उदीरणा: Difference between revisions
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<p> कर्म के उदय की भाँति उदरणा भी कर्मफल की व्यक्तता का नाम है परंतु यहाँ इतनी विशेषता है कि किन्हीं क्रियाओं या अनुष्ठान विशेषों के द्वारा कर्म को अपने समय से पहले ही पका लिया जाता है। या अपकर्षण द्वारा अपने काल से पहले ही उदय में ले आया जाता है। शेष सर्व कथन उदयवत् ही जानना चाहिए। कर्म प्रकृतियों के उदय व उदीरणा की प्ररूपणाओं में भी कोई विशेष अंतर नहीं है। जो है वह इस अधिकार में दर्शा दिया गया है। </p> | <p class="HindiText">कर्म के उदय की भाँति उदरणा भी कर्मफल की व्यक्तता का नाम है परंतु यहाँ इतनी विशेषता है कि किन्हीं क्रियाओं या अनुष्ठान विशेषों के द्वारा कर्म को अपने समय से पहले ही पका लिया जाता है। या अपकर्षण द्वारा अपने काल से पहले ही उदय में ले आया जाता है। शेष सर्व कथन उदयवत् ही जानना चाहिए। कर्म प्रकृतियों के उदय व उदीरणा की प्ररूपणाओं में भी कोई विशेष अंतर नहीं है। जो है वह इस अधिकार में दर्शा दिया गया है। </p> | ||
1 | <ol><li> <span class="HindiText"><strong> [[#1 | उदीरणा का लक्षण व निर्देश ]]</strong> <br /></span> | ||
<ol><li class="HindiText">[[#1.1 | उदीरणा का लक्षण]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[#1.2 | उदीरणा के भेद]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[#1.3 | उदय व उदीरणा के स्वरूप में अंतर]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[#1.4 | उदीरणा से तीव्र परिणाम उत्पन्न होते हैं]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[#1.5 | उदीरणा उदयावली की नहीं सत्ता की होती है]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[#1.6 | उदयगत प्रकृतियों की ही उदीरणा होती है]]</li> | |||
</ol> | |||
<p class="HindiText">• बध्यमान आयु की उदीरणा नहीं होती - देखें [[ आयु#6 | आयु - 6]]</p> | |||
1. | <p class="HindiText">• उदीरणा की आबाधा - देखें [[ आबाधा#2 | आबाधा - 2]].</p> | ||
<li class="HindiText"><strong>[[#2 | कर्म प्रकृतियों की उदीरणा व उदीरणा स्थान प्ररूपणाएँ]]</strong> <br /></span> | |||
<ol><li class="HindiText">[[#2.1 | उदय व उदीरणा की प्ररूपणाओं में कथंचित् समानता व असमानता]] | |||
<li class="HindiText">[[#2.2 | उदीरणा व्युच्छित्ति की ओघ आदेश प्ररूपणा]] | |||
• | <li class="HindiText">[[#2.3 | उत्तर प्रकृति उदीरणा की ओघ प्ररूपणा (सामान्य व विशेष कालकी अपेक्षा) ]] | ||
<li class="HindiText">[[#2.4 | एक व नाना जीवापेक्षा मूल प्रकृति उदीरणा की ओघ आदेश प्ररूपणा ]] | |||
<li class="HindiText"> [[#2.5 | मूल प्रकृति उदीरणास्थान ओघ प्ररूपणा]]</li> | |||
<p class="HindiText">• मूलोत्तर प्रकृतियों की सामान्य उदय स्थान प्ररूपणाएँ (प्रकृति विशेषता सहित उदयस्थानवत्)</p> | |||
<p class="HindiText">• प्रकृति उदीरणा की स्वामित्व सन्निकर्ष व स्थान प्ररूपणा - देखें धवला पुस्तक संख्या 15/44-97</p> | |||
<p class="HindiText">• स्थिति उदीरणा की समुत्कीर्तना, भंगविचय व सन्निकर्ष प्ररूपणा - देखें धवला पुस्तक संख्या 15/100-147</p> | |||
<p class="HindiText">• अनुभाग उदीरणा की देश व सर्वघातीपना, सन्निकर्ष, भंगविचय व भुजगारादि प्ररूपणाएँ - देखें धवला पुस्तक संख्या 15/170-235</p> | |||
<p class="HindiText">• भुजगारादि पदों के उदीरकों की काल, अंतर व अल्प बहुत्व प्ररूपणा- देखें धवला पुस्तक संख्या 15/50</p> | |||
<p class=" | <p class="HindiText">• बंध व उदय व उदीरणा की त्रिसंयोगी प्ररूपणा - देखें [[उदय#7 | उदय 7 ]]</p> | ||
</ol> | |||
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<p class=" | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1">उदीरणा का लक्षण व निर्देश </strong><br /></span> | ||
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< | <li><p class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> उदीरणा का लक्षण</strong></p></li> | ||
<span class="GRef">पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 3/3</span><p class=" PrakritText ">.....भुंजणकालो उदओ उदीरणापक्कपाचणफलं।</p> | |||
<p class="HindiText">= कर्मों के फल भोगने के काल को उदय कहते हैं और अपक्वकर्मों के पाचन को उदीरणा कहते हैं।</p> | |||
<span class="GRef">(प्र.सं./सं. 3/3-4)</span> | |||
< | <span class="GRef">धवला पुस्तक संख्या 15/43/7</span><p class=" PrakritText "> का उदीरणा णाम। अपक्वपाचणमुदीरणा। आवलियाए बाहिरट्ठिदिमादिं कादूण उवरिमाणं ठिदीणं बंधावलियवदिक्कंतपदेसग्गमसंखेज्जलोगपडिभागेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागेण वा ओक्कडिदूण उदयावलियाए देदि सा उदीरणा।</p> | ||
3 | <p class="HindiText">= प्रश्न-उदीरणा किसे कहते हैं। उत्तर-(अपक्व अर्थात्) नहीं पके हुए कर्मों को पकाने का नाम उदीरणा है। आवली (उदयावली) से बाहर की स्थिति को लेकर आगे की स्थितियों के, बंधावली अतिक्रांत प्रदेशाग्र को असंख्यातलोक प्रतिभाग से अथवा पल्योपम के असंख्यातवें भाग रूप प्रतिभाग से अपकर्षण करके उदयावली में देना, यह उदीरणा कहलाती है।</p> | ||
<p class=" | <span class="GRef">(धवला पुस्तक संख्या 6/1,9-8,4/214)</span>; <span class="GRef">(गोम्मट्टसार कर्मकांड/ जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 439/592/8)</span> | ||
<p class="HindiText">= | <span class="GRef"> पंचसंग्रह/ प्राकृत अधिकार संख्या 3/47/5</span> <p class="SanskritText"><p class="SanskritText">उदीरणा नाम अपक्वपाचनं दीर्घकाले उदेष्यतोऽग्रनिषेकाद् अपकृष्याल्पस्थितिकाधस्तननिषेकेषु उदयावल्यां दत्वा उदयमुखेनानुभूय कर्मरूपं त्याजयित्वा पुद्गलांतररूपेण परिणमयतीत्यर्थः।</p> | ||
< | <p class="HindiText">= उदीरणा नाम अपक्वपाचनका है। दीर्घकाल पीछे उदय आने योग्य अग्रिम निषेकोंको अपकर्षण करके अल्प स्थितिवाले अधस्तन निषेकोंमें या उदयावलीमें देकर, उदयमुख रूपसे उनका अनुभवकर लेनेपर वह कर्मस्कंध कर्मरूपको छोड़कर अन्य पुद्गलरूप से परिणमन कर जाता है। ऐसा तात्पर्य है। विशेष देखें [[ ]]- उदय 2/7</p> | ||
<li><p class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> उदीरणा के भेद</strong></p></li> | |||
( | <span class="GRef">धवला पुस्तक संख्या 15/43/5</span> <p class=" PrakritText ">उदीरणा चउविहा-पयडि-ट्ठिदि-अणुभागपदेसउदीरणा चेदि।</p> | ||
<p class="HindiText">= उदीरणा चार प्रकारकी है - प्रकृतिउदीरणा, स्थितिउदीरणा, अनुभागउदीरणा, और प्रदेशउदीरणा।</p> | |||
< | <li><p class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3">उदय व उदीरणा के स्वरूप में अंतर</strong></p></li> | ||
