवंदण विसयं। धणं जो भुंजइ सो भुंजइ जिणदिट्ठं णरयगयदुक्खं। 32।</span> = <span class="HindiText">श्री जिन मंदिर का जीर्णोद्धार, जिनबिंब प्रतिष्ठा, मंदिर प्रतिष्ठा, जिनेंद्र भगवान की पूजा, जिन यात्रा, रथोत्सव और जिन शासन के आयतनों की रक्षा के लिए प्रदान किये हुए दान को जो मनुष्य लोभवश ग्रहण करे, उससे भविष्यत् में होनेवाले कार्य का विध्वंस कर अपना स्वार्थ सिद्ध करे तो वह मनुष्य नरकगामी महापापी है। </span><br /> | <span class="GRef"> नियमसार/32 </span><span class="PrakritGatha">जिणुद्धारपत्तिट्ठा जिणपूजातित्थवंदण विसयं। धणं जो भुंजइ सो भुंजइ जिणदिट्ठं णरयगयदुक्खं। 32।</span> = <span class="HindiText">श्री जिन मंदिर का जीर्णोद्धार, जिनबिंब प्रतिष्ठा, मंदिर प्रतिष्ठा, जिनेंद्र भगवान की पूजा, जिन यात्रा, रथोत्सव और जिन शासन के आयतनों की रक्षा के लिए प्रदान किये हुए दान को जो मनुष्य लोभवश ग्रहण करे, उससे भविष्यत् में होनेवाले कार्य का विध्वंस कर अपना स्वार्थ सिद्ध करे तो वह मनुष्य नरकगामी महापापी है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/6/22/4/528/23 </span><span class="SanskritText">चैत्यप्रदेशगंधमाल्यधूपादिमोषण.... अशुभस्य नाम्न आस्रवः। </span | <span class="GRef"> राजवार्तिक/6/22/4/528/23 </span><span class="SanskritText">चैत्यप्रदेशगंधमाल्यधूपादिमोषण.... अशुभस्य नाम्न आस्रवः। </span> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/6/2/1/531/33 </span><span class="SanskritText">देवतानिवेद्यानिवेद्यग्रहण (अंतरायस्यास्रवः)। </span>= | <span class="GRef"> राजवार्तिक/6/2/1/531/33 </span><span class="SanskritText">देवतानिवेद्यानिवेद्यग्रहण (अंतरायस्यास्रवः)। </span>= | ||
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<li> मंदिर के गंध माल्य धूपादि का चुराना, | <li> मंदिर के गंध माल्य धूपादि का चुराना, अशुभ नामकर्म के आस्रव का कारण है। </li> | ||
<li> देवता के लिए निवेदित किये या अनिवेदित किये गये द्रव्य का ग्रहण अंतराय कर्म के आस्रव का कारण है। <span class="GRef">( तत्त्वसार/4/56 )</span>। </li> | <li> देवता के लिए निवेदित किये या अनिवेदित किये गये द्रव्य का ग्रहण अंतराय कर्म के आस्रव का कारण है। <span class="GRef">( तत्त्वसार/4/56 )</span>। </li> | ||
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Latest revision as of 08:52, 11 June 2024
- पूजायोग्य द्रव्य विचार
- अष्ट द्रव्य से पूजा करने का विधान
