पद्मपुराण - पर्व 117: Difference between revisions
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<span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p>एक सौ सत्रहवां पर्व</p> | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p>एक सौ सत्रहवां पर्व</p> | ||
<p>समाचार मिलने पर समस्त विद्याधर राजा अपनी स्त्रियों के साथ शीघ्र ही अयोध्यापुरी भाये ॥1॥<span id="2" /> अपने पुत्रों के साथ विभीषण, राजा विराधित, परिजनों से सहित सुग्रीव और चंद्रवर्धन आदि सभी लोग आये ॥2॥<span id="3" /> जिनके नेत्र आँसुओं से व्याप्त थे तथा मन घबड़ाये हुए थे ऐसे सब लोगों ने अंजलि बाँधे-बाँधे राम के भवन में प्रवेश किया ॥3॥<span id="4" /><span id="5" /> विषाद से भरे हुए सब लोग योग्य शिष्टाचार की विधि कर राम के आगे पृथिवीतल पर बैठ गये और क्षणभर चुप चाप बैठने के बाद धीरे-धीरे यह निवेदन करने लगे कि हे देव ! यद्यपि परम इष्टजन के वियोग से उत्पन्न हुआ यह शोक दुःख से छूटने योग्य है तथापि आप पदार्थ के ज्ञाता हैं अतः इस शोक को छोड़ने के योग्य हैं ॥4-5॥<span id="6" /> इस प्रकार कहकर जब सब लोग चुप बैठ गये तब परमार्थ स्वभाव. वाले आत्मा के लौकिक स्वरूप के जानने में निपुण विभीषण निम्नांकित वचन बोला ॥6॥<span id="7" /> उसने कहा कि हे राजन् ! यह स्थिति अनादिनिधन है। | <p>समाचार मिलने पर समस्त विद्याधर राजा अपनी स्त्रियों के साथ शीघ्र ही अयोध्यापुरी भाये ॥1॥<span id="2" /> अपने पुत्रों के साथ विभीषण, राजा विराधित, परिजनों से सहित सुग्रीव और चंद्रवर्धन आदि सभी लोग आये ॥2॥<span id="3" /> जिनके नेत्र आँसुओं से व्याप्त थे तथा मन घबड़ाये हुए थे ऐसे सब लोगों ने अंजलि बाँधे-बाँधे राम के भवन में प्रवेश किया ॥3॥<span id="4" /><span id="5" /> विषाद से भरे हुए सब लोग योग्य शिष्टाचार की विधि कर राम के आगे पृथिवीतल पर बैठ गये और क्षणभर चुप चाप बैठने के बाद धीरे-धीरे यह निवेदन करने लगे कि हे देव ! यद्यपि परम इष्टजन के वियोग से उत्पन्न हुआ यह शोक दुःख से छूटने योग्य है तथापि आप पदार्थ के ज्ञाता हैं अतः इस शोक को छोड़ने के योग्य हैं ॥4-5॥<span id="6" /> इस प्रकार कहकर जब सब लोग चुप बैठ गये तब परमार्थ स्वभाव. वाले आत्मा के लौकिक स्वरूप के जानने में निपुण विभीषण निम्नांकित वचन बोला ॥6॥<span id="7" /> उसने कहा कि हे राजन् ! यह स्थिति अनादिनिधन है। संसार के भीतर आज इन्हीं एक की यह दशा नहीं हुई है ॥7॥<span id="8" /> इस संसाररूपी पिंजड़े के भीतर जो उत्पन्न हुआ है उसे अवश्य मरना पड़ता है। नाना उपायों के द्वारा भी मृत्यु का प्रतिकार नहीं किया जा सकता ॥8॥<span id="9" /> जब यह शरीर निश्चित ही विनश्वर है तब इसके विषय में शोक का आश्रय लेना व्यर्थ है । यथार्थ में बात यह है कि जो कुशल बुद्धि मनुष्य हैं वे आत्महित के उपायों में ही प्रवृत्ति करते हैं ॥9॥<span id="10" /> हे राजन् ! परलोक गया हुआ कोई मनुष्य रोने से उत्तर नहीं देता इसलिए आप शोक करने के योग्य नहीं हैं ॥10॥