<p class=" | <span class="GRef">पंचसंग्रह/ प्राकृत अधिकार संख्या 3/3</span><p class=" PrakritText "> भुंजणकालो उदओ उदीरणापक्वपाचणकालं।</p> | ||
<p class="HindiText">= कर्मका फल भोगनेके कालको उदय कहते हैं और अपक्व कर्मोंके पाचनको उदीरणा कहते हैं।</p> | |||
<p class=" | <span class="GRef">धवला पुस्तक संख्या 6/1,9-8,4/213/11</span> <p class=" PrakritText ">उदय उदीरणाणं को विसेसो। उच्चदे-जे कम्मक्खंधा ओकड्डुक्कडुणादिपओगेण विणा ट्ठिदिक्खयं पाविदूण अप्पप्पणो फलं देंति; तेसिं कम्मखंधाणमुदओ त्ति सण्णा। जे कम्मक्खंधा महंतेसु ट्ठिदि-अणुभागेसु अवट्ठिदा ओक्कडिदूण फलदाइणो कीरंति तेसिमुदीरणा त्ति सण्णा, अपपक्वाचनस्य उदीरणाव्यपदेशात्।</p> | ||
<p class="HindiText">= प्रश्न-उदय और उदीरणामें क्या भेद है। उत्तर-कहते हैं-जो कर्म-स्कंध अपकर्षण, उत्कर्षण आदि प्रयोगके बिना स्थिति क्षयको प्राप्त होकर अपना-अपना फल देते हैं, उन कर्मस्कंधोंकी `उदय' यह संज्ञा है। जो महान् स्थिति और अनुभागोंमें अवस्थित कर्मस्कंध अपकर्षण करके फल देनेवाले किये जाते हैं, उन कर्मस्कंधोंकी `उदीरणा' यह संज्ञा हैं, क्योंकि, अपक्व कर्म-स्कंध पाचन करनेको उदीरणा कहा गया है।</p> | |||
<p class=" | <span class="GRef">( कषायपाहुड़ सुत्त/मूल गाथा 59/पृष्ठ 465)</span> | ||
<p class="HindiText">= | <li><p class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> उदीरणा से तीव्र परिणाम उत्पन्न होते हैं</strong></p></li> | ||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय संख्या 6/6/1-2/111/32</span> <p class="SanskritText">बाह्याभ्यंतरहेतूदीरणवशादुद्रिक्तः परिणामः तीवनात स्थूलभावात् तीव्र इत्युच्यते ।1। अनुदीरणप्रत्ययसंनिधानात् उत्पद्यमानोऽनुद्रिकक्तः परिणामो मंदनात् गमनात् मंदः इत्युच्यते।</p> | |||
<p class=" | <p class="HindiText">= बाह्य और आभ्यंतर कारणोंसे कषायोंकी उदीरणा होनेपर अत्यंत प्रवृद्ध परिणामोंको तीव्र कहते हैं। इससे विपरीत अनुद्रिक्त परिणाम मंद हैं। अर्थात् केवल अनुदीर्ण प्रत्यय(उदय) के सन्निधानसे होनेवाले परिणाम मंद हैं।</p> | ||
<p class="HindiText">= | <li><p class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> उदीरणा उदयावली की नहीं, सत्ता की होती है</strong></p></li> | ||
<span class="GRef">धवला पुस्तक संख्या 15/44/1</span> <p class=" PrakritText ">णाणावरणीय-दंसणावरणीय-अंतराइयाणं मिच्छाइट्ठिमादिं कादूण जाव खीणकसाओ त्ति ताव एदे उदीरया। णवरि खीणकसायद्धाए समयाहियावलियसेसाए एदासिं तिण्णं पयडीणं उदीरणा वोच्छिण्णा।</p> | |||
< | <p class="HindiText">= ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, और अंतराय तीन कर्मोंके मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय पर्यंत, ये जीव उदीरक हैं। विशेष इतना है कि क्षीण कषायके कालमें एक समय अधिक आवलीके शेष रहनेपर इन तीनों प्रकृतियोंकी उदीरणा व्युच्छिन्न हो जाती है। (इसी प्रकार अन्य 4 प्रकृतियोंकी भी प्ररूपणा की गयी है। तहाँ सर्वत्र ही उदय व्युच्छित्तिवाले गुणस्थानकी अंतिम आवली शेष रहनेपर उन-उन प्रकृतियोंकी उदीरणाकी व्युच्छित्ति बतायी है)।</p> | ||
<p class=" | <span class="GRef">पंचसंग्रह/ प्राकृत अधिकार संख्या 4/226 पृष्ठ 178</span> <p class="SanskritText">अत्रापक्वपाचनमुदीरणेति वचनादुदयावलिकायां प्रविष्टायाः कर्मस्थितेर्नोदीरणेति मरणावलिकायामायुषः उदीरणा नास्ति।</p> | ||
<p class="HindiText">= `अपक्वपाचन उदीरणा है' इस वचनपर-से यह बात जानी जाती है कि उदयावलीमें प्रवेश किये हुए निषेकों या कर्मस्थितिकी उदीरणा नहीं होती है। इसी प्रकार मरणावलीके शेष रहनेपर आयुकी उदीरणा नहीं होती है।</p> | |||
<li><p class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> उदयगत प्रकृतियोंकी ही उदीरणा होती है</strong></p></li> | |||
<span class="GRef">पंचसंग्रह/ प्राकृत 473</span><p class=" PrakritText "> उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विज्जदि विसेसो। नोत्तण य इगिदालं सेसाणं सव्वपयडीणं।</p> | |||
<p class="HindiText">= वक्ष्यमाण 41 प्रकृतियोंको छोड़कर (देखो आगे सारणी) शेष सर्व प्रकृतियोंके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है। विशेषार्थ - सामान्य नियम यह है कि जहाँपर जिस कर्मका उदय होता है, वहाँपर उस कर्मकी उदीरणा अवश्य होती है-किंतु इसमें कुछ अपवाद है। (देखो आगे सारणी)</p> | |||
( | <span class="GRef">(पंचसंग्रह/ संस्कृत अधिकार संख्या 5/442)</span> | ||
<p class=" | <span class="GRef">लब्धिसार | जीवतत्त्व प्रदीपिका / मूल या टीका गाथा संख्या व.भाषा 30/67/3</span><p class="SanskritText"> पुनरुदयवतां प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशानां चतुर्णामुदीरको भवति स जीवः, उदयोदीरणयोः स्वामिभेदाभावात्।</p> | ||
<p class="HindiText">= प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग जे उदयरूप कहे तिनिहीका यहु उदीरणा करनेवाला हो है जातै जाकैं जिनिका उदय ताकौं तिनिहोकी उदीरणा भी संभवै।।</p></ol> | |||
<li><p class="HindiText"><strong name="2" id="2"> कर्म प्रकृतियों की उदीरणा व उदीरणा स्थान प्ररूपणाएँ</strong></p> | |||
<ol> | |||
<li><p class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> उदय व उदीरणा की प्ररूपणाओं में कथंचित् समानता व असमानता</strong></p></li> | |||
<span class="GRef">पंचसंग्रह/ प्राकृत 3/44-47</span><p class=" PrakritText "> उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विज्जइ विसेसो। मोत्तूण तिण्णि-ठाणं पमत्त जोई अजोई य ।44।</p> | |||
<p class="HindiText">= स्वामित्व की अपेक्षा उदय और उदीरणामें प्रमत्त विरत, सयोगि केवली और अयोगिकेवली इन तीन गुणस्थानोंको छोड़कर कोई विशेष नहीं है।</p> | |||
4 चारों आयुका उदय भवके अंतिम समय तक रहता है परंतु उदीरणाकी व्युच्छित्ति एक आवली काल पहले होती है। | <span class="GRef">(गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 278/407)</span>; <span class="GRef">(कर्मस्त 38-39)</span> | ||
5 पाँचों निद्राओं का शरीर पर्याप्त पूर्ण होनेके पश्चात् इंद्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने तक उदय होता है उदीरणा नहीं। | <span class="GRef"> पंचसंग्रह/ प्राकृत अधिकार संख्या 5/473</span><p class=" PrakritText "> उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विज्जदि विसेसो। मोत्तूण य इगिदालं सेसाणं सव्वपयडीणं ।473।</p> | ||