तिलोयपण्णत्ति/3/223-226 भिंगारकलसदप्पणछत्तत्तयचमरपहुदिदव्वेहिं। पूजंति फलिहदंडोवमाणवरवारिधारेहिं। 223। गोसीरमलयचंदण-कुंकुमपंकेहिं परिमलिल्लेहिं। मुत्ताहल पूंजेहिं स लीए तंदुलेहिं सयलेहिं। 224। वरविविहकुसुममालासएहिं धूवंगरंगगंघेहिं। अमयादो मुहुरेहिं णाणाविहदिव्वभवखेहिं। 225। धूवेहिं सुगंधेहिं रयणपईवेहिं दित्तकरणेहिं। पक्केहिं फणसकदलीदाडिमदक्खादिय-फलेहिं। 226। = वे देव झारी, कलश, दर्पण, तीन छत्र और चामरादि द्रव्यों से, स्फटिक मणिमय दंड के तुल्य उत्तम जलधाराओं से, सुगंधित गोशीर, मलय, चंदन, और कुंकुम के पंकों से, मोतियों के पुंजरूप शालिधान्य के अखंडित तंदुलों से, जिनका रंग और गंध फैल रहा है ऐसी उत्तमोत्तम विविध प्रकार की सैकड़ों मालाओं से; अमृत से भी मधुर नाना प्रकार के दिव्य नैवेद्यों से, सुगंधित धूपों से, प्रदीप्त किरणों से युक्त रत्नमयी दीपकों से, और पके हुए कटहल, केला दाडिम एवं दाख इत्यादि फलों से पूजा करते हैं। 223-226। ( तिलोयपण्णत्ति/5/104-111; 7/49; 5/586 )।
धवला 8/3,42/92/3 चरु-वलि-पुप्फ-फल-गंधधूवदीवादीहि सगभत्तिप-गासो अच्चणा णाम। = चरु, बलि, पुष्प, फल, गंध, धूप और दीप आदिकों से अपनी भक्ति प्रकाशित करने का नाम अर्चना है। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/5/117 )।
वसुनंदी श्रावकाचार/420-421 ....अक्खयचरु-दीवेहि-य धूवेहिं फलेहिं विविहेहिं। 420। बलिवत्तिएहिं जावारएहिं य सिद्धत्थपण्णरुक्खेहिं। पुव्वुत्तु-वयरणेहि य रएज्जपुज्जं सविहवेण। 421। = (अभिषेक के पश्चात्) अक्षत - चरु, दीप से, विविध धूप और फलों से, बलि वर्तिकों से अर्थात् पूजार्थ निर्मित अगरबत्तियों से, जवारकों से, सिद्धार्थ (सरसों) और पर्ण वृक्षों से तथा पूर्वोक्त (भेरी, घंटादि) उपकरणों से पूर्ण वैभव के साथ या अपनी शक्ति के अनुसार पूजा रचे। 411-421। (विशेष देखें वसुनंदी श्रावकाचार (425-441) ; ( सागार धर्मामृत/2/25,31 ); ( बोधपाहुड़/ टीका/17/85/20)।
- अष्ट द्रव्य पूजा व अभिषेक का प्रयोजन व फल
वसुनंदी श्रावकाचार/483-492 जलधारणिक्खेवेण पावमलसोहणं हवे णिय। चंदणवेवेण णरो जावइ सोहग्गसंपण्णो। 483। जायइ अक्खयणिहि-रयणसामियो अक्खएहि अक्खोहो। अक्खीणलद्धिजुत्तो अक्खयसोक्खं च पावेइ। 484। कुसुमेहिं कुसेसयवयणु तरुणीजणजयण कुसुमवरमाला। बलएणच्चियदेहो जयइ कुसुमाउहो चेव। 485। जायइ णिवि-ज्जदाणेण सत्तिगो कंति-तेय संपण्णो। लावण्णजलहिवेलातरंगसंपा-वियसरीरो। 486। दीवेहिं दीवियासेसजीव-दव्वाइतच्चसब्भावो। सब्भावजणियकेवलपईवतेएण होइ णरो। 487। धूवेण सिसिरयर-धवलकित्तिधवलियजयत्तओ पुरिसो। जायइ फलेहि संपत्तपरम-णिव्वाणसोक्खफलो। 488। घंटाहिं घंटसद्दाउलेसु पवरच्छराणमज्झम्मि। संकीडइ सुरसंघायसेविओ वरविमाणेसु। 489। छत्तेहिं एयछत्तं भुंजइ पुहवी सवत्तपरिहीणो। चामरदाणेण तहा विज्जिज्जइ चमरणिवहेहिं। 490। अहिसेयफलेण णरो अहिसिंचिज्जइ सुदंसण-स्सुवरिं खीरोयजलेण सुरिंदप्पसुहदेवेहिं भत्तीए। 491। विजयपडाएहिं णरो संगाममुहेसु विजइओ होइ। छक्खंडविजयणाहो णिप्पडिवक्खो जसस्सी य। 499। = पूजन के समय नियम से जिन भगवान के आगे जलधारा के छोड़ने से पापरूपी मैल का संशोधन होता है। चंदन रस के लेप से मनुष्य सौभाग्य से संपन्न होता है। 483। अक्षतों से पूजा करनेवाला मनुष्य अक्षय नौ निधि और चौदह रत्नों का स्वामी चक्रवर्ती होता है, सदा अक्षोभ और रोग शोक रहित निर्भय रहता है, अक्षीण लब्धि से संपन्न होता है, और अंत में अक्षय मोक्ष सुख को पाता है। 