<span id="11" /> स्त्री और पुरुष के संयोग से प्राणियों के शरीर उत्पन्न होते हैं और पानी के बबूले के समान अनायास ही नष्ट हो जाते हैं ॥11॥<span id="12" />पुण्यक्षय होने पर जिनका वैक्रियिक शरीर नष्ट हो गया है ऐसे लोकपाल सहित इंद्रों को भी स्वर्ग से च्युत होना पड़ता है ॥12॥<span id="13" /> गर्भके क्लेशों से युक्त, रोगों से व्याप्त, तृण के ऊपर स्थित बूंद के समान चंचल तथा मांस और हड्डियों के समूह स्वरूप मनुष्य के तुच्छ शरीर में क्या आदर करना है ? ॥13॥<span id="14" /> अपने आपको अजर-अमर मानता हुआ यह मनुष्य मृत व्यक्ति के प्रति क्यों शोक करता है ? वह मृत्यु को डाँढों के बीच क्लेश उठाने वाले अपने आपके प्रति शोक क्यों नहीं करता ? ॥14॥<span id="15" /> यदि इन्हीं एक का मरण होता तब तो जोर से रोना उचित था परंतु जब यह मरण संबंधी पराभव सबके लिए समानरूप से प्राप्त होता है तब रोना उचित नहीं है ॥15॥<span id="16" /> जिस समय यह प्राणी उत्पन्न होता है उसी समय मृत्यु इसे आ घेरती है। इस तरह जब मृत्यु सबके लिए साधारण धर्म है तब शोक क्यों किया जाता है ? ॥16॥<span id="17" /> जिस प्रकार जंगल में भील के द्वारा पीडित चमरी मृग-बालों के लोभ से दुःख उठाता है उसी प्रकार इष्ट पदार्थों के समागम की आकांक्षा रखने वाला यह प्राणी शोक करता हुआ व्यर्थ ही दुःख उठाता है ॥17।।<span id="18" /> जब हम सभी लोगों को वियुक्त होकर यहाँ से जाना है तब सर्वप्रथम उनके चले जाने पर शोक क्यों किया जा रहा है ? ॥18॥<span id="19" /> अरे, इस प्राणी का साहस तो देखो जो यह सिंह के सामने मृग के समान वनदंड के धारक यम के आगे निर्भय होकर बैठा है ॥19॥<span id="20" /> एक लक्ष्मीधर को छोड़कर समस्त पाताल अथवा पृथिवीतल पर किसी ऐसे दूसरे का नाम आपने सुना कि जो मृत्यु से पीड़ित नहीं हुआ हो ॥20॥<span id="21" /> जिस प्रकार सुगंधि से उपलक्षित विंध्याचल का वन, दावानल से जलता है उसी प्रकार संसार के चक्र को प्राप्त हुआ यह जगत् कालानल से जल रहा है, यह क्या आप नहीं देख रहे हैं ? ॥21॥<span id="22" /> संसाररूपी अटवी में घूमकर तथा काम की आधीनता प्राप्त कर ये प्राणी मदोन्मत्त हाथियों के समान कालपाश की आधीनता को प्राप्त करते हैं ॥22॥<span id="23" /> यह प्राणी धर्म का मार्ग प्राप्त कर यद्यपि स्वर्ग पहुँच जाता है तथापि नश्वरता के द्वारा उस तरह नीचे गिरा दिया जाता है जिस प्रकार कि नदी के द्वारा तट का वृक्ष ॥23।।<span id="24" /> जिस प्रकार प्रलयकालीन मेघ के द्वारा अग्नियाँ नष्ट हो जाती हैं, उसी प्रकार नरेंद्र और देवेंद्रों के लाखों समूह कालरूपी मेघ के द्वारा नाश को प्राप्त हो चुके हैं ॥24॥<span id="25" /> आकाश में बहुत दूर तक उड़कर और नीचे रसातल में बहुत दूर तक जाकर भी मैं उस स्थान को नहीं देख सका हूँ जो मृत्यु का अगोचर न हो ॥25॥<span id="26" /> छठवें काल की समाप्ति होने पर यह समस्त भारतवर्ष नष्ट हो जाता है और बड़े-बड़े पर्वत भी विशीर्ण हो जाते हैं तब फिर मनुष्य के शरीर को तो कथा ही क्या है? ॥26॥<span id="27" /> जो वनमय शरीर से युक्त थे तथा सुर और असुर भी जिन्हें मार नहीं सकते थे ऐसे लोगों को भी अनित्यता ने प्राप्त कर लिया है फिर केले के भीतरी भाग के समान निःसार मनुष्यों की तो बात ही क्या है ? ॥