6 अंतरकरण करनेके पश्चात् प्रथम स्थितिमें एक आवली शेष रहनेपर-उपशम सम्यक्त्व सन्मुखके मिथ्यात्वका; क्षायिक सन्मुखके सम्यक् प्रकृतिका; और उपशम श्रेणी आरूढ़के यथायोग्य तीनों वेदोंका (जो जिस वेदके उदयसे श्रेणी चढ़ा है उसके उस वेदका) इन सात प्रकृतियोंका उदय होता है उदीरणा नहीं। | <p class="HindiText">= वक्ष्यमाण इकतालीस प्रकृतियोंको छोड़कर शेष सर्व प्रकृतियोंके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है।</p> | ||
7 जिन प्रकृतियोंका उदय 14 वें गुणस्थान तक होता है उनकी उदीरणा 13 वें तक होती है (देखो ऊपर नं. 2) | <span class="GRef">(पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 5/473-475)</span>; <span class="GRef">(गोम्मट्टसार कर्मकांड/ मूल गाथा संख्या 278-281)</span>; <span class="GRef">(कर्मस्त 39-43)</span>; <span class="GRef">( पंचसंग्रह/ संस्कृत अधिकार संख्या 3/56-60)</span>। | ||
{| class="wikitable" | |||
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!अपवाद संख्या !! अपवाद गत 41 प्रकृतियाँ | |||
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| 1 || साता, असाता व मनुष्यायु इन तीनोंकी उदय व्युच्छित्ति 14 वें गुणस्थानमें होती है पर उदीरणा व्युच्छित्ति 6 ठे में। | |||
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| 2|| मनुष्यगति, पंचेंद्रिय जाति, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यश, तीर्थंकर, उच्चगोत्र इन 10 प्रकृतियोंकी उदय व्युच्छित्ति 14 वें में होती है पर उदीरणा व्युच्छित्ति 13 वें में। | |||
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| 3|| ज्ञानावरण 5, दर्शनावरण 4, अंतराय 5, इन 14 की उदय व्युच्छित्ति 12 वें में एक आवली काल पश्चात् होती है और उदीरणा व्युच्छित्ति तहाँ ही एक आवली पहले होती है। | |||
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| 4|| चारों आयुका उदय भवके अंतिम समय तक रहता है परंतु उदीरणाकी व्युच्छित्ति एक आवली काल पहले होती है। | |||
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| 5|| पाँचों निद्राओं का शरीर पर्याप्त पूर्ण होनेके पश्चात् इंद्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने तक उदय होता है उदीरणा नहीं। | |||
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| 6|| अंतरकरण करनेके पश्चात् प्रथम स्थितिमें एक आवली शेष रहनेपर-उपशम सम्यक्त्व सन्मुखके मिथ्यात्वका; क्षायिक सन्मुखके सम्यक् प्रकृतिका; और उपशम श्रेणी आरूढ़के यथायोग्य तीनों वेदोंका (जो जिस वेदके उदयसे श्रेणी चढ़ा है उसके उस वेदका) इन सात प्रकृतियोंका उदय होता है उदीरणा नहीं। | |||
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| 7|| जिन प्रकृतियोंका उदय 14 वें गुणस्थान तक होता है उनकी उदीरणा 13 वें तक होती है (देखो ऊपर नं. 2) | |||
ये सात अपवादवाली कुल प्रकृतियाँ 41 हैं - इनको छोड़कर शेष 107 प्रकृतियोंकी उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई भेद नहीं। | ये सात अपवादवाली कुल प्रकृतियाँ 41 हैं - इनको छोड़कर शेष 107 प्रकृतियोंकी उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई भेद नहीं। | ||
2. उदीरणा | |||
( | |} | ||
<p class="HindiText">ये सात अपवादवाली कुल प्रकृतियाँ 41 हैं - इनको छोड़कर शेष 107 प्रकृतियोंकी उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई भेद नहीं।</p> | |||
<li><p class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> उदीरणा व्युच्छित्ति की ओघ आदेश प्ररूपणा</strong></p></li> | |||
<span class="GRef">( पंचसंग्रह/ प्राकृत / परिशिष्ट/पृष्ठ 748)</span>; <span class="GRef">(पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 3/44-48,56-60)</span>; <span class="GRef">(गोम्मट्टसार कर्मकांड 278-281/407-410)</span> | |||
उदीरणा योग्य प्रकृतियाँ-उदय योग्यवाली ही = 122 | उदीरणा योग्य प्रकृतियाँ-उदय योग्यवाली ही = 122 | ||
संकेत = | संकेत = प्रकृतियों के छोटे नाम (देखो उदय 6/1) | ||
गुणस्थान व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ अनुदीरणा पुनः उदीरणा | |||
{| class="wikitable" | |||
1 आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, मिथ्यात्व=5 तीर्थं., आहा. | |+ उदीरणा योग्य प्रकृतियाँ | ||
2 | |- | ||
3 मिश्र मोहनीय=1 मनु. तिर्य.देव-आनु.=3 मिश्रमोह=1 102 3 1 100 | ! गुणस्थान !! व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ!!अनुदीरणा !! पुनः उदीरणा !! उदीरणा योग्य !! अनुदीरणा !! पुनः उदीरणा !! कुल उदीरणा | ||
4 अप्र. चतु., वैक्रि. द्वि., नरकत्रिक, देवत्रिक, मनु.तिर्य. आनु., दुर्भग, अनादेय, अयश=17 - चारों. आनु., सम्य.=5 99 5 5 104 | |- | ||
5 प्रत्या. चतु., तिर्य. आयु. नीच गोत्र, तिर्य. गति, उद्योत=8 - | | 1|| आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, मिथ्यात्व=5|| तीर्थं., आहा. द्विक सम्य. मिश्र=5 || -|| 122|| 5|| -|| 11 | ||
|- | |||
7 सम्य. मोह, अर्धनाराच, कीलित, सृपाटिका=4 - - 73 - - 73 | | 2|| 1-4 इंद्रिय, स्थावर, अनंतानुबंधी चतुष्क=9|| नारकानुपूर्वी=1|| -|| 112|| 1|| -|| 111 | ||
8/1 हास्य, रति, भय, जुगुप्सा=4 - - 69 - - 69 | |- | ||
8/अंत अरति, शोक=2 - - 65 - - 65 | | 3|| मिश्र मोहनीय=1|| मनु. तिर्य.देव-आनु.=3|| मिश्रमोह=1|| 102|| 3|| 1|| 100 | ||
9/15 सवेद भागमें तीनों वेद=3 - - 63 - - 63 | |- | ||
9/6 क्रोध=1 - - 60 - - 60 | | 4|| अप्र. चतु., वैक्रि. द्वि., नरकत्रिक, देवत्रिक, मनु.तिर्य. आनु., दुर्भग, अनादेय, अयश=17|| -|| चारों. आनु., सम्य.=5|| 99|| 5|| 5|| 104 | ||
9/7 मान=1 - - 59 - - 59 | |- | ||
9/8 माया=1 - - 58 - - 58 | | 5|| प्रत्या. चतु., तिर्य. आयु. नीच गोत्र, तिर्य. गति, उद्योत=8|| -|| आहारक द्विक=2|| 79|| -|| 2|| 81 | ||
9/9 लोभ (बादर)=X - - 57 - - 57 | |- | ||
10 लोभ (सूक्ष्म)=1 - - 57 - - 57 | | 7|| सम्य. मोह, अर्धनाराच, कीलित, सृपाटिका=4|| -|| -|| 73|| -|| -|| 73 | ||
11 वज्र नाराच, नाराच=2 - - 56 - - 56 | |- | ||
12/i निद्रा, प्रचला=2 - - 54 - - | | 8/1|| हास्य, रति, भय, जुगुप्सा=4|| - || -|| 69|| -|| -|| 69 | ||
12/ii 5 ज्ञानावरण, 4 दर्शनावरण, 5 अंतराय=14 - - 52 - - 52 | |- | ||
13 (नाना जीवापेक्षा) :- वज्रऋषभनाराच, निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर, प्रशस्त-अप्रशस्त, विहायो, औदा.द्वि., तैजस, कार्माण, 6 संस्थान, वर्ण रस, गंध, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रत्येक शरीर=29 मनुष्यगति, पंचेंद्रियजाति, सुभग, त्रिस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यश, तीर्थंकर, उच्चगोत्र=10 (39) तीर्थंकर=1 38 - 1 | | 8/अंत|| अरति, शोक=2|| -|| -|| 65|| -|| -|| 65 | ||
14 | |- | ||
आदेश प्ररूपणा | | 9/15|| सवेद भागमें तीनों वेद=3|| - || -|| 63|| -|| -|| 63 | ||