484। पुष्पों से पूजा करनेवाला मनुष्य कमल के समान सुंदर मुखवाला, तरुणीजनों के नयनों से और पुष्पों की उत्तम मालाओं के समूह से समर्चित देह वाला कामदेव होता है। 485। नैवेद्य के चढ़ाने से मनुष्य शक्तिमान, कांति और तेज से संपन्न, और सौंदर्य रूपी समुद्र की वेलावर्ती तरंगों से संप्लावित शरीरवाला अर्थात् अति सुंदर होता है। 486। दीपों से पूजा करनेवाला मनुष्य, सद्भावों के योग से उत्पन्न हुए केवलज्ञानरूपी प्रदीप के तेज से समस्त जीव द्रव्यादि तत्त्वों के रहस्य को प्रकाशित करनेवाला अर्थात् केवलज्ञानी होता है। 487। धूप से पूजा करनेवाला मनुष्य चंद्रमा के समान त्रैलोक्यव्यापी यशवाला होता है। फलों से पूजा करनेवाला मनुष्य परम निर्वाण का सुखरूप फल पानेवाला होता है। 488। जिन मंदिर में घंटा समर्पण करनेवाला पुरुष घटाओं के शब्दों से व्याप्त श्रेष्ठ विमानों में सुर समूह से सेवित होकर अप्सराओं के मध्य क्रीड़ा करता है। 489। छत्र प्रदान करने से मनुष्य, शत्रु रहित होकर पृथ्वी को एक-छत्र भोगता है। तथा चमरों के दान से चमरों के समूहों द्वारा परिवीजित किया जाता है। जिन भगवान् के अभिषेक करने से मनुष्य सुदर्शन मेरु के ऊपर क्षीर-सागर के जल से सुरेंद्र प्रमुख देवों के द्वारा अभिषिक्त किया जाता है। 491। जिन मंदिर में विजय पताकाओं के देने से संग्राम के मध्य विजयी होता है तथा षट्खंड का निष्प्रतिपक्ष स्वामी और यशस्वी होता है। 492।
सागार धर्मामृत/2/30-31 वार्धाराः रजसः शमाय पदयोः, सम्यक्प्रयुक्तार्हतः सद्गंधस्तनुसौरभाय विभवा-च्छेदाय संत्यक्षताः। यप्टुः स्रग्दिविजस्रजे चरुरुमा-स्वाम्याय दीपस्त्विवे। धूपो विश्वदृगुत्सवाय फलमिष्टार्थाय चार्घाय सः। 30। ...नीराद्यैश्चारुकाव्यस्फुरदनणुगुण-ग्रामरज्यन्मनोभि-र्भव्योऽर्चंदृग्विशुद्धिं प्रबलयतु यया, कल्पते तत्प-दाय। 31। = अरहंत भगवान् के चरण कमलों में विधि पूर्वक चढ़ाई गयी जल की धारा पूजक के पापों के नाश करने के लिए, उत्तम चंदन शरीर में सुगंधि के लिए, अक्षत विभूति की स्थिरता के लिए, पुष्पमाला मंदरमाला की प्राप्ति के लिए, नैवेद्य लक्ष्मीपतित्व के लिए, दीप क्रांति के लिए, धूप परम सौभाग्य के लिए, फल इच्छित वस्तु की प्राप्ति के लिए और वह अर्घ अनर्घपद की प्राप्ति के लिए होता है। 30। ...सुंदर गद्य पद्यात्मक काव्यों द्वारा आश्चर्यान्वित करनेवाले बहुत से गुणों के समूह से मन को प्रसन्न करनेवाले जल चंदनादिक द्रव्यों द्वारा जिनेंद्रदेव को पूजनेवाला भव्य सम्यग्दर्शन की विशुद्धि को पुष्ट करे है, जिस दर्शनविशुद्धि के द्वारा तीर्थंकरपद की प्राप्ति के लिए समर्थ होता है। 31।
- पंचामृत अभिषेक निर्देश व विधि