27॥<span id="28" /> जिस प्रकार पाताल के अंदर छिपे हुए नाग को गरुड़ खींच लेता है उसी प्रकार माता से आलिंगित प्राणी को भी मृत्यु हर लेती है ॥28॥<span id="29" /> हाय भाई ! हाय प्रिये ! हाय पुत्र ! इस प्रकार चिल्लाता हुआ यह अत्यंत दुःखी संसाररूपी मेंढक, कालरूपी साँप के द्वारा अपना ग्रास बना लिया जाता है ॥29।।<span id="30" /> 'मैं यह कर रहा हूँ और यह आगे करूँगा' इस प्रकार दुर्बुद्धि मनुष्य कहता रहता है फिर भी यमराज के भयंकर मुख में उस तरह प्रवेश कर जाता है जिस तरह कि कोई जहाज समुद्र के भीतर ॥30॥<span id="31" /> यदि भवांतर में गये हुए मनुष्य के पीछे यहाँ के लोग जाने लगें तो फिर शत्रु मित्र― किसी के भी साथ कभी वियोग ही न हो ॥31॥<span id="32" /> जो पर को स्वजन मानकर उसके साथ स्नेह करता है वह नरकुंजर अवश्य ही दुःखरूपी अग्नि में प्रवेश करता है ॥32।।<span id="33" /> संसार में प्राणियों को जितने आत्मीयजनों के समूह प्राप्त हुए हैं समस्त समुद्रों की बालू के कण भी उनके बराबर नहीं हैं। भावार्थ― असंख्यात समुद्रों में बालू के जितने कण हैं उनसे भी अधिक इस जीव के आत्मीयजन हो चुके हैं ॥33॥<span id="34" /> नाना प्रकारकी प्रियचेष्टाओं को करने वाला यह प्राणी, अन्य भव में जिसका बड़े लाड़-प्यार से लालन-पालन करता है वही दूसरे भव में इसका शत्रु हो जाता है और तीव्र क्रोध को धारण करने वाले उसी प्राणी के द्वारा मारा जाता है ॥34॥<span id="35" /> जन्मांतर में जिस प्राणी के स्तन पिये हैं, इस जन्म में भयभीत एवं मारे हुए उसी जीव का माँस खाया जाता है, ऐसे संसार को धिक्कार है ॥35॥<span id="36" /> 'यह हमारा स्वामी है। ऐसा मानकर जिसे पहले शिरोनमन― शिर झुकाना आदि विनयपूर्ण क्रियाओं से पूजित किया था वही इस जन्म में दासता को प्राप्त होकर लातों से पीटा जाता है ॥36।।<span id="37" /> अहो! इस सामर्थ्यवान मोह की शक्ति तो देखो जिसके द्वारा वशीभूत हुआ यह प्राणी इष्टजनों के संयोग को उस तरह ढूँढ़ता फिरता है जिस तरह कि कोई हाथ से महानाग को ॥37॥<span id="38" /> इस संसार में तिलमात्र भी वह स्थान नहीं है जहाँ यह जीव मृत्यु अथवा जन्म को प्राप्त नहीं हुआ हो ॥38॥<span id="39" /> इस जीव ने नरकों में ताँबा आदिका जितना पिघला हुआ रस पिया है उतना स्वयंभूरमण समुद्र में पानी भी नहीं है ॥39॥<span id="40" /> इस जीव ने सूकर का भव धारण कर जितने विष्ठा को अपना भोजन बनाया है मैं समझता हूँ कि वह हजारों विंध्याचलों से भी कहीं बहुत अधिक अत्यंत ऊँचा होगा ॥40॥<span id="41" /> इस जीव ने परस्पर एक दूसरे को मारकर जो मस्तकों का समूह काटा है यदि उसे एक जगह रोका जाय― एक स्थान पर इकट्ठा किया जाय तो वह ज्योतिषी देवों के मार्ग को भी उल्लंघन कर आगे जा सकता है ।।41॥<span id="42" /> नरक-भूमि में गये हुए जीवों ने जो भारी दुःख उठाया है उसे सुन मोह के साथ मित्रता करना किसे अच्छा लगेगा ? ॥42॥