यथा योग्य रूपसे उदयवत् जान लेना, केवल ओघवत् 6ठे, 13वें व 14वें गुणस्थानमें निर्दिष्ट अंतर डाल देना। | |- | ||
3. उत्तर प्रकृति उदीरणा की ओघ प्ररूपणा | | 9/6|| क्रोध=1|| -|| -|| 60|| -|| -|| 60 | ||
|- | |||
गुणस्थान कुल उदीरणा योग्य प्रकृत गुण स्थानकी अवस्थामें कभी भी प्रकृत गुण स्थानमें अन्यतम प्रकृति की मरण कालसे 1 आवली पूर्व | | 9/7|| मान=1|| -|| - || 59|| -|| -|| 59 | ||
- - कुल प्रकृति विशेष कुल प्रकृति विशेष कुल प्रकृति विशेष | |- | ||
1 18 9 1-4 इंद्रिय जातिआतप. स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त साधारण 9 अनंतानुबंधी चतुष्क, चारों आनुपूर्वी. मनु-मनुष्यायु 1 मनुष्यायु | | 9/8|| माया=1|| -|| -|| 58|| -|| -|| 58 | ||
2 9 - - 9 अनंतानुबंधी चतुष्क, चारों. आनुपूर्वी, मनु. मनुष्यायु | |- | ||
3 1 1 सम्यग्मिथ्यात्व | | 9/9|| लोभ (बादर)=X|| -|| -|| 57|| -|| -|| 57 | ||
4 18 8 अप्रत्याख्यानावरण 4, नरक व देवगति वैक्रियक शरीर व अंगोपांग 5 दुर्भग, अनादेय, अयश, सम्यक प्रकृति, मनुष्यायु 7 चारों आनुपूर्वी, मनुष्य व नरक आयु | |- | ||
5 11 8 प्रत्याख्यानावरण 4, तिर्यंचगति, उद्योत नीचगोत्र 2 सम्यक प्रकृति मनुष्यायु 2 मनुष्य व तिर्यंच आयु | | 10|| लोभ (सूक्ष्म)=1|| -|| -|| 57|| -|| -|| 57 | ||
6 9 5 निद्रा निद्रा, प्रचला, प्रचला, स्त्यानगृद्धि साता असाता 4 सम्यक् प्रकृति, मनुष्यायु, आहारक शरीर व अंगोपांग 3 मनुष्यायु, आहारक शरीर व अंगोपांग | |- | ||
7 4 3 नीचेवाली तीनों संहनन 1 सम्यक्प्रकृति | | 11|| वज्र नाराच, नाराच=2|| -|| - || 56|| -|| -|| 56 | ||
8 6 6 हास्य, रति, अरति, शोक भय, जुगुप्सा | |- | ||
9 6 6 तीनों वेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया | | 12/i|| निद्रा, प्रचला=2|| -|| - || 54|| -|| -|| 55 | ||
10 1 1 संज्वलन लोभ | |- | ||
11 2 2 वज्र नाराच, नाराच संहनन | | 12/ii|| 5 ज्ञानावरण, 4 दर्शनावरण, 5 अंतराय=14|| -|| - || 52|| -|| -|| 52 | ||
12i 2 - X - - 2 निद्रा, प्रचला | |- | ||
12/ii 14 - - - - 14 5 ज्ञानावरण, 4 दर्शनावरण, 5 अंतराय | | 13|| (नाना जीवापेक्षा) :- वज्रऋषभनाराच, निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर, प्रशस्त-अप्रशस्त, विहायो, औदा.द्वि., तैजस, कार्माण, 6 संस्थान, वर्ण रस, गंध, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रत्येक शरीर=29 मनुष्यगति, पंचेंद्रियजाति, सुभग, त्रिस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यश, तीर्थंकर, उच्चगोत्र=10 (39)||- || तीर्थंकर=1 || 38||-|| 1|| 38 | ||
13 38 38 मनुष्यगति, पंचेंद्रिय जाति, औदारिक शरीर व अंगोपांग तैजस, व कार्मण शरीर, छहों संस्थान, वज्रऋषभ नाराच, संहनन, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, उच्छ्वास, प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, यश, निर्माण, उच्चगोत्र, तीर्थंकर | |- | ||
14 X X X X X | | 14|| x|| x||x || x|| x||x|| x | ||
4. एक व नानाजीवापेक्षा मूलप्रकृति उदीरणाकी ओघ आदेश प्ररूपणा | |} | ||
<br> | |||
<p class="HindiText">आदेश प्ररूपणा</p> | |||
<p class="HindiText">यथा योग्य रूपसे उदयवत् जान लेना, केवल ओघवत् 6ठे, 13वें व 14वें गुणस्थानमें निर्दिष्ट अंतर डाल देना।</p> | |||
<li><p class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">उत्तर प्रकृति उदीरणा की ओघ प्ररूपणा</strong></p></li> | |||
<span class="GRef">पंचसंग्रह/ प्राकृत अधिकार संख्या 3/6-7)</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक अध्याय संख्या 9/36/9/631)</span>; <span class="GRef">(पंचसंग्रह / अधिकार संख्या 3/14-16)</span> | |||
{| class="wikitable" | |||
|+ | |||
|- | |||
! गुणस्थान !! कुल उदीरणा योग्य !! !! प्रकृत गुण स्थानकी अवस्थामें कभी भी !! !! प्रकृत गुण स्थानमें अन्यतम प्रकृति की !! !! मरण कालसे 1 आवली पूर्व | |||
|- | |||
! -!! !! कुल प्रकृति !! विशेष !!कुल प्रकृति!! विशेष !! कुल प्रकृति !! विशेष | |||
|- | |||
| 1|| 18|| 9|| 1-4 इंद्रिय जातिआतप. स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त साधारण|| 9 || अनंतानुबंधी चतुष्क, चारों आनुपूर्वी. मनु-मनुष्यायु|| 1|| मनुष्यायु | |||
|- | |||
| 2|| 9|| -|| -|| 9|| अनंतानुबंधी चतुष्क, चारों. आनुपूर्वी, मनु. मनुष्यायु|| -|| - | |||
|- | |||
| 3|| 1|| 1|| सम्यग्मिथ्यात्व|| -|| -|| -|| - | |||
|- | |||
| 4 || 18|| 8|| अप्रत्याख्यानावरण 4, नरक व देवगति वैक्रियक शरीर व अंगोपांग|| 5|| दुर्भग, अनादेय, अयश, सम्यक प्रकृति, मनुष्यायु|| 7|| चारों आनुपूर्वी, मनुष्य व नरक आयु | |||
|- | |||
| 5|| 11 || 8 || प्रत्याख्यानावरण 4, तिर्यंचगति, उद्योत नीचगोत्र || 2 || सम्यक प्रकृति मनुष्यायु|| 2 || मनुष्य व तिर्यंच आयु | |||
|- | |||
| 6|| 9 || 5 || निद्रा निद्रा, प्रचला, प्रचला, स्त्यानगृद्धि साता असाता || 4 || सम्यक् प्रकृति, मनुष्यायु, आहारक शरीर व अंगोपांग|| 3|| मनुष्यायु, आहारक शरीर व अंगोपांग | |||
|- | |||
| 7 || 4 || 3 || नीचेवाली तीनों संहनन || 1|| सम्यक्प्रकृति || - || - | |||
|- | |||
| 8 || 6 || 6 || हास्य, रति, अरति, शोक भय, जुगुप्सा|| - || - || - || - | |||
|- | |||
| 9 || 6 || 6 || तीनों वेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया|| - || - || - || - | |||
|- | |||
| 10 || 1 || 1 || संज्वलन लोभ|| -|| -|| -|| - | |||
|- | |||
| 11 || 2 || 2 || वज्र नाराच, नाराच संहनन || -|| -|| -|| - | |||
|- | |||
| 12i || 2 || - || X || - || - || 2 || निद्रा, प्रचला | |||
|- | |||
| 12/ii || 14 || - || - || - || - || 14 || 5 ज्ञानावरण, 4 दर्शनावरण, 5 अंतराय | |||
|- | |||
| 13 || 38 || 38 || मनुष्यगति, पंचेंद्रिय जाति, औदारिक शरीर व अंगोपांग तैजस, व कार्मण शरीर, छहों संस्थान, वज्रऋषभ नाराच, संहनन, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, उच्छ्वास, प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, यश, निर्माण, उच्चगोत्र, तीर्थंकर || - || - || - || - | |||
|- | |||
| 14 || X|| X|| X|| X|| X|| X|| X | |||
|} | |||
<li><p class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> एक व नानाजीवापेक्षा मूलप्रकृति उदीरणाकी ओघ आदेश प्ररूपणा</strong></p></li> | |||
1. ओघ प्ररूपणा | 1. ओघ प्ररूपणा | ||
( | <span class="GRef">(पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 4/222-226)</span>; <span class="GRef">(पंचसंग्रह / संस्कृत अधिकार संख्या 4/86-91)</span>, <span class="GRef">(शतक 29-32)</span>; <span class="GRef">(धवला पुस्तक संख्या 15/44)</span> | ||
नाम प्रकृति | {| class="wikitable" | ||
- | |+ | ||
आयु- | |- | ||