सागार धर्मामृत/6/22 आश्रुत्य स्नपनं विशोध्य तदिलां, पीठयां चतुष्कुंभयुक कोणायां सकुशश्रियां जिनपतिं न्यस्तांतमाप्येष्टदिक्-नीराज्या-म्बुरसाज्यदुग्धदधिभिः, सिक्त्वा कृतोद्वर्तनं, सिक्तं कुंभजलैश्च गंधसलिलै: संपूज्य नुत्वा स्मरेत्। 22। = अभिषेक की प्रतिज्ञा कर अभिषेक स्थान को शुद्ध करके चारों कोनों में चार कलश सहित सिंहासन पर जिनेंद्र भगवान् को स्थापित करके आरती उतारकर इस दिशा में स्थित होता हुआ जल, इक्षुरस, घी, दुग्ध, और दही के द्वारा अभिषिक्त करके चंदनानुलेपन युक्त तथा पूर्व स्थापित कलशों के जल से तथा सुगंध युक्त जल से अभिषिक्त जिनराज की अष्टद्रव्य से पूजा करके स्तुति करके जाप करे। 22। ( बोधपाहुड़/ टीका/17/85/19) (देखें सावद्य - 7)।
- सचित्त द्रव्यों आदि से पूजा का निर्देश
- विलेपन व सजावट आदि का निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/5/105 कुंकुमकप्पूरेहिं चंदणकालागरुहिं अण्णेहिं। ताणं विले-वणाइं ते कुव्वंते सुगंधेहिं। 105। = वे इंद्र कुंकुम, कर्पूर, चंदन, कालागुरु और अन्य सुगंधित द्रव्यों से उन प्रतिमाओं का विलेपन करते हैं। 105। ( वसुनंदी श्रावकाचार/427 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/5/115 ); (देखें सावद्य - 7)।
वसुनंदी श्रावकाचार/398-400 पडिचीणणेत्तपट्टाइएहिं वत्थेहिं बहुविहेहिं तहा। उल्लोविऊण उवरिं चंदोवयमणिविहाणेहिं। 398। संभूसिऊण चंदद्ध-चंदबुव्वुयवरायलाईहिं। मुत्तादामेहिं तहा किंकिणिजालेहिं विवि-हेहिं। 399। छत्तेहिं चामरेहिं य दप्पण-भिंगार तालवट्टेहिं। कलसेहिं पुप्फवडिलिय-सुपइट्ठयदीवणिवहेहिं। 400। = (प्रतिमा की प्रतिष्ठा करते समय मंडप में चबूतरा बनाकर वहाँ पर) चीनपट्ट (चाइना सिल्क) कोशा आदि नाना प्रकार के नेत्राकर्षक वस्त्रों से निर्मित चंद्रकांत मणि तुल्य चतुष्कोण चंदोवे को तानकर, चंद्र, अर्धचंद्र, बुद्बु, वराटक (कौड़ी) आदि से तथा मोतियों की मालाओं से, नाना प्रकार की छोटी घंटियों के समूह से, छत्रों से, चमरों से, दर्पणों से भृंगार से, तालवृंतों से, कलशों से, पुष्प पटलों से सुप्रतिष्ठक (स्वस्तिक) और दीप समूहों से आभूषित करें। 398-340।
- हरे पुष्प व फलों से पूजन
तिलोयपण्णत्ति /5/107, 111 सयवंतगा य चंपयमाला पुण्णायणायपहुदीहिं। अच्चंति ताओ देवा सुरहीहिं कुसुममालाहिं। 107। दक्खादाडिम-कदलीणारंगयमाहुलिंगचूदेहिं। अण्णेहिं वि पक्केहिं फलेहिं पूजंति जिणणाहं। 111। = वे देव सेवंती, चंपकमाला, पुंनाग और नाग प्रभृति सुगंधित पुष्पमालाओं से उन प्रतिमाओं की पूजा करते हैं। 107। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/5/115 ); ( बोधपाहुड़/ टीका/9/78/ पर उद्धृत), (देखें सावद्य - 7)। दाख, अनार, केला, नारंगी, मातुलिंग, आम तथा अन्य भी पके हुए फलों से वे जिननाथ की पूजा करते हैं। 111। ( तिलोयपण्णत्ति/3/226 )
पद्मपुराण/11/345 जिनेंद्रः प्रापितः पूजाममरैः कनकांबुजैः। द्रुमपुष्पा-दिभिः किं न पूज्यतेऽस्मद्विधैर्जनैः। 345। = देवों ने जिनेंद्र भगवान् की सुवर्ण कमल से पूजा की थी, तो क्या हमारे जैसे लोग उनकी साधारण वृक्षों के फूलों से पूजा नहीं करते हैं? अर्थात् अवश्य करते हैं। 345।