<span id="43" /><span id="44" /> विषय-सुख में आसक्त हुआ यह प्राणी जिस शरीरके पीछे पलभर के लिए भी दुःख नहीं उठाना चाहता तथा मोहरूपी ग्रह से ग्रस्त हुआ पागल के समान संसार में भ्रमण करता रहता है, ऐसे कषाय और चिंता से खेद उत्पन्न करने वाले इस शरीर को छोड़ देना ही उचित है क्योंकि इनका यह ऐसा शरीर क्या अन्य शरीर से भिन्न है― विलक्षण है ? ॥43-44॥<span id="45" /> गौतम स्वामी कहते हैं कि विद्याधरों में सूर्य स्वरूप बुद्धिमान् विभीषण ने यद्यपि राम को इस तरह बहुत कुछ समझाया था तथापि उन्होंने लक्ष्मण का शरीर उस तरह नहीं छोड़ा 'जिस तरह कि विनयी शिष्य गुरु की आज्ञा नहीं छोड़ता है ॥45॥<span id="117" /> </p> | ||
<p>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, श्री रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में लक्ष्मण के वियोग को लेकर विभीषण के द्वारा संसार की स्थिति का वर्णन करने वाला एक सौ सत्रहवाँ पर्व पूर्ण हुआ ॥117॥</p> | <p>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, श्री रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में लक्ष्मण के वियोग को लेकर विभीषण के द्वारा संसार की स्थिति का वर्णन करने वाला एक सौ सत्रहवाँ पर्व पूर्ण हुआ ॥117॥</p> | ||
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Latest revision as of 22:16, 25 June 2024
एक सौ सत्रहवां पर्व
समाचार मिलने पर समस्त विद्याधर राजा अपनी स्त्रियों के साथ शीघ्र ही अयोध्यापुरी भाये ॥1॥ अपने पुत्रों के साथ विभीषण, राजा विराधित, परिजनों से सहित सुग्रीव और चंद्रवर्धन आदि सभी लोग आये ॥2॥ जिनके नेत्र आँसुओं से व्याप्त थे तथा मन घबड़ाये हुए थे ऐसे सब लोगों ने अंजलि बाँधे-बाँधे राम के भवन में प्रवेश किया ॥3॥ विषाद से भरे हुए सब लोग योग्य शिष्टाचार की विधि कर राम के आगे पृथिवीतल पर बैठ गये और क्षणभर चुप चाप बैठने के बाद धीरे-धीरे यह निवेदन करने लगे कि हे देव ! यद्यपि परम इष्टजन के वियोग से उत्पन्न हुआ यह शोक दुःख से छूटने योग्य है तथापि आप पदार्थ के ज्ञाता हैं अतः इस शोक को छोड़ने के योग्य हैं ॥4-5॥ इस प्रकार कहकर जब सब लोग चुप बैठ गये तब परमार्थ स्वभाव. वाले आत्मा के लौकिक स्वरूप के जानने में निपुण विभीषण निम्नांकित वचन बोला ॥6॥ उसने कहा कि हे राजन् ! यह स्थिति अनादिनिधन है। संसार के भीतर आज इन्हीं एक की यह दशा नहीं हुई है ॥7॥ इस संसाररूपी पिंजड़े के भीतर जो उत्पन्न हुआ है उसे अवश्य मरना पड़ता है। नाना उपायों के द्वारा भी मृत्यु का प्रतिकार नहीं किया जा सकता ॥8॥ जब यह शरीर निश्चित ही विनश्वर है तब इसके विषय में शोक का आश्रय लेना व्यर्थ है । यथार्थ में बात यह है कि जो कुशल बुद्धि मनुष्य हैं वे आत्महित के उपायों में ही प्रवृत्ति करते हैं ॥9॥ हे राजन् ! परलोक गया हुआ कोई मनुष्य रोने से उत्तर नहीं देता इसलिए आप शोक करने के योग्य नहीं हैं ॥10॥ स्त्री और पुरुष के संयोग से प्राणियों के शरीर उत्पन्न होते हैं और पानी के बबूले के समान अनायास ही नष्ट हो जाते हैं ॥11॥पुण्यक्षय होने पर जिनका वैक्रियिक शरीर नष्ट हो गया है ऐसे लोकपाल सहित इंद्रों को भी स्वर्ग से च्युत होना पड़ता है ॥12॥ गर्भके क्लेशों से युक्त, रोगों से व्याप्त, तृण के ऊपर स्थित बूंद के समान चंचल तथा मांस और हड्डियों के समूह स्वरूप मनुष्य के तुच्छ शरीर में क्या आदर करना है ? ॥13॥ अपने आपको अजर-अमर मानता हुआ यह मनुष्य मृत व्यक्ति के प्रति क्यों शोक करता है ? वह मृत्यु को डाँढों के बीच क्लेश उठाने वाले अपने आपके प्रति शोक क्यों नहीं करता ? ॥14॥ यदि इन्हीं एक का मरण होता तब तो जोर से रोना उचित था परंतु जब यह मरण संबंधी पराभव सबके लिए समानरूप से प्राप्त होता है तब रोना उचित नहीं है ॥15॥ जिस समय यह प्राणी उत्पन्न होता है उसी समय मृत्यु इसे आ घेरती है। इस तरह जब मृत्यु सबके लिए साधारण धर्म है तब शोक क्यों किया जाता है ? ॥16॥ जिस प्रकार जंगल में भील के द्वारा पीडित चमरी मृग-बालों के लोभ से दुःख उठाता है उसी प्रकार इष्ट पदार्थों के समागम की आकांक्षा रखने वाला यह प्राणी शोक करता हुआ व्यर्थ ही दुःख उठाता है ॥17।। जब हम सभी लोगों को वियुक्त होकर यहाँ से जाना है तब सर्वप्रथम उनके चले जाने पर शोक क्यों किया जा रहा है ? ॥18॥ अरे, इस प्राणी का साहस तो देखो जो यह सिंह के सामने मृग के समान वनदंड के धारक यम के आगे निर्भय होकर बैठा है ॥19॥ एक लक्ष्मीधर को छोड़कर समस्त पाताल अथवा पृथिवीतल पर किसी ऐसे दूसरे का नाम आपने सुना कि जो मृत्यु से पीड़ित नहीं हुआ हो ॥20॥ जिस प्रकार सुगंधि से उपलक्षित विंध्याचल का वन, दावानल से जलता है उसी प्रकार संसार के चक्र को प्राप्त हुआ यह जगत् कालानल से जल रहा है, यह क्या आप नहीं देख रहे हैं ? ॥21॥ संसाररूपी अटवी में घूमकर तथा काम की आधीनता प्राप्त कर ये प्राणी मदोन्मत्त हाथियों के समान कालपाश की आधीनता को प्राप्त करते हैं ॥22॥ यह प्राणी धर्म का मार्ग प्राप्त कर यद्यपि स्वर्ग पहुँच जाता है तथापि नश्वरता के द्वारा उस तरह नीचे गिरा दिया जाता है जिस प्रकार कि नदी के द्वारा तट का वृक्ष ॥23।। जिस प्रकार प्रलयकालीन मेघ के द्वारा अग्नियाँ नष्ट हो जाती हैं, उसी प्रकार नरेंद्र और देवेंद्रों के लाखों समूह कालरूपी मेघ के द्वारा नाश को प्राप्त हो चुके हैं ॥24॥ आकाश में बहुत दूर तक उड़कर और नीचे रसातल में बहुत दूर तक जाकर भी मैं उस स्थान को नहीं देख सका हूँ जो मृत्यु का अगोचर न हो ॥25॥ छठवें काल की समाप्ति होने पर यह समस्त भारतवर्ष नष्ट हो जाता है और बड़े-बड़े पर्वत भी विशीर्ण हो जाते हैं तब फिर मनुष्य के शरीर को तो कथा ही क्या है? ॥26॥ जो वनमय शरीर से युक्त थे तथा सुर और असुर भी जिन्हें मार नहीं सकते थे ऐसे लोगों को भी अनित्यता ने प्राप्त कर लिया है फिर केले के भीतरी भाग के समान निःसार मनुष्यों की तो बात ही क्या है ? ॥27॥ जिस प्रकार पाताल के अंदर छिपे हुए नाग को गरुड़ खींच लेता है उसी प्रकार माता से आलिंगित प्राणी को भी मृत्यु हर लेती है ॥28॥ हाय भाई ! हाय प्रिये ! हाय पुत्र ! इस प्रकार चिल्लाता हुआ यह अत्यंत दुःखी संसाररूपी मेंढक, कालरूपी साँप के द्वारा अपना ग्रास बना लिया जाता है ॥29।। 'मैं यह कर रहा हूँ और यह आगे करूँगा' इस प्रकार दुर्बुद्धि मनुष्य कहता रहता है फिर भी यमराज के भयंकर मुख में उस तरह प्रवेश कर जाता है जिस तरह कि कोई जहाज समुद्र के भीतर ॥