(केवल आवली काल अवशेष रहते) 1 1 या 2 समय 1 आवली कम 33 सागर 1 आवली अंतर्मुहूर्त सर्वतः स्तोक | ! नाम प्रकृति !! गुणस्थान !! !! एक जीवापेक्षया काल !! एक जीवापेक्षया अंतर !! !! नाना जीवापेक्षया अल्प बहुत्व !! | ||
स्व | |- | ||
वेदनीय 1-6 अंतर्मुहूर्त अर्ध | ! !! !! जघन्य !! उत्कृष्ट !! जघन्य !! उत्कृष्ट !! अल्प बहुत्व !! विशेष का प्रमाण | ||
मोहनीय 1-10 अंतर्मुहूर्त अर्ध | |- | ||
ज्ञानावरणी 1-12 अनादि सांत अनादि | | आयु-(केवल आवली काल अवशेष रहते)|| 1 || 1 या 2 समय|| 1 आवली कम 33 सागर|| 1 आवली|| अंतर्मुहूर्त || सर्वतः स्तोक|| - | ||
दर्शनावरणी 1-12 अनादि सांत अनादि | |- | ||
अंतराय 1-12 अनादि सांत अनादि | | स्व स्थिति के अंत तक|| 2-6 || 1 या 2 समय|| 1 आवली कम 33 सागर|| 1 आवली|| अंतर्मुहूर्त || सर्वतः स्तोक|| - | ||
नाम 1-13 अनादि सांत अनादि | |- | ||
गोत्र 1-13 अनादि सांत अनादि | | वेदनीय || 1-6|| अंतर्मुहूर्त || अर्ध पुद्गल परिवर्तन|| 1 समय|| अंतर्मुहूर्त || विशेषाधिक || अंतिम आवलीमें संचित अनंत | ||
|- | |||
| मोहनीय|| 1-10 || अंतर्मुहूर्त || अर्ध पुद्गल परिवर्तन|| 1 समय|| अंतर्मुहूर्त || विशेषाधिक|| 7-10 गुणस्थान वाले जीव | |||
|- | |||
| ज्ञानावरणी || 1-12 || अनादि सांत|| अनादि सांत || निरंतर || निरंतर || विशेषाधिक || 1-12 गुणस्थान वाले जीव | |||
|- | |||
| दर्शनावरणी ||1-12 || अनादि सांत|| अनादि सांत || निरंतर || निरंतर || विशेषाधिक || 1-12 गुणस्थान वाले जीव | |||
|- | |||
| अंतराय || 1-12 || अनादि सांत|| अनादि सांत || निरंतर || निरंतर || विशेषाधिक || 1-12 गुणस्थान वाले जीव | |||
|- | |||
| नाम || 1-13 || अनादि सांत|| अनादि सांत || निरंतर || निरंतर || विशेषाधिक || सयोगी केवली प्रमाण | |||
|- | |||
| गोत्र || 1-13 || अनादि सांत|| अनादि सांत || निरंतर || निरंतर || विशेषाधिक || सयोगी केवली प्रमाण | |||
|} | |||
<br> | |||
2. आदेश प्ररूपणा | 2. आदेश प्ररूपणा | ||
(दे. | (दे.<span class="GRef">धवला पुस्तक संख्या 15/47)</span> | ||
5. मूल प्रकृति उदीरणा स्थान ओघ प्ररूपणा | |||
( | <li><p class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> मूल प्रकृति उदीरणा स्थान ओघ प्ररूपणा</strong></p></li> | ||
<span class="GRef">(पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 3/6)</span>; <span class="GRef">(पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 4/222-226)</span>; <span class="GRef">(पंचसंग्रह / संस्कृत अधिकार संख्या 3/14)</span> <span class="GRef">(पंचसंग्रह / संस्कृत अधिकार संख्या 4/89-91)</span>; <span class="GRef">(शतक 29-32)</span>, <span class="GRef">(धवला पुस्तक संख्या 15/48-50)</span> | |||
संकेत - आ = आवली. | संकेत - आ = आवली. | ||
भंग सं. | {| class="wikitable" | ||
- | |+ | ||
1 आठों कर्म | |- | ||
2 आयु बिना 7 कर्म 1,2,4,5,6 अंतर्मुहूर्त शेष | ! भंग सं. !! स्थान का विवरण !! गुणस्थान !! गुण स्थानके अंत तक या कुछ काल शेष रहते !! एक जीवापेक्षया काल !! !! एक जीवापेक्षया अंतर !! - | ||
|- | |||
3 आयु व | ! !! !! !! !! जघन्य!! उत्कृष्ट !! जघन्य !! उत्कृष्ट | ||
4 आयु | |- | ||
- आयु | | 1 ||आठों कर्म|| न || अंत तक || 1,2 समय || 33 सागर-1 आवली|| 1 आवली || अंतर्मुहूर्त | ||
5 नाम व गोत्र=2 कर्म 12 | |- | ||
- नाम व गोत्र=2 कर्म 13 | | 2|| आयु बिना 7 कर्म || 1,2,4,5,6 || अंतर्मुहूर्त शेष रहने पर|| 1,2 समय|| 1 आवली|| क्षुद्र भव-1 आवली|| 33 सागर-1 आवली | ||
- - 14 अंत तक | |- | ||
भंग सं. | | -|| - || 3|| -|| यह गुण स्थान नहीं होता || -|| -|| - | ||
- - - - जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट | |- | ||
1 आयु, मोह, वेदनीयके बिना 5 कर्म 11-12 - 1 समय अंतर्मुहूर्त 1 समय 6 मास सर्वतःस्तोक | | 3|| आयु व वेदनीय बिना 6|| 7-10 || अंत तक || 1,2 समय || अंतर्मुहूर्त || अंतर्मुहूर्त || अर्ध पुद्गल परिवर्तन | ||
2 नाम गोत्र 2 कर्म 13 - सर्वदा सर्वदा निरंतर निरंतर | |- | ||
3 आयु | | 4|| आयु वेदनीय व मोह के बिना-5 कर्म|| 10|| आवली शेष रहने पर|| 1,2 समय || अंतर्मुहूर्त || अंतर्मुहूर्त || अर्ध पुद्गल परिवर्तन | ||
4 आयु बिना 7 कर्म 1-6 - सर्वदा सर्वदा निरंतर निरंतर अनंत गुणे | |- | ||
5 सर्व ही 8 कर्म 1-6 - सर्वदा सर्वदा निरंतर निरंतर | | -|| आयु वेदनीय व मोह के बिना-5 कर्म|| 11-12|| अंत तक || 1,2 समय || अंतर्मुहूर्त || अंतर्मुहूर्त || अर्ध पुद्गल परिवर्तन | ||
|- | |||
| 5|| नाम व गोत्र=2 कर्म|| 12 || आवली शेष रहने पर|| अंतर्मुहूर्त || कुछ कम 1 पूर्व कोडि || निरंतर || निरंतर | |||
|- | |||
| -|| नाम व गोत्र=2 कर्म|| 13 || अंत तक|| अंतर्मुहूर्त || कुछ कम 1 पूर्व कोडि || निरंतर || निरंतर | |||
|- | |||
| -|| -|| 14|| अंत तक|| -|| -|| -|| - | |||
|} | |||
<br> | |||
{| class="wikitable" | |||
|+ | |||
|- | |||
! भंग सं. !! स्थान का विवरण !! गुणस्थान !! गुण स्थानके अंत तक या कुछ काल शेष रहते !! नाना जीवापेक्षया काल !! !! नाना जीवापेक्षया अंतर !! !! अल्प बहुत्व | |||
|- | |||
! - !! - !! - !! - !! जघन्य !! उत्कृष्ट !! जघन्य !! उत्कृष्ट !! - | |||
|- | |||
| 1|| आयु, मोह, वेदनीयके बिना 5 कर्म || 11-12 || -|| 1 समय|| अंतर्मुहूर्त || 1 समय || 6 मास ||सर्वतःस्तोक | |||
|- | |||
| 2|| नाम गोत्र 2 कर्म|| 13|| -|| सर्वदा|| सर्वदा|| निरंतर || निरंतर || संख्यात गुणे | |||
|- | |||
| 3|| आयु वेदनीय बिना 6 कर्म|| 7 || -|| सर्वदा|| सर्वदा|| निरंतर || निरंतर || संख्यात गुणे | |||
|- | |||
| 4 || आयु बिना 7 कर्म || 1-6 || - || सर्वदा|| सर्वदा|| निरंतर || निरंतर || अनंत गुणे | |||
|- | |||
| 5|| सर्व ही 8 कर्म|| 1-6 || - || सर्वदा|| सर्वदा|| निरंतर || निरंतर || संख्यात गुणे | |||
|} | |||
<noinclude> | <noinclude> |
Latest revision as of 22:23, 18 August 2024
कर्म के उदय की भाँति उदरणा भी कर्मफल की व्यक्तता का नाम है परंतु यहाँ इतनी विशेषता है कि किन्हीं क्रियाओं या अनुष्ठान विशेषों के द्वारा कर्म को अपने समय से पहले ही पका लिया जाता है। या अपकर्षण द्वारा अपने काल से पहले ही उदय में ले आया जाता है। शेष सर्व कथन उदयवत् ही जानना चाहिए। कर्म प्रकृतियों के उदय व उदीरणा की प्ररूपणाओं में भी कोई विशेष अंतर नहीं है। जो है वह इस अधिकार में दर्शा दिया गया है।
- उदीरणा का लक्षण व निर्देश
- उदीरणा का लक्षण
- उदीरणा के भेद
- उदय व उदीरणा के स्वरूप में अंतर
- उदीरणा से तीव्र परिणाम उत्पन्न होते हैं
- उदीरणा उदयावली की नहीं सत्ता की होती है
- उदयगत प्रकृतियों की ही उदीरणा होती है
• बध्यमान आयु की उदीरणा नहीं होती - देखें आयु - 6
• उदीरणा की आबाधा - देखें आबाधा - 2.