महापुराण/17/252 परिणतफलभेदैरांरजंबूककपित्थैः पनसलकुचमोचै-र्दाडिमैर्मातुल्ंगिैः। क्रमुकरुचिरगुच्छैर्नालिकेरैश्च रम्यैः गुरुचरण-सपर्यामातनोदाततश्रीः। 252। महापुराण/78/409 तद्विलोक्य समुत्पन्नभक्तिः स्नानविशुद्धिभाक्। तत्सरो-वरसंभूतप्रसवैर्बहुभिर्जिनान्। 499। (अभ्यर्च्य) = जिनकी लक्ष्मी बहुत विस्तृत है ऐसे राजा भरत ने पके हुए मनोहर आम, जामुन, कैंथा, कटहल, बड़हल, केला, अनार, बिजौरा, सुपारियों के सुंदर गुच्छे और नारियलों से भगवान के चरणों की पूजा की थी। 252। (जिन मंदिर के स्वयमेव किवाड़ खुल गये) यह अतिशय देख, जीवंधर कुमार की भक्ति और भी बढ़ गयी, उन्होंने उसी सरोवर में स्नान कर विशुद्धता प्राप्त की और फिर उसी सरोवर में उत्पन्न हुए बहुत से फूल ले जिनेंद्र भगवान की पूजा की। 409।
वसुनंदी श्रावकाचार/431-441 मालइ कयंब-कणयारि-चंपयासोय-वउल-तिलएहिं। मंदार-णायचंपय-पउमुप्पल-सिंदुवारेहिं। 431। कणवीर-मल्लियाहिं कचणारमचकुंद-किंकराएहिं। सुरवणज जूहिया-पारिजातय-जासवण-टगरेहिं। 432। सोवण्ण-रुप्पि-मेहिय-मुत्तादामेहिं बहुवियप्पेहिं। जिणपय-पंकयजुयलं पुज्जिज्ज सुरिंदसममहियं। 433। जंबीर-मोच-दाडिम-कवित्थ-पणस-णालिएरेहिं। हिंताल-ताल-खज्जूर-णिंबु-नारंग-चारेहिं। 440। पूईफल-तिंदु-आमलय-जंबु-विल्लाइसुरहि-मिट्ठेहिं। जिणपयपुरओ रयणं फलेहि कुज्जा सुपक्केहिं। 441। = मालती, कदंब, कर्णकार (कनैर), चंपक, अशोक, बकुल, तिलक, मंदार, नागचंपक, पद्म (लाल कमल) उत्पल (नील कमल) सिंदूवार (वृक्ष विशेष या निर्गुंडी) कर्णवीर (कर्नेर), मल्किा, कचनार, मचकुंद, किंकरात (अशोक वृक्ष) देवों के नंदन वन में उत्पन्न होनेवाले कल्पवृक्ष, जुही, पारिजातक, जपाकुसुम और तगर (आदि उत्तम वृक्षों से उत्पन्न) पुष्पों से, तथा सुवर्ण चाँदी से निर्मित फलों से और नाना प्रकार के मुक्ताफलों की मालाओं के द्वारा, सौ जाति के इंद्रों से पूजित जिनेंद्र के पद-पंकज युगल को पूजे। 431-433। जंबीर (नींबू विशेष), मोच (केला), अनार, कपित्थ (कवीट या कैंथ), पनस, नारियल, हिंताल, ताल, खजूर, निंबू, नारंगी, अचार (चिरौंजी), पूगीफल (सुपारी), तेंदु, आँवला, जामुन, विल्वफल आदि अनेक प्रकार के सुगंधित मिष्ट और सुपक्व फलों से जिन चरणों की पूजा करे। 440-441। ( रत्नकरंड श्रावकाचार/- पं.सदासुख दास/119/170/9)।
सागार धर्मामृत/2/40/116 पर फुटनोट
-पूजा के लिए पुष्पों की आवश्यकता पड़ती है। इससे मंदिर में वाटिकाएँ होनी चाहिए।
- भक्ष्य नैवेद्य से पूजन
तिलोयपण्णत्ति/5/108 बहुविहरसवंतेहिं वरभक्खेहिं विचित्तरूवेहिं। अमय-सरिच्छेहिं सुरा जिणिंदपडिमाओ महयंति। 108। = ये देवगुण बहुत प्रकार के रसों से संयुक्त, विचित्र रूप वाले और अमृत के सदृश उत्तम भोज्य पदाथो से (नैवेद्य से) जिनेंद्र प्रतिमाओं की पूजा करते हैं। 108। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/5/116 )।