30॥ यदि भवांतर में गये हुए मनुष्य के पीछे यहाँ के लोग जाने लगें तो फिर शत्रु मित्र― किसी के भी साथ कभी वियोग ही न हो ॥31॥ जो पर को स्वजन मानकर उसके साथ स्नेह करता है वह नरकुंजर अवश्य ही दुःखरूपी अग्नि में प्रवेश करता है ॥32।। संसार में प्राणियों को जितने आत्मीयजनों के समूह प्राप्त हुए हैं समस्त समुद्रों की बालू के कण भी उनके बराबर नहीं हैं। भावार्थ― असंख्यात समुद्रों में बालू के जितने कण हैं उनसे भी अधिक इस जीव के आत्मीयजन हो चुके हैं ॥33॥ नाना प्रकारकी प्रियचेष्टाओं को करने वाला यह प्राणी, अन्य भव में जिसका बड़े लाड़-प्यार से लालन-पालन करता है वही दूसरे भव में इसका शत्रु हो जाता है और तीव्र क्रोध को धारण करने वाले उसी प्राणी के द्वारा मारा जाता है ॥34॥ जन्मांतर में जिस प्राणी के स्तन पिये हैं, इस जन्म में भयभीत एवं मारे हुए उसी जीव का माँस खाया जाता है, ऐसे संसार को धिक्कार है ॥35॥ 'यह हमारा स्वामी है। ऐसा मानकर जिसे पहले शिरोनमन― शिर झुकाना आदि विनयपूर्ण क्रियाओं से पूजित किया था वही इस जन्म में दासता को प्राप्त होकर लातों से पीटा जाता है ॥36।। अहो! इस सामर्थ्यवान मोह की शक्ति तो देखो जिसके द्वारा वशीभूत हुआ यह प्राणी इष्टजनों के संयोग को उस तरह ढूँढ़ता फिरता है जिस तरह कि कोई हाथ से महानाग को ॥37॥ इस संसार में तिलमात्र भी वह स्थान नहीं है जहाँ यह जीव मृत्यु अथवा जन्म को प्राप्त नहीं हुआ हो ॥38॥ इस जीव ने नरकों में ताँबा आदिका जितना पिघला हुआ रस पिया है उतना स्वयंभूरमण समुद्र में पानी भी नहीं है ॥39॥ इस जीव ने सूकर का भव धारण कर जितने विष्ठा को अपना भोजन बनाया है मैं समझता हूँ कि वह हजारों विंध्याचलों से भी कहीं बहुत अधिक अत्यंत ऊँचा होगा ॥40॥ इस जीव ने परस्पर एक दूसरे को मारकर जो मस्तकों का समूह काटा है यदि उसे एक जगह रोका जाय― एक स्थान पर इकट्ठा किया जाय तो वह ज्योतिषी देवों के मार्ग को भी उल्लंघन कर आगे जा सकता है ।।41॥ नरक-भूमि में गये हुए जीवों ने जो भारी दुःख उठाया है उसे सुन मोह के साथ मित्रता करना किसे अच्छा लगेगा ? ॥42॥ विषय-सुख में आसक्त हुआ यह प्राणी जिस शरीरके पीछे पलभर के लिए भी दुःख नहीं उठाना चाहता तथा मोहरूपी ग्रह से ग्रस्त हुआ पागल के समान संसार में भ्रमण करता रहता है, ऐसे कषाय और चिंता से खेद उत्पन्न करने वाले इस शरीर को छोड़ देना ही उचित है क्योंकि इनका यह ऐसा शरीर क्या अन्य शरीर से भिन्न है― विलक्षण है ? ॥43-44॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि विद्याधरों में सूर्य स्वरूप बुद्धिमान् विभीषण ने यद्यपि राम को इस तरह बहुत कुछ समझाया था तथापि उन्होंने लक्ष्मण का शरीर उस तरह नहीं छोड़ा 'जिस तरह कि विनयी शिष्य गुरु की आज्ञा नहीं छोड़ता है ॥45॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, श्री रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में लक्ष्मण के वियोग को लेकर विभीषण के द्वारा संसार की स्थिति का वर्णन करने वाला एक सौ सत्रहवाँ पर्व पूर्ण हुआ ॥117॥