- कर्म प्रकृतियों की उदीरणा व उदीरणा स्थान प्ररूपणाएँ
- उदय व उदीरणा की प्ररूपणाओं में कथंचित् समानता व असमानता
- उदीरणा व्युच्छित्ति की ओघ आदेश प्ररूपणा
- उत्तर प्रकृति उदीरणा की ओघ प्ररूपणा (सामान्य व विशेष कालकी अपेक्षा)
- एक व नाना जीवापेक्षा मूल प्रकृति उदीरणा की ओघ आदेश प्ररूपणा
- मूल प्रकृति उदीरणास्थान ओघ प्ररूपणा
• मूलोत्तर प्रकृतियों की सामान्य उदय स्थान प्ररूपणाएँ (प्रकृति विशेषता सहित उदयस्थानवत्)
• प्रकृति उदीरणा की स्वामित्व सन्निकर्ष व स्थान प्ररूपणा - देखें धवला पुस्तक संख्या 15/44-97
• स्थिति उदीरणा की समुत्कीर्तना, भंगविचय व सन्निकर्ष प्ररूपणा - देखें धवला पुस्तक संख्या 15/100-147
• अनुभाग उदीरणा की देश व सर्वघातीपना, सन्निकर्ष, भंगविचय व भुजगारादि प्ररूपणाएँ - देखें धवला पुस्तक संख्या 15/170-235
• भुजगारादि पदों के उदीरकों की काल, अंतर व अल्प बहुत्व प्ररूपणा- देखें धवला पुस्तक संख्या 15/50
• बंध व उदय व उदीरणा की त्रिसंयोगी प्ररूपणा - देखें उदय 7
- उदीरणा का लक्षण व निर्देश
उदीरणा का लक्षण
पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 3/3उदीरणा के भेद
धवला पुस्तक संख्या 15/43/5 उदय व उदीरणा के स्वरूप में अंतर
पंचसंग्रह/ प्राकृत अधिकार संख्या 3/3उदीरणा से तीव्र परिणाम उत्पन्न होते हैं
राजवार्तिक अध्याय संख्या 6/6/1-2/111/32 उदीरणा उदयावली की नहीं, सत्ता की होती है
धवला पुस्तक संख्या 15/44/1 उदयगत प्रकृतियोंकी ही उदीरणा होती है
पंचसंग्रह/ प्राकृत 473
.....भुंजणकालो उदओ उदीरणापक्कपाचणफलं।
= कर्मों के फल भोगने के काल को उदय कहते हैं और अपक्वकर्मों के पाचन को उदीरणा कहते हैं।
(प्र.सं./सं. 3/3-4)
धवला पुस्तक संख्या 15/43/7का उदीरणा णाम। अपक्वपाचणमुदीरणा। आवलियाए बाहिरट्ठिदिमादिं कादूण उवरिमाणं ठिदीणं बंधावलियवदिक्कंतपदेसग्गमसंखेज्जलोगपडिभागेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागेण वा ओक्कडिदूण उदयावलियाए देदि सा उदीरणा।
= प्रश्न-उदीरणा किसे कहते हैं। उत्तर-(अपक्व अर्थात्) नहीं पके हुए कर्मों को पकाने का नाम उदीरणा है। आवली (उदयावली) से बाहर की स्थिति को लेकर आगे की स्थितियों के, बंधावली अतिक्रांत प्रदेशाग्र को असंख्यातलोक प्रतिभाग से अथवा पल्योपम के असंख्यातवें भाग रूप प्रतिभाग से अपकर्षण करके उदयावली में देना, यह उदीरणा कहलाती है।
(धवला पुस्तक संख्या 6/1,9-8,4/214); (गोम्मट्टसार कर्मकांड/ जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 439/592/8)
पंचसंग्रह/ प्राकृत अधिकार संख्या 3/47/5उदीरणा नाम अपक्वपाचनं दीर्घकाले उदेष्यतोऽग्रनिषेकाद् अपकृष्याल्पस्थितिकाधस्तननिषेकेषु उदयावल्यां दत्वा उदयमुखेनानुभूय कर्मरूपं त्याजयित्वा पुद्गलांतररूपेण परिणमयतीत्यर्थः।
= उदीरणा नाम अपक्वपाचनका है। दीर्घकाल पीछे उदय आने योग्य अग्रिम निषेकोंको अपकर्षण करके अल्प स्थितिवाले अधस्तन निषेकोंमें या उदयावलीमें देकर, उदयमुख रूपसे उनका अनुभवकर लेनेपर वह कर्मस्कंध कर्मरूपको छोड़कर अन्य पुद्गलरूप से परिणमन कर जाता है। ऐसा तात्पर्य है। विशेष देखें [[ ]]- उदय 2/7
उदीरणा चउविहा-पयडि-ट्ठिदि-अणुभागपदेसउदीरणा चेदि।
= उदीरणा चार प्रकारकी है - प्रकृतिउदीरणा, स्थितिउदीरणा, अनुभागउदीरणा, और प्रदेशउदीरणा।
भुंजणकालो उदओ उदीरणापक्वपाचणकालं।
= कर्मका फल भोगनेके कालको उदय कहते हैं और अपक्व कर्मोंके पाचनको उदीरणा कहते हैं।
धवला पुस्तक संख्या 6/1,9-8,4/213/11उदय उदीरणाणं को विसेसो। उच्चदे-जे कम्मक्खंधा ओकड्डुक्कडुणादिपओगेण विणा ट्ठिदिक्खयं पाविदूण अप्पप्पणो फलं देंति; तेसिं कम्मखंधाणमुदओ त्ति सण्णा। जे कम्मक्खंधा महंतेसु ट्ठिदि-अणुभागेसु अवट्ठिदा ओक्कडिदूण फलदाइणो कीरंति तेसिमुदीरणा त्ति सण्णा, अपपक्वाचनस्य उदीरणाव्यपदेशात्।
= प्रश्न-उदय और उदीरणामें क्या भेद है। उत्तर-कहते हैं-जो कर्म-स्कंध अपकर्षण, उत्कर्षण आदि प्रयोगके बिना स्थिति क्षयको प्राप्त होकर अपना-अपना फल देते हैं, उन कर्मस्कंधोंकी `उदय' यह संज्ञा है। जो महान् स्थिति और अनुभागोंमें अवस्थित कर्मस्कंध अपकर्षण करके फल देनेवाले किये जाते हैं, उन कर्मस्कंधोंकी `उदीरणा' यह संज्ञा हैं, क्योंकि, अपक्व कर्म-स्कंध पाचन करनेको उदीरणा कहा गया है।
( कषायपाहुड़ सुत्त/मूल गाथा 59/पृष्ठ 465)
बाह्याभ्यंतरहेतूदीरणवशादुद्रिक्तः परिणामः तीवनात स्थूलभावात् तीव्र इत्युच्यते ।1। अनुदीरणप्रत्ययसंनिधानात् उत्पद्यमानोऽनुद्रिकक्तः परिणामो मंदनात् गमनात् मंदः इत्युच्यते।
= बाह्य और आभ्यंतर कारणोंसे कषायोंकी उदीरणा होनेपर अत्यंत प्रवृद्ध परिणामोंको तीव्र कहते हैं। इससे विपरीत अनुद्रिक्त परिणाम मंद हैं। अर्थात् केवल अनुदीर्ण प्रत्यय(उदय) के सन्निधानसे होनेवाले परिणाम मंद हैं।
णाणावरणीय-दंसणावरणीय-अंतराइयाणं मिच्छाइट्ठिमादिं कादूण जाव खीणकसाओ त्ति ताव एदे उदीरया। णवरि खीणकसायद्धाए समयाहियावलियसेसाए एदासिं तिण्णं पयडीणं उदीरणा वोच्छिण्णा।
= ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, और अंतराय तीन कर्मोंके मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय पर्यंत, ये जीव उदीरक हैं। विशेष इतना है कि क्षीण कषायके कालमें एक समय अधिक आवलीके शेष रहनेपर इन तीनों प्रकृतियोंकी उदीरणा व्युच्छिन्न हो जाती है। (इसी प्रकार अन्य 4 प्रकृतियोंकी भी प्ररूपणा की गयी है। तहाँ सर्वत्र ही उदय व्युच्छित्तिवाले गुणस्थानकी अंतिम आवली शेष रहनेपर उन-उन प्रकृतियोंकी उदीरणाकी व्युच्छित्ति बतायी है)।
पंचसंग्रह/ प्राकृत अधिकार संख्या 4/226 पृष्ठ 178अत्रापक्वपाचनमुदीरणेति वचनादुदयावलिकायां प्रविष्टायाः कर्मस्थितेर्नोदीरणेति मरणावलिकायामायुषः उदीरणा नास्ति।