वसुनंदी श्रावकाचार/434-435 दहि-दुद्धसप्पिमिस्सेहिं कलमभत्तेहिं बहुप्पया-रेहिं। तेवट्ठि-विंजणेहिं य बहुविहपक्कण्णभेएहिं। 434। रुप्पय-सुवण्ण-कंसाइथालि णिहिएहिं विविहभक्खेहिं। पुज्जं वित्थारिज्जो भत्तीए जिणिंदपयपुरओ। 435। = चाँदी, सोना और काँसे आदि की थालियों में रखे हुए दही, दूध और घी से मिले हुए नाना प्रकार के चावलों के भात से, तिरेसठ प्रकार के व्यंजनों से तथा नाना प्रकार की जातिवाले पकवानों से और विविध भक्ष्य पदाथो से भक्ति के साथ जिनेंद्र चरणों के सामने पूजन करे। 434-435।
रत्नकरंड श्रावकाचार/ पं. सदासुख/119/169/17
कोई अष्ट प्रकार सामग्री बनाय चढ़ावै, केई सूका जव, गेहूँ, चना, मक्का, बाजरा, उड़द, मूँग, मोठ इत्यादि चढ़ावै, केई रोटी, राबड़ी, बावड़ी के पुष्प, नाना प्रकार के हरे फल, तथा दाल-भात अनेक प्रकार के व्यंजन चढ़ावैं। केई मेवा, मोतिनी के पुष्प, दुग्ध, दही, घी, नाना प्रकार के घेवर, लाडू, पेड़ा, बर्फी, पूड़ी, पूवा इत्यादि चढ़ावै हैं।
- विलेपन व सजावट आदि का निर्देश
- सचित्त व अचित्त द्रव्य पूजा का समन्वय
तिलोयपण्णत्ति/3/225 ....। अमयादो मुहुरेहिं णाणाविहदिव्वभक्खेहिं। 225। = अमृत से भी मधुर दिव्य नैवेद्यों से। 225।
नियमसार/975 दिव्वफलपुष्फहत्था.....। 975। = दिव्य फल पुष्पादि पूजन द्रव्य हस्त विषैं धारैं हैं। (अर्थात् देवों के द्वारा ग्राह्य फल पुष्प दिव्य थे।)
रत्नकरंड श्रावकाचार/ पं. सदासुख दास/119/170/9
यहाँ जिनपूजन सचित्त-द्रव्यनितैं हूँ अर अचित्त द्रव्यनितैं हूँ... करिये है। दो प्रकार आगम की आज्ञा-प्रमाण सनातन मार्ग है अपने भावनि के अधीन पुण्यबंध के कारण हैं। यहाँ ऐसा विशेष जानना जो इस दुषमकाल में विकलत्रय जीवनि की उत्पत्ति बहुत है। ...तातैं ज्ञानी धर्मबुद्धि हैं ते तो... पक्षपात छांड़ि जिनेंद्र का प्ररूपण अहिंसा धर्म ग्रहण करि जेता कार्य करो तेता यत्नाचार रूप जीव-विराधना टालि करो इस कलिकाल में भगवान का प्ररूपण नयविभाग तो समझे नाहीं... अपनी कल्पना ही तै यथेष्ट प्रवर्ते हैं।
- निर्माल्य द्रव्य के ग्रहण का निषेध
नियमसार/32 जिणुद्धारपत्तिट्ठा जिणपूजातित्थवंदण विसयं। धणं जो भुंजइ सो भुंजइ जिणदिट्ठं णरयगयदुक्खं। 32। = श्री जिन मंदिर का जीर्णोद्धार, जिनबिंब प्रतिष्ठा, मंदिर प्रतिष्ठा, जिनेंद्र भगवान की पूजा, जिन यात्रा, रथोत्सव और जिन शासन के आयतनों की रक्षा के लिए प्रदान किये हुए दान को जो मनुष्य लोभवश ग्रहण करे, उससे भविष्यत् में होनेवाले कार्य का विध्वंस कर अपना स्वार्थ सिद्ध करे तो वह मनुष्य नरकगामी महापापी है।
राजवार्तिक/6/22/4/528/23 चैत्यप्रदेशगंधमाल्यधूपादिमोषण.... अशुभस्य नाम्न आस्रवः। राजवार्तिक/6/2/1/531/33 देवतानिवेद्यानिवेद्यग्रहण (अंतरायस्यास्रवः)। =- मंदिर के गंध माल्य धूपादि का चुराना, अशुभ नामकर्म के आस्रव का कारण है।
- देवता के लिए निवेदित किये या अनिवेदित किये गये द्रव्य का ग्रहण अंतराय कर्म के आस्रव का कारण है। ( तत्त्वसार/4/56 )।
- अष्ट द्रव्य से पूजा करने का विधान