= `अपक्वपाचन उदीरणा है' इस वचनपर-से यह बात जानी जाती है कि उदयावलीमें प्रवेश किये हुए निषेकों या कर्मस्थितिकी उदीरणा नहीं होती है। इसी प्रकार मरणावलीके शेष रहनेपर आयुकी उदीरणा नहीं होती है।
उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विज्जदि विसेसो। नोत्तण य इगिदालं सेसाणं सव्वपयडीणं।
= वक्ष्यमाण 41 प्रकृतियोंको छोड़कर (देखो आगे सारणी) शेष सर्व प्रकृतियोंके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है। विशेषार्थ - सामान्य नियम यह है कि जहाँपर जिस कर्मका उदय होता है, वहाँपर उस कर्मकी उदीरणा अवश्य होती है-किंतु इसमें कुछ अपवाद है। (देखो आगे सारणी)
(पंचसंग्रह/ संस्कृत अधिकार संख्या 5/442)
लब्धिसार | जीवतत्त्व प्रदीपिका / मूल या टीका गाथा संख्या व.भाषा 30/67/3पुनरुदयवतां प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशानां चतुर्णामुदीरको भवति स जीवः, उदयोदीरणयोः स्वामिभेदाभावात्।
= प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग जे उदयरूप कहे तिनिहीका यहु उदीरणा करनेवाला हो है जातै जाकैं जिनिका उदय ताकौं तिनिहोकी उदीरणा भी संभवै।।
कर्म प्रकृतियों की उदीरणा व उदीरणा स्थान प्ररूपणाएँ
उदय व उदीरणा की प्ररूपणाओं में कथंचित् समानता व असमानता
पंचसंग्रह/ प्राकृत 3/44-47उदीरणा व्युच्छित्ति की ओघ आदेश प्ररूपणा
उत्तर प्रकृति उदीरणा की ओघ प्ररूपणा
एक व नानाजीवापेक्षा मूलप्रकृति उदीरणाकी ओघ आदेश प्ररूपणा
मूल प्रकृति उदीरणा स्थान ओघ प्ररूपणा
उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विज्जइ विसेसो। मोत्तूण तिण्णि-ठाणं पमत्त जोई अजोई य ।44।
= स्वामित्व की अपेक्षा उदय और उदीरणामें प्रमत्त विरत, सयोगि केवली और अयोगिकेवली इन तीन गुणस्थानोंको छोड़कर कोई विशेष नहीं है।
(गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 278/407); (कर्मस्त 38-39)
पंचसंग्रह/ प्राकृत अधिकार संख्या 5/473उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विज्जदि विसेसो। मोत्तूण य इगिदालं सेसाणं सव्वपयडीणं ।473।
= वक्ष्यमाण इकतालीस प्रकृतियोंको छोड़कर शेष सर्व प्रकृतियोंके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है।
(पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 5/473-475); (गोम्मट्टसार कर्मकांड/ मूल गाथा संख्या 278-281); (कर्मस्त 39-43); ( पंचसंग्रह/ संस्कृत अधिकार संख्या 3/56-60)।
अपवाद संख्या अपवाद गत 41 प्रकृतियाँ 1 साता, असाता व मनुष्यायु इन तीनोंकी उदय व्युच्छित्ति 14 वें गुणस्थानमें होती है पर उदीरणा व्युच्छित्ति 6 ठे में। 2 मनुष्यगति, पंचेंद्रिय जाति, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यश, तीर्थंकर, उच्चगोत्र इन 10 प्रकृतियोंकी उदय व्युच्छित्ति 14 वें में होती है पर उदीरणा व्युच्छित्ति 13 वें में। 3 ज्ञानावरण 5, दर्शनावरण 4, अंतराय 5, इन 14 की उदय व्युच्छित्ति 12 वें में एक आवली काल पश्चात् होती है और उदीरणा व्युच्छित्ति तहाँ ही एक आवली पहले होती है। 4 चारों आयुका उदय भवके अंतिम समय तक रहता है परंतु उदीरणाकी व्युच्छित्ति एक आवली काल पहले होती है। 5 पाँचों निद्राओं का शरीर पर्याप्त पूर्ण होनेके पश्चात् इंद्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने तक उदय होता है उदीरणा नहीं। 6 अंतरकरण करनेके पश्चात् प्रथम स्थितिमें एक आवली शेष रहनेपर-उपशम सम्यक्त्व सन्मुखके मिथ्यात्वका; क्षायिक सन्मुखके सम्यक् प्रकृतिका; और उपशम श्रेणी आरूढ़के यथायोग्य तीनों वेदोंका (जो जिस वेदके उदयसे श्रेणी चढ़ा है उसके उस वेदका) इन सात प्रकृतियोंका उदय होता है उदीरणा नहीं। 7 जिन प्रकृतियोंका उदय 14 वें गुणस्थान तक होता है उनकी उदीरणा 13 वें तक होती है (देखो ऊपर नं. 2) ये सात अपवादवाली कुल प्रकृतियाँ 41 हैं - इनको छोड़कर शेष 107 प्रकृतियोंकी उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई भेद नहीं।
ये सात अपवादवाली कुल प्रकृतियाँ 41 हैं - इनको छोड़कर शेष 107 प्रकृतियोंकी उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई भेद नहीं।
( पंचसंग्रह/ प्राकृत / परिशिष्ट/पृष्ठ 748); (पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 3/44-48,56-60); (गोम्मट्टसार कर्मकांड 278-281/407-410) उदीरणा योग्य प्रकृतियाँ-उदय योग्यवाली ही = 122 संकेत = प्रकृतियों के छोटे नाम (देखो उदय 6/1)
उदीरणा योग्य प्रकृतियाँ गुणस्थान व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ अनुदीरणा पुनः उदीरणा उदीरणा योग्य अनुदीरणा पुनः उदीरणा कुल उदीरणा 1 आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, मिथ्यात्व=5 तीर्थं., आहा. द्विक सम्य. मिश्र=5 - 122 5 - 11 2 1-4 इंद्रिय, स्थावर, अनंतानुबंधी चतुष्क=9 नारकानुपूर्वी=1 - 112 1 - 111 3 मिश्र मोहनीय=1 मनु. तिर्य.देव-आनु.=3 मिश्रमोह=1 102 3 1 100 4 अप्र. चतु., वैक्रि. द्वि., नरकत्रिक, देवत्रिक, मनु.तिर्य. आनु., दुर्भग, अनादेय, अयश=17 - चारों. आनु., सम्य.=5 99 5 5 104 5 प्रत्या. चतु., तिर्य. आयु. नीच गोत्र, तिर्य. गति, उद्योत=8 - आहारक द्विक=2 79 - 2 81 7 सम्य. मोह, अर्धनाराच, कीलित, सृपाटिका=4 - - 73 - - 73 8/1 हास्य, रति, भय, जुगुप्सा=4 - - 69 - - 69 8/अंत अरति, शोक=2 - - 65 - - 65 9/15 सवेद भागमें तीनों वेद=3 - - 63 - - 63 9/6 क्रोध=1 - - 60 - - 60 9/7 मान=1 - - 59 - - 59 9/8 माया=1 - - 58 - - 58 9/9 लोभ (बादर)=X - - 57 - - 57 10 लोभ (सूक्ष्म)=1 - - 57 - - 57 11 वज्र नाराच, नाराच=2 - - 56 - - 56 12/i निद्रा, प्रचला=2 - - 54 - - 55 12/ii 5 ज्ञानावरण, 4 दर्शनावरण, 5 अंतराय=14 - - 52 - - 52 13 (नाना जीवापेक्षा) :- वज्रऋषभनाराच, निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर, प्रशस्त-अप्रशस्त, विहायो, औदा.द्वि., तैजस, कार्माण, 6 संस्थान, वर्ण रस, गंध, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रत्येक शरीर=29 मनुष्यगति, पंचेंद्रियजाति, सुभग, त्रिस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यश, तीर्थंकर, उच्चगोत्र=10 (39) - तीर्थंकर=1 38 - 1 38 14 x x x x x x x
आदेश प्ररूपणा
यथा योग्य रूपसे उदयवत् जान लेना, केवल ओघवत् 6ठे, 13वें व 14वें गुणस्थानमें निर्दिष्ट अंतर डाल देना।
पंचसंग्रह/ प्राकृत अधिकार संख्या 3/6-7); ( राजवार्तिक अध्याय संख्या 9/36/9/631); (पंचसंग्रह / अधिकार संख्या 3/14-16)
गुणस्थान कुल उदीरणा योग्य प्रकृत गुण स्थानकी अवस्थामें कभी भी प्रकृत गुण स्थानमें अन्यतम प्रकृति की मरण कालसे 1 आवली पूर्व - कुल प्रकृति विशेष कुल प्रकृति विशेष कुल प्रकृति विशेष 1 18 9 1-4 इंद्रिय जातिआतप. स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त साधारण 9 अनंतानुबंधी चतुष्क, चारों आनुपूर्वी. मनु-मनुष्यायु 1 मनुष्यायु 2 9 - - 9 अनंतानुबंधी चतुष्क, चारों. आनुपूर्वी, मनु. मनुष्यायु - - 3 1 1 सम्यग्मिथ्यात्व - - - - 4 18 8 अप्रत्याख्यानावरण 4, नरक व देवगति वैक्रियक शरीर व अंगोपांग 5 दुर्भग, अनादेय, अयश, सम्यक प्रकृति, मनुष्यायु 7 चारों आनुपूर्वी, मनुष्य व नरक आयु 5 11 8 प्रत्याख्यानावरण 4, तिर्यंचगति, उद्योत नीचगोत्र 2 सम्यक प्रकृति मनुष्यायु 2 मनुष्य व तिर्यंच आयु 6 9 5 निद्रा निद्रा, प्रचला, प्रचला, स्त्यानगृद्धि साता असाता 4 सम्यक् प्रकृति, मनुष्यायु, आहारक शरीर व अंगोपांग 3 मनुष्यायु, आहारक शरीर व अंगोपांग 7 4 3 नीचेवाली तीनों संहनन 1 सम्यक्प्रकृति - - 8 6 6 हास्य, रति, अरति, शोक भय, जुगुप्सा - - - - 9 6 6 तीनों वेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया - - - - 10 1 1 संज्वलन लोभ - - - - 11 2 2 वज्र नाराच, नाराच संहनन - - - - 12i 2 - X - - 2 निद्रा, प्रचला 12/ii 14 - - - - 14 5 ज्ञानावरण, 4 दर्शनावरण, 5 अंतराय 13 38 38 मनुष्यगति, पंचेंद्रिय जाति, औदारिक शरीर व अंगोपांग तैजस, व कार्मण शरीर, छहों संस्थान, वज्रऋषभ नाराच, संहनन, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, उच्छ्वास, प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, यश, निर्माण, उच्चगोत्र, तीर्थंकर - - - - 14 X X X X X X X 1. ओघ प्ररूपणा (पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 4/222-226); (पंचसंग्रह / संस्कृत अधिकार संख्या 4/86-91), (शतक 29-32); (धवला पुस्तक संख्या 15/44)
नाम प्रकृति गुणस्थान एक जीवापेक्षया काल एक जीवापेक्षया अंतर नाना जीवापेक्षया अल्प बहुत्व जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट अल्प बहुत्व विशेष का प्रमाण आयु-(केवल आवली काल अवशेष रहते) 1 1 या 2 समय 1 आवली कम 33 सागर 1 आवली अंतर्मुहूर्त सर्वतः स्तोक - स्व स्थिति के अंत तक 2-6 1 या 2 समय 1 आवली कम 33 सागर 1 आवली अंतर्मुहूर्त सर्वतः स्तोक - वेदनीय 1-6 अंतर्मुहूर्त अर्ध पुद्गल परिवर्तन 1 समय अंतर्मुहूर्त विशेषाधिक अंतिम आवलीमें संचित अनंत मोहनीय 1-10 अंतर्मुहूर्त अर्ध पुद्गल परिवर्तन 1 समय अंतर्मुहूर्त विशेषाधिक 7-10 गुणस्थान वाले जीव ज्ञानावरणी 1-12 अनादि सांत अनादि सांत निरंतर निरंतर विशेषाधिक 1-12 गुणस्थान वाले जीव दर्शनावरणी 1-12 अनादि सांत अनादि सांत निरंतर निरंतर विशेषाधिक 1-12 गुणस्थान वाले जीव अंतराय 1-12 अनादि सांत अनादि सांत निरंतर निरंतर विशेषाधिक 1-12 गुणस्थान वाले जीव नाम 1-13 अनादि सांत अनादि सांत निरंतर निरंतर विशेषाधिक सयोगी केवली प्रमाण गोत्र 1-13 अनादि सांत अनादि सांत निरंतर निरंतर विशेषाधिक सयोगी केवली प्रमाण
2. आदेश प्ररूपणा (दे.धवला पुस्तक संख्या 15/47)
(पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 3/6); (पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 4/222-226); (पंचसंग्रह / संस्कृत अधिकार संख्या 3/14) (पंचसंग्रह / संस्कृत अधिकार संख्या 4/89-91); (शतक 29-32), (धवला पुस्तक संख्या 15/48-50) संकेत - आ = आवली.
भंग सं. स्थान का विवरण गुणस्थान गुण स्थानके अंत तक या कुछ काल शेष रहते एक जीवापेक्षया काल एक जीवापेक्षया अंतर - जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट 1 आठों कर्म न अंत तक 1,2 समय 33 सागर-1 आवली 1 आवली अंतर्मुहूर्त 2 आयु बिना 7 कर्म 1,2,4,5,6 अंतर्मुहूर्त शेष रहने पर 1,2 समय 1 आवली क्षुद्र भव-1 आवली 33 सागर-1 आवली - - 3 - यह गुण स्थान नहीं होता - - - 3 आयु व वेदनीय बिना 6 7-10 अंत तक 1,2 समय अंतर्मुहूर्त अंतर्मुहूर्त अर्ध पुद्गल परिवर्तन 4 आयु वेदनीय व मोह के बिना-5 कर्म 10 आवली शेष रहने पर 1,2 समय अंतर्मुहूर्त अंतर्मुहूर्त अर्ध पुद्गल परिवर्तन - आयु वेदनीय व मोह के बिना-5 कर्म 11-12 अंत तक 1,2 समय अंतर्मुहूर्त अंतर्मुहूर्त अर्ध पुद्गल परिवर्तन 5 नाम व गोत्र=2 कर्म 12 आवली शेष रहने पर अंतर्मुहूर्त कुछ कम 1 पूर्व कोडि निरंतर निरंतर - नाम व गोत्र=2 कर्म 13 अंत तक अंतर्मुहूर्त कुछ कम 1 पूर्व कोडि निरंतर निरंतर - - 14 अंत तक - - - -
भंग सं. स्थान का विवरण गुणस्थान गुण स्थानके अंत तक या कुछ काल शेष रहते नाना जीवापेक्षया काल नाना जीवापेक्षया अंतर अल्प बहुत्व - - - - जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट - 1 आयु, मोह, वेदनीयके बिना 5 कर्म 11-12 - 1 समय अंतर्मुहूर्त 1 समय 6 मास सर्वतःस्तोक 2 नाम गोत्र 2 कर्म 13 - सर्वदा सर्वदा निरंतर निरंतर संख्यात गुणे 3 आयु वेदनीय बिना 6 कर्म 7 - सर्वदा सर्वदा निरंतर निरंतर संख्यात गुणे 4 आयु बिना 7 कर्म 1-6 - सर्वदा सर्वदा निरंतर निरंतर अनंत गुणे 5 सर्व ही 8 कर्म 1-6 - सर्वदा सर्वदा निरंतर निरंतर संख्यात गुणे